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हत्या के बाद
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हत्या के बाद

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विक्रम खन्ना बड़ी मुश्किल से उस रेस्टोरेन्ट तक ही पहुंच सका।
डिनर का आर्डर देते वक्त अपने परिचित दो पुलिस वालों को भीतर दाखिल होते, दरवाजे के पास मेज पर बैठते और अपनी ओर सर हिलाते देखकर उसने राहत महसूस की।
उसे हत्यारा समझा जा रहा था- पेशेवर बदमाश परवेज आलम का बदमाशों और पुलिस दोनों को उसकी तलाश थी।
डिनर सर्व कर दिया गया। उसने खाना शुरू ही किया था बरसाती पहने एक युवती उसकी मेज पर आ रुकी। सामने कुर्सी पर बैठते ही उसका आर्डर सर्व कर दिया गया। जाहिर था अंदर आते ही उसने आर्डर दे दिया था।
-“मेरी ओर देखे बगैर ध्यान से मेरी बात सुनो।” वह खाना चबाती हुई धीरे से बोली- “मैं किरण वर्मा हूँ - आई.बी. की एजेंट। मुसीबत में हूँ। तुम्हारी मदद चाहिए।”
विक्रम को वह सच बोलती नजर आई। उसी के अंदाज में बोला- “ओ के। गो अहेड।”
फिर दिखाने के तौर पर खाना खाती युवती दबे स्वर में बोलती रही।
विक्रम भी खाना खाता हुआ गौर से सुनता और समझता रहा।
युवती ने अपना सैंडविच उठाकर उसमें दांत गड़ाए दिएर मुंह बनाते हुए वापस प्लेट में रख दिया। कॉफी खत्म की और उठकर दरवाजे की ओर बढ़ गई...।
विक्रम ने सैंडविच उठाकर वहीं दांत गड़ाए जहां युवती ने काटा था। जुबान पर कैप्सूल का स्पर्श महसूस हुआ। कैप्सूल मुंह में रोककर सैंडविच वापस रखा। मुंह में दबा टुकड़ा चबाया। कॉफी का घूँट लेकर रुमाल से मुंह पोछने के बहाने कैप्सूल उसमें उगलकर पैंट की टिकिट पॉकेट में रख लिया। वो कैप्सूल उसे स्थानीय आई.बी. हैडक्वार्टर्स पहुंचाना था।
अचानक बाहर दो फायरों की आवाज गूंजी। एक गोली खिड़की से आ टकराई... कांच टूटा चीख पुकार... भगदड़... दोनों पुलिस वाले रिवाल्वरे निकालते दरवाजे की ओर भागे.... एक साथ कई फायरों की गूँज... पुलिस वाले बाहर दौड़ गए....।
खुले दरवाजे से विक्रम ने युवती को एक कार की आड़ में नीचे गिरते देखा। बाहर अंधे में हो रही फायरिंग से साबित हुआ – किरण वर्मा ने सच बोला था।
अफरा तफरी और भगदड़ का फायदा उठाकर विक्रम तेजी से पिछले दरवाजे की ओर लपका गलियारे में कैप्सूल निकालकर चैक किया – सफेद पाउडर के बीच माइक्रोफिल्म का सिरा नजर आया कैप्सूल वापस जेब में रखकर गरदन घुमाई – एक आदमी को अपनी मेज पर प्लेटों में जूठन टटोलते देख उसे भूलकर विक्रम पिछला दरवाजा खोलकर बाहर निकला... दो कदम जाते ही सर पर किसी कठोर चीज का प्रहार हुआ... त्यौरकर गिरा... और होश गवां बैठा...।
गोली बारी के बीच किरण वर्मा का क्या हुआ? विक्रम पर हमला करने वाला कौन था। क्या विक्रम पुलिस और आलम भाइयों से बचकर कैप्सूल को उसके मुकाम तक पहुँचा पाया?

Languageहिन्दी
PublisherAslan eReads
Release dateJun 12, 2021
ISBN9789385898860
हत्या के बाद

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    हत्या के बाद - प्रकाश भारती

    हत्या के बाद

    प्रकाश भारती

    Aslan-Reads.png

    असलान रीड्स

    के द्वारा प्रकाशन

    असलान बिजनेस सॉल्यूशंस की एक इकाई

    बोरिवली, मुंबई, महाराष्ट्र, इंडिया

    ईमैल: hello@aslanbiz.com; वेबसाइट: www.aslanreads.com

    कॉपीराइट © 1987 प्रकाश भारती द्वारा

    ISBN 978-93-85898-86-0

    इस पुस्तक की कहानियाँ काल्पनिक है। इनका किसी के जीवन या किसी पात्र से कोई

    संबंध नहीं है। यह केवल मनोरंजन मात्र के लिए लिखी गई है।

    अत: लेखक एवं प्रकाशक इनके लिए जिम्मेदार नहीं है।

    यह पुस्तक इस शर्त पर विक्रय की जा रही है कि प्रकाशक की

    लिखित पूर्वानुमती के बिना इसे या इसके किसी भी हिस्से को न तो पुन: प्रकाशित

    किया जा सकता है और न ही किसी भी अन्य तरीके से, किसी भी रूप में

    इसका व्यावसायिक उपयोग किया जा सकता है।

    यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

    अंतर्वस्तु

    प्रकाश भारती का सिल्वर जुबली उपन्यास - हत्या के बाद

    हत्या के बाद

    ******

    प्रकाश भारती का सिल्वर जुबली उपन्यास

    हत्या के बाद

    जवान और इंतिहाई खूबसूरत किरण वर्मा से हुई उसकी मुलाकात की वजह से खुलेआम खूनखराबा हुआ । मगर वह न सिर्फ पुलिस से बल्कि संगठित अपराधों के एक बड़े दादा के आदमियों से भी खुद को, उस चक्कर में, बचाने में कामयाब हो गया । लेकिन उसका वो बचाव वक्ती था । उसके सिर पर दोनों खतरे मंडराते रहे और उसे हर पल बेहद खतरनाक दौर से गुजरते रहना पड़ा । क्योंकि उस खौफनाक सिलसिले की शुरूआत हुई थी एक पेशेवर बदमाश की 'हत्या के बाद'...।

    हत्या के बाद उपन्यासकार प्रकाश भारती का रोचक एवं तेज-रफ्तार उपन्यास

    ******

    हत्या के बाद

    परवेज आलम ने आखिरी कश लेकर सिगरेट का अवशेष सुनसान सड़क पर उछाल दिया । उसने अपनी बांयी कलाई ऊपर उठाकर, स्ट्रीट लाइट की रोशनी में, रिस्टवाच पर निगाह डाली ।

    बारह बजकर चौदह मिनट हुए थे ।

    'मुश्किल से दस मिनट बाद, वह अपनी ठुकाई और बेइज्जती का बदला ले चुका होगा ।' उसने मन-ही-मन कहा । साथ ही उसके तनावपूर्ण चेहरे पर पहले से मौजूद क्रोध और नफरत के मिले-जुले भाव और ज्यादा गहरे हो गए । जबड़े-भिंच गए और आंखें हिंसक ढंग से चमकने लगीं ।

    करीब महीने भर तक रात-दिन वह इंतकाम की आग में जलता रहा था । उस दौरान, बिस्तर से उठ पाने में असमर्थ होने के कारण कुछ कर पाना तो उसके वश की बात नहीं थी । अलबत्ता हालचाल पूछने आए प्रत्येक व्यक्ति के सामने वह बाकायदा ऐलान कर चुका था कि, स्वस्थ होते ही, अपनी धुनाई करने वाले से बदला जरूर लेगा ।

    उस हरामजादे को जिंदा नहीं छोडूंगा ! वह अपनी पैंट की दांयी जेब में पड़ी रिवॉल्वर को टटोलता हुआ बड़बड़ाया-तमाम गोलियां साले की छाती में उतार दूँगा !

    उसकी मंजिल ज्यादा दूर नहीं थी ।

    वह तनिक ठिठका फिर बायीं ओर पतली-सी अंधेरी गली में मुड़ गया । दो सड़कों को परस्पर मिलाने वाली वो गली लम्बी होने के बावजूद शार्टकट का काम करती थी । लेकिन उसमें दोनों ओर काफी पुराने बने मकानों के पिछवाड़े वाले हिस्से थे । उन मकानों की छतों से बरसाती पानी की निकासी वाले परनाले भी उसी गली में गिरते थे । न तो वहां रोशनी का कोई इंतजाम था और न ही उसकी सफाई की ओर किसी का ध्यान जाता था । यही वजह थी कि दिन में भी उधर से बहुत ही कम लोग गुजरते थे ।

    लेकिन परवेज आलम को इससे कोई मतलब नहीं था । वह आगे बढ़ता रहा ।

    वह अपने अंदर हत्या करने लायक मुनासिब हौसला जुटता महसूस कर रहा था ।

    वह ड्रग एडिक्ट नहीं था । लेकिन इस खास मौके पर उसने जानबूझकर 'फिक्स' लिया था । शायद इसीलिए वह अजीब-सी बेफिक्री महसूस कर रहा था । जोकि असल में उसकी लापरवाही थी ।

    अगर ऐसा न होता तो अपने पीछे आ रहे काले सूट वाले आदमी का आभास उसने अवश्य पा जाना था ।

    उस आदमी की चाल अपेक्षाकृत तेज थी और प्रत्यक्षतः वह भी पूर्णतया सतर्क प्रतीत नहीं होता था ।

    यह ठीक था कि अपने कदमों से आहट न होने देने की पूरी कोशिश वह कर रहा था । लेकिन अपना पीछा किए जाने से वह भी अनजान था ।

    उसके गली में मुड़ने के चंद ही क्षणोपरांत, एक अन्य आदमी गली के दहाने पर आ पहुंचा था । उसकी सांसें उखड़ी हुई थीं । नाक और आंखों से पानी वह रहा था । चेहरे पर बेहद बेचैनी और आंतरिक पीड़ा के गहन भाव थे । उसके हाथ-पैरों में हल्का-सा कम्पन था ।

    कुल मिलाकर उसकी हालत दयनीय थी ।

    वह गली के सिरे पर दीवार का सहारा लिए यूं खड़ा हो गया मानों उसके जिस्म की सारी ताकत चुक गई थी । एक इंच भी और चल पाना उसके वश में नहीं था । अंधेरे का हिस्सा बना खड़ा मिचमिचाती आंखों से वह अपार विवशतापूर्वक उस तरफ ताकता रहा जिधर काले सूटवाला गया था ।

    उन दोनों की मौजूदगी से बेखबर परवेज अपनी ही धुन में चला जा रहा था ।

    लगभग आधी गली वह पार कर चुका था ।

    तब तक, अपने कोट की जेबों में हाथ घुसेड़े, काले सूट वाला भी उसके एकदम पास जा पहुंचा था ।

    सहसा, किसी अज्ञात प्रेरणावश, परवेज ने पीछे की ओर पलटना चाहा । मगर कामयाब नहीं हो सका ।

    काले सूट वाला पहले ही अपना दायां हाथ कोट की जेब से बाहर निकाल चुका था । उसका हाथ ऊपर उठा, उसमें थमें रिवॉल्वर से फायर हुआ और गोली परवेज की खोपड़ी फाड़ती हुई गुजर गई ।

    सब कुछ पलक झपकने जितनी देर में हो गया ।

    परवेज मर चुका था ।

    उसका बेजान जिस्म औंधे मुंह नीचे जा गिरा ।

    काले सूट वाला उसकी लाश की बगल से गुजरकर, दबे पांव तेजी से, सीधा गली के दूसरे सिरे की ओर दौड़ गया ।

    गली में फायर की आवाज जोर से गूंजी थी ।"

    गली के दहाने के पास अंधेरे में खड़ा हांफता आदमी इस बुरी तरह चौंका कि तुरंत सामान्य हो गया ।

    एक पल के लिए वह किंकर्त्तव्यविमूढ़-सा खड़ा रहा । फिर उधर देखे बगैर, जिधर से फायर की आवाज आई थी, वह गली से निकला । सुनसान सड़क पर कुछ दूर दौड़ा, फिर एक अन्य अंधेरी गली में मुड़ा और फिर अंधाधुंध भागता चला गया ।

    परवेज की लाश गली में उसी तरह पड़ी रही ।

    वह किसी की हत्या करने जा रहा था मगर न जाने किसने उसी की हत्या कर डाली थी ।

    ******

    विक्रम खन्ना ने सावधानीवश आस-पास देखा फिर अनायास ही उसकी निगाहें रेस्टोरेंट के प्रवेश-द्वार की ओर उठ गईं ।

    सब-इंस्पेक्टर चमनलाल और असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर इकबालसिंह भीतर दाखिल हो रहे थे ।

    उन्होंने विक्रम की ओर देखकर सिर हिलाया ।

    विक्रम समझ नहीं सका कि इस तरह वे अपनी वहां मौजूदगी का उसे अहसास दिलाना चाहते थे या उसे डिनर खत्म कर लेने का संकेत कर रहे थे ।

    बहरहाल जो भी था, हालात को देखते हुए वो उनकी शराफत थी या फिर विक्रम के कुलीग रह चुकने का लिहाज कि वे उससे थोड़े फासले पर दरवाजे के पास ही एक मेज पर बैठ गए और कॉफी मंगाकर चुस्कियां लेने लगे ।

    विक्रम जानता था, इन हालात में अगर उसके स्थान पर कोई और होता तो उन दोनों ने ऐसा नहीं करना था । उस 'कोई और' ने पुलिस को देखते ही भागने की कोशिश करनी थी और इस प्रयास में पुलिस की गोलियों का शिकार हो जाना था ।

    हालांकि रेस्टोरेंट में रश था और ग्राहकों की भीड़ का फायदा उठाकर वहां से निकलने की कोशिश की जा सकती थी । लेकिन ऐसा कुछ करने का इरादा विक्रम का नहीं था ।

    उसने उन दोनों की ओर सिर हिलाकर उन्हें आश्वस्त कर दिया कि खाना खत्म करते ही बिना किसी हीलो-हुज्जत उनके साथ चल देगा ।

    इसलिए नहीं कि खुद विक्रम भूतपूर्व एस० आई० था । उन लोगों का सहकर्मी रह चुका था । और इस तरह उनके साथ सहयोग करना चाहता था । या फिर रेस्टोरट के मालिक को, जोकि बुनियादी तौर पर एक अच्छा आदमी था, किसी झंझट में फंसाना नहीं चाहता था । बल्कि इसलिए कि उन दोनों के साथ जाने में ही उसकी सलामती था । सिर्फ उसी सूरत में वह खुद को वन पीस रख सकता था ।

    क्योंकि हालात बेहद खराब थे ।

    विक्रम को हत्यारा समझा जा रहा था । और यह उसकी खुशकिस्मती ही थी कि पुलिस उस तक पहले आ पहुंची थी । वरना उसी इलाके में आफताब आलम और जहूर आलम नामक दो भाई भी अपने आदमियों सहित उसे ढूंढ़ रहे थे । और उनसे मुलाकात का मतलब था-मारामारी ।

    अंजाम चाहे जो भी होता लेकिन उनसे मुकाबला वह कर सकता था । क्योंकि खाली हाथ होने की बजाय उस के पास भी बत्तीस बोर की रिवॉल्वर थी । और काफी हद तक अचूक निशाना भी वह लगा सकता था ।

    मगर पुलिस के साथ इस ढंग से निपट पाना नामुमकिन था ।

    विक्रम इस असलियत से बखूबी वाकिफ था कि उसकी जगह अगर कोई और होता तो चमनलाल और इकबाल सिंह ने खाना खत्म किए जाने का इंतजार किए बगैर उस पर टूट पड़ना था । विक्रम इस मामले में अपवाद था । क्योंकि अपनी नौकरी से इस्तीफा देने से पहले तक वह ईमानदार और कर्तव्यपरायण पुलिस अफसर रहा था । कानून की हिफाजत करना उसका मजहब था और अपनी वर्दी की इज्जत करना सबसे पहला और अहम फर्ज । लेकिन हालात ने उसे कानून की हिफाजत करने की खातिर कानून अपने हाथ में लेने पर मजबूर कर दिया था । जोकि बुनियादी तौर पर उसके उसूलों के खिलाफ था । इसलिए उसने नौकरी से इस्तीफा दे दिया । (देखिए पूर्व प्रकाशित उपन्यास-मेरा इंसाफ) ।

    वह फैसला कर चुका था कि जरायम पेशा लोगों के बीच रहकर उनसे उन्हीं के ढंग से निपटकर कानून की अलग तरह से खिदमत करेगा । पुलिस की वर्दी सही तरीके से काम करने के लिए प्रेरित करती थी और उसे कानून की सीमा में रहकर अपना फर्ज अदा करना पड़ता था । जबकि उसका जाती तजुर्बा था कि जरामय पेशा, खास तौर पर आर्गेनाइज्ड क्राइम से सम्बन्धित, लोगों से उन्हीं के तौर-तरीकों से निपटना ज्यादा आसान था । क्योंकि अपनी साधन-सम्पन्नता की वजह से ऐसे लोगों की जड़ें बहुत गहरी और पहुंच बहुत ऊंची हुआ करती है । वे लोग बड़े-बड़े अफसरों को आसानी से करेप्ट करके अपने साथ मिला लेते हैं । नतीजतन ईमानदार मातहत उनके खिलाफ कुछ भी नहीं कर पाते । और अगर मातहत ने ज्यादा हौसलामंदी और होशियारी दिखानी चाही तो उसे बड़ी सफाई से हमेशा के लिए ठिकाने तक लगा दिया जाता है ।

    विक्रम ने चोर निगाहों से अपने दोनों पुराने साथियों की ओर देखा । प्रत्यक्षतः वे उसकी तरफ देखते नजर नहीं आते थे । मगर विक्रम जानता था कि उसकी ओर से जरा भी गाफिल वे नहीं थे । वैसे खास जल्दी में भी वे नहीं थे । क्योंकि बाहर बारिश हो रही थी और सर्दी भी काफी थी । जबकि अन्दर वे कुछ देर आराम से बैठ सकते थे ।

    वे दोनों हालांकि अपनी वर्दियां नहीं पहने थे । फिर भी उन्हें देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि वे पुलिसमैन थे ।

    विक्रम ने चोर निगाहों से ही ताकते हुए जानने की कोशिश की कि बावर्दी न होने के बावजूद उन्हें किसने और पहचाना था और पहचानने के बाद उस पर क्या प्रतिक्रिया हुई थी ।

    उसने देखा, दूर कोने में दीवार के साथ पीठ सटाए बैठे बालकिशन का चेहरा सफेद पड़ गया था । माथे पर पसीने की बूंदें झलक रही थीं । उसका ध्यान अपने खाने की ओर नहीं था । ऐसा लगता था मानो एकाएक उसकी भूख गायब हो गई थी । वह रुस्तम जी भाई के लिए नम्बर के सटटे का धन्धा करने वालों में से था । उसकी निगाहें बारबार चमनलाल और इकबाल सिंह से होती हुई अपने साथी ईशर सिंह पर जा टिकती थीं । ईशर सिंह काउंटर पर खड़ा खाने का बिल चुका रहा था । उसकी जेबों में नगद सोलह हजार सात सौ रुपये और उनके हिसाब से संबंधित सट्टे की पर्चियां थीं । ये दोनों चीजें ठीक वक्त पर रुस्तम जी भाई के पास पहुंचनी निहायत जरूरी थीं । देरी होने या एक पैसा भी कम हो जाने की सूरत में वह कोई बहाना नहीं सुनता था ।

    जबकि पुलिस के अचानक आ पहुंचने की वजह से रकम और पर्चियों के साथ-साथ दोनों सट्टेबाजों के लिए भी खतरा पैदा हो गया था ।

    ईशर सिंह बिल का भुगतान कर चुका था । वह पलटकर बालकिशन की ओर बढ़ा ही था कि बालकिशन द्वारा किए गए संकेत का अर्थ समझते ही उसके चेहरे पर भी हवाइयां-सी उड़ती नजर आने लगीं । उसके सामने एक ही चारा था । वही उसने किया ।

    वह चुपचाप अपने साथी के पास आ बैठा और सिर झुकाकर बेमन से पुनः उसके साथ खाने में शामिल हो गया ।

    उन्हें बेवजह घबराते देखकर विक्रम मन-ही-मन हंसा । वह यकीनी तौर पर कह सकता था कि चमनलाल और इकबाल को उन सट्टेबाजों की मौजूदगी के बारे में पता तक नहीं था । वे सिर्फ उसकी वजह से वहां आए थे ।

    क्यों ?

    इसका सीधा-सा जवाब था-उस पर हत्या करने का शक किया जा रहा था ।

    परवेज आलम की हत्या का ।

    इंदरसेन नामक एक सीधे और शरीफ आदमी पर ख्वामख्वाह रोब मारकर परवेज रोज-रोज उसे परेशान करता था । विक्रम ने उसे सबक सिखाने के लिए उसकी इतनी तगड़ी धुनाई की कि उसे पूरा महीना भर बिस्तर पर पड़ा रहना पड़ा । इस बीच वह विक्रम से बदला लेने का बाकायदा ऐलान कर चुका था ।

    उसका यह ऐलान विक्रम तक भी कई मर्तबा पहुंचा था । जवाब में विक्रम ने हर दफा कहलवा भेजा था कि परवेज के लिए वह हर वक्त तैयार था । परवेज जब चाहे जहां चाहे और जैसे चाहे उससे भिड़ सकता था और अगर परवेज गलती से भी उसके सामने पड़ गया तो वह उसे छोड़ेगा नहीं ।

    ऐसा कुछ तो नहीं हो सका अलबत्ता पिछली रात किसी ने परवेज की हत्या जरूर कर दी ।

    परवेज की लाश जिस गली में पड़ी पाई गई वो विक्रम के फ्लैट से मुश्किल से डेढ़ फर्लांग दूर थी ।

    उसके दोनों भाइयों आफताब आलम और जहूर आलम के लिए इतना ही काफी था । बाकी बातों की जानकारी तो उन्हें थी ही । शेष दो और दो चार जोड़कर उन्होंने अपने ढंग से नतीजा निकाल लिया था ।

    मुश्किल से चार महीने के अर्से में परवेज की मौत उनके लिए दूसरी चोट थी ।

    उनके परवेज से बड़े मगर उन दोनों से छोटे भाई महताब आलम की भी बडे ही रहस्यपूर्ण ढंग से हत्या कर दी गई थी । हालांकि महताब से शेष तीनों भाई किसी किस्म का कोई रिश्ता नहीं रखते थे । फिर भी वह था तो उनका भाई ही । उसकी मौत का भी कम अफसोस उन्हें नहीं हुआ था । (देखिए पूर्व प्रकाशित उपन्यास-मेरा इंसाफ) ।

    परवेज क्योंकि सबसे छोटा था, इसलिए उससे बाकी दोनों को बड़ा स्नेह था । एक ओर तो उन्हें उसकी मौत का गहरा सदमा पहुंचा था । दूसरे, वे सोचने पर मजबूर हो गए कि क्या एक-एक करके उन चारों भाइयों को ठिकाने लगाने की कोई तगड़ी साजिश अमल में लाई जा रही थी ।

    यही वजह थी कि उन्होंने पूरे शहर में बाकायदा जाल फैला दिया था ।

    उनका वह जाल इतना मजबूत था कि अपने बचाव में भागकर विक्रम सिर्फ उस रेस्टोरेंट तक ही पहुंच सका ।

    मानो बलि का बकरा आखिरी दफा भरपेट खाना चाहता था ।

    विक्रम ने धीरे से अपनी गर्दन को झटका दिया ।

    वह एक प्रकार से खुश था कि चमनलाल और इकबाल सिह ने, मरहूम परवेज के भाइयों से पहले, उसे ढूंढ़ लिया था । वैसे उसका अनुमान था कि अगर वह परवेज के भाइयों के सामने पड़ जाता तो उन्होंने भी उसे देखते ही शूट नहीं कर देना था । क्योंकि दूसरे क्षेत्रों की तरह आर्गनाइज्ड क्राइम की दुनिया में भी भारी तब्दीलियां आ चुकी थीं । बेहद जरूरी होने पर ही गैंग शूटिंग का सहारा लिया जाता था । और ऐसा भी सिर्फ उसी सूरत में होता था जब किसी भारी बखेड़े को निपटाने का और कोई चारा नहीं रहता था ।

    यही इन्तकाम या बदला लेने के मामलात पर लागू होता था । बदला लेने की खातिर बड़ा खतरा तभी उठाया जाता था जबकि कारणवश ऐसा करना बेहद जरूरी हो जाता था । अगर कानून द्वारा भी वैसी ही सजा दिलाई जा सकती थी तो उसी का सहारा लेने को तरजीह दी जाती थी ।

    परवेज के भाइयों ने भी यही किया था । एक ओर तो उन्होने परवेज की हत्या के मामले में पुलिस में विक्रम की नामजद रिपोर्ट कर दी थी । दूसरी ओर, वे खुद भी जोर-शोर से उसे तलाश कर रहे थे । असल

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