ओपन वॉर
By प्रकाश भारती
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एंबेसेडर कार में चार पुलिस वालों के अलावा पांचवा था राकेश मोहन - पिछली सीट पर दो पुलिस अफसरों के बीच फंसा बैठा। उसे पुलिस हैडक्वार्टर्स ले जाया जा रहा था - इंटेरोगेशन के लिए। उसकी दोहरे फर्श वाली बेंटले कार से नेपाल से लायी सौ करोड़ की हेरोइन बरामद हुई थी...।
पुलिस कार का पीछा कर रही मर्सीडीज कुछेक सैकेंड एंबेसेडर की साइड में रही और डिग्गी पर अजीब सी चीज फेंककर तेजी से आगे दौड़ गई...।
इससे पहले कि पुलिस वाले कुछ समझ पाते...।
भयंकर विस्फोट! आग और धुएं का विशाल गोला आसमान की ओर लपका...। पुलिस कार के पिछले हिस्से के परखच्चे उड़ गए।
पिछली सीट पर मौजूद राकेशमोहन की सिर्फ टांगे ही बची... उसके शरीर का ऊपरी भाग खून से सने मांस के लोथड़े में बदल गया। दोनों पुलिस अफसरों के जिस्म दो हिस्सों में बंट गए...।
आग की लपटों में घिरा कार का अगला भाग शेष कार से अलग होकर राकेट की तरह पेड़ से जा टकराया था...।
दिन दहाड़े खुले आम पांच आदमियों को बम विस्फोट में उड़ा दिया गया...।
पुलिस विभाग में हड़कंप!
शहर में दहशत और सनसनी!
सबकी जुबान पर दो ही सवाल थे- किसने किया? क्यों किया?
यह शुरुआत थी स्थानीय अंडरवर्ल्ड के बेताज बादशाह दो शैतान भाइयों और एक विदेशी डॉन के बीच छिड़ी खूनी जंग की... जिसका मुंहतोड़ जवाब दिया क्राइम ब्रांच के अफसरों की स्पेशल टीम ने!!
(संगठित अपराध जगत की रक्त रंजित गाथा)
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Book preview
ओपन वॉर - प्रकाश भारती
ओपन वार
प्रकाश भारती
Aslan-Reads.pngअसलान रीड्स
के द्वारा प्रकाशन
असलान बिजनेस सॉल्यूशंस की एक इकाई
बोरिवली, मुंबई, महाराष्ट्र, इंडिया
ईमैल: hello@aslanbiz.com; वेबसाइट: www.aslanreads.com
कॉपीराइट © 2003 प्रकाश भारती द्वारा
ISBN 978-93-85898-36-5
इस पुस्तक की कहानियाँ काल्पनिक है। इनका किसी के जीवन या किसी पात्र से कोई
संबंध नहीं है। यह केवल मनोरंजन मात्र के लिए लिखी गई है।
अत: लेखक एवं प्रकाशक इनके लिए जिम्मेदार नहीं है।
यह पुस्तक इस शर्त पर विक्रय की जा रही है कि प्रकाशक की
लिखित पूर्वानुमती के बिना इसे या इसके किसी भी हिस्से को न तो पुन: प्रकाशित
किया जा सकता है और न ही किसी भी अन्य तरीके से, किसी भी रूप में
इसका व्यावसायिक उपयोग किया जा सकता है।
यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जाएगी।
अंतर्वस्तु
प्रकाश भारती - ओपन वार
ओपन वार
* * * * * *
प्रकाश भारती - ओपन वार
मर्सीडीज तेजी से यूं आगे आ चुकी थी मानों एंबेसेडर को ओवरटेक करना चाहती थी । कुछेक पल वो पुलिस कार की बगल में एकदम पास चलती रही ।
पागल । हरामजादे ।
इंसपेक्टर चिल्लाया–रोको । साइड में रोको ।
इंजिनों के शोर और ब्रेक लगने से गूँजी टायरों की चीख में एम्बेसेडर के पिछले हिस्से पर हुई धातु की आवाज़ दब गयी ।
इंसपेक्टर को सिर्फ इतना वक्त मिला कि पलटकर डिग्गी के ढ़क्कन के ऊपर देख सके ।
जब तक पुलिस कार के ड्राइवर ने ब्रेक लगाये मर्सीडीज तूफानी रफ़्तार से आगे जा चुकी थी ।
यह क्या ?
इंसपेक्टर बोला–डिग्गी पर कोई गोल–सी चीज़ चिपकी है...!
तब तक मैग्नेटिक एक्सप्लोसिव डिवाइस में प्लास्टिक कंपोजीशन के साथ कसकर पैक किया गया कैमिकल फ्यूज ऑपरेट हो चुका था ।
भयंकर विस्फोट !
आग और धुएं का विशाल गोला आसमान की ओर लपका । पुलिस कार के पिछले हिस्से के परखच्चे उड़ गये । विस्फोट का असली जोर राकेश मोहन की पीठ पर रहा । उसकी सिर्फ आधी टांग ही बची । घुटनों से ऊपर शेष शरीर खून से सने मांस के लोथड़ों में बदल गया । दायीं ओर बैठे निरंजन सिंह और बायीं ओर मनोहर लाल के शरीर दो हिस्सों में बंट गये थे ।
आग की लपटों में घिरा अगला भाग कार से अलग होकर दूर एक मोटे पेड़ से जा टकराया और ड्राइवर और कांस्टेबल के लुगदी बने शरीर उसी में जल गये ।
–इसी उपन्यास से
* * * * * *
रोचक, रोमांचक एवं बेहद तेज रफ्तार
जासूसी उपन्यास !
* * * * * *
प्रस्तुत उपन्यास 'ओपन वार' मेरी कल्पनाओं उपज मात्र ही है । इसकी समस्त घटनाएँ काल्पनिक है किसी भी व्यक्ति विशेष का जिक्र नहीं किया गया है । समानता संयोगवश हो जाने पर कृपया मनोरंजन के दृष्टिकोण से ही लें ।
© प्रकाश भारती, 2003
* * * * * *
ओपन वार
करीमगंज ।
उपनगरीय इलाके विकासपुरी में पुलिस स्टेशन में सादा लिबास वाले दोनों पुलिस अफसरों की कड़ी निगाहें युवक के चेहरे पर जमी थीं ।
–तुम राकेश मोहन हो ?
ऊँचे कद वाले ने कठोर स्वर में पूछा ।
युवक ने बेचैनी से कुर्सी पर पहलू बदला ।
–हां !
–ग्रे कलर की वो बेंटले कार तुम्हारी है ?
–हां, लेकिन...!
–शटअप !
उसने अपना परिचय पत्र खोलकर राकेश मोहन के चेहरे के सामने हिलाया–आयम निरंजन सिंह, इंसपेक्टर क्राइम ब्रांच ऑफ पुलिस !
हैरान–परेशान राकेश मोहन चुप रहा ।
–इसका मतलब जानते हो ?
सिंह ने पूछा ।
–किसका ?
–क्राइम ब्रांच का ?
–नहीं ।
–जान जाओगे । मेरा साथी भी क्राइम ब्रांच से है सब इंसपेक्टर मनोहर लाल । एक बार जो मुज़रिम हमारे हाथ पड़ जाता है वह या तो जुर्म से तौबा कर लेता है या फिर ऊपर वाले से एक ही दुआ करता है–दोबारा हमारे सामने न पड़े ।
एस० आई० सर्द ढंग से मुस्करा दिया ।
राकेश उठने लगा ।
सिंह ने आगे झुककर उसे वापस कुर्सी में धकेल दिया ।
–अभी नहीं, लड़के ! उस ग्रे बेंटले के मलिक तुम्ही हो...?
–मैंने बताया तो था, हां...!
–जिसका नम्बर डी० एस० 1567 है ?
–हां, मेरी ही कार है । तुम इसे चोरी की समझ रहे हो ?
–नहीं ।
–तो फिर बार–बार क्यों पूछ रहे हो ?
–सवाल मत करो, जवाब दो । तुम इसी कार में आज सुबह शहर में दाखिल हुये थे ?
–हां !
–बहुत तेज दिमाग है ।
सिंह ने अपने एस० आई० की ओर देखा–होना भी चाहिये । आखिरकार इम्पोर्टेड कार में विदेश की सैर करके लौटा है ।
फिर राकेश मोहन से मुखातिब हुआ–तुम अपनी बेंटले लेकर छुट्टियाँ मनाने गये थे ?
–हां ।
–कहां ?
–नेपाल ! लेकिन मैं...।
–नेपाल में कहां ?
–काठमाण्डू !
–वहां ठहरे थे या वहां से गुजरे थे ?
–दो रातें जाती बार वहां ठहरा था और एक रात लौटती दफा ।
–खूब ऐश की ?
राकेश ने जवाब नहीं दिया ।
–कहां जाने के लिये काठमाण्डू से गुजरे थे और वापस कहां से लौटे ?
राकेश को गुस्सा आ गया ।
–तुम्हारे सवालों का जवाब देना जरूरी है ?
–हां ।
–क्यों ।
–अगर जवाब नहीं दोगे तो तुम्हारे हलक में हाथ घुसेड़कर मुझे जवाब बाहर निकालना पड़ेगा ।
लेकिन क्यों ? आखिर मैंने किया क्या है ?
–यह भी तुम्हीं बताओगे ।
–नाराज़ मत होओ, लड़के ! जो पूछा जाये उसका सीधा और सही जवाब देने में ही तुम्हारी भलाई है ।
मनोहर लाल पहली बार बोला । उसका लहजा बर्फ–सा सर्द था–हमें सख्ती करने पर मजबूर मत करो...नाऊ बी ए गुड बॉय एण्ड आन्सर दी क्वेश्च्यन्स ।
–नेपाल में कहां ?
सिंह ने अपना सवाल दोहराया ।
–बीरगंज !
–गये किस रास्ते से थे ?
–नेपालगंज से ।
–वापस कहां से लौटे ?
–उधर से ही ।
–बीरगंज में क्या किया ?
–वही जो टूरिस्ट करते हैं ।
सैर–सपाटा तफरीह और अय्याशी ?
–हां, वैसा ही कुछ ।
–वापस लौटती बार नेपालगंज में ठहरे थे ?
–सिर्फ एक रात...कम से कम इतना तो बता दो मुझे यहां क्यों लाया गया है ? मैंने क्या किया है ? मुझ से क्यों यह पूछताछ की जा रही है ?
–तुम वाकई नहीं जानते ?
–नहीं, बिल्कुल नहीं । अगर तुम लोग मुझ पर चार्ज नहीं लगा रहे हो तो मुझे जाने दो । वरना चार्ज लगाओ...मैं फोन करके अपने वकील को बुलाऊंगा ।"
–तुम्हारा वकील करीमगंज में है ?
–हाँ ।
–तुम नेपालगंज में एक रात ठहरे थे ?
–बताया तो है ।
–कहां ? होटल में ?
–हां !
राकेश ने होटल का नाम बता दिया ।
–और मेरा ख्याल है, तुमने कार किसी गैराज में भेज दी थी ?
तुम्हें कैसे पता...'हां, हैडलाइट्स में कुछ नुक्स था ।
––तुमने पूरी रात कार गैराज में रखी थी ?
–हाँ ।
–इतनी देर तक...?"
–हां, लाइटें ठीक करायी थीं ।
–बस ?
–हां, और क्या करना था ?
–खेप उठानी थी ।
–खेप ? कैसी खेप ?
–छोड़ो, यह बताओ नेपालगंज में तुमने रात कैसे गुजारी ?
–बेचैनी से !
–तुम साबित कर सकते हो कहां थे ?
–हां ।
–कैसे ?
–मेरे साथ एक लड़की थी ।
–वह रात भर साथ रही ?
–हां ।
–उस लड़की को लाये कहां से–बीरगंज से ?
–नहीं !
–काठमाण्डू से ?
–नहीं ! वह नेपालगंज की ही थी ।
–रण्डी थी ?
–बस ऐसे ही एक लड़की थी ।
–पेशा करने वाली ? बाजारू ?
–नहीं !
–महंगी कॉलगर्ल ?
–हां !
–तुम्हें कैसे मिली ?
–एक आदमी ने उसका फोन नम्बर दिया था ।
–वहीं ?
–नहीं, बीरगंज में ।
–आदमी कौन था ?
–कोई टूरिस्ट ही था । उसने लड़की की काफी तारीफ की थी । मैंने उसे बताया, नेपालगंज जा रहा था तो उसने फोन नम्बर दे दिया ।
–किसने ? कौन था वह ?
–बताया तो है, कोई टूरिस्ट था । बार में मिला था ।
–और तुम उस लड़की के साथ रहे ?
–हां !
–पूरी रात ?
–हां !
–वह तुम्हारी इस बात की पुष्टि कर देगी ?
–पता नहीं ! उम्मीद तो है ।
–और तुमने हैडलाइटें ठीक कराने के लिये कार गैराज में छोड़ दी थी ?
–हां !
–इस काम की पेमेंट भी की होगी ?
–वो तो करनी ही थी ।
–गैराज की रसीद है तुम्हारे पास ?
–नहीं, अगली सुबह मैंने नकद पेमेंट की थी ।
–कौन–से गैराज में ?
–नाम मुझे याद नहीं । होटल के पास ही था । बेकार बाल की खाल निकालने से कुछ नहीं होगा । अगर मुझ पर यकीन नहीं है तो मैं तुम्हें वहां ले जा सकता हूं ।
–बको मत ! तुम जानते हो, इस काम के लिये पुलिस वहां नहीं जायेगी ।
–यानि तुम मुझ पर कोई चार्ज जरूर लगाओगे ?
–चार्ज तो तुम पर लगेगा ही ।
–क्या ? नेपाल में कॉलगर्ल के साथ रात गुजारने का ?
–नहीं, उस बेंटले को यहां लाने का जिसके दोहरे फर्श में जहर भरा है ।
–दोहरा फर्श ? जहर ?
–उस कार में कम से कम सौ किलो हेरोइन छिपाकर भरी गयी है ।
राकेश मोहन मानों आसमान से गिरा ।
–क्या ?
–हां, उस कार के दोहरे फर्श में सौ किलो हेरोइन छिपाकर लायी गयी है ।
–हेरोइन ? तुम पागल हो ।
–कार तुम्हारी है । तुम्हारे पास ही रही है और उसमें हेरोइन भरी है । किसका माल है वो ?
राकेश मोहन का चेहरा सफेद पड़ गया था । उसे पसीने छूट रहे थे ।
–म...मुझे नहीं मालूम । मैं कुछ नहीं जानता ।
–किसने भेजा है ?
–मुझे नहीं पता ?
–यहां किसे डिलीवर करना था ?
–में इस बारे में कुछ नहीं जानता ।
–क्या कहा गया था तुझे ? बदले में पैसा मिलेगा ?
–मुझसे किसी ने कुछ नहीं कहा । हेरोइन के बारे में कुछ नहीं जानता...मैं सच कह रहा हूं...
म...मेरा यकीन करो ।"
–मुझे तुम पर यकीन है, राकेश ! लेकिन असलियत यह है तुम सौ किलो हेरोइन के साथ पकड़े गये हो । इन्टरनेशनल मार्केट में इसकी कीमत सौ करोड़ रुपये से कम नहीं है । यह माल तुम्हारा नहीं हो सकता । तुम या तो पागल हो या फिर मज़बूरन इसे यहां लेकर आये हो । बेहतरी इसी में है, हमारे साथ सहयोग करो । सब कुछ साफ–साफ बता दो । इस काम के लिये किसने तुम्हें पैसा दिया ? किसने यह सारा इंतजाम किया ?
–किसी ने कोई पैसा नहीं दिया । कोई इंतजाम नहीं किया । में छुट्टियां मनाने गया था । वही करके लौटा हूं ।
–मैं तुम्हें अंधा या बेवकूफ़ नजर आता हूं ?
–नहीं ।
–पुलिस इंसपेक्टर नहीं घसियारा लगता हूं ?
–नहीं ।
–तो फिर सच्चाई कबूल क्यों नहीं करते ?
–मैंने सच ही कहा है । इस बारे में मैं कुछ नहीं जानता ।
–यह राग अलापना बंद करो ।
–लेकिन यह सच है ।
इंसपेक्टर का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था ।
–सच्चाई क्या है, मैं बताता हूं । तुम्हें मोटा पैसा दिया गया था–कार लेकर नेपालगंज जाने और वहां खूब ऐश करने के लिये । तुमने नेपालगंज से काठमाण्डू होते हुये बीरगंज जाना था और इसी तरह वापस लौटना था । तुमसे कहा गया था हैडलाइट में थोड़ा नुक्स पैदा करो और फिर उस नुक्स को दूर कराने के लिये कार एक खास गैराज में छोड़ दो । तुम्हें एक फोन नम्बर भी बताया गया । वहां फोन करने पर एक पेशेवर लड़की तुम्हें मुहैया करा दी गयी । तुम सारी रात उस लड़की के साथ मौज–मस्ती करते रहे और गैराज में तुम्हारी कार में फर्श को दोहरा करके बीच में हेरोइन छिपा दी गयी...!
–नहीं ।
–लेकिन सच्चाई यही है । तुम महज एक 'कूरियर' हो । इस काम के लिये किसने तुम्हें पैसा दिया था ?
–मुझे किसी ने कोई पैसा नहीं दिया ।
–बको मत…।
–मैं सच कह रहा हूं…यकीन करो, मैं वाकई कुछ नहीं जानता…मुझे फंसाया गया है…अपने वकील को बुलाना चाहता हूँ ।
–वह करीमगंज में है ?
–हां ।
–हम तुम्हें वहीं ले चलते हैं । शायद रास्ते में तुम्हारा इरादा बदल जाये ओर तुम बता दो पैसा देने वाला कौन है, कहां रहता है ।
–मैं कह चुका हूँ...।
–शटअप !
इंसपेक्टर दहाड़ा ।
–मैं अपने वकील को बुलाना चाहता हूं ।
–अगर तुमने अपना यह राग बदलकर सही रिकार्ड चालू नहीं किया तो तुम्हें वकील नहीं, डॉक्टर की जरूरत पड़ेगी ।
इंसपेक्टर ने उसे गिरेहबान से पकड़कर कुर्सी से खींचा । दोनों हाथ पीठ के पीछे ले जाकर उनमें हथकड़ियां लगा दी । उसे दरवाजे की ओर धकेलता हुआ बोला–मनोहर लाल कार लाओ । इस हरामजादे को पुलिस हैडक्वार्टर्स ले जाना है ।
* * * * * *
ग्रे एंबेसेडर तेजी से सड़क पर दौड़ रही थी ।
वो वही पुलिस कार थी जिसमें वे विकासपुरी आये थे । ड्राइवर वर्दीधारी हैड कांस्टेबल था । उसकी बगल में राइफलधारी कांस्टेबल मौजूद था । पिछली सीट पर निरंजन सिंह और मनोहर लाल के बीच राकेश मोहन फंसा–सा बैठा था । उसका चेहरा कागज की तरह सफेद पड़ा हुआ था । सर्दी के बावजूद कपड़े पसीने से भीग रहे थे ।
मुश्किल से पांच मिनट बाद ही ड्राइवर को पता चल गया, उनका पीछा किया जा रहा था ।
–एक सफेद मर्सीडीज हमारा पीछा कर रही है सर । कोई डेढ़ मील से बराबर पीछे लगी है ।
इंसपेक्टर ने गर्दन घुमाकर पिछली खिड़की से देखा ।
–तेज चलाओ ।
एंबेसेडर की स्पीड बढ़ गयी ।
मर्सीडीज भी उसी तरह उसके पीछे लगी रही ।
–हमें पुलिस स्टेशन में ही ठहरना चाहिये था ।
मनोहर लाल बड़बड़ाता–सा बोला–सौ करोड़ के माल की ख़ातिर कुछ भी किया जा सकता है । वे लोग कोई भी रिस्क ले सकते हैं । बड़ी बात नहीं, वे समझ रहे हों कि उस माल को हम इसी कार में ले जा रहे हैं ।
–तुम समझते हो, इस तरह खुलेआम हम पर हमला किया जा सकता है...?
मर्सीडीज की रफ्तार तेज होनी शुरू हो गयी थी ।
–एमरजेंसी कॉल करो ।
अचानक इंसपेक्टर के स्वर में बेचैनी का पुट उभर आया था–आसपास जो भी गश्ती कारें हो हमें यहां उनकी जरूरत है ।
कांस्टेबल ने नीचे झुककर हैंड सैट उठा लिया । उसने बोलना शुरू किया लेकिन पहला वाक्य भी पूरा नहीं कर सका ।
मर्सीडीज तेजी से यूं आगे आ चुकी थी मानो एंबेसेडर को ओवरटेक करना चाहती थी । कुछेक पल पुलिस कार की बगल में एकदम पास चलती रही ।
–पागल ! हरामजादे !
इंसपेक्टर चिल्लाया–रोको । साईड में रोको ।
इंजिनों के शोर और टायरों की चीख में एंबेसेडर के पिछले हिस्से पर हुई धातु की आवाज़ दब गयी ।
इंसपेक्टर को सिर्फ इतना वक्त मिला कि पलटकर डिग्गी के ढक्कन के ऊपर देख सके ।
जब तक पुलिस कार के ड्राइवर ने ब्रेक लगाये मर्सीडीज तूफ़ानी रफ्तार से आगे जा चुकी थी ।
–यह क्या ?
इंसपेक्टर बोला–डिग्गी पर कोई गोल–सी चीज चिपकी है...।
तब तक मैगनेटिक एक्सप्लोसिव डिवाइस में प्लास्टिक कंपोजीशन के साथ कसकर पैक किया गया कैमिकल फ्यूज ऑपरेट हो चुका था ।
भयंकर विस्फोट ।
आग और धुएँ का विशाल गोला आसमान की ओर लपका । पुलिस कार के पिछले हिस्से के परखच्चे उड़ गये । विस्फोट का असली जोर राकेश मोहन की पीठ पर रहा । उसकी सिर्फ आधी टांग ही बची । घुटनों से ऊपर शेष शरीर खून से सने मांस के लोथड़ों में बदल गया । दायीं ओर बैठे निरंजन सिंह और बायीं ओर मनोहर लाल के शरीर दो हिस्सों में बँट गये थे ।
आग की लपटों में घिरा अगला भाग कार से अलग हो कर दूर एक मोटे पेड़ से जा टकराया और ड्राइवर और कांस्टेबल के लुगदी बने शरीर उसी में जल गये ।
इत्तिफाक ही था कि विस्फोट के वक्त एंबेसेडर के आगे दूर तक कोई वाहन नहीं था वरना जिस तरह अगला हिस्सा कार से अलग हुआ था हताहतों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ जानी थी ।
एंबेसेडर के पीछे करीब दो सौ गज के अंदर तीन कारें थीं । उनमें सवार लोगों की किस्मत अच्छी थी या फिर किसी चमत्कार ने ही उन्हें बचा दिया । हालांकि विस्फोट से उन तीनों कारों की विंडशील्ड चूर–चूर हो गयी थी और उनकी स्पीड भी तेज थी फिर भी जोर से आपस में नहीं टकरायीं । टक्कर मामूली थी । एक ड्राइवर की बाँह टूट गयी और बाकी दो के चेहरों पर हल्की खरोंचे आयीं ।
* * * * * *
एक चश्मदीद गवाह ने बाद में बताया–मर्सीडीज अचानक एंबेसेडर को ओवरटेक कर रही थी जबकि एंबेसेडर की स्पीड अपेक्षाकृत धीमी थी । जोर से ब्रेक लगाकर उसे साईड में रोकने की कोशिश की जा रही थी । ठीक उसी वक्त मर्सीडीज की पिछली सीट पर मौजूद एक आदमी ने गोल–सी कोई काली चीज एंबेसेडर के पिछले भाग पर फेंकी जो डिग्गी पर जा चिपकी और मर्सीडीज फौरन तेजी से आगे दौड़ गयी । विस्फोट से पहले मर्सीडीज करीब दो सौ गज दूर जा चुकी थी...फिर एंबेसेडर में विस्फोट हुआ...भयंकर धमाके के साथ आग और धुएँ का विशाल गोला नजर आया । कार का पिछला हिस्सा उसमें घिर गया और अगला हिस्सा राकेट की तरह निकलकर पेड़ से जा टकराया...बारूद और गोश्त जलने की मिली–जुली तेज बू फैलने लगी ।
* * * * * *
उस सड़क पर ट्रैफिक बंद कर दिया गया ।
स्थानीय पुलिस, फायर ब्रिगेड की मदद से आग बुझाने और मलबे को हटाने में व्यस्त हो गयी । सफेद मर्सीडीज के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की जा रही थी ।
* * * * * *
पूरा पुलिस विभाग सतर्क हो गया–मानों नींद से अचानक झंझोड़कर जगा दिया गया था ।
चार पुलिस वालों को अपनी ड्यूटी करते वक्त दिन–दहाड़े खुलेआम बम विस्फोट से उड़ा दिये जाने की सनसनीखेज खबर ने जहां आम जनता में दहशत फैलाने का काम किया, वहीं दूसरी ओर हर एक पुलिसमैन नफरत और गुस्से से जल उठा...अपने साथियों के खौफनाक अंजाम का बदला लेने के लिये वे कुछ भी करने को बेताब थे ।
इस भयानक कांड की प्रतिक्रिया स्वरूप सबके दिमाग में दो ही सवाल थे ।
किसने किया ?
क्यों किया ?
* * * * * *
पुलिस हैडक्वार्टर्स में ।
क्राइम ब्रांच का एस० पी० मदन पाल वर्मा अपने ए० सी० पी० देवराज दीवान से विचार–विमर्श में व्यस्त था ।
–यह कंटिनजेंसी प्लान था और इसे पहले ही तय कर लिया गया था ।
ए० सी० पी० अपने ऑफिस की खिड़की से सड़क पर गुजर रहे यातायात को देखता हुआ बोला–वे सब पेशेवर लोग हैं । हमारा मुकाबला अनाड़ी मुजरिमों से नहीं है ।
–खिलाड़ियों से है ।
वर्मा धीरे से बोला–और राकेश मोहन पेशेवर नहीं था । उसका कहीं कोई रिकार्ड नहीं है । इसलिये यह मेरी समझ में नहीं आता । हमारी कोशिश जारी है । उसके हुलिये के आधार पर पूछताछ की जा रही है ।
वह गहरी सांस लेकर चुप हो गया । उसका चेहरा गमजदा था । निरंजन सिंह और मनोहर लाल को वह अच्छी तरह जानता था । दोनों काफी अर्से से उसके मातहत थे ।
–बेचारे निरंजन और मनोहर अच्छे अफसर थे ।
उसने यूं कहा मानों खुद से बातें कर रहा था–बस थोड़े सख्त मिज़ाज थे । कभी–कभी ज्यादा ही सख्त हो जाते थे । लेकिन...!
दीवान के गले से गुर्राहट–सी निकली । इससे ज्यादा अपने जज्बात को जाहिर वह नहीं करता था ।
–मेरी समझ में अभी भी नहीं आ रहा है, इतना बड़ा कन्साइन्मेंट लेकर राकेश सीधा शहर में चला आया ।
–वह अकेला नहीं था, सर !
–ऐसा ही लगता है ।
दीवान विचारपूर्वक बोला–ज्योहिं निरंजन उसे खुले में लेकर आया, उन लोगों ने उसे खत्म कर दिया ।
–साथ में हमारे दो अच्छे ऑफिसर और दो अच्छे पुलिसमैन भी मारे गये और हमारे पास रह गयी सौ किलो हेरोइन ।
–यह एक और खौफनाक बात है ।
–क्या ? इसकी कीमत ?
–कीमत नहीं, इसका वजन । इतनी बड़ी खेप मंगाने वाला इस शहर में कौन है ?
–कोई नहीं ।
–इतना बड़ा कन्साइन्मेंट किसी ड्रग माफिया का ही हो सकता है ओर वो यहां कोई नहीं है ।
–अगर वे लोग यहां मार्केट शुरू भी करना चाहते हैं तो भी उनका स्टाइल यह नहीं है । आजकल उनके काम करने का ढंग बदल गया है । वे खून–खराबे से दूर ही रहते हैं । इस तरह चार पुलिस वालों को एक साथ मार डालना तो दूर रहा किसी बेकसूर आम शहरी तक को बेवजह मारने से वे बचते हैं ।
–उनका स्टाइल यह नहीं है और इस शहर में ऐसा कोई नहीं है, जो इतनी बड़ी खेप मंगा सके । मुझे लगता है इस कन्साइन्मेंट को अमेरिका या रोम भेजने के लिये यहां लाया गया है ।
दोनों कुछेक पल के लिये चुप हो गये ।
–विकासपुरी पुलिस स्टेशन से चलने से पहले निरंजन सिंह ने अपने ऑफिस फोन किया था ।
वर्मा बोला–उसका कहना था, उसके विचार से राकेश नहीं जानता था उसकी कार में हेरोइन है लेकिन साथ ही निरंजन सिंह को यह भी यकीन था राकेश जानता था इसके पीछे कौन है ।
–हमेशा यही तो होता है ।
दीवान कुढ़ता हुआ–सा बोला–ड्रग्स हो या कोई और स्मगल्ड गुडस, बड़ी खेप तभी पकड़ी जाती है जब पहले से टिप मिल जाती है । यही इस दफा भी हुआ । अगर हमें पहले से टिप नहीं मिली होती तो, उस मनहूस बेंटले को हाथ भी हमने नहीं लगाना था और अगर वे लोग माल पकड़वाने वाले थे तो राकेश को सचमुच कुछ पता नहीं रहा होगा । ऐसी कंटिनजेंसी प्लान भी कोई नहीं रही होगी कि जिसमें पुलिस वाले और आम जनता इनवाल्व हो । इस सारे मामले में इतने पेच होने थे कि राकेश को यह तक पता नहीं चलना था कि वह किसके लिये काम कर रहा था । क्या काम कर रहा था, यह तो बहुत दूर की बात है ।
–मेरा ख्याल है, इस बारे में रंजीत कोई सही नतीजा निकाल सकता है ।
ए० सी० पी० जरा भी प्रभावित नहीं हुआ ।
–हो सकता है ।
बेमन से वह बोला ।
रंजीत मलिक भी क्राइम ब्रांच में इंसपेक्टर था । तेज दिमाग, हौसलामंद और गहरी सूझ–बूझ वाला युवक । उसके शानदार रिकार्ड के बावजूद ए० सी० पी० दीवान जैसे बड़े अफसर उस पर पूरा भरोसा नहीं करते थे । इसमें जलन या हसद का सवाल नहीं था । ज्यादातर पुलिस ऑफिसर अपने अच्छे कुलीग और अच्छे मातहत की खुलकर तारीफ किया करते हैं । रंजीत की शख्सियत में ही कुछ ऐसा था कि उस पर एतबार वे नहीं कर पाते थे । शायद इसकी वजह यह तथ्य था कि वह थोड़े समय में ही काफी कुछ कर चुका प्रतीत होता था और उसके तजुर्बात उसे विभिन्न राहों पर चलना सिखाते हुये तेजी से तरक्की और कामयाबी की ओर ले जा रहे थे जबकि एस० पी० जैसे अधेड़ पुलिस वाले बरसों पुरानी लीक पर चलने के आदी थे ।
दीवान मेहनती, ईमानदार और कुशल ऑफिसर था । ए० एस० आई० से तरक्की पाता हुआ विभागीय परीक्षा पास करते–करते वह मौजूदा पोजीशन तक पहुंचा था । उसकी सोच और कार्य प्रणाली अपने हमउम्र अफसरों जैसी थी ।
जबकि रंजीत मलिक हैंडसम युवक था । कानून की मदद करने और अपने मकसद को हासिल करने के लिये कानून को अपने हाथ में लेने से भी नहीं चूकता था । यह अलग बात थी कि इस काम को बेहद सफाई से करता था । ए० एस० आई० से तरक्की करके कुछेक सालों में ही वह इंसपेक्टर बन गया था और इतना ज्यादा तजुर्बा उसके पास था कि एस० पी० और उसके हमउम्र दूसरे अफसर इतनी उम्र में हासिल नहीं कर पाये थे ।
मसलन रंजीत के पिता इंडियन फारेन सर्विसेज में एक बड़े अधिकारी थे । फलस्वरूप रंजीत की जिंदगी के करीब बीस साल विदेशों में खासतौर पर अमेरिका और दुबई में गुजरे थे । रंजीत की मां दुबई में जा बसे एक भारतीय ईसाई परिवार से थी । इस तरह रंजीत में दो धर्मों और दो देशों की संस्कृति का समावेश होता चला गया था । इन दोनों बातों ने मिलकर उसे सबसे अलग बना दिया था ।
उसने तकरीबन पूरी तालीम भी दुबई और न्यूयार्क में ही हासिल की थी । उसकी शुरू से से ही इंडिया में पुलिस अफसर बनने की ख़्वाहिश थी । इसलिये उसने कानून और जुर्म का गहरा अध्ययन किया । दुबई में कई पुलिस अफसरों से अभी भी उसके दोस्ताना ताल्लुकात थे । अपनी मां के परिवार और पिता की नौकरी की वजह से जिनके संपर्क से वहां वह आया था । वहां के अधिकांश कुख्यात अपराधियों को भी वह पहचानता था, जो वहां रहकर दूसरे देशों में अपने संगठनों को चला रहे थे और जिनकी फोटुएं अक्सर वहां के अखबारों, पत्रिकाओं वगैरा में छपती रहती थीं ।
पूरे करीमगंज पुलिस विभाग में ऐसी बैक ग्राउंड किसी और अफसर की नहीं थी । इसलिये विभाग का हिस्सा होते हुये भी रंजीत मलिक सबसे अलग था । एस० पी० दीवान उसकी होशियारी और काबलियत की तारीफ तो करता था लेकिन उसकी शख्सियत की बाकी खूबियों को नहीं पचा पाता था ।
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एक रात गुजर गयी ।
पुलिस पूर्णतया सक्रिय थी । रूटीन कार्यवाही जारी थी । चुपचाप जानकारी हासिल करने की कोशिश भी की जा रही थी–विभिन्न सोर्सेज के जरिये बेंटले में मिले सूटकेस में मौजूद कपड़ों के बारे में विभिन्न स्टोरों पर पूछताछ की जा रही थी ।
राकेश मोहन से जो मालूमात निरंजन सिंह और मनोहर लाल ने प्राप्त की थी, वो उनके साथ ही विस्फोट में उड़ गयी थी ।
कोई नया एवीडेंस पुलिस के सामने नहीं आया । न तो राकेश मोहन के बारे में पता चला कहां रहता था, क्या करता था वगैरा और न ही सफेद मसीडीज के विषय में कोई सूचना मिली ।
राकेश मोहन के बारे में जानकारी प्राप्त करने की पुलिस की तमाम उम्मीदें बेंटले पर टिकी थीं । लेकिन उसका नम्बर दिल्ली का था । करीमगंज ट्रांसपोर्ट अथारिटी में रजिस्टर्ड वो नहीं थी । ग्लोव कंपार्टमेंट में मिले कार के रजिस्ट्रेशन सर्टिफ़िकेट के मुताबिक उसका मालिक कोई विनय बजाज था । पता फ्रेंडस कालोनी नई दिल्ली का था । दिल्ली पुलिस की सहायता से विनय बजाज को कांटेक्ट करने की कोशिश की गयी तो पता चला बजाज का ढाई महीने पहले देहांत हो गया था और उसका इकलौता बेटा बरसों से विदेश में कहीं सैटल था ।
उम्मीद खत्म ।
बात जहां थी वहीं रही ।
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अगले रोज !
घड़ी की सुईयां अपनी रफ्तार से घूमती रहीं । कोई खास बात तो पता नहीं चल सकी अलबत्ता