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ज़िंदा लाश
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ज़िंदा लाश

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अमरनाथ नागपाल – एम. एस. सी. फाइनल का छात्र तीन साल की सजा काटने के बाद अब सजायाफ्ता मुजरिम बन चुका था...क्योंकि दौलतमंद माँ–बाप के इकलौते बेटे और अपने जिगरी दोस्त को उसकी पागलपन भरी खतरनाक मुहीम में शामिल होने से इंकार नहीं कर सका...चोरी की कार में दोनों पैट्रोल पम्प पहुंचे...सूरज ने रिवाल्वर से कर्मचारियों को धमकी दी तो उन्होंने कैश सौंप दिया...तभी अचानक पुलिस पैट्रोल कार आ पहुंची...कर्मचारियों ने शोर मचा दिया...गोलियां चलीं...सूरज मारा गया...अमर पकड़ा गया...मुकदमा चला...अमर को तीन साल की सजा हो गयी...। जेल में...डिप्टी जेलर कुलदीप नारंग पर कुछ कैदियों ने हमलाकर दिया...अमर ने नारंग के साथ मिलकर उनका मुकाबला किया और सबको मार भगाया...नारंग दोस्त बन गया...। अमर जेल से रिहा हुआ तो नारंग ने उसके लिए नौकरी का इन्तजाम कर दिया...करीमगंज के बाहर समुद्र तट पर एक ईसाई परिवार में...।


पीटर गोंसाल्विस–दौलतमंद, जवान, हैंडसम, शिक्षित और क़ानून का ज्ञाता...एक दुर्घटना में पीठ में आयी गंभीर चोट से शरीर का निचला हिस्सा बेजान हो जाने की वजह से व्हील चेयर में कैद होकर रह गया था...अपने एक दोस्त कुलदीप नारंग की सिफारिश पर सजायाफ्ता अमर को नौकरी दे दी...।


रीना गोंसाल्विस–पीटर की पत्नी...कान्वेंट की एजुकेटेड, जवान, सुन्दर, बाएं गाल पर जख्म के निशान के बावजूद आकर्षक...लेकिन खुले विचारोंवाली होते हुए भी चुपचाप रहनेवाली और मिजाज से बहुत ही सर्द...।


मार्था गोंसाल्विस–पीटर की माँ...थोड़ी गर्म मिजाज...सास के रूप में गुस्सैल...रीना को मनहूस माननेवाली अधेड़ औरत...।


जेनी आंटी–पीटर की दूर के रिश्ते की बुआ...बातूनी स्वभाववाली भली अधेड़ औरत...हफ्ते में दो बार करीमगंज से मिलने आती थी...।


अमर अपने हालात से संतुष्ट था...लेकिन इस सारे सिलसिले में एक बात पहले दिन से ही उसे कचोटने लगी थी–रीना जैसी हसीना का अपाहिज की पत्नी होना...उसे रीना से हमदर्दी होने लगी और न जाने क्यों पीटर से ईर्ष्या...फिर हमदर्दी खिंचाव में बदली और वह रीना के विचारों में खोया रहने लगा...।


जल्दी ही उसने नोट किया उसके प्रति रीना का व्यवहार सामान्य सा होना शुरू हो गया...रीना बेतकल्लुफ होने लगी...नजदीकियां आने लगी...फिर धीरे–धीरे बढ़ती गयीं...और एक रात तमाम दूरियां ख़त्म हो गयीं...।


अमर को जो यौन सुख उस रात मिला वो उसकी कल्पना से भी परे था...। रीना मानो ऐसा नशा थी जिसे एक बार पाने के बाद बार–बार पाये बगैर नहीं रहा जा सकता...।


जल्दी ही अमर को पता चला–पीटर शराब के नशे में किसी हैवान की तरह उसके साथ ज्यादती करता था...पीटर के अपाहिजपन से उससे जो हमदर्दी उसे हुई थी वो नफरत में बदलने लगी...एक रात रीना ने खुलकर अपने प्यार का इजहार किया और हमेशा के लिए उसे पाने की ख्वाहिश जाहिर कर दी...वह भी हमेशा के लिए उसे पाने के ख्वाब देखने लगा...।


दोनों की चाहत एक ही थी लेकिन दोनों यह भी जानते थे–रीना शादीशुदा थी...पीटर की बीवी थी...यानी उनकी चाहत पूरी होने में सबसे बड़ी रुकावट था–पीटर गोंसाल्विस...। पीटर ने किसी भी कीमत पर न तो उससे तलाक देना था और न ही उसे लेने देना था...।


रुकावट कैसे दूर हो ? इस सवाल पर सोच विचार आपसी सलाह मशविरा शुरू हुए...योजनाएं बनी...बिगड़ी...अंत में एक फाइनल हो गयी...उसे अमल में लाने का फैसला कर लिया...।


मोटे तौर पर योजना थी–करीमगंज से पीटर के बीच हाउस तक आने के लिए समुद्र के साथ साथ बनी वो सड़क घुमावदार और लगातार चढाईवाली थी...उस पर ब्लाइंड टर्न भी था...इतना खतरनाक कि दुर्घटना हो जाना मामूली बात थी...वहां समंदर की साइड में काठ की जो पुरानी रेलिंग लगी थी उसके निचले सिरे गले हुए थे...अगर पीटर की भारी लिंकन कार उससे टकरा दी जाए तो वो रेलिंग को तोड़ती हुई सीधी नीचे जा गिरेगी और पानी में डूब जायेगी...रीना और अमर उससे निकलकर तैरकर ऊपर आ जायेंगे...अपाहिज पीटर निकल नहीं सकेगा और डूबकर मर जाएगा...।


योजना अमल में लायी गई...लिंकन रेलिंग से टकराई...रेलिंग टूटी...कार नीचे गिरी और पानी में डूबकर एक चट्टान पर जा टिकी...लेकिन अनपेक्षित व्यवधान के रूप में वहां मौजूद स्कूल बस के कारण योजना पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकी...पीटर की माँ मार्था मर गयी...पीटर बच गया...।


अमर को नौकरी से निकाल दिया गया...कुलदीप नारंग ने एक बार फिर मदद की...उसकी सिफारिश और रीना की कोशिशों से अमर को दोबारा नौकरी पर रख लिया गया...नई योजना बनी...मेन बीच हाउस के साथ गैराज की बगल में ठीक ऊपर काठ की मीनार थी...पीटर उसी में रहता था...मूल योजना थी–कबाड़ख़ाने जैसी हालतवाले स्टोर में आग लगा द

Languageहिन्दी
PublisherAslan eReads
Release dateJun 15, 2021
ISBN9788195155361
ज़िंदा लाश

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    ज़िंदा लाश - प्रकाश भारती

    जिंदा लाश

    प्रकाश भारती

    * * * * * *

    Aslan-Reads.png

    असलान रीड्स

    के द्वारा प्रकाशन

    असलान बिजनेस सॉल्यूशंस की एक इकाई

    बोरिवली, मुंबई, महाराष्ट्र, इंडिया

    ईमैल: hello@aslanbiz.com; वेबसाइट: www.aslanreads.com

    कॉपीराइट © 1986 प्रकाश भारती द्वारा

    ISBN

    इस पुस्तक की कहानियाँ काल्पनिक है। इनका किसी के जीवन या किसी पात्र से कोई

    संबंध नहीं है। यह केवल मनोरंजन मात्र के लिए लिखी गई है।

    अत: लेखक एवं प्रकाशक इनके लिए जिम्मेदार नहीं है।

    यह पुस्तक इस शर्त पर विक्रय की जा रही है कि प्रकाशक की

    लिखित पूर्वानुमती के बिना इसे या इसके किसी भी हिस्से को न तो पुन: प्रकाशित

    किया जा सकता है और न ही किसी भी अन्य तरीके से, किसी भी रूप में

    इसका व्यावसायिक उपयोग किया जा सकता है।

    यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

    * * * * * *

    अंतर्वस्तु

    प्रकाश भारती - जिंदा लाश

    जिंदा लाश

    * * * * * *

    प्रकाश भारती - जिंदा लाश

    हम बाक़ायदा योजना बनाकर उनकी हत्या करेंगे । और वो योजना ऐसी होगी कि उनकी मौत महज एक दुर्घटना समझी जाएगी ।

    तुम्हारा मतलब हैफूल प्रूफ प्लान ?

    हां ।

    लेकिन तुम शायद नहीं जानतीं फूल प्रूफ प्लान और परफैक्ट क्राइम जैसी बातें सिर्फ उपन्यासों में ही मिलती हैं । हकीक़त में ऐसा कुछ नहीं होता । पुलिस देर–सबेर असली अपराधी तक पहुंच ही जाती है ।

    और तुम हकीक़त से अनजान हो इसीलिए ऐसा कह रहे हो । क्या तुम जानते हो देशभर में पुलिस विभाग हर साल कितने केसेज को सिर्फ इसलिए क्लोज कर देता है क्योंकि कोई भी क्लू न मिलने के कारण वे लोग उन्हें सुलझा नहीं पाते हैं ? क्या तुम्हें पता है उन अनसालव्ड क्लोज्ड केसेज में ज्यादा तादाद मर्डर केसेज की ही होती है ?

    अमर जवाब नहीं दे सका ।

    (एक रोचक एवं तेज रफ्तार उपन्यास)

    * * * * * *

    जिंदा लाश

    एक

    अमर ने अपना एयर बैग कंधे पर लटकाया और यूं बाहर निकला, मानो नर्क से छुटकारा पा गया था ।

    उसने पलटकर उस स्थान पर सुबह के उजाले में आखिरी निगाह डाली, जहां तीन साल के बाद आजादी की पहली रात गुजारी थी ।

    सड़क के किनारे एक खाली प्लाट को कनातों से घेरकर शामियाने के नीचे करीब साठ चारपाइयां डाल दी गई थीं । बिस्तर मैले और पसीने की बू से भरे हुए थे । तमाम रात वहां खटमल और मच्छर पुरजोर धावा बोलते रहे थे । और अब मक्खियों की तेज भिनभिनाहट भी शुरू हो चुकी थी । पास बहते गंदे पानी के नाले की सड़ांध सुबह होते ही कुछ और बढ़ गई थी ।

    कुल मिलाकर वो जगह जेल की उन विभिन्न कोठरियों से भी कई गुना बदतर थी, जिनमें तीन साल गुजारने के बाद अमर पिछली शाम ही बाहर आया था ।

    उसने गरदन झटकाई और तेजी से बस अड्डे की ओर चल दिया । वह सोच रहा था, अगर उसकी जेब नहीं कटी होती तो उस नर्क में उसने पांव भी नहीं रखना था । उसके पास पूरे पांच सौ रुपये थे । दो जोड़ा सस्ती पैंट–शर्ट, एक एयर बैग तथा रोज़मर्रा की जरूरत की अन्य जरूरी चीजें खरीदने के बाद वह रात गुज़ारने के लिए किसी सस्ते होटल की तलाश में निकला था । इसी चक्कर में कोई शातिर जेबकतरा अपने हाथ की सफाई का कमाल दिखा गया । अमर को इस कमाल का पता तब चला, जब एक सस्ते होटल में पहुंचकर उसने पेशगी किराया देना चाहा । सौ रुपए के नोट सहित पर्स को जेब में न पाकर उसके पैरों तले से मानो जमीन खिसक गई । उसने एक–एक करके अपनी तमाम जेबें छान मारी । पर्स तो हाथ नहीं आ सका, अलबत्ता एक जेब में पड़े साढे बाईस रुपये जरूर मिल गए । यह वो रकम थी, जिसे उसने शॉपिंग के बाद बैलेंस के रूप में दुकानदार से लेकर पर्स में रखने की बजाय अनजाने में यूं ही एक जेब में डाल लिया था । यही रकम अब उसका इकलौता सहारा थी । होटल रिसेप्शनिस्ट से माफी माँगकर वह उल्टे पैरों बाहर आ गया था ।

    जहां तक किसी रिश्तेदार का सवाल था वह तो पूरी दुनिया में उसका कोई नहीं था । अलबत्ता विराटनगर यानी इसी शहर में उसके कई परिचित जरूर थे । मगर उनके पास वह जाना नहीं चाहता था, क्योंकि अब वह तीन साल पहले वाला अमरनाथ नागपाल न होकर सिर्फ एक सज़ायाफ्ता मुज़रिम था ।

    यही वजह थी अमर को सारी रात उस नर्कतुल्य जगह में गुजारनी पड़ी । वहां बिस्तर सहित एक चारपाई का एक रात का किराया सिर्फ पांच रुपये था । उस महानगर में इससे सस्ती जगह के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था ।

    अमर बस अड्डा पहुँच गया ।

    करीमगंज की टिकट खरीदने के बाद उसकी जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं बची ।

    वह करीमगंज होकर विशालगढ़ जाने वाली बस में खिड़की के पास वाली सीट पर जा बैठा ।

    बस ने ठीक सात बजे चलकर बारह बजे से पहले ही उसे करीमगंज पहुंचा देना था । यही वह चाहता था । क्योंकि कुलदीप नारंग ने उसे खासतौर पर चेतावनी दी थी कि बारह बजे के बाद कार उसका इंतजार नहीं करेगी ।

    अमर की रिस्टवाच के मुताबिक ठीक सात बजे बस चल पड़ी ।

    उसने राहत की गहरी सांस लेते हुए आँखें बंद कर ली । उसके जेहन में तीन साल पहली उस शाम की याद ताजा होने लगी, जिसने उसकी जिन्दगी में भयानक तूफान लाकर उसे एक सज़ायाफ्ता मुज़रिम बना दिया था ।

    सूरज उसका इकलौता जिगरी दोस्त और सरपरस्त था । स्वाभाव से खुराफाती, जिद्दी और दुस्साहसी सूरज में वे तमाम ऐब थे जिनकी किसी भी दौलतमंद बाप की बिगड़ी हुई औलाद में होने की अपेक्षा की जा सकती है । लेकिन सूरज सशस्त्र डकैती डालने जैसा संगीन जुर्म करेगा यह बात कल्पना से भी परे थी । और अमर ने कभी सोचा भी नहीं था कि सूरज की दोस्ती और उसके अहसानों की उसे इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी ।

    उस शाम अमर होस्टल के अपने कमरे में बैठा अध्ययन करने में व्यस्त था । वह एम० एस० सी० के फाइनल ईयर का स्टुडेंट था । उसकी गिनती कालेज के होनहार विद्यार्थियों में होती थी । उसकी इस कामयाबी में उसकी अपनी लगन और मेहनत से कहीं ज्यादा हाथ था सूरज की उन बेशुमार मेहरबानियों का जो उसे बरसों से लगातार हासिल होती रही थीं । उसका रोम–रोम सूरज के अहसानों के भारी बोझ तले दबा हुआ था ।

    करीब सात बजे सूरज उसके पास पहुंचा और उसे अपने साथ ले गया ।

    मुश्किल से बीस मिनट बाद वे लगूना बार के एक केबिन में बैठे व्हिस्की की चुस्कियां ले रहे थे ।

    अमर को न तो शराब से परहेज था और न ही पीने का "शौक था । खुला पैसा पास में न होने की वजह से शौक वह कर नहीं सकता था और सूरज से दोस्ती के कारण परहेज करने की स्थिति में भी नहीं था । उसे अक्सर सूरज का साथ देना ही पड़ता था ।

    तीसरे पैग की चुस्कियों के दौरान सूरज ने बताया कि रात दस बजे वह आउटर रोड वाले पैट्रोल पम्प से कैश लूटेगा ।

    अमर को एकाएक अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ । लेकिन सूरज को पूर्णतया गंभीर पाकर उसे विश्वास करना पड़ा । मगर उसकी समझ में नहीं आया कि सूरज पर ऐसी कौन–सी मुसीबत टूट पड़ी थी जो वह पैसे की ख़ातिर ऐसा संगीन जुर्म करना चाहता था ।

    सूरज ने बताया कि इस काम को वह पैसे के लिए नहीं बल्कि एडवेंचर, थ्रिल और जुर्म का जाती तजुर्बा करने की ख़ातिर अंजाम देना चाहता है । अमर को वह इसलिए अपने साथ शामिल कर रहा था क्योंकि अमर उसका इकलौता भरोसेमंद दोस्त होने के अलावा बाक़ायदा ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त कुशल कार चालक है ।

    –"अपनी योजनानुसार सूरज एयरपोर्ट के पार्किंग लॉट से एक कार चुरा लाया था । उस कार का मालिक शाम छ: बजे की फ्लाइट से विशालगढ़ गया हुआ था और उसने बारह बजे से पहले वापस नहीं लौटना था ।

    सूरज को अपनी योजना की कामयाबी पर सौ फीसदी यकीन था । पैट्रोल पम्प पर सिर्फ दो अटेंडेंट्स होते थे । उन्होंने रिवाल्वर देखते ही कैश उसके हवाले कर देना था । आउटर रोड रात नौ बजे के बाद लगभग सूनसान हो जाती थी । और उस इलाके में साढ़े दस बजे से पहले पुलिस की गश्त शुरू नहीं होती थी । इसलिए मौके पर पकड़े जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था । क्योंकि उन दोनों के चेहरों पर नकली दाढ़ी–मूंछे लगी होंगी, इसलिए पम्प अटेंडेंट्स को उनकी असली शक्लों का पता नहीं चल सकेगा । फिर अगली सुबह लूट की रकम गुमनाम ढंग से उन्हें वापस लौटा दी जाएगी । क्योंकि यह उनका पहला और आखिरी जुर्म होगा और पुलिस को घटनास्थल पर कोई क्लू नहीं मिलेगा, इसलिए पुलिस कभी भी उन तक नहीं पहुंच पाएगी ।

    अमर न तो खुद ऐसे किसी बखेड़े में पड़ना चाहता था और न ही सूरज को पड़ने देना चाहता था । उसने जोर–शोर से प्रतिवाद किया, दलीलें दी, सूरज के खानदान की इज़्ज़त, पुलिस और कानून की दुहाई दी और अंत में योजना की ख़ामियाँ गिनाईं । लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला । हमेशा की तरह सूरज की जिद के सामने उसकी एक न चली । उसे हथियार डाल देने पड़े अपने सरपरस्त के सामने, जिसकी मेहरबानियों और अहसानों का भारी बोझ उस पर लदा था ।

    दोनों चोरी की कार में पैट्रोल पम्प पर पहुंच गए । आशा के विपरीत दोनों अटेंडेंट्स के अलावा पम्प का मैनेजर भी वहां मौजूद मिला । वे तीनों के बिन में थे । मैनेजर दिन–भर की सेल का हिसाब कर रहा था । उसके सामने डेस्क पर रबर बैंडों में बंधी नोटों की गड्डियां रखी थीं ।

    अमर ने सूरज को रोकने की आखिरी कोशिश की तो सूरज ने घुड़ककर उसे चुप करा दिया और कार से उतरकर इस अंदाज़ में केबिन की ओर बढ़ा मानो वहां मौजूद पब्लिक टेलीफोन से कोई जरूरी काल करना चाहता था ।

    अमर इंजन चालू रखे ड्राइविंग सीट पर बैठा मन–ही–मन भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि इस पागलपन–भरे मुहीम में उसके दोस्त को सलामत रखे ।

    सूरज ने केबिन में पहुंचकर उन तीनों पर, अपने पिता के डेस्क से चुराई रिवाल्वर तानते हुए चेतावनी दे दी ।

    रिवाल्वर देखते ही मैनेजर समेत दोनों अटेंडेंट्स के होश उड़ गए थे । उन्होंने जरा–सा भी प्रतिरोध किए बगैर सारी रकम सूरज के हवाले कर दी ।

    सूरज ने तमाम नोट अपनी जेबों में ठूँस लिए । वह पूर्ववत् रिवाल्वर ताने पीछे हटता हुआ दीवार में लगे पब्लिक टेलीफोन के पास पहुंचा । उसकी तारें अलग करके उसे बेकार करने के लिए, ताकि उनके जाते ही मैनेजर वहां से पुलिस को फोन न कर सके ।

    तभी अचानक वो हो गया जिसकी अमर को आरम्भ से ही आशंका थी ।

    सर्वथा अप्रत्याशित रूप से एक पुलिस जीप, जिसमें मौजूद पुलिस पार्टी किसी वारदात की जांच करने के बाद वापस शहर लौट रही थी, पैट्रोल लेने पम्प पर आ रुकी और मैनेजर उसे देखते ही आतंकपूर्ण स्वर में चिल्लाया–बचाओ !

    एक इंस्पेक्टर और एस० आई० जीप से कूदे और अपनी–अपनी सर्विस रिवाल्वर निकालते हुए के बिन की ओर दौड़ पड़े ।

    इस आकस्मिक विपत्ति ने सूरज के छक्के छुड़ा दिए । भागने की कोई राह न पाकर घबराहट में वह अंधाधुंध फायर करने लगा ।

    आतंकित अमर हत्बुद्धि–सा ड्राइविंग सीट पर बैठा रहा । इस बात से बेखबर कि उसकी कार को तीन पुलिसमैन घेर चुके थे, वह अपलक केबिन की ओर ताक रहा था ।

    इंस्पेक्टर द्वारा हवाई फायर करते हुए चेतावनी देने के बावजूद सूरज ने गोलियां चलाना बन्द नहीं किया । उसकी चलाई एक गोली एस० आई० के बाएं कंधे में आ घुसी थी ।

    फिर इंस्पेक्टर और एस० आई० की रिवाल्वरों ने एक साथ आग उगली । एक गोली सूरज के घुटने में लगी और दूसरी उसका पेट फाड़ती हुई गुजर गई । पीड़ा से होंठ काटता हुआ वह औंधे मुंह नीचे आ गिरा । स्तब्ध बैठे अमर के समूचे जिस्म को मानो लकवा मार गया था ।

    । वह फटी–फटी आंखों से, नीचे पड़े खून से लथपथ सूरज को ताकता रहा । फिर उसके हाथ स्वयमेव ही समर्पण की मुद्रा में ऊपर उठ गए । उसे हथकड़ियां लगाकर पुलिस जीप में बैठा दिया गया ।

    सूरज ने हॉस्पिटल पहुंचने के बाद दम तोड़ दिया । लेकिन मरने से पहले उसने सारी सच्चाई पुलिस को बता दी थी ।

    अमर ने भी असलियत बता दी ।

    अमर पर सशस्त्र लूटमार, पुलिस अधिकारियों पर गोलियां चलाने, कार की चोरी वगैरा जुर्मों में शामिल होने के आरोप में मुकदमा चला । उसकी जमानत नहीं हो सकी क्योंकि जमानत देने वाला कोई नहीं था । छह महीने केस चला फिर उसे तीन साल की सजा सुना दी गई ।

    अमर जेल चला गया ।

    वक्त गुजरता रहा ।

    दो साल बीत गए ।

    फिर एक ऐसी घटना हुई जिसने उसे असिस्टेंट जेल सुपरिटेंडेंट कुलदीप नारंग के बेहद करीब ला दिया । कुलदीप की उम्र करीब तीस वर्ष थी । स्वस्थ शरीर, आकर्षक व्यक्तित्व, स्वभाव से मिलनसार लेकिन कायदे–कानून का पक्का पाबंद | उस रोज होली का त्यौहार था । लगभग सभी कैदी खुशी–खुशी त्यौहार मना रहे थे । पुराने और खलीफा टाइप कुछ कैदी शराब जुटाने में भी कामयाब हो गए थे । शराब के नशे में उन्होंने खूब ऊधम मचाया । उनसे परेशान लोगों ने विरोध किया तो कई की पिटाई कर दी गई । बात कुलदीप नारंग तक पहुंची । उसने हंगामा मचा रहे कैदियों को समझाने की कोशिश की । उन पर कोई असर न होता देखकर उसने डांट लगाई और उनके खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने की धमकी दी । हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सजा पाए चार ख़लीफाओं ने इसे अपनी तोहीन समझा । नशे की झोंक में वे कुलदीप नारंग पर टूट पड़े । उन चारों का बाकी कैदियों पर खासा दबदबा था इसलिए अन्य कोई बीच में नहीं आया । अमर को नशे में चूर उन चारों के इरादे खतरनाक प्रतीत हुए । अंजाम की परवाह किए बगैर अगर वह मदद नहीं करता तो उन चारों ने कुलदीप नारंग को जान से मार डालना था । बाद में वार्डन, संतरी वगैरा भी आ गए और उन चारों कैदियों को अलग–अलग कोठरियों में बन्द कर दिया गया ।

    कुलदीप नारंग ने जान बचाने के लिए अमर का तहेदिल से शुक्रिया अदा करते हुए वादा किया कि वक्त आने पर वह अमर के इस अहसान का बदला जरूर चुकाएगा ।

    तत्पश्चात् अपनी–अपनी सीमा में रहते हुए भी उनके ताल्लुकात दोस्ताना हो गए ।

    कुलदीप नारंग ने अपना वादा पूरा किया ।

    रिहाई से करीब दो हफ्ते पहले उसने अमर को सूचित किया कि उसके लिए नौकरी का इन्तज़ाम कर दिया गया था ।

    अमर बेहद खुश हुआ । वह जानता था, किसी सज़ायाफ्ता मुज़रिम को नौकरी देना तो दूर रहा, लोग उससे बातें करने में भी कतराया करते हैं । इसलिए उसने यह पूछना भी मुनासिब नहीं समझा कि उसे काम क्या करना पड़ेगा । उसके लिए यही बड़ी भारी गनीमत की बात थी कि जेल से छूटने के बाद सड़कों पर भटकने की बजाय उसे सर छुपाने को जगह मिल जाएगी ।

    पिछली शाम रिहाई के बाद कुलदीप नारंग उसे अपने स्टाफ क्वार्टर में ले गया । वह अविवाहित था और अकेला ही रहता था ।

    अमर ने वहां पहले जी भर के स्नान किया । फिर कुलदीप नारंग द्वारा दी गई नई टी शर्ट और जीन्स पहन ली । तगड़ा नाश्ता कराने के दौरान कुलदीप ने उसे उसकी नौकरी सम्बन्धी जानकारी दे दी । अंत में जरूरी जरूरियात के लिए पांच सौ रुपए देते हुए कहा कि वक्त मिलने पर अमर मिलने आता रहे ।

    अमर ने उसका शुक्रिया अदा करते हुए उससे विदा ले ली ।

    अचानक उसका विचार प्रवाह छिन्न–भिन्न हो गया ।

    बस रुक चुकी थी । कंडक्टर ऊंची आवाज़ में चिल्ला रहा था–करीमगंज आ गया, बाबूजी ।

    अमर हड़बड़ाता–सा उठा और अपना एयर बैग उठाकर नीचे उतर गया ।

    अपनी रिस्टवाच पर निगाह डाली–बारह बजने में अट्ठारह मिनट थे । उसने आसपास निगाहें दौड़ाईं, फिर बस अड्डे की इमारत से बाहर आकर बायीं ओर चल दिया ।

    करीब पचास गज आगे काले रंग की लिकन कार खड़ी थी । कार का नंबर वही था जो कुलदीप नारंग ने बताया था ।

    अमर कार के पास पहुंचा ।

    ड्राइविंग सीट पर आसमानी रंग की साड़ी और मैचिंग स्लीवलैस ब्लाउज पहने बैठी एक युवती खिड़की से बाहर कहीं देख रही थी । उसके घने, काले और चमकीले बाल कंधों तक कटे हुए थे । उस स्थिति में, दायीं खिड़की के पास खड़े अमर को उसका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था । लेकिन उसकी गोरी सुडौल बाँह और उन्नत वक्षों से वह युवती की खूबसूरती का अंदाजा जरूर लगा सकता था । उसकी बगल वाली सीट पर रोज़मर्रा के घरेलू इस्तेमाल की चीजों के पैकेटों से भरे दो बड़े–बड़े थैले रखे थे ।

    हलो ! अमर ने

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