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Mohabbat 24 Kairet (मोहब्बत 24 कैरेट)
Mohabbat 24 Kairet (मोहब्बत 24 कैरेट)
Mohabbat 24 Kairet (मोहब्बत 24 कैरेट)
Ebook441 pages4 hours

Mohabbat 24 Kairet (मोहब्बत 24 कैरेट)

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चोर हूँ!! आपके एहसास चुराकर अफसाने लिखता हूँ
ये लाइन अक्सर दोहराने वाले 'मृदल कपिल' तेजी से चर्चित होते युवा लेखक हैं। युवाओं एवं गम्भीर वर्ग के पाठको में ये अपने बेबाक और निष्पक्ष लेखन की वजह से एक अलग पहचान रखते हैं।
इससे पहले मृदल के दो कहानी संग्रह 'चीनी कितने चम्मच'
'कानपुर की घातक कथाएँ 1' (आंचलिक कहानी संग्रह)
न सिर्फ पाठकों के बीच अत्यंत लोकप्रिय रहा बल्कि अब तक चर्चा में हैं। हाल के वर्षों में मृदल का रुझान रंगमच की तरफ भी रहा है। इनके लिखे एवं मंचित कई नाटकों ने दर्शकों को काफी प्रभावित किया है।
मुदल आजकल किस्सों-कहानियों और उपन्यास के अतिरिक्त कई सारे ओ.टी.टी. चैनल्स के लिए फ़िल्में और वेब-सीरीज लिख रहे हैं। उम्मीद हैं कि जल्द ही इनका लेखन पर्दे पर भी दिखेगा।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 15, 2022
ISBN9789355993571
Mohabbat 24 Kairet (मोहब्बत 24 कैरेट)

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    Mohabbat 24 Kairet (मोहब्बत 24 कैरेट) - Mridul Kapil

    मोक्षदा

    न... अब ज्यादा कुछ बचा नहीं है। एकाध घंटे की बात और है... एक भारी और गर्म आवाज गूंज उठी।

    क्या उपाध्याय जी!!! जब ज्यादा कुछ बचा नहीं था तो तीन महीने का किराया क्यों जमा करवा लिए पहले ही एक युवा लेकिन कुछ-कुछ गुस्से वाली आवाज ने पूछा।

    अरे गुरु! नियम है अपने आश्रम का। कुछ बड़े इतने जडीले होते हैं कि महीनों तक अटके रह जाते हैं... फिर वही भारी आवाज गूंजी।

    ...अच्छा देखिए जो भी करना है जल्दी करिए। मेरे पास ज्यादा टाइम नहीं है। दो घंटे बाद मेरी दिल्ली की फ्लाइट है... युवा आवाज ने खिड़की के पास खड़े होकर कहा।

    गजब आदमी हैं आप...! अब जब शरीर प्राण त्यागेगा तभी तो हम कुछ करंग। नहीं तो का हम गर्दन दबा के निपटा दें...? इस बार भारी आवाज में हल्का सा गुस्सा भी था।

    कमरे में सन्नाटा छा गया। चरमराते पलंग पर लेटे बाबू जगत जीवन राम यानी जेजेआर के कानों तक ये बातें पहुँच तो रही थीं लेकिन जैसे उन तक आते-आते शब्द एक लम्बी यात्रा की वजह से थक से जाते थे। उन्होंने जोर लगाकर अपनी बायीं आँख खोलने की कोशिश की, आधी से अधिक रौशनी खो देने के बाद भी उनकी आँख ने सीलन और अँधेरे से भरे कमरे में उनकी कलाई पकड़े बैठे एक पीले वस्त्रों वाले अजनबी, खिड़की पर खड़े उनके इकलौते पुत्र उज्ज्वल व खिड़की के बाहर लगे ‘मोक्षदा-मुक्ति भवन, काशी’ के बोर्ड के दर्शन करवा दिए।

    सारा दृश्य देखते ही उनके मस्तिष्क ने उन्हें सूचित किया कि वो अब मरने वाले हैं और इस बार उन्हें मरने पर मोक्ष मिल सके इसलिए वे काशी के मुक्ति-भवन में जमा करवा दिए गए हैं। मस्तिष्क में काशी का नाम आते ही जेजेआर के जेहन में मौत और शिव के बाद जो सबसे पहले याद आया वो था ‘रबड़ी वाली लस्सी का हुंडा’।

    वाह! क्या स्वाद होता है।

    जेजेआर ने उसी स्वाद को याद करने के लिए अपने सूखते लबों पर जुबान फिराई।

    जल्दी से गंगाजल और तुलसी पत्र लाओ रे... पीले वस्त्रों वाले अमर उपाध्याय चिल्लाएँ। चंद पलों बाद ही जेजेआर को अपने होठों पर तुलसी की पत्तियों की छुअन और गंगाजल की शीतलता महसूस हुई। अचानक से उनको लगा कि वो अपने गुजरे जीवन की यात्रा पर निकल पड़े हैं। अपने खुद के जीवन का चलचित्र उनके मानस पटल पर चलने लगा।

    ...अरे! अभी बाँधना नहीं है, साँसें चल रही हैं शायद बीपी हाई हुई है यार अमर उपाध्याय ने बोला तो लेकिन उसकी आवाज जेजेआर की कानों तक नहीं पहुंची।

    वे तो ठहरे से गाँव की शांत अमराइयों के साथ बचपन से भी छलांग लगाकर नए बसते शहर में आ रुके थे। उसी नए शहर के शोर के साथ इनकी जवानी आई और उसी शहर की तेज रफ्तार ने उन्हें जगत जीवन राम से जेजेआर बना दिया। जेजेआर के सामने ही कस्बा, नगर और फिर महानगर में तब्दील हुआ। उनको ये शहर भी अक्सर अपनी ही तरह लगता था। जैसे वह भी उनके साथ ही बढ़ा, संघर्ष किया, जवानी की रंगीनियाँ देखीं और उनकी तरह ही बूढ़ा हो पुराना शहर हो गया। उनकी तरह ही खंडहर और बिना जरूरत वाली हो गई वे इमारतें जो कभी शहर की शान हुआ करती थीं।

    एकदम से एक तेज पुरुष रुदन से न सिर्फ कमरे की बल्कि मुक्ति-भवन की दीवारें भी हिल उठीं। चूँकि दीवारें मुर्दा थीं, तो वो हिलकर भी न हिल सकी। लेकिन जेजेआर अभी मुर्दा होने से बचे थे। इसलिए वे हिले, न सिर्फ हिले बल्कि करीब-करीब चिथड़ों में तब्दील हो चुके बिछौने से उठ खड़े हुए। उठते हुए उन्होंने खिड़की के बाहर नजर डाली। सूरज अपना तेज खोकर अपनी अंतिम यात्रा में था। रुदन का स्वर और तेज हो गया था। जेजेआर ने टटोलते हए न सिर्फ नीम अँधेरे में डूबे कमरे का दरवाजा खोल लिया बल्कि रुदन के स्वर का अंदाजा लगाते हुए उसकी तरफ बढ़ चले।

    ये तीन मंजिला मुक्ति-भवन का बीच वाला तल था। तीनों तल्लों में चारों तरफ हरे किवाड़ों वाले कमरे थे और उनके सामने बरामदे।

    बीच और सबसे ऊपर वाले तल्ले में बरामदे के सामने लोहे का मजबूत जाल बिछा था। उसी काले जाल पर लाल ओढ़नी में लिपटा एक स्त्री का मृत शरीर दो लड़के हरे बाँस की तख्ती में बाँध रहे थे। जाल के नीचे और ऊपर से कई जोड़ी बुजुर्ग आँखें एकदम खामोशी से जिन्दगी और मृत्यु के फर्क को निहार रही थीं। तख्ती के बगल में बैठा पुरुष लगातार रो रहा था। उसके रुदन को देख जेजेआर ने जाना कि परुष के रुदन की पीडा सदैव अकथ्य और अपरिभाषित रहेगी...।

    ....ये देखो तनिक, लग रहा था कि घंटा भर में कंधा पर सवार होकर निकलने वाले हैं बाबूजी और अब देखो मुक्ति-भवन की हवा ऐसी सूट की है कि दूसरे को कंधा देने आ गए हैं..." अर्थी बाँध रहे लड़कों को निर्देश दे रहे अमर उपाध्याय ने हँसकर जेजेआर को देखते हुए कहा।

    ...अरी शकुंतला ई का करी तुम... तुम तो हमको मुक्ति दिलवाने काशी लाई थी और खुदय चली गई। तुम्हारे बिना हमको कैसे मुक्ति मिली...?" पुरुष रुदन और हिचकियों को एक साथ मिलाते हुए कहा।

    ...चिंता न करो चाचा! अभी ग्यारह दिन बाकी हैं तुम्हारे महीना पूरा होने में, निपट ही जाओगे। चाची की बड़ी किस्मती थी कि बिना बुकिंग के ही मोक्ष के लिए निकल गई, नहीं तो बनारस में मरने वालों की कित्ती लम्बी वेटिंग है। अमर ने मसाला फाँकते हुए अर्थी की तरफ इशारा कर कहा उठाओ गुरु!..ले आओ चाची को... मुक्तिघाट।"

    शकुंतला की अर्थी जा चुकी थी और उसके पीछे बिलखता पुरुष। मुक्तिभवन में अँधेरा और सन्नाटे के साथ चंद बुजुर्ग साँसें भर शेष रह गई।

    जेजेआर काफी देर तक तो उसी ठंडे होते लोहे के जाल पर बैठे रहें और फिर दीवार का सहारा लेते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ चलें। जाने क्यों आज उन्हें कई साल पहले गुजर गई पत्नी राजरानी बहुत याद आ रही थी। उनके कानों में बार-बार पुरुष के शब्द ...अब तुम्हारे बिना हमें मुक्ति कैसे मिलेगी शोर कर रहे थे।

    बिछौने पर बैठते ही फिर से गुजरी यादों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। ऐसा लगा जैसे उनकी राजरानी उनके बगल में आकर बैठ गई है। कितने अरमानों से रखा गया होगा उसका नाम राजरानी जिसके साथ जुड़े राज को उन्होंने पहले ही दिन उड़ा दिया था। वो रह गई थी सिर्फ रानी। उनके साथ आधी से अधिक उम्र तक कभी कर्ज तो कभी दर्द में डूबी रही रानी, क्या कभी वास्तविकता में रानी होने का अर्थ या अनुभूति को समझ सकी थी...?

    सवाल ये भी था कि वे भी रानी को कब समझ सके थे...? वे तो उनके लिये एक पत्नी भर थी और वे जीवन भर उसमें प्रेमिका तलाशते रहें। लेकिन उसने कब शिकायत की थी उनसे? वह तो उनकी हर इच्छा, हर सनक को उनका आदेश मानकर जीती रही। उस जमाने के हाईस्कूल पास जगत जीवन ने घर चलाने के लिए आलू-प्याज बेचे हों, पल्लेदारी की हो या अंत में एक तेल मिल में पहले छोटे और फिर बड़े मुंशी यानि बाबू बने हों, पर रानी के लिए वे सदैव उसके राजा ही रहें। कभी-कभी वे झुंझला भी जाते कि कैसी जाहिल औरत है, कभी कोई शिकायत नहीं... कोई माँग नहीं।

    लेकिन इतना होने के बाद भी न जाने वे क्या तलाशते रहें जिसने उनको हरदम राजरानी से दूर रखा। वे तो उस दिन भी दूर थे जब राजरानी ने अपनी आखिरी साँस ली थी। बेटे का आईआईटी रुड़की में नाम लिखवाने आए वे जब तक वापस पहुँचते राजरानी राख में तब्दील हो चुकी थीं। (पड़ोसियों ने बताया था कि करंट लगने से राजरानी का शरीर इतना जल चुका था कि उसे रखा नहीं जा सकता था) जिस पाँच फिट वाले बदन के कमर पर हरदम घर की चाभियों का गुच्छा लहराता रहता था वह उन्हें एक लोटे में भर के मिला था। ।

    उस दिन तो वे रो नहीं सके लेकिन आज वे अपनी रानी के लिए चिल्ला-चिल्ला कर रोना चाहते थे। आज उन्हें लग रहा था कि राजरानी ही तो उनकी साधना और मुक्ति थी पर उसे वे पहचान न सके थे।

    उन्होंने फिर से रोने की कोशिश की लेकिन आँखों में हल्की नमी के साथ गले से गों... गों की आवाज निकालने के अतिरिक्त जीर्ण शरीर ने और साथ न दिया।

    जेजेआर के कमरे के दरवाजे ने हल्की सी चरमराहट की। एक पल के लिए लगा जैसे वे भी उनके साथ रोने की कोशिश कर रहा है, लेकिन दरवाजे से होकर कमरे में प्रवेश करती चार्जिंग वाली टार्च की बीमार सी रोशनी ने उन्हें अहसास दिलाया कि कोई उनके कमरे में आ रहा है और ये अहसास होते ही राजरानी की यादों ने उनका साथ छोड़ दिया।

    ... लो खिचड़ी लाए हैं, खा लो एक जनाना स्वर ने कमरे की घुटन को जैसे शब्दों में समेटकर बाहर कर दिया।

    उन्होंने आवाज की तरफ देखने की भरपूर कोशिश की लेकिन इकलौती आँख में बची चंद कतरे रौशनी और कमरे की धुंधलेपन के सिवाय सफेद साड़ी में लिपटी आकृति के अतिरिक्त कुछ देख और समझ सकने की इजाजत न दी।

    आप कौन... मुक्ति भवन के दरो-दिवार ने पहली बार जेजेआर की आवाज सुनी।

    जी मैं सुगंधा! आपके बगल वाले कमरे में करीब दो महीने से मुक्ति का इंतजार कर रही हूँ। आज दोपहर में आपको आते देखा था। अभी थोड़ी देर पहले खाना बँटा है पर आपके कमरे का दरवाजा नहीं खुला तो हम जान गए कि आपने नहीं खाया और अभी आपको कराहते देखा तो आपके लिए भी ले आए.. सुगंधा ने खिचड़ी की प्लेट उनके बिस्तर पर रख दी और घुटने पर हाथ रख जमीन पर बैठ गई।

    ...जी। लेकिन अब मृत्यु ही होनी है तो क्या खाना, क्या पीना...? जेजेआर ने जमाने भर की निराशा अपनी आवाज में भरते हुए कहा।

    मृत्यु होनी है ये तो उसी दिन निश्चित हो गया था, जिस दिन आपने जन्म लिया था। तो फिर इतने दिन क्यों खाते-पीते रहे...? जो चल कर आएगी वो मृत्यु है और खुद से बुलाई जाएगी वो आत्महत्या। मृत्यु मुक्ति है और आत्महत्या भटकाव। सुगंधा ने इतने दिनों से सुने गये सारे प्रवचनों का सार चंद लाइनों में ही जेजेआर को सुना दिया।

    ...सही कह रही हैं आप। कहकर जेजेआर ने खिचड़ी का निवाला मुँह में डाला और धीमी आवाज में पूछा यहाँ घुटन नहीं होती आपको...? जेजेआर ने सवाल किया।

    नहीं... वो तो घर में होती थी... सुगंधा ने जेजेआर के कमरे में लगी इकलौती खिड़की को देखते हुए कहा। लेकिन घर तो अपना होता है न...? जेजेआर खुद नहीं समझ सके कि उन्होंने ये सवाल सुगंधा से किया है या अपने आप से।

    हाँ, अपना होता है, लेकिन तब तक जब तक शरीर बूढ़ा नहीं हो जाता है। उसके बाद हम अपने ही घर में पड़ी उस आराम कुर्सी की तरह हो जाते हैं, जिस पर चढ़कर बच्चों ने बचपन की अनेक शैतानियाँ की हों और बड़े होते ही वो आराम कुर्सी उनके लिए महज एक जगह घेरने वाला कबाड़ भर हो जाएँ... और वो जल्द से जल्द उससे छुटकारा पाना चाहते हों। जेजेआर को सुगंधा के स्वर में हल्की सी नमी जान पड़ी।

    मुझे नहीं लगता कि कोई भी संतान अपने माँ-बाप से छुटकारा पाना चाहती हैं... जेजेआर मानो खुद को ही बहला रहे हों।

    मुझे भी नहीं लगता था, जब तक एक दिन दबे स्वर में बेटे को बहू से ये कहते नहीं सुना कि अम्मा का तनिक ध्यान रखा करो। इतनी गर्मी में अगर मर गई तो जो घर में चार-चार एसी चलते हैं इनका बिल भरने में ही हम चुक जायेंगे। कम से कम बुढ़िया की वजह से फ्री की बत्ती तो मिल रही है... इस बार सुगंधा की आवाज में कम्पन भी था।

    जेजेआर के गले में निवाला फँस गया। उनकी खाँसी तब बंद हुई जब उन्हें अपनी पीठ की ढीली खाल पर सुगंधा के खुरदुरे हाथ का स्पर्श महसूस हुआ। थोड़ी देर साँस लेने के बाद जेजेआर ने फिर सवाल किया तुम्हें बुरा नहीं लगा...

    ...लगा लेकिन सिर्फ कुछ देर के लिए, फिर लगा इनके न रहने के बाद मृतक आश्रित के तौर पर बिजली विभाग में लगी मेरी नौकरी कितनी सही थी जो वेतन, फंड, पेंशन सब परिवार की भेंट चढ़ जाने के बाद भी बच्चों को फ्री बिजली तो मिल रही है... कुछ पल रुकने के बाद सुगंधा जैसे खुद से ही बात करने लगी अब तो गर्मी खत्म हो गई है, अब कुलदीप को दिक्कत नहीं होगी। हे भोलेनाथ अब तो मुक्ति दो... सुगंधा अपने घुटनों पर हाथ टेकती हुई उठी और टार्च के प्रकाश का वृत बनाते हुए कमरे से निकल गई।

    पता नहीं सुगंधा की बातों में कुछ खास था या फिर ये जेजेआर के अकेलेपन का असर था जिसने मृत्यु के इंतजार को ठहरे कमरे में जैसे चंद कतरे जिन्दगी भर दी थी।

    ...अच्छा देखिए जो भी करना है जल्दी करिए। मेरे पास ज्यादा टाइम नहीं है। दो घंटे बाद मेरी दिल्ली की फ्लाइट है..."

    बिछौने पर लेटते बुजुर्ग अवचेतन मन पर दोपहर से फँसे बेटे उज्ज्वल के शब्द जैसे काँटे बनकर उग आएँ। कुछ पलों में मन से जेजेआर का चोला उतर गया और वो मिल मालिक के सामने बेटे की फीस के लिए एडवांस माँगने के लिए हाथ जोड़े खड़े बाबू जगत जीवन राम बन गए। उन्हें याद आने लगे वो दिन जब उज्ज्वल की पेशाब से भीगी वो कथरियाँ (बिछौने) जिनके गीले हिस्से में वे या रानी रात भर इसलिए लेटे रहते थे कि गलती से भी बेटे का कोई अंग इसपर न पड़ जाए और उसे सर्दी न लग जाए।

    उन्हें याद आया बेटे के पहले कदम के साथ ही उन्होंने अपना आधे से भी आधे दाम में खरीदा गया स्कूटर खड़ा कर फिर से मिल जाने के लिए खस्ता हाल साइकिल निकाल ली थी, क्योंकि अब बेटे के भविष्य के लिए भी तो कुछ करना था।

    ...कुछ करना था, कभी उज्ज्वल की नई किताबों, कभी उसकी नई ड्रेस, कभी नए कॉलेज और फिर उसकी जिंदगी में आए नए मेहमान के लिए।

    ...और जब करने की बारी बेटे की तरफ गई तो बेटे ने बाप वाला हिस्सा कोरा पाया। कई संदेशों के बाद जब उज्ज्वल वापस शहर आया तो उसको जगत जीवन के मुँह से एक बार फोन पर निकली बात बेटा! हम चाहते हैं कि हमारी मुक्ति बनारस में हो... को उसने बाप की अंतिम इच्छा मान ली और उन्हें मुक्ति-भवन में पहुँचा कर ही उसने मुक्ति पाई। अंदर से तो वे भी चाहते थे कि बेटा उन्हें अपने साथ ले जा सके, जिसे गोद में खिलाया था वे उसकी ही गोद में अपना अंत चाहते थे। लेकिन एक फिर बेटे के लिए वो कुछ कर सकें इसलिए अपनी मुक्ति के बहाने उसे मुक्त कर दिया।

    ... लेकिन इन सबके बीच में तुम कहाँ थे जगत जीवन राम...? तुम तो अपने गाँव में धोबिन की लड़की से हुए पहले प्रेम की तरह सब दफनाते ही चले गए...? उन्होंने खुद से सवाल किया।

    वक्त ही कब मिला मुझे अपने लिए...? जैसे वो खुद ही अपने वकील बन गए।

    वक्त की यही तो खासियत है बाबू जी कि वो वक्त नहीं देता... तुमने वक्त निकाला भी कब" उनके जेहन में ही उनका प्रतिवादी वकील भी तैयार था।

    ... तो क्या हुआ अब जी लेता हूँ अपनी जिंदगी। पहला न सही जीवन के अंतिम प्रेम को जी लेता हूँ... मन के किसी कोने से आवाज आई।

    वाह! बुड्ढे वाह! मुक्ति-भवन में आ कर जिंदगी के बारे में सोच रहे हो...? अब बस मरने की सोचो। जिंदगी तो तुम पहले ही खर्च कर चुके हो। मन ने मन के सामने ही आईना रख दिया।

    कोई बात नहीं, मरने वाला हूँ न, अभी मरा तो नहीं हूँ... जब घर, नाते मोह सब छट गया है तो शरीर छुटने से पहले क्यों न थोडा सा खुद के लिए जी लूँ। ये सोचकर जगत जीवन राम अपने पोपले मुँह से थोड़ा सा मुस्कुराएँ और फिर उनके खर्राटे पूरे कमरे में गूंजने लगें।

    अगले दिन का सूरज न सिर्फ जेजेआर के लिये बल्कि मुक्ति-भवन के लिए भी नया रंग लेकर निकला। कराह और चीत्कार से होने वाली मुक्ति-भवन की सुबह जेजेआर के बेसुरे ही सही लेकिन मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने... से हुई। मौत के घर में प्रेम गीत के शब्दों ने सबको हैरान कर दिया।

    उन्होंने सुगंधा से कुछ नहीं कहा, सुगंधा ने उनसे कुछ नहीं पूछा। लेकिन न जाने ऐसी कौन सी डोर थी जिसने टूटे हुए अंतिम यात्रा के राहीयों को एक कर दिया। हफ्ते भर में सबको जेजेआर की और जेजेआर को सुगंधा की आदत सी पड़ गई। सुबह से शाम तक सबको हँसाना, हर अर्थी को कंधा देना और शाम को मुक्ति भवन से जुड़े गंगा तट पर खामोशी से अपने काँपते हाथों में सुगंधा का हाथ पकड़े बैठे रहना उनकी दिनचर्या बन गई।

    डॉक्टर, दवाइयाँ, परहेज तो वो न जाने कब के गंगा में प्रवाहित कर चुके थे। अब उनको को देखकर ऐसा लगता कि वे अपनी मृत्यु का जश्न मनाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। इस बीच सिर्फ उनकी जिंदगी ही नहीं, उनकी आँखों की ज्योति भी साथ छोड़ रही थी लेकिन वो जान ही नहीं पाए थे कि इस ज्योति की जगह कब सुगंधा ने ले ली है।

    अब वे दोनों चुपचाप मुक्ति-भवन से निकल बनारस की रंगीन और तंग गलियों में खो जाते। उनका रिक्शा कभी गदौलिया में रुकता तो वे लौंगलता और लस्सी की मिठास में डूब जाते, तो कभी पूरी शाम अस्सी घाट पर बैठे नींबू वाली चाय सुड़कते रहते, कभी लंका गेट का बिना सुपारी वाला पान मुँह में किमाम की मिठास घोल देता। कभी नाव से उस पार जाते तो, कभी दिन में दो-दो बार महादेव के दर्शन कर आते। सुगंधा के खाते में बची रह गई पेंशन की अंतिम किश्त से उन्होंने सारे सपने खरीद लिए थे।

    ऐसी ही एक शाम गंगा आरती के बाद सुगंधा ने सवाल किया ... जानते हैं हमको दो अटैक आ चुके हैं, किसी दिन ऐसे ही घाट पर बैठे-बैठे ही तीसरा आया और हमको मुक्ति मिल गई तो क्या करोगे...?

    जेजेआर कुछ देर तक खामोश रहें और फिर टटोल कर सुगंधा का हाथ अपने हाथ में ले लिया ... आखिरी प्रेम हो तुम हमारा सुग्गू, पहला तो गाँव में ही दफना आए थे लेकिन अंतिम को आग जरूर देंगे...

    ... तो फिर मणिकर्णिका ही ले चलना... सुगंधा ने सामने बारिश से भरी हुई असीम गंगा को देखते हुए कहा।

    अगले दिन सुबह जेजेआर सुगंधा के साथ नहीं निकले। आज उनका सारथी अमर उपाध्याय बना जिसने उन्हें ले जाकर मणिकर्णिका के डोम राजा भीखू के सामने खड़ा कर दिया। तमाम झंझावातों के बाद भी जगत जीवन राम की तर्जनी में अपने कलेवा में मिली इकलौती सोने की अंगूठी अब तक मौजूद थी। भीखू डोम बड़ी मुश्किल से वो अंगूठी उनकी काँपती उँगली से उतार पाया। अंगूठी जेब में रखने के बाद भीखू ने जगत जीवन राम के नाम की दो चिताएँ बुक कर दी।

    आज बड़ा अजब सा दिन था। दोपहर में बहुत देर तक आसमान से कड़क धूप और बारिश एक साथ बरसती रही थी। आज सुगंधा के मुक्ति-भवन में तीन माह पूरे हो रहे थे और कल उन्हें मुक्ति-भवन छोड़ना था। मुक्ति भवन का सीधा सा नियम था या तो तीन माह में चार कन्धों पर जाओ या फिर अपने पैरों पर। लेकिन तीन माह में कमरा खाली हो जाना चाहिए।

    जेजेआर ने कई बार सुगंधा से पूछा कि कल वो कहाँ जाएगी पर वो हर बार मुस्कुरा कर खामोश हो गई। केदार घाट पर गंगा सीढ़ियों तक आ गई थी। नजर की परिधि तक सिर्फ जल ही जल था। बादलों की छतरी में घिरा सूर्य धीमे-धीमे गंगा में विलीन हो रहा था।

    सुगंधा ने ऊपर की सीढ़ी पर बैठे-बैठे ही दोने में रखा दीपक जलाया और जेजेआर का हाथ अपने हाथ में थाम दीपक को गंगा की असीम भव्यता में प्रवाहित कर दिया। लेकिन कौन जानता था कि इस पत्ते के दोने में सिर्फ दिया ही नहीं सुगंधा की आत्मा भी प्रवाहित हो रही है। दिया कुछ दूर जाकर भँवर में चक्कर खाने लगा और सुगंधा का शरीर शांत हो जेजेआर के बदन पर झूल गया।

    बाबू जगत जीवन राम जरा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपने खुरदुरे हाथों को सुगंधा की आँखों पर फेर उन्हें बंद किया और काँपते हुए उसका माथा चूम लिया।

    मणिकर्णिका में अनवरत चलते मृत्यु उत्सव के बीच एक और चिता सज गई थी।

    बाबू जगत जीवन राम ने तनिक झुक कर चिता पर लेटी सुगंधा के कान में कहा कभी किसी से बताया नहीं सुग्गू, लेकिन शहर आने पर परिवार पालने के लिए कई महीनों तक लावारिस लाशों को भी ढोया था। लेकिन बस ग्लानि ये रही कि अपनी पत्नी को कंधा न दे सका था लेकिन आज तुमने वो ग्लानि भी दूर कर दी। अब मैं भी तर जाऊँगा। इससे पहले कि जेजेआर की आँखों से निकली अश्रु की बूँदें चिता पर गिरती वे खुद ही चिता पर जा गिरें।

    भीखू डोम का लड़का चिल्लाया ... ये बुड्ढे दादा भी मुक्ति पा गए...! का करें?

    इसी चिता में डाल कर इनका भी फूंक देयो, दोनों लावारिस हैं भीखू डोम ने मुँह में भरे पान की पीक को गंगा में थूकते हुए चिल्लाकर जवाब दिया। गंगा के जल का एक हिस्सा सुर्ख लाल हो गया। चिता की लपटें आसमान की ओर बढ़ चलीं।

    "कहाँ भयो तन बिछुरै, दुरि बसये जो बास

    नैना ही अंतर परा, प्रान तुम्हारे पास"

    तुम्हें याद हो या न याद हो

    ... अच्छा बस अब लास्ट सेल्फी वहाँ पर..प्लीज चलो न धुन ने यथार्थ की बाँह पकड़ उसे करीब खींचते हुए कहा।

    अरे... देर हो रही है बाबू!.. अच्छा चलो यथार्थ ने पहले हल्का सा विरोध किया और फिर खुद ही हथियार डाल दिए।

    कुछ ही पलों में समन्दर की लहरें उनके पैरों तक आकर मचल गई। बस इसी के साथ यथार्थ और धुन का दिल भी मचल गया। दूर तलक खामोशी-सी फैली हुई तन्हाई किसी वफादार की तरह पहरेदारी करते विशाल ताड़ के पेड़, सामने हल्के संगीत के साथ लहराता असीम नीला समन्दर.. और जब ऐसे में आपका खूबसूरत हमसफर आपके साथ हो तो कोई खुद को सम्हाले भी तो कैसे..?

    नीली टी-शर्ट और काले चश्मे में सजे यथार्थ ने नीली टॉप वाली धुन को अपनी मजबूत बाँहों में उठाया और नीले समन्दर की तरफ बढ़ चला। थोड़े पानी में पहुँच उसने धीमें से धुन को शांत हल्के गुनगुने पानी में गिरा दिया। धुन को जैसे पहले ही यथार्थ की हरकत का अंदाजा था इसलिए उसने गिरते हुए अपनी बाँहों का बंधन उसके गले में डाल दिया। यथार्थ मुस्कुराया और धुन के बगल में आ गिरा। धुन ने एक अंजुल पानी यथार्थ के चेहरे पर किसी गुलाब की तरह फेंक मारा। बदले में यथार्थ ने कई अंजुल पानी उस पर उलिच दिए।

    समन्दर हल्का-सा मुस्कुराया और अपनी एक नर्म लहर की चादर से दोनों को भिगो गया। यथार्थ ने धुन को

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