Risthon Ke Moti (रिश्तों के मोती)
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अब चाहे यह "ये नई पीढ़ी" नामक कहानी में बहुत ही सुन्दर तरह से नई पीढ़ी को अपने सिंगल रह गये माता-पिता के अकेलेपन की समस्या को सुलझाते हुये दिखाया गया हो अथवा “मधुयामिनी" में बूढ़े माता-पिता को उम्र के इस पड़ाव पर अपने लिये एक नई राह चुन कर उस पर एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर एक साथ चलने का फैसला है। जिसे उन्होंने “मधुयामिनी" नाम दिया है। अर्थात् " हनीमून " । चाहे अपनी समझ से अपनी गांव की समस्याओं से लड़ती व उन्हें सुलझाती हुई " संतो बुआ" हो या विदेशों की तरफ भागते हुए युवाओं को अपने देश में वापस आकर बसने का संदेश देती हुई कहानी " आ अब लौट चलें" हो अथवा पूरी जिंदगी नौकरी पैसा के लिए शहरों के छोटे-छोटे से कमरों में पूरी जिंदगी बिताने के बाद रिटायरमेंट के समय अपनी जड़ों-गांवों की तरफ मुड़ने और एक सुन्दर व स्वस्थ्य जिंदगी जीने का संदेश देती कहानी "दिशा"। इसी प्रकार इस पुस्तक की अन्य, कहानियाँ " भी आपको सुन्दर प्रकृति दर्शन कराती हुई कुछ सुन्दर कहानियों का गुलदस्ता है।
उम्मीद करते हैं कि बेला मुखर्जी का यह प्रयास आपको आपके ही कुछ सुन्दर पलों से जोड़ेगा व आपको पसंद आयेगा...
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Risthon Ke Moti (रिश्तों के मोती) - Bela Mukherjee
मोहन की राधा
मन वीणा के सात तारों में से कब, कौन से तार से झंकार उठ मनुष्य की सामान्य दिशा को बदल विपरीत दिशा में ले जाए कोई नहीं जानता। उसका थोड़ा सा आभास भी अगले पल तक उसे पता नहीं होता। पृथ्वी के इतिहास, साहित्य, पौराणिक कथाएं और महापुरुषों के जीवन गाथाओं में इन सबके उदाहरण भरे पड़े हैं। चाहे गौतम बुद्ध को लें या लुटेरा रत्नाकर को, उनके भी मन के वीणा के तारों से किसी घटना के कारण एक तार से सुर झंकृत हुआ, मन मस्तिष्क पर छा गया और उनके जीवन पथ की दिशा बदल गई। हजार आकर्षण, मानसिक दुर्बलता या बन्धन भी लौटाकर फिर से उनके जीवन को पुराने पथ पर नहीं ला सकी।
हम वरिष्ठ लेखक-लेखिकाओं की एक गोष्ठी है। इसमें वो चन्दा, मेम्बरशिप नहीं यों ही किसी के घर जम गए गपशप हुई। कुछ नवीनतम कहानी उपन्यासों पर चर्चा हुई, अपने-अपने विचार रखे गए। अपनी नवीनतम रचना को पढ़कर सुनाया उस पर विचार किया गया फिर खाना खाकर सब अपने घर चले। यह शुरू तो किया था मुकुन्द दादा ने वो हम सबसे सीनियर हैं। वो कुछ लिखते तो जब तक किसी को ना सुनाते, उनके विचार नहीं सुनते, उनको चैन नहीं पड़ता। वो उस रचना को तब तक प्रेस में भी नहीं भेजते। कहावत है न कि घर से तो अकेले ही चले थे। रास्ते में लोग आते गए कारवां बनता गया। यहां भी वही हुआ। मुकुन्द दादा के सबसे स्नेह पात्रों में मैं, मनोहर जी थे और राजन जी थे। वैसे स्नेह सबसे ही था। मुक्त पुरुष। तीस साल का पुराना नौकर गोकुल लगभग उतनी ही पुरानी बाई लेकर वो आराम से अपनी विशाल कोठी में रह रहे हैं। सरकारी उच्च पद पर थे अवसर लेते ही साहित्य सेवा में लग गए। पत्नी तो बहुत दिन हुए स्वर्गवासी हो गई। बेटा-बेटी पंख मजबूत होते ही विदेश उड़ गए। अब उनको देश के लाड़ले संतान होने से विदेश के दुत्कारे दूसरे दर्जे के नागरिक बन कर जीना पसन्द है। पर पिता से लगाव नहीं, उनकी चिंता नहीं यह तो कोई दुश्मन भी नहीं कर सकता। प्रति वर्ष भाई बहन बारी-बारी से आते हैं उनके पास। जितने रुके और पेचीदा काम पड़े रहते वे उन्हें निपटा जाते हैं। डॉक्टर से मिलना, पूरा चैकअप कराना, घर की मरम्मत, रंगाई-पुताई, टैक्स जमा करवाना सब वही करवा जाते हैं। हर दूसरे दिन फोन करते हैं पर हाथ-पैर जोड़ गुस्सा, अकड़, झगड़ा करके भी उनको हफ्ता भर के लिए इस घर के बाहर नहीं ले जा सके। वैसे यहां अकेले वे मजे में हैं। बाग-बगीचा, पुराने मित्र और पुरानी वही साहित्य चर्चा और पत्नी की स्मृतियाँ। अधिकतर गोष्ठियाँ उनके घर पर होती हैं। क्योंकि उनका घर एक ऐसे बिन्दु पर है जहां से हम सभी का घर उनके घर के पास पड़ता है। दूसरा कारण गोकुल का हाथ सोने से जड़ने योग्य है जो बनाता है उसमें अमृत का स्वाद घुल जाता है उस दिन की गोष्ठी थी मुकुन्द दादा के घर। कल ही दीपावली गई है। यह दीवाली मिलन भी था...... गोकुल की रसोई से कचौड़ी तलने की सुगन्ध आ रही थी तो सभी लोगों की भूख अंगड़ाई ले, जाग उठने की तैयारी कर रही थी। अचानक ही विजय बिहारी जी ने कहा,
एक बात बताना भूल गया था...... हमारे विक्रम प्रताप चौधरी जी ने सन्यास ले लिया है। कमरे में मानों बम का धमाका हुआ। इससे विजय बिहारी अगर यह कहता कि हावड़ा ब्रिज उठकर जमुना के ऊपर आ बैठा है तो भी इतने आश्चर्य में नहीं डूबते पर विक्रम चौधरी का सन्यास लेना? असम्भव शब्द के बाद भी कोई और जोरदार शब्द हो तो वही है। मुकुन्द दादा ने धमकाया।
क्या बकवास कर रहे हो। पिछले शनिवार ही तो आए थे। गोकुल से खालिस दूध की चाय बनवाई ..... अगली योजना के विषय में चर्चा की। कामता प्रसाद बोले।
‘योजना क्या थी ...?’
‘अरे चौधरी की हर योजना वही आकाश छूती होती है यह भी थी। ‘जमुना एक्सप्रेस वे पर एक ऐसा रिसॉर्ट बनाएगा जिसके बराबर रिसोर्ट पूरी दुनिया में नहीं होगा?’
‘पर दादा बात सच है। कल ही हवेली छोड़ वो चले गए हैं।’
‘कहां?’
‘जोशीमठ’ वहां किसी आश्रम में रह रहे हैं, वहीं रहेंगे।’
‘पर परिवार तो भरा पूरा है उसका, बच्चों ने, पत्नी ने रोका नहीं?’
‘रोका तो जरूर होगा पर उनके आगे कोई टिक सकता है क्या? चौधराइन रो पीट, पैरों पर लोट साथ जाना चाहती थी पर वे साथ नहीं ले गए। बोले, हवेली का आराम छोड़ आश्रम के सादे जीवन में एक दिन नहीं टिक पाओगी। क्यों बेकार में जग हँसाई करवाओगी।’
‘पर ऐसा क्या हुआ? बच्चों ने कुछ .......।’
‘बच्चे..! क्या मजाल उनके सामने मुंह खोलें, पत्नी तक तो कांपती हैं उनके आगे।’
‘फिर ऐसा क्या हुआ?’
‘पता नहीं।’
विक्रम चौधरी खानदानी रहीस हैं। कहीं के राजा या जागीरदार थे। पर थे पढ़े-लिखे और बुद्धिमान। जायदाद सरकार के कब्जे में जाने से पहले ही उनके पिता ने...... अपने परिवार की शान-ओ-शौकत बची रहे और सरकार के पंजे से भी बची रहे इतना छोड़ सारी सम्पत्ति ऊँचे दामों में बेच पैसा हाथों-हाथ निवेश कर डाला। बड़ी कम्पनियों के शेयर, होटल और बैंक, आफिसों की इमारत और बड़े और उन्नत ढंग से खेती, मछली पालन अकेले बारिस थे, वो पर ऐसे घर के बेटे जिस प्रकार के अय्याश हो जाते हैं वो उतने नहीं थे। शराब, मस्ती, दोस्तों पर उड़ाना सब कुछ था पर सीमा में रहकर। बच्चों ने सम्पत्तियों को सम्हाला और बढ़ाया। अब तो वर्षों से वो कुछ नहीं देखते। दोस्तों के साथ पीना-खाना मस्ती में समय कटता। हमारी गोष्ठों की तरह उनके घर में महफिल जमती, पीना और खाना चलता। पर वो हैं सज्जन पुरुष, गुणी जनों का आदर-सम्मान करते। हम सबसे ही सम्बन्ध मधुर हैं उनके! सबका मन भारी हो गया। गोकुल की कचौड़ियां और मेवा भरे दही बड़े बेस्वाद लगे।
घर लौटकर भी चैन नहीं पड़ा। बार- बार आँखों के सामने विक्रम चौधरी का मुख उभर कर आ रहा था। साठ को पार कर भी इतने प्राणोंच्छल और तरोताजा थे कि पच्चीस वर्ष का नवयुवक उनके सामने मात खा जाए। सबसे बड़ी बात उनका हृदय सोने से जड़ा था। किसी के सभी कष्टों को वो अपना मान उसके साथ आ खड़े होते। सभी लोग मुकुन्द दादा के घर से आज रात में देर से लौटे थे भारी सा मन लेकर, मैं फ्रेश हो जब बाथरूम से निकली तब ग्यारह बज रहे थे। थकान तो थी पर नींद कोसों दूर थी, बिस्तर छूने को मन नहीं हुआ। बालकनी के फोल्डिंग कुर्सी पर आ बैठी। शायद आज पूर्णिमा है।’ चाँदनी में धरती मन भर कर नहा रही है। दिल्ली की हाऊसिंग सोसाइटी होते हुए भी हमारा इलाका थोड़ा अलग सा है। मतलब फ्लैटस चार मंजिल तक ही थम गई हैं। कई बड़े-बड़े हरे-भरे पार्क हैं। राजमार्ग कटा हुआ भी है। इस प्रकार यहां हरियाली बहुत है। पक्षियों का निश्चिंत डेरा है। उधर देखते-देखते मुझे बहुत वर्षों की एक घटना याद आ गई। वर्षों पहले की बात है, तब मैं लगभग तीन वर्ष की युवती भर थी, हम लोग तब छोटे थे, तब एक घटना घटी थी। मुम्बई के बहुत बड़े एडवोकेट की इकलौती बेटी साधना आर्या चित्र अंकन में बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही थी। उसके बनाए चित्रों के मूल्य बढ़ते जा रहे थे। आर्ट प्रतियोगिता में देश क्या विदेशों से भी पुरस्कार जीत कर ला रही थी। आर्ट जगत के लोगों का आदर्श बनती जा रही थी वो मात्र बाईस वर्ष की आयु में। हम लोग छोटे थे। बड़ों के मुख से सुना करते थे ‘साधना’ के चर्चे। शोहरत के सिंहासन पर उसका अभिषेक होने ही वाला था कि वो अचानक गायब हो गई। कहां गई? क्यों गई? पता कैसे नहीं चला? कारण क्या था? इन रहस्यों से पर्दा उठाने का प्रयास बहुत लोगों ने किया पर सफल नहीं हो पाए। समय सबको भूला है तो उसे क्यों और कब तक याद रखता? वो भी लोगों की स्मृति से एकदम मिट गई। छोटेपन से मैंने लेखन के संसार में प्रवेश कर लिया था। तीस वर्ष की आयु तक आते-आते पूरी तरह प्रतिष्ठित हो गई थी। बहुत सारे मित्र, प्रिय पाठक मेरे घनिष्ठ हो गए थे हिन्दी भाषी क्षेत्र में। उन्हीं में से एक थे शिव कुमार जी। हमसे बहुत बड़े थे। उच्च पद पर काम करते थे। रहते दिल्ली में थे, वैसे कुमाऊँनी ब्राह्मण थे। एक पहाड़ी गांव में उनका सुन्दर घर था, कभी - कभी जाते थे वहां। पुराने नौकर चाकर वहां रहते थे। एक कहानी से प्रभावित हो उन्होंने स्वयं ही मुझसे सम्पर्क किया था और निकटता इतनी बढ़ गई कि दोनों परिवार आत्मजन बन गए। उन्होंने कई बार कहा था कि गरमी में उनके घर जाकर लेखन कार्य करूं, पर हुआ ही नहीं। उस बार बड़ी भयानक गर्मी पड़ी, दिल्ली में त्राहि-त्राहि मच रही थी। कूलर भी ठंडा नहीं कर पा रहे थे। उस समय घर - घर ए. सी. का चलन भी नहीं हुआ था। लोग सम्पन्न होकर भी कूलर में ही सन्तुष्ट थे। शिवकुमार जी ने फिर से अनुरोध किया तो सोचा चलो थोड़ी ठंडी हवा का आराम उठा ही आऐं। दिल्ली से बहुत दूर भी नहीं, भोर में चलें तो शाम तक पहुंच ही जाएंगे।
रात हो गई थी पहुंचने में, थकान थी दिन भर की। यहां की बूढ़ी नौकरानी और उसके बेटे ने हाथों हाथ लिया मुझे। गरम पानी में स्नान किया, चाय के बाद रात्रि का भोजन निपटा सोई तो ऊषा की लाली के साथ ही जागी। पर्दा हटाते ही मन जुड़ा गया। चारों ओर पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटी, कुछ पर सफेद बर्फ की चादर, यह पिछवाड़ा है, सामने चौड़ी सड़क के बाद ढलान में गेट खोल सड़क पार कर दूसरी ओर आ खड़ी हुई। घना जंगल उसी जंगल को चीर एक बल खाती पगडंडी नीचे तलहटी में उतर गई है, वहां एक पहाड़ी नदी अल्हड़ किशोरी सी इठलाती, नाचती, यौवन में चंचलता दिखाती बही चली जा रही है। एक छोटा-सा पत्थर का घर दिखाई दे रहा है। स्पष्ट नहीं क्योंकि मैं बहुत ऊंचे पर हूं। कोई बस्ती इधर नहीं है पर थोड़ा हटकर अवश्य ही होगी क्योंकि पगडंडी साफ-सुथरी तो है ही ऊपर से रोज उस पर यातायात रहता है उसके चिन्ह स्पष्ट हैं। शायद थोड़ी दूर पर बस्ती है। वहां के लोगों को मुख्य मार्ग और शहर से जोड़ती है यही पगडंडी। मेरा अन्दाजा सही निकला। दूध की टंकी सिर पर बंधी टोकरी में बिठा एक मध्यम आयु का पुरुष ऊपर आया और अपनी दिशा में चला गया। उसके बाद एक स्त्री भी आई। कामवाली लगी मुझे। वो भी ऊपर आ तेज तेज कदमों से चली गई। साहस जुटा मैं नीचे उतरी। पहाड़ी पगडंडी में उतरने की आदत नहीं थी। धीरे- धीरे उतरती एक समय उतर ही गई। नीचे थोड़ा समतल था। मैं पहले ही सीधे उस नदी के किनारे गई। नदी तक जाना सहज नहीं होता। क्योंकि तट रेखा से लेकर नदी के किनारे तक की जगह पटी हुई थी नन्हें कन्चे के आकार से लेकर विशालकाय बोल्डरों से। पग-पग पर ठोकर खा कर फिसलकर गिरने की सम्भावना थी। सावधानी से पैर जमा - जमाकर मैं जलधारा के पास पहुंच तो गई पर पूरी तरह थक कर हांफ रही थी। एक पत्थर पर थम से बैठ गई जहां पैरों के नीचे तक जल की लहरें आ रही थीं। बर्फ जैसे ठंडे जल ने मेरी थकान पल में मिटा दी। मन भर उठा। वहां के प्राकृतिक सौन्दर्य को देख। वास्तव में प्रकृति मां ने कदम-कदम पर अपने सन्तानों के लिए कितना उपहार सजा रखा है, पर दुर्भाग्य है हमारा कि हम बे- समय और काम का बहाना बना, ना तो उनको ले सकते हैं और ना ही उपयोग करते हैं। शरीर मन की पूरी थकान पल में दूर हो गई मेरी। यहां बैठ कर दृष्टि घुमाई तो लगभग दो सौ गज की दूरी पर फ्रेम में जड़ें लैंडस्केप की तरह एक पहाड़ी बस्ती नजर आई। बस्ती बहुत छोटी नहीं थी। पगडंडी का रहस्य खुल गया, पगडंडी क्यों मेनटेन्ड है, साफ-सुथरी है, झाड़-झंकार से बची है? उसका रहस्य साफ हो गया, शहर के साथ इस बस्ती का सम्पर्क मार्ग वही पगडंडी है।
मैं अपनी पूरी थकान मिटा उठी। लौटते हुए मुझे उस पत्थर लकड़ी से बने घर के प्रति कौतूहल जागा। लगता है यहां कोई नहीं रहता पर साफ-सुथरा है। रख रखाव अच्छा है। मैं उधर चली। पहाड़ी गुलाब की बेल चढ़ी थी घर की छत पर। दो सेब और अनार के फलों से लदे पेड़ खड़े थे। अचानक ही एक मीठे स्वर ने कानों में अमृत घोल दिया।
‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई ....।
सुरीला कन्ठ, स्पष्ट उच्चारण, मझा हुआ तैयार गला। अवाक हो गई; इतना सुन्दर मीरा का भजन? हमारे बचपन में एक गायिका थी, नई पीढ़ी उनका नाम तक नहीं जानती होगी ‘जूथिका राय’, मीरा के भजन उनके गले में लोगों को मोहित कर देते जो गा रही हैं वो भी उनसे कुछ कम नहीं। जतन से तैयार किया हुआ गला है। कौतूहल बड़ी भयानक वस्तू है। अनजान जगह, भायं-भायं करता पहाड़ी जंगल और कहीं किसी प्राणी का नाम तक नहीं। उसमें अकेला खड़ा पत्थर, लकड़ी का घर उसके अन्दर इतना मधुर संगीत। मैंने पैर बढ़ाया। पत्थर डाल बनाया गया दो सीढ़ियां पार कर मैं बरामदे में आई, सामने खुला दरवाजा। छोटे-छोटे कदमों से मैं दरवाजे तक पहुंची। भोर का झुटपुटा समाप्त हो गया था। आकाश में भोर की लालिमा पर धूप निकलने में अभी देर थी। कमरे में पीछे की ओर दो बड़ी-बड़ी खिड़कियां थी। उससे भोर की लाली आकर कमरे के अन्दर का सब कुछ स्पष्ट था। दोनों खिड़की के बीच की दीवार के सामने पत्थर की चौकोर वेदी बनी थी। उसके ऊपर वंशीवाले कृष्ण भगवान की लगभग चार फीट ऊंची मूर्ति थी। पीताम्बर पहने माथे पर चन्दन तिलक गले में फूलों की माला। मूर्ति का रंग नीला ठीक कवि जयदेव के बखान किए कृष्ण का रूप वर्णन।
"चन्दन चर्चित नील कलेवर
पीत बसन, वनमाली॥"
ठीक सामने एक महिला सफेद खादी की साड़ी पहन बैठ तन्मय हो यह मीरा का पद गा रही हैं। सम्भव है मेरी परछाई पड़ी होगी, या किसी के आने का आभास हुआ होगा वो पीछे मुड़ी। लगभग साठ वर्ष की आयु होगी पर मुख अति कोमल, सहज लावण्य छलछला रहा था एक झुर्री नहीं, आंखें हीरे के कण जैसी उजली जरा भी धूमिल नहीं। एक झलक में ही समझ में आता है कि जवानी में यह कितनी सुदर रही होंगी।
‘अन्दर आ जाओ....’
चप्पल उतार अन्दर पैर रखा। उन्होंने आसन पर बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ा एक मूढ़ा उठा रख दिया।
‘बैठो’
मैं बैठ गई।
‘क्षमा करें। ऊपर से नदी देखने आई थी; आपका भजन सुना तो...।’
‘अच्छा किया......किसके घर आई हो?’
‘पगडंडी के ठीक सामने वाला घर।’
‘समझी। घूमने आई हो?’
जी। दिल्ली में आग की बरसात हो रही है बात करते-करते मैं पूरे कमरे की छान बीन कर रही थी। साधारण कमरा, खाली-खाली - सा बस असाधारण बात यह कि कोने में एक बड़ी शीशे की अलमारी में ठसी पुस्तकें और आश्चर्य यह कि उनमें शेक्सपीयर भी चुपचाप बैठे हैं, मतलब अंग्रेजी साहित्य। पर महिला तो देहाती लगती है वेशभूषा से। मुख पर पहाड़ी छाप नहीं, तीखे नैन-नक्श, सकता है पुस्तकें पति की हों।
क्योंकि महिला में सम्भ्रांत घराने की छाप तो है पर इतनी पढ़ी-लिखी नहीं हो सकती कि अंग्रेजी साहित्य का आनन्द ले सकें वो भी कुंमाऊं के छोटे से शहर के नीचे तलहटी में बसे छोटी सी बस्ती की रहने वाली। मांग में सिन्दूर की रेखा नहीं अवश्य ही विधवा होगी।
यह जगह सुन्दर है। पसन्द आएगी। पहाड़ी लहजे का नाम निशान नहीं, ठेट हिन्दी वो भी शिक्षित उच्च स्तरीय समाज की भाषा और स्टाईल।
‘आशा करती हूं, कल रात की आई हूं, अभी कुछ पता नहीं पर यह नदी सुन्दर है।’
‘वो घर शिवकुमार जी का है। तुम रिश्तेदार हो उनकी।’
‘जी! उनसे मेरा स्नेह और श्रद्धा का रिश्ता है।’
‘वाह! ..... बड़ी सुन्दर बात करती हो। साहित्य पसन्द है?’
‘साहित्य की पूजा और सेवा ही मेरा काम है।’
‘लिखती हो?’
‘ना यह महिला अनपढ़ या