Panch Parmeshwar & Other Stories
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Panch Parmeshwar & Other Stories - Munshi Premchand
पंच परमेश्वर
जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुल लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गए थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गए थे और अलगू जब कभी बाहर जाते तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खान-पान का व्यवहार था, न धर्म का नाता; केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है।
इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों मित्र बालक ही थे और जुम्मन के पूज्य पिता, जुमराती, उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरुजी की बहुत सेवा की थी, खूब रकाबियां मांजी, खूब प्याले धोए। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न ले पाता था; क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आधे घण्टे तक किताबों से अलग कर देती थी। अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे। उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-सुश्रुषा पर अधिक विश्वास था। वह कहते थे कि विद्या पढ़ने से नहीं आती; जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से। बस गुरुजी की कृपादृष्टि चाहिए। अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआ, तो वह यह मानकर संतोष कर लेगा कि विद्योपार्जन में मैंने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी; विद्या उसके भाग्य में न थी, तो कैसे आती?
मगर जुमराती शेख स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे। उन्हें अपने सोटे पर अधिक भरोसा था और उसी सोटे के प्रताप से आज आस-पास के गांवों में जुम्मन की पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रेहननामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कलम न उठा सकता था। हलके का डाकिया, कॉन्स्टेबल और तहसील का चपरासी‒सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे। अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अनमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे।
♦ ♦ ♦
जुम्मन शेख की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिल्कियत थी; परन्तु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिल्कियत अपने नाम लिखवा ली थी। जब तक दान-पात्र की रजिस्ट्री नहीं हुई थी, तब तक खालाजान का खूब आदर-सत्कार किया गया। उन्हें खूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाए गए। हलवे-पुलाव की वर्षा-सी की गई; पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन खातिरदारियों पर मानो मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज‒तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख भी निष्ठुर हो गए। अब बेचारी खालाजान को प्रायः नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थीं।
‘बुढ़िया न जाने कब तक जिएगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया, मानो मोल ले लिया है। बघारी दाल के बिना रोटियां नहीं उतरतीं ! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुके, उतने से अब तक गांव मोल ले लेते।’
कुछ दिन खालाजान ने सुना और सहा; पर जब न सहा गया, तब जुम्मन से शिकायत की। जुम्मन ने गृहस्वामी के प्रबंध में दखल देना उचित न समझा। कुछ दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा। अन्त में एक दिन खाला ने जुम्मन से कहा‒‘बेटा! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपये दे दिया करो, मैं अपना पका-खा लूंगी।’
जुम्मन ने धृष्टता के साथ उत्तर दिया‒‘रुपये क्या यहां फलते हैं?’
खाला ने नम्रता से कहा‒‘मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए कि नहीं?’
जुम्मन ने गम्भीर स्वर में जवाब दिया‒‘तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि तुम मौत से लड़कर आयी हो?’
खाला बिगड़ गई, उन्होंने पंचायत करने की धमकी दी। जुम्मन हंसे, जिस तरह कोई शिकार हिरन को जाल की तरफ जाते देखकर मन-ही-मन हंसता है। वह बोले‒‘हां, जरूर पंचायत करो। फैसला हो जाये। मुझे भी यह रात-दिन की खटपट पसंद नहीं।’
पंचायत में किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न था। आस-पास के गांवों में ऐसा कौन था, जो उसके अनुग्रहों का ऋणी न हो; ऐसा कौन था, जो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सके? किसमें इतना बल था जो उसका सामना कर सके? आसमान के फरिश्ते तो पंचायत करने आएंगे नहीं।
♦ ♦ ♦
इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिए आस-पास के गांवों में दौड़ती रही। कमर झुककर कमान हो गई थी। एक-एक पग चलना दूभर था; मगर बात आ पड़ी थी। उसका निर्णय करना जरूरी था।
बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके सामने बुढ़िया ने दुःख के आंसू न बहाए हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूं-हूं करके टाल दिया और किसी ने इस अन्याय पर जमाने को गालियां दी। कहा‒ ‘कब्र में पांव लटके हुए हैं, आज मरे, कल दूसरा दिन; पर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिए? रोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। तुम्हें अब खेती-बारी से क्या काम है?’ कुछ सज्जन भी थे, जिन्हें हास्य-रस के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमर, पोपला मुंह, सन के-से बाल‒इतनी सामग्री एकत्र हो, तब हंसी क्यों न आवे? ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थे जिन्होंने उस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घामकर बेचारी अलगू चौधरी के पास आयी। लाठी पटक दी और दम लेकर बोली‒‘बेटा, तुम भी दम-भर के लिए चले आना।’
अलगू‒‘मुझे बुलाकर क्या करेगी? गांव के कई आदमी तो आवेंगे ही।’
खाला‒‘अपनी विपद तो मैं सबके आगे रो आयी। अब आने-न आने का अख्तियार उनको है।’
अलगू‒‘यों आने को आ जाऊंगा; मगर पंचायत में मुंह न खोलूंगा।’
खाला‒‘क्यों बेटा?’
अलगू‒‘अब इसका क्या जवाब दूं? अपनी खुशी! जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं सकता।’
खाला‒‘बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की न कहोगे?’
हमारे सोए हुए धर्म-ज्ञान की सारी सम्पत्ति लुट जाए, तो उसे खबर नहीं होती, परन्तु ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का कोई उत्तर न दे सका, पर उसके हृदय में ये शब्द गूंज रहे थे‒
क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?
♦ ♦ ♦
संध्या समय तक एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख जुम्मन ने पहले से ही फ़र्श बिछा रखा था। उन्होंने पान, इलायची, हुक्के-तम्बाकू आदि का प्रबंध भी किया था। हां, वह स्वयं अलबत्ता अलगू चौधरी के साथ जरा दूर पर बैठे हुए थे। जब पंचायत में कोई आ जाता था, तब दबे हुए सलाम से उसका स्वागत करते थे। जब सूर्य अस्त हो गया और चिड़ियों की कलरवयुक्त पंचायत पेड़ों पर जा बैठी, तब यहां भी पंचायत शुरू हुई। फर्श की एक-एक अंगुल ज़मीन भर गई; पर अधिकांश दर्शक ही थे। निमंत्रित महाशयों में केवल वे ही लोग पधारे थे, जिन्हें जुम्मन से अपनी कुछ कसर निकालनी थी। एक कोने में आग सुलग रही थी। नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असम्भव था कि सुलगते हुए उपलों से अधिक धुंआ निकलता था या चिलम के दमों से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आसपास में गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ कोलाहल मच रहा था। गांव के कुत्ते इस जमाव को भोज समझकर झुंड-के झुंड जमा हो गए थे।
पंच लोग बैठ गए, तो बूढ़ी खाला ने उनसे विनती