Gandhi Aur Ambedkar (गांधी और अंबेडकर)
By Amlesh Raju
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About this ebook
दिल्ली नगर निगम के राजभाषा अनुभाग से हिन्दी पत्रकारिता में उत्कृष्ट कार्य के लिए 2016-17 में सम्मान के साथ 2007 में मातृश्री, 2009 में परमश्री, 2013 में आईएचआरपीसी का ह्यूमन राइट्स अवार्ड्स और 2016 में रीयल संवाद एक्सीलेंस अवार्ड् से सम्मानित किये गये हैं।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से 40 दिवसीय कार्यशाला में प्रशिक्षित अमलेश दिल्ली विश्वविद्यालय, गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, आईआईएमसी और जागरण इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन में पत्रकारिता के अतिथि शिक्षक के रूप में समय-समय पर अध्यापन के साथ उनकी 'आजादी के पचास साल भारत में राजनीतिक संकट' नामक चर्चित आलेख प्रकाशित है।
पत्रकारिता में स्नातकोत्तर के साथ सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में संस्कृति मंत्रालय की संस्था गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, राजघाट, पवित्र प्रयास ट्रस्ट, उदित आशा वेलफेयर सोसाइटी, बीइंग इंडियन और गांधी ज्ञान मंदिर, बिहार के साथ जुड़कर कार्यशाला और संगोष्ठी आयोजित करने का अनुभव ।
नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्टस (इंडिया) की 1972 में स्थापित दिल्ली इकाई दिल्ली पत्रकार संघ (डीजेए) के मौजूदा महासचिव ।
अमलेश राजू की 2010 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सानिध्य में रहने वालों के संस्मरण पर आधारित 'जेपी जैसा मैंने देखा' नामक चर्चित पुस्तक प्रकाशित हुई है।
संप्रति- इंडियन एक्सप्रेस के हिंदी संस्करण 'जनसत्ता' नई दिल्ली में वरिष्ठ संवाददाता के रूप में कार्यरत हैं।
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Gandhi Aur Ambedkar (गांधी और अंबेडकर) - Amlesh Raju
पुरोकथन
सामाजिक क्रान्ति के दो मसीहा:
गांधी - अंबेडकर
- रामबहादुर राय
सा माजिक परिवर्तन के जो दो मसीहा हमेशा याद किये जायेंगे। वे महात्मा गांधी और डॉ. अंबेडकर हैं। दुनिया गांधी को महात्मा मानती है और उसी रूप में उन्हें जानती भी है। जिस ब्रिटिश साम्राज्य को उन्होने अहिंसा और सत्याग्रह के नैतिक बल पर ध्वस्त कर दिया था उसकी राजधानी लन्दन के पार्लियामेंट स्क्ैवयर में उनकी एक प्रतिमा लगायी गयी। महात्मा गांधी की वैश्विक मान्यता को ब्रिटिश साम्राज्य के उत्तराधिकारियों ने भी स्वीकार किया। क्या उनके महात्मापन की यह वैश्विक मान्यता का हाल-फिलहाल का नया प्रमाण नहीं है! यह क्या एक असाधारण घटना नहीं है! इसी तरह भारत का कोई ऐसा कोना नहीं होगा जहाँ हर जगह नीले कोट-पैन्ट में चश्मा लगाये हुए डॉ. अंबेडकर की प्रतिमा न लगी हो, जिनके एक हाथ में संविधान होता है तो दूसरे हाथ की एक अंगुली भविष्य की तरफ इशारा करती है। उस इशारे में एक आह्वान है। जिसे देश-समाज और हर भारतीय को समझने की आवश्यकता है। वह सामाजिक एकता का आह्वान है। इस प्रश्न पर गांधी और अंबेडकर प्रासंगिक हैं, ये महापुरूष दिखते दो हैं, पर वास्तव में गहरे रूप में एक हैं। इन दोनों महापुरूषों का जीवन सामाजिक परिवर्तन के भगीरथ प्रयत्नों की कहानी है। इनके सामाजिक परिवर्तन के प्रयासों पर जो बहस उनके जीवनकाल में छिड़ी थी वह आज भी चल रही है। जैसे कोई बहती हुई नदी अपने रास्ते खोजती है और हर बाधा को पार कर वहाँ पहुँची है जहाँ सागर का किनारा होता है, उसी भाँति गांधी-अंबेडकर ने सामाजिक परिवर्तन की जो धारा प्रवाहित की वह अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ रही है।
जो बहस थी, है और रहेगी उसे राष्ट्रीय विमर्श कहना चाहिए, जिसके अनेक आयाम हैं। हर आयाम पर इस छोटे से एक आलेख में प्रकाश डाॅलना कठिन है। इसलिए यहाँ सामाजिक परिवर्तन के आयाम पर गांधी-अंबेडकर के दृष्टिकोण और मिशन पर ही मुख्यतः तथ्य और उसका विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। कोई ऐसा साल नहीं गुजरता जब इन पर कोई नई किताब न आ जाती हो। इसका एक अर्थ यह है कि गांधी और अंबेडकर को समझने-समझाने का सिलसिला अन्तहीन है। यह प्रश्न बना रहेगा कि इन दो महापुरूषों को किस रूप में देखें, समझें और समझायें। इसका कारण स्पष्ट है। जो लोग इनमें द्वंद देखते हैं और खोजते हैं, उनके लिए तो गांधी और अंबेडकर आमने-सामने हैं। उनकी राह समानान्तर है। जो मिलती नहीं है, लेकिन चलती साथ-साथ है। ऐसा समझने वाले इन्हें बाहर से देखते हैं। वे इनके आन्तरिक संसार से अपरिचित हैं। कुछ लोगों का यह मिशन भी है कि वे गांधी-अंबेडकर के टकराव को उभारते रहें। इसमें उनकी राजनीति तो है ही, स्वार्थ और परमार्थ भी है। इस आलेख में उदाहरण सहित यह बताने का प्रयास है कि गांधी-अंबेडकर दिखते दो हैं लेकिन सामाजिक एकता के प्रश्न पर वे एक ही बात कह रहे हैं। उनके वक्तव्य विरोधी भले ही दिखते हों, अनभूति में विरोध जरा भी नहीं है।
गांधी जी और बाबा साहब अंबेडकर में पहली समानता पारिवारिक परिवेश में धर्म की प्रधानता से शुरू होती है। ‘गांधी परिवार वैष्णव था पर घर में जैन मुनियों तथा पारसी और मुस्लिम सन्तों से धर्म के तत्व पर प्रायः चर्चाएँ होती ही रहती थीं। लेकिन महात्मा गांधी की माँ का जीवन व्रत और उपवासों का एक अन्तहीन सिलसिला ही था। अपनी इस आस्था के बल पर ही उन्होंने अपने दुर्बल शरीर को टिका रखा था। वह धर्म ग्रन्थों मे पारंगत नहीं थीं। पढ़ी-लिखी भी विशेष नहीं थी। अटक-अटक कर कुछ गुजराती पढ़ लेती थीं। धर्म सम्बन्धी सारा ज्ञान उन्होंने घर पर, कथा वार्ता या सत्संगों से प्राप्त किया था। महात्मा गांधी की माँ पुतलीबाई का यह तपस्यामय जीवन हिन्दू परिवारों की धर्मपरायण महिलाओं का सामान्य जीवन था। महात्मा गांधी ने स्वीकार किया था, जो भी धार्मिकता आप मुझमें देखते हैं, वह मैंने माँ से पायी।’ इसी तरह ‘बाबासाहब का बचपन परिवार के अत्यन्त संस्कारी व धार्मिक वातावरण में बीता। उनके घर में चलने वाले रामायण, पाण्डव प्रताप, ज्ञानेश्वरी व अन्य सन्त वाड़्मय के नित्य पठन में से निर्माण होने वाले, भजन के दैनन्दिन प्रभाव से निर्माण होने वाले धार्मिक पवित्र वातावरण का सविस्तार वर्णन दोनों जीवन लेखकों चा.भ. खैरमोडे व धनंज्जय कीर ने किया है। बाबासाहब के पिताजी इस नियम के प्रति बड़े कठोर थे। ‘रात के आठ बजते ही बाबासाहब की दोनों बहनों, बड़े भाई व बाबासाहब को देवघर में पहुँचना अनिवार्य था। बाबासाहब कहते थे- ‘जब मेरी बहनंे मीठे स्वर में पद गातीं, तब मुझे लगता था कि धर्म व धार्मिक शिक्षा मनुष्य के जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। बहुत लोग कहते हैं कि मैं ‘धर्महीन’ हूँ; परन्तु यह बात सही नहीं है... जो मेरे सान्निध्य में आये हैं, उन्हें मेरी धर्म विषयक श्रद्धा व प्रेम के बारे में मालूम है।’
‘भजन-कीर्तन के प्रति प्रेम, रात को सोने के पूर्व व अन्य समय कबीर के दोहे गुनगुनाने की आदत उन्हें अपने पिताजी रामजी सूबेदार से प्राप्त संस्कारों के कारण थी। पिताजी के समान उनका भी सन्त वाड़्मय का अभ्यास गाढ़ा था। उन्होंने अपने समाचार-पत्र ‘मूकनायक’ के पहले अंक का प्रारम्भ ही तुकाराम का एक अत्यन्त अन्वयार्थात्मक अभंग (अब मानू क्यों भय, खोला मुँह होकर निःशंक। जग में गूँगे का कोई नहीं होता, शर्म करने से हित नहीं होता) से किया था। वे बहिष्कृत भारत के अग्रभाग पर व अन्य प्रकाशनों के प्रारम्भ में, परिस्थिति से मेल खानेवाले व विषयानुरूप सन्तों के अभंग दिया करते थे। अपने भाषणों में भी सन्त वचनों का उपयोग करते थे। ऐसा सन्त ढ़ूँढ़े से नहीं मिलेगा जिसके वचनों को उन्होंने उद्धृत न किया हो। ऐसे वातावरण और पिताजी के प्रेरक व्यक्तित्व के कारण धार्मिक समता का सन्देश देने वाले सन्तवचनों का गहरा संस्कार डॉ. बाबासाहब अंबेडकर के मन पर हुआ। घर पर अच्छे ऐसे संस्कार मिल रहे थे, परन्तु बाहर निकलते ही अस्पृश्यता का तीव्र अहसास कराने वाले, उत्तरोत्तर अधिक विदारक अनुभव उन्हें बचपन से ही मिलने लगे। अस्पृश्यता का यह क्लेशकारी आत्मानुभव उनके जीवन को एक निश्चित दिशा व उस तरफ ले जानेवाली बौद्धिक व मानसिक ऊर्जा देने में कारणीभूत हुआ।’
गांधी-अंबेडकर के अनुभव का आकाश अनन्त था। इनके आकाश में अनेक सूरज थे। वे आज भी देखे जा सकते हैं तभी तो इनको मानने वालों की संख्या रोज ब रोज बढ़ रही है। उनके जीवन का एक रोचक प्रसंग है। तारीख थी, 1931 की 14 अगस्त। जो एक मायने में ऐतिहासिक है क्योंकि उस दिन गांधी-अंबेडकर की पहली मुलाकात हुई। तब महात्मा गांधी 62 साल के थे। स्वतन्त्रता आन्दोलन के महानायक वे बन चुके थे, जबकि डॉ. अंबेडकर 40 साल के थे। उच्च शिक्षा प्राप्त अस्पृश्यों के अधिकार के लिए लड़ने वाला दृढ़ सत्याग्रही की छवि वे अर्जित कर रहे थे। पहल गांधी ने की थी। मुम्बई के मणिभवन में गांधी के निमंत्रण पर अंबेडकर अपने कुछ साथियों को लेकर आये। इस भेंट का एक प्रयोजन था। वह बातचीत में प्रकट हुआ। गांधी जी ने अंबेडकर को एकटक देखते हुए कहा कि ‘मैं समझता हूँ कि आपको मेरे और कांग्रेस के विरूद्ध कुछ शिकायतें हैं। मैं आपसे कहूँ कि मैं अस्पृष्यों की समस्या के बारे में अपने स्कूल के दिनों से सोचता रहा हूँ। तब तो आपका जन्म भी नहीं हुआ था। शायद आपको मालूम होगा कि इसे कांग्रेस के कार्यक्रम में शामिल कराने और कांग्रेस के घोषणापत्र का मुद्दा बनाने के लिए मुझे कितनी कोशिश करनी पड़ी। कांग्रेस के नेता इसका यह कहकर विरोध कर रहे थे कि यह धार्मिक और सामाजिक सवाल है और इसलिए इसे राजनीतिक सवालों के साथ नहीं मिलाना चाहिए। इतना ही नहीं, कांग्रेस ने अस्पृश्यों के उत्थान पर बीस लाख से ज्यादा रूपए खर्च किए हैं। और यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि आप जैसे लोग मेरा और कांग्रेस का विरोध करते हैं। यदि आपको अपने रूख का औचित्य साबित करने के लिए कुछ कहना है तो खुलकर कहिए।’
इस पर डॉ. अंबेडकर बोले - ‘महात्माजी, आपने अछूतों की समस्या के बारे में सोचना शुरू किया, तब तक मेरा जन्म भी नहीं हुआ था। सभी बूढ़े और बुजुर्ग लोग हमेशा उम्र की बात पर जोर देते हैं। यह भी सत्य है कि आपके कारण ही कांग्रेस ने इस समस्या को मान्यता दी। लेकिन मैं आपसे साफ कहूँ कि कांग्रेस ने इस समस्या को औपचारिक मान्यता देने के अलावा कुछ भी नहीं किया। आप कहते हैं कि कांग्रेस ने अछूतों के उत्थान पर बीस लाख रूपए खर्च किए हैं। मैं कहता हूँ कि ये सब बेकार गए। इतने सबसे तो मैं अपने लोगों के दृष्टिकोण में आश्चर्यकारी परिवर्तन ला सकता था। किन्तु इसके लिए आपको मुझसे बहुत पहले मिलना चाहिए था। मगर मैं आपसे कहूँ कि कांग्रेस अपनी कथनी के बारे में ईमानदार नहीं है। अगर वह ईमानदार होती तो वह कांग्रेस की मंेबरी के लिए खादी पहनने की अनिवार्यता की तरह अस्पृश्यता मिटाने की भी शर्त रख देती। कोई भी ऐसा आदमी, जो किसी-न-किसी अस्पृश्य स्त्री अथवा पुरूष को अपने घर में काम पर नहीं रखेगा या किसी अस्पृश्य विद्यार्थी का घर में पालन नहीं करेगा या किसी अस्पृश्य विद्यार्थी के साथ सप्ताह में कम-से-कम एक बार घर में भोजन नहीं करेगा वह कांग्रेस का मेंबर नहीं बन सकेगा ... आप कहते हैं कि ब्रिटिश सरकार का हृदय-परिवर्तन होता प्रतीत नहीं हो रहा है। मैं भी कहता हूँ कि हमारी समस्या पर हिंदुओं का हृदय-परिवर्तन होता नहीं दिख रहा है। जब तक वे अपनी बात पर अड़े हुए हैं तब तक हम न कांग्रेस पर विश्वास करेंगे और न हिंदुओं पर। हम अपनी मदद आप करने और आत्मसम्मान में विश्वास करते हैं। हम महान् नेताओं और महात्माओं में विश्वास करने के लिए तैयार नहीं हैं। मैं इस सम्बंध में आपसे बिल्कुल साफ कह दूँ। इतिहास हमें बताता है कि महात्मा लोग तुरंत गायब हो जाने वाले प्रेतों की तरह होते हैं। वे धूल के गुबार तो उठाते हैं, पर लोगों का स्तर नहीं उठाते..."
महात्मा और अंबेडकर की बात यहीं समाप्त नहीं हुई। अंबेडकर ने गांधी से सीधा सवाल किया - कांग्रेसजन हमारे आंदोलन का विरोध क्यों करते हैं और मुझे देशद्रोही क्यों कहते हैं? गांधी, सच में मेरी अपनी कोई मातृभूमि नहीं है।
गांधी ने उनको दिलासा देते हुए कहा, आपकी मातृभूमि है। गोलमेज परिषद में आपके कार्य की रिपोर्ट मिली है। उससे मैं जानता हूँ कि आप बेहतरीन देशभक्त हैं।
किन्तु अंबेडकर ने अपनी बात दोहराते हुए कहा, मैं उस देश और धर्म को किस तरह अपना कहूँ, जिसमें हमारे साथ कुत्ते-बिल्लियों से भी बुरा बरताव होता है; जिसमें हम पीने का पानी तक नहीं ले सकते? कोई भी आत्मसम्मान वाला अछूत ऐसे देश पर कैसे गर्व कर सकता है?
वातावरण भारी हो चला था। चेहरों का रंग बदलने लगा। गांधी बेचैनी महसूस कर रहे थे। वे अंबेडकर के साथ बातचीत को अलग मोड़ देना चाह रहे थे। तभी अंबेडकर ने गांधी के समक्ष कुछ अत्यन्त प्रासंगिक प्रश्न रखे। उन्होंने कहा, सभी जानते हैं कि मुसलमान और सिख सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से अछूतों से काफी आगे हैं। पहली गोलमेज परिषद ने मुसलमानों की राजनीतिक माँगों को मान्यता दे दी है और उनके लिए राजनीतिक सुरक्षा के उपायों की सिफारिश की है। कांग्रेस भी उनकी माँगों से सहमत है। पहली गोलमेज परिषद ने दलित वर्गों के राजनीतिक हकों को भी मान्यता दी है और उनको राजनीतिक सुरक्षा तथा प्रतिनिधित्व देने की सिफारिश की है। हमारी राय में यह दलित वर्गों के लिए लाभप्रद होगा। आपकी क्या राय है?
मैं हिन्दुओं से अछूतों के राजनीतिक अलगाव के खिलाफ हूँ। वह पूरी तरह से आत्मघाती होगा।
गांधी ने तत्काल कहा। इसके बाद अंबेडकर ने गांधी को उनकी साफगोई के लिए धन्यवाद दिया और कहा, हमें पता तो लग गया कि हम कहाँ खड़े हैं।
इस बातचीत का एक इतिहास है। वह दौर संवैधानिक सुधारों की खींचतान का था। साइमन कमीशन की रिपोर्ट आ गयी थी। वह संवैधानिक सुधारों की टेढ़ी-मेढ़ी सिफारिशों का पुलिन्दा थी। उस पर एक गोलमेज परिषद लन्दन में हो चुकी थी। दूसरी होने जा रही थी। जिसमें कांग्रेस के अकेले प्रतिनिधि के रूप में महात्मा गांधी को हिस्सा लेना था। वे वहाँ के लिए तैयारियाँ कर रहे थे। जरूरी था कि वे पहली गोलमेज परिषद में जो-जो गये थे उनका दृष्टिकोण और उनके तर्क से अवगत रहें इसलिए उन्होंने मुकुन्द राव जयकर, तेज बहादुर सप्रू तथा अन्य लोगों से मुलाकात की और बातचीत की। उनसे जानकारी प्राप्त की थी। अपने सहयोगी बी.जी. खेर और ठक्कर बापा की सलाह पर गांधी जी ने डॉ. अंबेडकर को बातचीत के लिए बुलाया था। जो बातचीत हुई उसका विवरण ऊपर आ चुका है। जिससे समझा जा सकता है कि वास्तव में मुद्दा क्या था। विवाद का एक मुद्दा यह था कि अस्पृश्य हिन्दू हैं या हिन्दूओं से अलग अल्पसंख्यक हैं। इस बारे में गांधी जी के विचार में निरन्तरता है जबकि अंबेडकर के विचार पर परिस्थितियों का प्रभाव दिखता है। ‘अस्पृश्यों की सामाजिक और धार्मिक पहचान के बारे में अंबेडकर का मत स्थिर नहीं था। एक समय था जब वे अस्पृश्यों को हिन्दू समाज का अंग मानते थे। वे अछूतों को यज्ञोपवीत पहनाने के कार्यक्रम का आयोजन तो करते ही थे, साथ ही सवर्णों तथा अछूतों में सहभोज के आयोजनों को भी बढ़ावा देते थे। उनकी अध्यक्षता में गठित ‘समाज समता संघ’ ने इस प्रकार के अनेक आयोजन किए थे। यद्यपि बाद मे उनके विचार बदल गए, किन्तु कुछ समय तक वे हिन्दू मन्दिरों में अछूतों के प्रवेश के अधिकार के लिए सत्याग्रह के भी समर्थक थे। गोलमेज परिषद के दौरान भी ‘बहिस’ के कार्यकर्ता नाशिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश करने के लिए आन्दोलन कर रहे थे। उन्होंने स्वयं इस मन्दिर-प्रवेश सत्याग्रह में हिस्सा लेकर कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाया था। परन्तु अब अंबेडकर धार्मिक-सांस्कृतिक प्रश्नों के बजाय राजनीतिक शक्ति को प्रधानता देने लगे थे।’
उस दौर में गांधी और अंबेडकर में मतभेद खासतौर पर अस्पृश्यों के प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर था। अंबेडकर ने दूसरी गोलमेज परिषद में अस्पृश्यों के लिए भी पृथक निर्वाचन प्रणाली की जोरदार वकालत की, जबकि गांधी इससे असहमत थे। इसे वे हिन्दू समाज के विघटन का विषवृक्ष मानते थे। 14 सितम्बर, 1931 को प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडाॅनल्ड की अध्यक्षता में दूसरी गोलमेज परिषद शुरू हुई। गांधी जी अपनी परिचित वेशभूषा में ही वहाँ पहुँचे थे। जो चर्चा का भी विषय बन गया था। उसी वेशभूषा में वे सम्राट से मिले तो चिढ़कर चर्चिल ने उन्हें ‘नंगा फकीर’ कहा। एक ओर गोलमेज परिषद में भाषण हो रहे थे तो दूसरी तरफ वहाँ बैठे महात्मा गांधी अपना चर्खा चला रहे थे। अगले दिन वे बोले। बिना किसी नोट के वे बोले। लम्बा बोले। वह भाषण खूब चर्चित हुआ। उनका एक-एक शब्द ब्रिटिश साम्राज्य पर मारक चोट जैसा था। पत्रकार विलियम एल. शाइरर का कथन है कि वह भाषण गांधी के श्रेष्ठतम भाषणों में से एक है। उस भाषण को सुनने के बाद शाइरर ने अपनी नोट बुक में लिखा, ‘गांधी धार्मिक व्यक्ति नहीं है। न ही वह महात्मा है। वह तो राजनीतिक संघर्ष की आग में तप कर निखरा एक गजब का राजनीतिक मसीहा है।’ उस भाषण में गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य के कुचालों को उघाड़ कर रख दिया था।
दूसरी गोलमेज परिषद में भारत में संघात्मक शासन-व्यवस्था, वयस्क मताधिकार तथा अल्पसंख्यकों के राजनीतिक अधिकारों के सम्बन्ध मे विभिन्न उपसमितियों तथा परिषद के पूर्ण अधिवेशनों में भी विचार-विमर्श हुआ। किन्तु जिस मुद्दे पर सबसे अधिक असहमति सामने आई, वह था अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल का। गांधी और कांग्रेस अपने पिछले नेतृत्व की देनदारी के तौर पर मुसलमानों को कतिपय सहूलियतें देने के लिए बाध्य थे। किन्तु वे अछूतों को हिन्दू समाज का ही अंग मानते थे। गांधी और कांग्रेस की निगाह में अस्पृश्यों के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल स्वीकार करने का अर्थ होता जाति, धर्म, संप्रदाय और भाषा के आधार पर सीमित हितों को, देश की आजादी जैसे महत्त्वपूर्ण मामलों में दखल देने और वीटो करने का अधिकार दे देना; और भारतीय राष्ट्र की प्रतिनिधि एवं प्रवक्ता होने के अपने दावे को स्वयं ही नकार देना।
यह स्वाभाविक ही था कि गांधी इसके लिए तैयार नहीं हो सकते थे। उन्होंने दूसरी गोलमेज परिषद में आरम्भ में ही यह घोषणा कर दी थी कि कांग्रेस ने हिन्दू-मुस्लिम-सिख समस्या के बारे में विशेष व्यवहार की बात स्वीकार की है। किन्तु मैं अब किसी को विशेष प्रतिनिधित्व देने का पूरी शक्ति से विरोध करूँगा।
अस्पृश्यों की माँग को ध्यान में रखकर उन्होंने यह सुझाव जरूर दिया था कि अगर किसी चुनाव में अस्पृश्यों के लिए निश्चित न्यूनतम संख्या से भी कम प्रतिनिधि चुनकर आएँ तो उस कमी को पूरा करने के लिए संविधान में एक प्रावधान रखा जा सकता है और उसके तहत निर्वाचित विधान परिषद को यह अधिकार दिया जा सकता है कि वह अस्पृश्यों के प्रतिनिधियों का चुनाव कर ले अथवा उनको नामजद कर दे। ऐसा प्रतीत होता है कि अस्पृश्यों के प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर विचार करते समय गांधी बालिग मताधिकार के सामर्थ्य पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर रहे थे। उनको लगा होगा कि इतनी बड़ी संख्या में अस्पृश्य मतदाताओं के रहते हुए अस्पृश्यों के प्रतिनिधि तो पर्याप्त संख्या में चुनकर आ ही जाएँगें। इसी आशा में गांधी ने अछूतों के विशेष प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण आदि की कोई व्यवस्था नहीं सुझाई।
उधर अछूतों के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल के सम्बन्ध में डॉ. अंबेडकर भी अपनी माँग को छोड़ने की स्थिति में नहीं थे। भारतीय राजनीति में सक्रिय होने के समय से लेकर नागपुर के अखिल भारतीय दलित वर्ग सम्मेलन (अगस्त 1930) तक अंबेडकर संयुक्त निर्वाचक मण्डल के समर्थक थे। किन्तु दूसरी गोलमेज परिषद तक निर्वाचक मण्डल सम्बन्धी उनके विचार बहुत बदल गए थे और वे पृथक निर्वाचक मण्डल के समर्थक हो गए थे। अंबेडकर के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल की माँग वापस लेने का अर्थ होता दलितों के प्रवक्ता के रूप में अपने राजनीतिक महत्त्व को स्वयं ही नकार देना। एक प्रकार से यह राजनीतिक आत्महत्या होती। जो भी हो, दूसरी गोलमेज परिषद में सबसे कटुतापूर्ण बातें अल्पसंख्यकों के राजनीतिक अधिकारों पर चर्चा के दौरान ही कही गईं। ये मतभेद ‘संघीय संरचना समिति’ की बैठकों में भी खुलकर प्रकट हुए।
इसे आधार बनाकर लिखा पढ़ा जाता रहा है कि गांधी और अंबेडकर में विवाद बड़ा था वे आमने-सामने थे। यह पूरा सच नहीं है। हम जानते हैं कि आधा सच ज्यादा खतरनाक होता है। गांधी-अंबेडकर की पहली भेंट वास्तव में एक ऐसे मोड़ पर हुई जब ब्रिटिश सरकार अपनी कुटिल चाल से स्वाधीनता संग्राम को कमजोर करने के हर उपाय कर रही थी। उसकी एक कहानी है। कंाग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया था। महात्मा गांधी को आन्दोलन का मुद्दा तय करना था। काफी सोच-समझकर उन्होंने नमक सत्याग्रह की घोषणा कर पूरी दुनिया को चौंका दिया। पहले तो किसी को यकीन ही नहीं आया कि नमक पर भी सत्याग्रह हो सकता है। नमक का सवाल पुराना था। लेकिन गांधी की शैली अनोखी थी, नई थी। इस कारण नमक सत्याग्रह ने भारत के जन-जन में देशभक्ति और स्वतन्त्रता के लिए मर मिटने का संकल्प जगा दिया। उस राष्ट्रीय जागरण को भ्रमजाल में फंसाने के लिए उसी समय लन्दन में गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया था। यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि गांधी अस्पृश्यता के विरोध में बहुत पहले से थे। वे अस्पृश्यों के दूसरे ईश्वर थे। अपने सार्वजनिक जीवन में वे इसे एक अपना जीवन लक्ष्य घोषित कर चुके थे। अस्पृश्यता मिटाना उनके जीवन चर्या का अंग था। वे अस्पृश्यता को हिन्दू समाज का कलंक मानते थे। वे यह भी कहते थे और इस बारे में स्पष्टता से लिखा भी कि अस्पृश्यता एक अभिशाप है। इसे मिटाया जाना चाहिए। यह अभिशाप उस समय आया जब हिन्दू समाज दुर्दिन में था। अफसोस था कि यह बढ़ता ही गया।
गांधी में वास्तविकताओं को भाँप लेने की अद्भुत क्षमता थी। गोलमेज सम्मेलन की कार्यवाही किसी नतीजे पर पहुँचे बिना घिसटती जा रही थी। वह एक प्रकार की ‘वाद-विवाद प्रतियोगिता केन्द्र’ बनकर रह गया था। हताशा के उस माहौल में गांधी के दो बयान उल्लेखनीय हैं। एक बयान मे उन्होंने परिषद में बुलाए गए प्रतिनिधियों के प्रातिनिधिक चरित्र को सीधी चुनौती दी। अल्पसंख्यकों के साथ अनौपचारिक बातचीत से भी कोई हल नहीं निकलने की सूचना देते हुए उन्होंने कहा, यदि मैं यह कहूँ कि बातचीत का नाकामयाब होना हमारे लिए शर्म की बात है, तो इससे पूरी सच्चाई व्यक्त नहीं होती। हममें से प्रायः सभी लोग उस दल या वर्ग के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं हैं, जिनके हम प्रतिनिधि कहे जाते हैं। यहाँ हम सरकार द्वारा नामजद होने की वजह से हैं।
एक अन्य अवसर पर भी गांधी ने कहा, जब मैंने यहाँ भारतीय प्रतिनिधियों की फेहरिस्त देखी तो मुझे एकाएक लगा कि ये लोग राष्ट्र के पसन्द किए हुए नहीं हैं। ये तो सरकार के पसन्द किए हुए लोग हैं।
सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की समस्या के समाधान का उल्लेख करते हुए गांधी ने कहा कि यह समाधान स्वराज के संविधान का मुकुट तो बन सकता है, उसकी नींव नहीं बन सकता।
दूसरे गोलमेज सम्मेलन से महात्मा गांधी स्वदेश लौटे। 1931 की 28 दिसम्बर की तारीख थी। उनके सम्मान में मुम्बई के आजाद मैदान में सभा हुई। सभा विराट थी। उसमें गांधी जी ने घोषणा की,‘मैं खाली हाथ लौटा हूँ। लेकिन मैंने अपने देश की इज्जत के साथ कोई सौदा नहीं किया।’ उन्होंने लोगों से अपील की कि वे स्वतंत्रता के लिए अन्तिम संघर्ष की तैयारी करें। कुछ दिनों बाद 4 जनवरी, 1932 को वे गिरफ्तार कर लिए गये। गांधी जी जेल में भी चुप नहीं बैठे। उन्होंने 11 मार्च को भारतमंत्री सर सैम्युअल होर को पत्र लिखा। उसमें उन्होंने ‘खुद को अंत्यजों में से एक होने’ की बात को दोहराते हुए स्पष्ट किया कि मैं इस बात के विरूद्ध नहीं हूँ कि धारासभाओं में उन्हें प्रतिनिधित्व मिले। औरों के लिए मताधिकार का पैमाना ज्यादा कड़ा हो, तो भी मैं इस बात की तरफदारी करूँगा कि शिक्षा या जायदाद की योग्यता के किसी भी प्रतिबन्ध के बिना, सभी बालिग अंत्यज स्त्री-पुरूषों को मताधिकार मिले। मगर अलग निर्वाचक मण्डल अंत्यज और हिन्दू समाज दोनों के लिए ही अपार हानि करने वाले हैं। अलग निर्वाचक मण्डलों से उन्हें कैसा और कितना नुकसान होने वाला है, उसे समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि वे कथित सवर्ण हिन्दूओं के बीच में किस तरह बिखरे हुए हैं और उन पर कितने अधिक अवलंबित हैं। जहाँ तक हिन्दू समाज का सम्बन्ध है, उसे तो अलग निर्वाचक मण्डल चीरकर टुकड़े-टुकड़े ही कर देंगे।
भारतमंत्री को लिखे अपने इस पत्र में गांधी ने ‘सवर्णों के प्रायश्चित’ की अपनी अवधारणा की सीमा का भी उल्लेख किया। उन्होंने लिखा- मुझे लगता है कि हिन्दू कितना भी प्रायश्चित करंे, तो भी उन्होंने अंत्यजों का जानबूझकर जो अधः पतन किया है, उसका बदला नहीं चुकाया जा सकता। मगर मैं जानता हूँ कि उनके लिए अलग निर्वाचक मण्डल बनवाना इसका प्रायश्चित नहीं है। इस तरह से उन्हें कुचलकर उनकी जो अधम स्थिति बना दी गई है, उसका भी यह इलाज नहीं है।
सैम्युअल होर को लिखे इस पत्र के अन्त में गांधी ने अपने अगले कदम की सूचना देते हुए लिखा- इसलिए ब्रिटिश सरकार को मैं नम्रतापूर्वक जता देना चाहता हूँ कि अगर वह अंत्यजों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल बनाने का निर्णय देगी तो मुझे आमरण उपवास करना पड़ेगा।
गांधी के पत्र के जवाब में सैम्युअल होर ने 13 अप्रैल को सिर्फ इतना ही लिखा कि "मैं निर्वाचन सम्बन्धी आपकी भावना की तीव्रता को समझता हूँ। हम जो कुछ फैसला लेने का इरादा