Yug Purush : Samrat Vikramaditya (युग पुरुष : सम्राट विक्रमादित्य)
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(विक्रमादित्य ने वह किया जो आज तक किसी ने नहीं किया, वह दान दिया जो आज तक किसी ने नहीं दिया, वह असाध्य साधना की जो आज तक किसी ने नहीं की; अतएव उनका नाम सदैव अमर रहेगा।)
विक्रमादित्य का प्रारम्भिक उल्लेख स्कंद पुराण और भविष्य पुराण सहित कुछ अन्य पुराणों में भी मिलता है। उसके अतिरिक्त विक्रम चरित्र, कालक-कथा, बृहत्कथा, गाथा-सप्तशती, कथासरित्सागर, बेताल-पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, प्रबंध चिंतामणि इत्यादि संस्कृत ग्रंथों में उनके यश का वर्णन विस्तार से किया गया है। साथ ही जैन साहित्य के पचपन ग्रंथों में विक्रमादित्य का उल्लेख मिलता है। संस्कृत और जैन साहित्य के अतिरिक्त चीनी और अरबी-फारसी साहित्य में भी विक्रमादित्य की कथा उपलब्ध है, जो कि उनकी ऐतिहासिकता को प्रमाणित करती है।
इस उपन्यास में मैंने जनमानस में व्याप्त उन विक्रमादित्य की कथा को लिखने का प्रयत्न किया है, जिनका वर्णन एक अलौकिक व्यक्ति की भाँति अनेक ग्रंथों और लोककथाओं में मिलता है और जो पिछली दो शताब्दियों से जनसामान्य के हृदयों के नायक रहे हैं। जिन्होंने विदेशी आक्रांता शकों का सम्पूर्ण उन्मूलन करके भारत भूमि पर धर्म और न्याय की पुनर्स्थापना की तथा इतने लोकप्रिय सम्राट हुए कि अपने जीवन । काल में ही किंवदंती बन गए थे।
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Yug Purush - Pratap Narayan Singh
प्रतिष्ठान
(1)
भद्रजनों! आज आप लोग एक ऐसा चमत्कार देखेंगे कि आपको अपनी आँखों पर विश्वास नहीं होगा…आज से पहले आपने ऐसा कुछ कभी नहीं देखा होगा…
जादूगर की वाणी में प्रबल आत्मविश्वास था। उसका प्रभाव दर्शकों के मुख पर कौतूहल के रूप में स्पष्ट लक्षित हो रहा था।
उसने आगे कहना जारी रखा, कुछ ही पलों में आप सब इस रस्सी को साँप बनकर ऊपर उठते हुए देखेंगे…वह जाकर वट वृक्ष की ऊपरी डाली से लिपट जाएगा…किन्तु ध्यान रहे कि कोई भी व्यक्ति गोले के अंदर पैर न रखे, अन्यथा साँप के विष से प्रभावित हो सकता है।
कौतूहल के साथ लोगों के मन में थोड़ा भय और आश्चर्य भी उत्पन्न हो गया।
तीसरा प्रहर लगभग आधा बीत चुका था, अतः लोग दोपहर के भोजनादि से निवृत्त होकर चमत्कार देखने के लिए उपस्थित हुए थे। ज्येष्ठ महीने का उत्तरार्ध था। कल ही थोड़ी वर्षा हुई थी, फिर भी आज सूर्य का ताप अपने चरम था। नगर के पूर्वी छोर पर स्थित विशाल वटवृक्ष वहाँ इकट्ठा हुए लोगों को शीतलता प्रदान कर रहा था।
उसी के नीचे जादूगर ने अपना चमत्कार दिखाने के लिए लगभग पाँच दंड के व्यास का एक वृत्त बनाया था। वृत्त के मध्य में एक मोटी श्वेत रस्सी साँप की कुंडली की भाँति रखी हुई थी, जिसके ऊपर उसका एक सिरा फन की तरह लटक रहा था। दर्शकों में कृषक, कुम्हार, शिल्पी, श्रेष्ठी इत्यादि हर वर्ग के नगरवासी सम्मिलित थे।
जब लोगों की उत्सुकता चरम पर पहुँची तो जादूगर ने बीन बजाना आरंभ किया। कुछ ही क्षणों में रस्सी का ऊपरी सिरा साँप के फन की भाँति ऊपर उठने लगा। लोग चमत्कृत और सम्मोहित होकर देखने लगे। कुछ लोग जो वृत्त की परिधि से सटकर खड़े थे, वे भय से एक-दो पग पीछे हट गए। जादूगर बीन बजाता जा रहा था और रस्सी ऊपर उठती जा रही थी।
रस्सी भूमि से लगभग दो दंड ऊपर पहुँची होगी कि अश्व के टापों की ध्वनि सुनाई दी और अगले ही पल एक सनसनाता हुआ विपाठ बाण उर्ध्वाधर उठते हुए साँप के मुख के एक हाथ ऊपर से निकला और जाकर वटवृक्ष के तने में धँस गया।
अरे! यह क्या! जो रस्सी साँप बनकर ऊपर चढ़ रही थी वह एकदम से भहराकर भूमि पर गिर पड़ी। जिसमें अभी तक प्राण दिख रहे थे, वह निष्प्राण होकर धराशायी हो गई। जादूगर के मुख पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वह अपने घुटनों के बल भूमि पर बैठ गया और ऊपर हाथ उठाकर बोल पड़ा-
हे ईश्वर! यह किस बात का दंड दे रहे हो मुझे!
तभी पीछे से कई स्वर एक साथ गूँज उठे - विक्रम!
यह ईश्वर ने नहीं, मैंने किया।
तब तक विक्रम अपने अश्व से उतर कर वृत्त के पास पहुँच चुका था।
मुझसे क्या अपराध हुआ आर्य पुत्र, जो आपने ऐसा किया? यह मेरी जीविका है।
जादूगर ने हाथ जोड़कर विनीत स्वर में कहा। चमत्कार दिखाने का उसका आत्मविश्वास और आत्माभिमान दोनों लुप्त हो चुका था।
अपनी कला का प्रदर्शन करके जीविका उपार्जन करने वाले अनेक वर्ग के लोग हैं- जैसे गायक, नर्तक, चित्रकार आदि। किन्तु कोई भी अपनी कला को चमत्कार नहीं कहता है। कला एक साधना है। निरंतर अभ्यास के द्वारा उसमें पारंगत हुआ जाता है। किंतु उसे चमत्कार का नाम देकर लोगों के अंदर भ्रम और भय उत्पन्न करना अनुचित है।
मुझसे भूल हुई, क्षमाप्रार्थी हूँ। आगे से ऐसा नहीं होगा। आप कृपया इसके रहस्य को उद्घाटित न करें।
ठीक है…आगे से अपने जादू को मात्र एक कला रहने देना, चमत्कार नहीं।
फिर विक्रम ने लोगों की ओर मुड़कर संबोधित किया, भाइयों! यह जादूगर अपनी कला का प्रदर्शन इसी स्थान पर कल दोबारा करेगा। आज आप लोग अपने-अपने कार्यों पर जाएँ…और इस बात का भी ध्यान रखें कि यह मात्र एक कला है, जो कि विभिन्न युक्तियों के द्वारा आपके मनोरंजन के लिए प्रदर्शित की जाती है। इसमें किसी अलौकिक शक्ति के माध्यम से चमत्कार करने जैसा कुछ नहीं होता है।
विक्रम की बात सुनने के बाद भीड़ छँटने लगी।
तभी विक्रम का सखा चंद्रकेतु अश्व दौड़ाता हुआ वहाँ आ पहुँचा। उसने विक्रम के पास आकर अपने अश्व की वल्गा (लगाम) जोर से खींच दी। वह हिनहिनाकर रुक गया।
चंद्रकेतु ने कहा, विक्रम! उपाश्रय के शक-सैनिकों ने अपने अश्वों को चरने के लिए पुनः खेत में छोड़ दिया है। सुधर्मा कृषक ने अश्वों को अपने खेत से हटाने का अनुरोध किया तो उन्होंने उसकी पिटाई कर दी।
ओह! इनका उपद्रव तो दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।
कहते हुए विक्रम अपने अश्व पर सवार हो गया और बोला, चलो देखते हैं।
सुधर्मा के खेत के पास पहुँचकर विक्रम और चंद्रकेतु ने एक बड़े वृक्ष की ओट में अपने अश्वों को खड़ा कर दिया। सामने देखा कि खेत में शक-सैनिकों के चार अश्व मक्के के छोटे-छोटे पौधों को चर रहे हैं और उनके सवार एक पेड़ की छाँव में बैठकर कौड़ियाँ खेल रहे हैं। वे बिलकुल निश्चिंत थे। उन्हें पता था कि उनके विरुद्ध प्रतिष्ठान राज्य में कोई बोलने वाला नहीं है।
विक्रम ने कहा, ऐसा करते हैं कि आज इनके अश्वों का हरण कर लेते हैं। उन्हें बेचकर सुधर्मा की फसल की हानि पूरा कर देंगे। इन्हें पाठ पढ़ाना अत्यंत आवश्यक है।
जिस तरह से ये लोग निश्चिन्त होकर बैठे हैं, यदि इनका वध कर दिया जाए तो भी किसी को पता नहीं चलेगा।
चंद्रकेतु ने कहा, इन्हें मार दें क्या? सदैव के लिए समस्या समाप्त हो जाएगी।
नहीं, मारना नहीं है। जो अपराध इन्होंने किया है उसके लिए मृत्युदंड देना उचित नहीं होगा। इन्होंने कृषक की संपत्ति को हानि पहुँचाई है, अतः इन्हें भी आर्थिक दंड देना ही उचित होगा। दूसरी बात मात्र इन चार सैनिकों को मार देने से समस्या नहीं समाप्त होगी। उपाश्रय में इनके जैसे तीन सहस्त्र सैनिक और भी हैं।
और जो इन्होंने सुधर्मा की पिटाई की उसका दंड?
चंद्रकेतु का स्वभाव थोड़ा उग्र था।
विक्रम ने मुस्कराते हुए कहा, कुछ करते हैं उसके लिए।
दोनों ने अपने अश्वों को धीरे-धीरे आगे बढ़ाया, जिससे कि उनके टापों की ध्वनि सैनिकों तक न पहुँच पाए। वे खेत में चरते हुए अश्वों के पास पहुँच गए और एक-एक अश्व की वल्गा पकड़ ली। फिर विक्रम ने चार बाण चारों सैनिकों के पैरों में मारे। वे पीड़ा से कराह उठे। जब तक वे उठने का प्रयत्न कर पाते विक्रम और चंद्रकेतु ने अपने अश्व दौड़ा दिए। साथ में उनके दो अश्व भी ले आए।
संघ के रास्ते में शिवालय के पास उन्हें जयेश मिल गया।
विक्रम ने अश्वों को उसे सौंपते हुए कहा, इन्हें गोदावरी के उस पार ले जाकर अश्व-व्यापारी को बेच दो। उसको बोलना कि वह इन्हें प्रतिष्ठान में किसी को नहीं बेचेगा।
जयेश विक्रम का विश्वासपात्र था।
वह जाने लगा तो विक्रम ने निर्देश दिया, जो भी पैसे मिलेंगे उसे लाकर सुधर्मा कृषक को दे देना।
जब वे वापस लौटकर नगर में आए, सूर्य डूबने लगा था। हाट में जाने से पहले वे कृषक-चौपाल की ओर चले गए। जानना चाहते थे कि उपाश्रय और नगर के लोगों की क्या प्रतिक्रिया है।
आज अच्छा हुआ उनके साथ…बहुत निरंकुश होने लगे हैं।
कृषकों की चौपाल से एक व्यक्ति का स्वर उभरा।
चारों के पैर भी घायल हो गए हैं। अधिक चोट तो नहीं आई है, किन्तु कुछ दिन उपाश्रय से बाहर नहीं निकल पाएँगे।
एक अन्य व्यक्ति ने कहा।
इनके साथ ऐसा होगा तभी ये मानेंगे।
पहला व्यक्ति बोला।
राज्य प्रशासन की ओर से कोई कड़ाई न होने के कारण ऐसा हो रहा है। उन्हें लगता है कि वे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं!
उनकी बात सुनकर चंद्रकेतु आगे हाट की ओर बढ़ गया। विक्रम और चंद्रकेतु अलग-अलग एक दूसरे से थोड़ी दूरी पर चल रहे थे। जब वे हाट में पहुँचे तो वह बंद होने लगा था। लोग अपने-अपने घरों को लौटने लगे थे। सामानों से भरी कई बैलगाड़ियाँ इधर से उधर जा रही थीं। कई श्रेष्ठी अपने सामान वापस घर ले जाने के लिए गाड़ियों में भर रहे थे।
वे थोड़ा आगे बढ़े तो एक स्थान पर भीड़ लगी हुई थी। वे अपने अश्वों से उतर कर भीड़ के अंदर घुस गए।
एक श्रेष्ठी बैठा रो रहा था। उसके मुख पर चोट के चिह्न थे। वह विलाप कर रहा था, अब मैं क्या बेचूँगा और क्या खाऊँगा? किससे याचना करूँ! अब तो हम हाट में भी सुरक्षित नहीं हैं। क्या इस राज्य में हमारे भाग में मात्र प्रताड़ना और अपमान सहना ही रह गया है!
वह एक छोटा व्यापारी था।
क्या हुआ, ये क्यों रो रहे हैं?
विक्रम ने पास खड़े व्यक्ति से पूछा।
इनके सारे मेवे उपाश्रय के दो सैनिक बिना कोई मूल्य दिए उठा ले गए। इन्होंने रोका तो इन्हें मारा-पीटा भी। शोर सुनकर जब तक नगर के सैनिक पहुँचते, शक-सैनिक भाग गए थे।
विक्रम वहाँ से मुड़ा और उपाश्रय की ओर चल दिया। चंद्रकेतु भी उसके पीछे चल पड़ा। शीघ्र ही वे उन सैनिकों तक पहुँच गए। अँधेरा होने लगा था। विक्रम और चंद्रकेतु ने एक पेड़ की ओट में खड़े होकर दोनों सैनिकों के हाथों को बाणों से छेद दिया। वे चीख-पुकार करने लगे। तब उन्होंने अपने अश्व वापस मोड़ लिए।
(2)
विक्रम जब घर पहुँचा तो वासिष्ठी वहीं पर थी।
माँ! विक्रम आ गए…
पर्णकुटी के अहाते में प्रवेश करते ही वासिष्ठि ने उच्च स्वर में कहा। विक्रम अपने अश्व से उतर गया। उसे देखते ही उसका श्वान राजपलायम दौड़कर उसके पास आ गया। हल्के प्रकाश में भी उसका श्वेत रंग चमक रहा था। विक्रम उसे थोड़ा सा पुचकारकर आगे बढ़ा।
कुटिया के तीनों कक्ष और दालान अहाते से थोड़ी ऊँचाई पर बने हुए थे। अहाता बहुत बड़ा था। एक छोर पर वेणु अपने परिवार के साथ रहता था। वह विक्रम के कृषि कार्य का उत्तरदायित्व सँभालता था और साथ ही कुटिया की देखभाल भी करता।
वेणु के पुत्र सम्यक ने विक्रम के अश्व को अंदर लाकर निर्धारित स्थान पर बाँध दिया और उसे खाने के लिए हरी घास व पीसा हुआ चना डाल दिया। अहाते के एक कोने में बने तुलसी-चौरे पर सांध्य-वंदना करके माँ अभी-अभी उठी थीं।
एक नेह भरी दृष्टि वासिष्ठी पर डालकर विक्रम हाथ-मुँह धोने लगा। तब तक माँ वासिष्ठी के पास आ गई थीं।
माँ! आपको आज का नगर-समाचार सुनाऊँ?
वासिष्ठि ने व्यंग भरे स्वर में कहा।
वासिष्ठी की बात सुनकर माँ मुस्कराते हुए बोलीं, लगता है कि फिर तुम लोगों का वाद-विवाद आरंभ होगा।
नहीं माँ, मैं तो मात्र समाचार सुना रही हूँ। सुनिए, पहला समाचार – नगर में किसी के द्वारा एक प्रसिद्ध जादूगर का खेल बिगाड़ दिया। दूसरा समाचार- शक-सैनिकों के दो अश्वों का हरण अज्ञात लोगों के द्वारा कर लिया गया और चार सैनिकों के पैरों को बाणों से बिद्ध कर दिया गया।
तीसरा समाचार भी है, जो कि तुम तक अभी नहीं पहुँचा है।
विक्रम ने गंभीरता से कहा, दो सैनिकों के हाथों को भी बाणों से बिद्ध किया गया।
माँ तब तक रसोईं में खाना लगाने के लिए चली गई थीं।
मैं कहती हूँ कि शक-सैनिकों से तुम्हें उलझने की आवश्यकता ही क्या रहती है?
खाने के लिए पीठिका रखते हुए वासिष्ठी बोली।
अपराधी को दंड देना आवश्यक होता है।
विक्रम ने शांति से कहा।
अपराधी को दंड देना राजा का काम है।
विक्रम के शौर्य से वासिष्ठी भलीभाँति परिचित थी। जानती थी कि उसके धनुष और खड्ग के सम्मुख कोई भी नहीं टिक सकता है, उसके अश्व का कोई पीछा नहीं कर सकता, कोई भी स्थिति उसे कष्ट नहीं दे सकती। इस बात का उसे गर्व भी था, किन्तु फिर भी उसे चिंता होती थी। क्योंकि शक-साम्राज्य बहुत बड़ा था और उनकी शक्ति अपार थी। उनके सम्मुख प्रतिष्ठान-नरेश विरुपाक्ष भी विवश थे।
यदि राजा अपना कार्य न करे तो?
विक्रम ने पीठिका पर बैठते हुए कहा।
तो प्रजा को एकजुट होकर राजा को अपदस्थ कर देना चाहिए।
हाँ, वह भी होगा एक दिन। किन्तु तब तक क्या किया जाए? अन्याय सहते रहें?
यदि तुम्हारे बारे में शकों को पता चल गया तो?
एक योद्धा की पुत्री को भय लग रहा है?
इस बीच माँ बोलीं, पहले तुम लोग चुपचाप भोजन कर लो, उसके बाद शास्त्रार्थ करते रहना।
फिर दोनों लोग चुप होकर भोजन करने लगे। खाने के बाद वासिष्ठि को घर छोड़ने विक्रम उसके साथ गया। उसका घर पास में ही था। फिर भी रात हो जाने के कारण अकेले जाना ठीक नहीं था।
(3)
दूसरे दिन नगर में सर्वत्र शकों के दिन-प्रतिदिन बढ़ते अत्याचार की चर्चा हो रही थी। लोग राजव्यवस्था को कोस रहे थे।
ऐसा नहीं था कि नगर की कोई सुरक्षा-व्यवस्था नहीं थी। नगर में राजा के सैनिकों की चौकियाँ बनी हुई थीं और सुरक्षा-व्यवस्था को ठीक रखने के लिए सैनिक चक्कर भी लगाते रहते थे। जब कभी वे शक-सैनिकों को अपराध करते हुए देख लेते तो बलपूर्वक रोक अवश्य देते, किन्तु उनके विरुद्ध कोई दंडात्मक कार्यवाही नहीं कर पाते थे। इसलिए उनके अंदर किसी भी प्रकार का भय नहीं था। वे नगर-सैनिकों की दृष्टि से बचकर अपराध करते।
कल की घटनाओं को लेकर कृषक, श्रेष्ठी और शिल्पी संघों के प्रतिनिधि नगर-प्रमुख के पास गए।
श्रीमान! यदि हमारे साथ ऐसा होता रहेगा हो हम कैसे अपनी जीविका चला पाएँगे?
कृषक संघ प्रमुख रामधनी ने याचना की।
हमें आर्थिक हानि के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना भी सहनी पड़ती है। वे हमें कभी भी अपमानित कर देते हैं। ऐसा कब तक चलेगा? आप उनके ऊपर परिवाद क्यों नहीं चलाते?
श्रेष्ठी संघ-प्रमुख मानिकसेन ने कहा।
देखिए, आपको भी ज्ञात है कि उपाश्रय के सैनिकों के ऊपर परिवाद यहाँ नहीं चलाया जा सकता है। उन्हें दंड देने का अधिकार मात्र उपाश्रय-प्रमुख को है। वह भी राजा के निर्देश पर ही कोई कार्यवाही हो सकती है।
नगर प्रमुख ने कहा।
आप हमारी पीड़ा राजा तक पहुँचाइए। कोई सहायता नहीं करेगा तो हमसे कब तक सहन हो सकेगा।
शिल्पी संघ-प्रमुख ने कहा।
मैं तो नियमित रूप से विवरणी राजा के पास भेजता रहता हूँ। उसमें सारी समस्याएँ अंकित होती हैं। एक काम करिए, आप लोग स्वयं राजा के पास चले जाइए।
नगर प्रमुख ने सुझाव दिया।
बार-बार राजा के यहाँ जाना भी अच्छा नहीं लगता है, किंतु अब तो पुनः जाना ही पड़ेगा।
मानिकसेन बोले, पिछली बार गए थे तो उसके बाद कुछ समय के लिए अंकुश लगा था, किन्तु जब से यह नया उपाश्रय-प्रमुख आया है तब से उनका उपद्रव फिर बढ़ गया है।
सुना है कि नया उपाश्रय-प्रमुख बहुत विलासी और निरंकुश है।
एक अन्य व्यक्ति ने कहा।
फिर वहाँ से वे लोग आपस में सलाह करके राजा के पास चले गए। जाते हुए उनके साथ कुछ और लोग भी जुड़ गए।
राजा ने उनकी बातें सुनने के बाद उनकी हानि को पूरा करने का आदेश दिया और साथ में यह आश्वासन भी कि वे इस विषय में आपत्ति भेजकर उपाश्रय-प्रमुख से कार्यवाही करने की माँग करेंगे। हालाँकि उन्होंने शक-सैनिकों के साथ हुए व्यवहार की भी चर्चा की और जानना चाहा कि किसने उनके अश्वों का हरण किया और उनके हाथों और पैरों को बाणों से बिद्ध किया। किन्तु किसी ने विक्रम का नाम नहीं लिया।
शकों के व्यवहार के कारण प्रतिष्ठान की प्रजा के बीच असंतोष फैलने लगा था। राजा के पास जाने पर अधिक से अधिक आर्थिक हानि की कुछ सीमा तक पूर्ति हो जाती, किंतु बात मात्र आर्थिक हानि की ही नहीं थी। आर्थिक हानि और शारीरिक प्रताड़ना से भी अधिक कष्ट लोगों को उनका क्षत-विक्षत आत्मसम्मान दे रहा था।
दंड
(1)
तीसरा प्रहर समाप्त हो चला था। संघ के बाहर शिवालय के प्रांगण में स्थित पीपल के पेड़ के चबूतरे पर चंद्रकेतु तथा कुछ अन्य युवक बैठकर बातें कर थे। उनके अश्व पास की खाली भूमि में घास चर रहे थे। विक्रम अभी-अभी गुरुकुल से अपने छोटे भाई भर्तृहरि से मिलकर लौटा था।
तभी नगर की ओर से एक व्यक्ति आया और उनसे बोला, नगर में खलबली मची हुई है।
क्यों…क्या हो गया?
चंद्रकेतु ने पूछा।
एक विधवा की पुत्री को शक-प्रमुख नहरुल उठाकर अपने साथ उपाश्रय में ले गया।
कैसे? कहाँ से ले गया?
विक्रम ने पूछा।
वह अपनी एक सहेली के साथ हाट में गई थी, वहीं दुष्ट की दृष्टि उस पर पड़ी। लौटते समय एक सुनसान स्थान पर घात लगाकर उसे उठा लिया। उसकी सहेली ने सबको घटना की सूचना दी।
विधवा स्त्री कहाँ है?
वह अन्य कई लोगों के साथ नगर प्रमुख के पास सहायता के लिए गई है।
ओह! नगर प्रमुख कुछ नहीं कर सकते इस विषय में। यह साहस का अपराध है। राजा के पास चलना होगा। चलो जल्दी से चलते हैं।
विक्रम शीघ्रता से अपने अश्व पर सवार हुआ और वहाँ से चल पड़ा।
राजा के सभाभवन के सामने भीड़ लग गई थी। विधवा स्त्री एक श्रेष्ठी की सम्बंधी थी। अतः श्रेष्ठी-समाज भी एकत्रित हो गया था, जो कि राज्य के राजस्व का मूलाधार था। अन्य कई संघों के लोग भी वहाँ एकत्रित हो गए थे। आज उपाश्रय-प्रमुख ने सारी सीमाओं का उल्लंघन कर दिया था।
माता जी! हम उपाश्रय-प्रमुख से बात करके यथाशीघ्र आपकी पुत्री को वापस लाने का प्रयत्न करेंगे।
महामात्य प्रभंजनदेव की बातों से उनके मन में शकों का भय स्पष्ट झलक रहा था।
महामात्य! यह साहस की श्रेणी का एक जघन्य अपराध है, जिसका प्रतिफल मृत्युदंड से कम कुछ भी नहीं होना चाहिए और आप मात्र कन्या को वापस लाने के प्रयत्न की बात कर रहे हैं!
तुम कौन हो युवक?
राजा विरुपाक्ष ने पूछा।
मेरा नाम विक्रम है।
वर्ण?
क्षत्रिय।
आयु?
अठारह वर्ष।
अभी तुम राजकार्य की बातों को समझने के लिए छोटे हो।
ऐसा नहीं है राजन! आज इस राज्य का बालक भी यहाँ के राजकार्य को समझ रहा है…मैं तो अठारह वर्ष का गुरुकुल से शिक्षित एक युवक हूँ। मात्र राजकार्य ही नहीं अपितु मुझे राजधर्म भी भलीभाँति ज्ञात है। यह भी जानता हूँ कि ऐसा करना आपकी शकों के प्रति उदारता नहीं अपितु विवशता है।
विक्रम की बात समाप्त होते ही भीड़ ने शोर के साथ उसका समर्थन किया।
तुम धृष्टता कर रहे हो युवक…
महामात्य ने उच्च स्वर में कहा। किन्तु तभी राजा ने हाथ के संकेत से उन्हें चुप करा दिया।
विक्रम! यदि तुम्हें सब कुछ ज्ञात है तो यह भी जानते होगे कि उपाश्रय-प्रमुख को दंड देने का परिणाम क्या होगा!
आपका छत्र छिन जाएगा…इसके अधिक क्या हो सकता है! क्या राजा का छत्र प्रजा की मर्यादा से अधिक मूल्यवान होता है?
विक्रम के स्वर में थोड़ा रोष था। उसने आगे कहा, ऐसे छत्र और राजा का लाभ ही क्या, जो अपनी प्रजा की रक्षा न कर सके।
विक्रम की बात से एक बार पुनः प्रजा के बीच कोलाहल की तीव्र तरंग उठी।
नहीं, बात मात्र छत्र या मेरे राजा होने की नहीं है, अपितु मेरे न होने के बाद शक और अधिक मनमाने हो जाएँगे। अभी तो फिर भी मेरे हस्तक्षेप से उन पर कुछ सीमा तक अंकुश लगा हुआ है।
इस बीच महामात्य ने धीरे से राजा से कहा, महाराज! यह वही विक्रम है जो पहले भी शक-सैनिकों को दंडित कर चुका है।
वह यही है जिसकी चर्चा पहले हुई थी!
राजा को अविश्वास हुआ, यह तो अभी बहुत छोटा है।
मात्र आयु ही कम है।
महामात्य बोले।
विक्रम ने आगे पूछा, प्रतिष्ठान राज्य के लोग कब तक इस तरह भय में अपना जीवन व्यतीत करते रहेंगे राजन? क्या आपके पास इनकी पीड़ा का कोई स्थायी समाधान नहीं है?
तुम्हारे पास कोई उपाय हो तो बताओ?
जी हाँ, मेरे पास उपाय भी है और मैं करके भी दिखाऊँगा। यदि हमारा राजा नहीं रक्षा कर सकता तो हमें अपना मार्ग स्वयं ढूँढ़ना होगा।
विक्रम की हर बात पर प्रजा के बीच से कोलाहल उठता। प्रजा के असंतोष और अपनी शक्तिहीनता से राजा विरुपाक्ष पूर्णतया भिज्ञ थे। साथ ही वे यह भी जानते थे कि श्रेष्ठी और अभिजात वर्ग पहले से ही उनसे रुष्ट है। क्योंकि उनके व्यापार को भी पूरी सुरक्षा नहीं मिल पा रही थी।
तुम अकेले क्या कर सकोगे? प्रजा युद्ध तो करने जाएगी नहीं।
राजा ने अपने क्रोध को दबाते हुए कहा।
मैं अकेला नहीं हूँ। मैंने वेद-वेदांगों और राजनीति के साथ ही धनुर्वेद की शिक्षा भी ग्रहण की है…और यह कहते हुए क्षमा चाहता हूँ कि आप प्रजा की शक्ति से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। आपको शीघ्र ही पता चल जाएगा कि मैं क्या कर सकता हूँ।
विक्रम ने आत्मविश्वास से कहा।
फिर वह प्रजा को संबोधित करते हुए बोला, भद्रजनों! हमारे राजा हमारे लिए कुछ भी करने में असमर्थ हैं। अतः हमें अपनी रक्षा स्वयं ही करनी होगी।
पुत्र! मैं दुखिया कहाँ जाऊँ…किसके सामने गिड़गिड़ाऊँ?
कहते हुए विधवा स्त्री ने अपना सिर भूमि पर टिका दिया। उसकी आँखों से गिरते अश्रु धरती को प्रक्षालित करने लगे।
माँ! तुम्हें रोने की आवश्यकता नहीं है।
विक्रम ने स्त्री को कंधे से पकड़कर ऊपर उठाते हुए कहा, मैं वचन देता हूँ कि एक प्रहर के भीतर तुम्हारी पुत्री सकुशल तुम्हारे पास होगी और अपराधी दंडित किया जा चुका होगा।
कहते हुए विक्रम वहाँ से तेजी से निकल गया।
राजा, महामात्य, अमात्य तथा अन्य सभी लोग अवाक थे। सब सोचने लगे कि वह क्या करने वाला है। विक्रम का अश्व वहाँ से विद्युत् गति से निकल पड़ा। उसके पीछे चंद्रकेतु भी चल पड़ा।
जब अवंतिका राज्य के शक-महाक्षत्रप उषवदात के साथ राजा विरुपाक्ष की संधि हुई थी और यहाँ उसके सैन्य-उपाश्रय बनाने की बात हुई, तब संधि की शर्तों में यह भी था कि राज्य के नागरिकों से उसके सैनिक कोई भी सीधा सम्बंध नहीं रखेंगे और न ही उन्हें किसी भी भाँति प्रताड़ित करेंगे। किंतु शक-सैनिकों ने पहले छोटे-छोटे अपराध करने आरंभ किए और फिर धीरे-धीरे वे निरंकुश होते गए।
एक-दो बार राजा ने क्षत्रप को इस विषय में पत्र भी भेजा किंतु उसने विशेष ध्यान नहीं दिया और यह कहकर टाल दिया कि छोटे-मोटे अपराध तो हर राज्य के नागरिक करते हैं, फिर भी मैं उपाश्रय को निर्देशित कर देता हूँ।
क्षत्रप के निर्देश के बाद कुछ समय के लिए अपराध रुके, किंतु धीरे-धीरे पुनः आरंभ हो गए। नहरुल के प्रमुख बनने के बाद से तो अपराधों में एकदम से वृद्धि हो गई, क्योंकि वह स्वयं एक विलासी और निरंकुश व्यक्ति था।
(2)
सायंकाल का धुँधलका छाने लगा था। शकों के उपाश्रय में अनेक छोटे-छोटे शिविर बने हुए थे। उपाश्रय-प्रमुख नहरुल का शिविर अन्य सैनिकों के शिविरों से थोड़ा अलग हटकर बना हुआ था। वह दूसरों की अपेक्षा आकार में बड़ा भी था। उसमें संभवतः एक से अधिक कक्ष थे। उसके चारों ओर सैनिक पहरा दे रहे थे। दंडदीपिकाएँ जलाई जा चुकी थीं।
विक्रम और चंद्रकेतु ने अपने अश्वों को कुछ दूर पहले ही रोक दिया और पेड़ों की आड़ लेकर उपाश्रय के पास तक पहुँच गए। उपाश्रय के अहाते के ठीक अंदर इमली का एक बहुत बड़ा वृक्ष था। दोनों उस पर चढ़ गए। उन्होंने शक-सैनिकों के वेश धारण कर रखे थे।
चंद्रकेतु! मैं दाहिनी ओर के तीनों पहरेदारों को लक्ष्य बनाऊँगा और तुम बाईं ओर के दोनों सैनिकों को मारना।
विक्रम ने कहा।
और जो दो पहरेदार चक्कर लगा रहे हैं उनका क्या करेंगे? शवों को देखकर वे शोर मचा सकते हैं।
उन्हें शोर मचाने का अवसर नहीं देंगे। जब तक वे शवों के पास पहुँच कर कुछ सोचे-समझेंगे तब तक उनके प्राण-पखेरू उड़ चुके होंगे।
ठीक है…मैं तैयार हूँ।