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Mahabharat Ki Kathayan
Mahabharat Ki Kathayan
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Ebook331 pages3 hours

Mahabharat Ki Kathayan

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About this ebook

The Mahabharat written by the great Sage Vedvyas is reckoned as one of the topmost epics of the world. This celebrated epic throws much light on the ancient Indian culture and civilization and the various aspects of its moral, social, political and religious life of that era. It is veritably encyclopaedic in its form because it gives full details of the developments achieved by the mankind till that time. The epic itself claims to contain “everything which is anywhere and which is not here is not anywhere.”
The Mahabharat contains 100,217 Shlokas divided in 18 cantos. Its original name was ‘Jai’ which during the passage of time acquired the name of ‘Bharat Puran’ and now it is famous as Mahabharat, the epic.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateJul 30, 2020
ISBN9789352613014
Mahabharat Ki Kathayan

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    Mahabharat Ki Kathayan - Mahesh Sharma

    यज्ञ

    1

    कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास

    एक समय की बात है। महान् तेजस्वी मुनिवर पराशर तीर्थयात्रा पर थे। घूमते हुए वे यमुना के पावन तट पर आए और एक मछुए से नदी के उस पार पहुंचाने के लिए कहा। मछुआ उस समय भोजन कर रहा था। उसने अपनी पुत्री मत्स्यगंधा को मुनि को नदी पार पहुंचाने की आज्ञा दी।

    मत्स्यगंधा मुनि को नौका से नदी पार कराने लगी। जब मुनि पराशर की दृष्टि मत्स्यगंधा के सुंदर मुख पर पड़ी तो दैववश उनके मन में काम जाग उठा। मुनि ने मत्स्यगंधा का हाथ पकड़ लिया। मत्स्यगंधा ने विचार किया‒‘यदि मैंने मुनि की इच्छा के विरुद्ध कुछ कार्य किया तो ये मुझे शाप दे सकते हैं।’ अतः उसने चतुराई से कहा‒ हे मुनि! मेरे शरीर से तो मछली की दुर्गन्ध निकला करती है। मुझे देखकर आपके मन में यह काम-भाव कैसे उत्पन्न हो गया?"

    मुनि चुप रहे, तब मत्स्यगंधा ने कहा‒ मुनिवर! मैं दुर्गन्धा हूं। दोनों समान रूप वाले हों, तभी संयोग होने पर सुख मिलता है।

    पराशरजी ने अपने तपोबल से मत्स्यगंधा को कस्तूरी की सुगंधवाली बना दिया और उसका नाम सत्यवती रख दिया। जब सत्यवती ने यह कहकर बचना चाहा कि ‘अभी दिन है’ तो मुनि ने अपने पुण्य के प्रभाव से वहीं कोहरा उत्पन्न कर दिया, जिससे तट पर अंधेरा छा गया।

    तब सत्यवती ने कोमल वाणी में प्रार्थना की‒प्रियवर! मैं कुंवारी कन्या हूं। यदि आपके सम्पर्क से मां बन गई तो मेरा जीवन नष्ट हो जाएगा।

    पराशरजी बोले‒प्रिय! मेरा यह कार्य करने पर भी तुम कन्या ही बनी रहोगी। तुम्हें और भी जो इच्छा हो, वह वर मांग लो।

    सत्यवती बोली‒आप ऐसी कृपा कीजिए, जिससे जगत् में मेरे माता-पिता इस रहस्य को न जान सकें। मेरा कौमार्य भंग न होने पाए। मेरी यह सुगंध सदैव बनी रहे। मैं सदा नवयुवती बनी रहूं और आप ही के समान मेरा एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हो।

    पराशरजी ने उसकी सभी इच्छाएं पूरी कर दीं। फिर वे अपनी इच्छा पूरी करके चले गए। समयानुसार सत्यवती ने यमुना में विकसित हुए एक छोटे-से द्वीप पर वेद व्यास को जन्म दिया। श्याम वर्ण होने के कारण उनका नाम कृष्ण रखा गया तथा द्वीप पर जन्म लेने के कारण उन्हें कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा।

    जन्म लेते ही व्यासजी बड़े हो गए और सत्यवती से बोले‒ माता! मैं अपने जन्म के उद्देश्य को सार्थक करने के लिए तपस्या करने जाता हूं। आप कठिन परिस्थिति में जब भी मेरा स्मरण करेंगी, मैं उसी क्षण आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा।

    कृष्ण द्वैपायन तपस्या में लग गए और द्वापर युग के अंतिम चरण में वेदों का सम्पादन करने में जुट गए। वेदों का विस्तार करने से उनका एक प्रसिद्ध नाम ‘वेद व्यास’ पड़ गया।

    वेदों का संकलन और संपादन करने के बाद महर्षि व्यास के मन में एक ऐसे महाकाव्य की रचना करने का विचार उत्पन्न हुआ, जिससे संसार लाभान्वित हो सके। वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे मार्गदर्शन करने की प्रार्थना की।

    व्यासजी का ध्येय जानकर ब्रह्माजी प्रसन्न होकर बोले‒ वत्स! तुम्हारा विचार अति उत्तम है, परंतु पृथ्वी पर ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है, जो तुम्हारे ग्रंथ को लिखित रूप प्रदान कर सके। अतः आप गणेशजी की उपासना करके उनसे प्रार्थना करें कि वे इस कार्य में आपकी सहायता करें।

    व्यासजी ने विघ्नहर्ता भगवान गणेश की स्तुति की तो वे साक्षात् प्रकट हो गए। तब व्यासजी ने उनसे अपने ग्रंथ के लिपिक बनने की प्रार्थना की।

    गणेशजी बोले‒मुनिवर! मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है, लेकिन याद रहे; मेरी लेखनी एक पल के लिए भी रुकनी नहीं चाहिए।

    व्यासजी बोले‒ऐसा ही होगा भगवन! परंतु आप भी कोई श्लोक तब तक नहीं लिखेंगे, जब तक कि आप उसका अर्थ न समझ लें।

    गणेशजी ने शर्त स्वीकार कर ली।

    इस प्रकार महर्षि व्यास ने एक महान् महाकाव्य की रचना की, जो संसार में ‘महाभारत’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

    * * *

    2

    दुष्यंत-शकुंतला

    एक बार महर्षि विश्वामित्र ने अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या की। उनकी कठोर तपस्या से इंद्र चिंतित हो उठे कि कहीं विश्वामित्र उनका सिंहासन न छीन लें। अतः उन्होंने मेनका नामक अप्सरा को उनकी तपस्या भंग करने हेतु भेजा।

    मेनका अत्यंत सुंदर और रूपवती थी। उसने अपने रूप-सौंदर्य का जाल फैलाकर विश्वामित्र को मोहित कर दिया। अब वे तप छोड़कर मेनका के साथ गृहस्थ-जीवन व्यतीत करने लगे।

    कुछ दिनों बाद मेनका ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। तत्पश्चात् इंद्र की आज्ञा से मेनका अपनी पुत्री को मालिनी नदी के तट पर छोड़कर स्वर्ग लौट गई। नवजात शिशु को धूप में पड़े देखकर शकुंत नामक पक्षी-दंपती ने अपने पंखों से उस पर छाया की। तभी वहां कण्व मुनि आ निकले। वे बच्ची को अपने आश्रम में ले आए और धर्म-पुत्री के रूप में उसका पालन-पोषण करने लगे। उन्होंने शकुंत पक्षियों द्वारा रक्षित उस कन्या का नाम शकुंतला रख दिया। इस प्रकार अनेक वर्ष बीत गए।

    पुरु के वंश में दुष्यंत नामक एक पराक्रमी राजा हुए। दुष्यंत बड़े धर्मात्मा और सदाचारी पुरुष थे। एक दिन वन में शिकार खेलते हुए वे कण्व मुनि के आश्रम पर जा पहुंचे। आश्रम के निकट ही उन्हें एक अत्यंत सुंदर और मनोहारी युवती दिखाई दी, जो मृग-शावक का पीछा करते हुए उनके पास आ गई थी। वे उसके रूप-सौंदर्य को देख उस पर आसक्त हो गए।

    उन्होंने उस युवती से पूछा‒हे सुंदरी! तुम कौन हो? तुम्हारे सौंदर्य से यह प्रतीत होता है कि तुम क्षत्रिय-वंश में उत्पन्न हुई हो। कृपया अपना परिचय दो।"

    वह युवती अपना परिचय देते हुए बोली‒ राजन! आपने उचित कहा है। मैं महर्षि विश्वामित्र की पुत्री हूं। मेरी माता मेनका नामक अप्सरा हैं, जिन्होंने जन्म देते ही मुझे वन में छोड़ दिया था। तब महर्षि कण्व ने मेरा पालन-पोषण किया। मेरा नाम शकुंतला है और मैं उन्हीं के आश्रम में रहती हूं। राजन! आश्रम में आपका स्वागत है। बताइए, मैं आपकी क्या सेवा करूं?

    दुष्यंत बोले‒ सुंदरी! तुम अत्यंत सुंदर और गुणवती हो। तुमने अपने चंचल चितवन से मेरे मन को मोह लिया है। यदि तुम्हें स्वीकार हो तो मैं इसी क्षण तुमसे विवाह कर तुम्हें अपने हृदय की स्वामिनी बनाना चाहता हूं।

    शकुंतला स्वयं भी दुष्यंत पर मोहित हो गई थी, अतः उसने विवाह के लिए स्वीकृति दे दी। दुष्यंत ने गंधर्व विधि से उसके साथ विवाह कर लिया। रात्रि वहीं बिताने के बाद शकुंतला को शीघ्र ही अपने पास बुलवाने का आश्वासन देकर दूसरे दिन दुष्यंत अपनी राजधानी लौट गए।

    उचित समय आने पर शकुंतला ने एक बालक को जन्म दिया। इस बालक के दाहिने हाथ पर चक्र का और पैरों में कमल का चिह्न था, अतः इसे भगवान विष्णु का अंशावतार कहा गया। कण्व ऋषि ने वन में ही सभी संस्कार सम्पन्न करवाकर उस बालक का नाम भरत रख दिया। भरत बचपन से ही बड़ा वीर और निडर बालक था। वह खेल-ही-खेल में सिंहों को परास्त कर देता था। शकुंतला ऐसा वीर और सुंदर पुत्र पाकर अत्यंत प्रसन्न थी।

    जब दुष्यंत ने अनेक वर्षों तक शकुंतला को अपने पास नहीं बुलवाया तो वह स्वयं अपने पुत्र के साथ उनके समक्ष उपस्थित हुई, लेकिन उन्होंने उसे पहचानने से इंकार कर दिया। जैसे ही वह दुःखी होकर लौटने लगी, एक दिव्य आकाशवाणी हुई‒ दुष्यंत! तुम शकुंतला का त्याग मत करो। यह तुम्हारी ही पत्नी है, जिससे तुमने वन में गंधर्व-विवाह किया था। भरत तुम्हारा ही अंश है। इन्हें स्वीकार कर तुम अपने धर्म का पालन करो।

    आकाशवाणी सुनकर दुष्यंत को शकुंतला का पुनः स्मरण हो आया। उन्होंने शकुंतला और भरत को स्वीकार कर लिया।

    दुष्यंत के बाद भरत राजसिंहासन पर बैठे। अपने बल और बुद्धि द्वारा उन्हें चक्रवर्ती सम्राट होने का गौरव प्राप्त हुआ।

    * * *

    3

    शांतनु-गंगा

    श्री रामचन्द्र के इक्ष्वाकु वंश में महाभिष नाम के उनके एक पूर्वज हुए। महाभिष सत्यवादी और धर्मात्मा नरेश थे। मृत्यु के बाद उन्हें स्वर्गलोक में स्थान मिला। एक समय की बात है, महाभिष को ब्रह्माजी की एक सभा में जाने का अवसर मिला। इस सभा में इन्द्र, विष्णु, शिव आदि सभी प्रमुख देवताओं के साथ महानदी गंगा भी आमंत्रित थीं।

    सभा के मध्य एकाएक बड़े वेग से हवा चली, जिससे गंगाजी के वस्त्र इधर-उधर खिसक गए। उपस्थित सभी देवताओं ने अपने सिर झुका लिए, किंतु महाभिष गंगा की ओर देखते रहे। गंगा भी उनकी ओर मधुर दृष्टि से देख रही थीं। यह देखकर ब्रह्माजी को क्रोध आ गया। उन्होंने दोनों को शाप दे दिया कि वे मृत्युलोक (पृथ्वी) में जाकर जन्म लें। दोनों उदास मन से धरती की ओर चल पड़े।

    इसी समय पृथु और द्यौ आदि आठ वसुओं ने महर्षि वशिष्ठ की अनुपस्थिति में उनके आश्रम में प्रवेश किया। द्यौ ने अपनी पत्नी के बहकावे में आकर महर्षि वसिष्ठ की नन्दिनी गाय का हरण कर लिया। मुनि वशिष्ठ ने शाप दिया‒वसुगण! तुम मेरा अपमान कर नन्दिनी को चुरा ले गए। इस अपराध के लिए तुम्हें मनुष्य-योनि में जन्म लेना होगा।

    दण्ड की बात सुनकर वसुगण सिर के बल दौड़े आए। गाय वापस की और ऋषि से क्षमा मांगने लगे। वसुओं में द्यौ नामक वसु अत्यंत अभिमानी और धृष्ट था। उसने महर्षि से क्षमा नहीं मांगी।

    तब महर्षि वशिष्ठ बोले‒ मेरा दिया हुआ शाप कभी विफल नहीं हो सकता, लेकिन मैं तुम्हें वचन देता हूं कि तुम सब जन्म लेते ही मेरे शाप से छूट जाओगे, किंतु मेरी नन्दिनी का हरण करने वाला द्यौ वसु अत्यंत अभिमानी है, इसलिए इसे बहुत दिनों तक मानव-योनि में रहते हुए अनेक शारीरिक और मानसिक दुःख भोगने होंगे।

    इसी समय शाप से पीड़ित गंगा जी वहां से गुजरीं। वसुओं ने उनसे अपनी जननी बनने की प्रार्थना की। गंगा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

    ब्रह्माजी के शाप के परिणामस्वरूप राजा महाभिष हस्तिनापुर के राजा प्रतीप के यहां पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। उनका नाम शांतनु रखा गया। प्रतीप के बाद शांतनु को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया।

    एक दिन राजा शांतनु भ्रमण करते हुए गंगा तट पर पहुंचे। वहां उनकी भेंट देवी गंगा से हुई। उनका रूप-सौंदर्य देखकर शांतनु मोहित हो गए। उन्होंने गंगा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। विवाह से पूर्व गंगा ने शर्त रखी कि उसके अच्छे-बुरे किसी भी कार्य के लिए राजा शांतनु कोई बाधा उत्पन्न नहीं करेंगे, अन्यथा वे उन्हें छोड़कर चली जाएंगी। प्रेम में डूबे राजा शांतनु ने उनकी शर्त स्वीकार कर ली।

    विवाह के बाद एक-एक करके शांतनु के सात पुत्र हुए, जिन्हें (जो कि वसु थे) गंगा ने जल में प्रवाहित कर दिया। शांतनु शांत भाव से देखते रहे।

    आठवें पुत्र ने जन्म लिया तो उनसे चुप नहीं रहा गया। उन्होंने उस पुत्र को जीवित रखने की प्रार्थना की और गंगा को अनेक प्रकार से प्रसन्न करने का प्रयास किया, परंतु शर्त के अनुसार उनका प्रण टूट चुका था, अतः देवी गंगा आठवें पुत्र को साथ लेकर वहां से चली "गईं। जाने से पूर्व उन्होंने शांतनु को वचन दिया कि वे समय आने पर उन्हें उनका पुत्र लौटा देंगी। शांतनु बड़ी उत्सुकता से उस समय की प्रतीक्षा करने लगे।

    राजा शांतनु प्रतिदिन गंगा-तट पर जाकर अपनी रानी गंगा को याद करते थे। एक दिन उन्होंने गंगा-तट पर एक सुंदर और विलक्षण किशोर को टहलते देखा। उसके हाथों में धनुष-बाण सुशोभित था। उसे देखकर शांतनु को अपने पुत्र का स्मरण हो आया। अभी वे उस किशोर से बात करने की सोच ही रहे थे कि वहां देवी गंगा प्रकट हो गईं। वे किशोर को साथ लेकर राजा शांतनु के पास आईं और उसका हाथ शांतनु को पकड़ाते हुए बोलीं‒ महाराज! अपने पुत्र को स्वीकार करें। इसका नाम देवव्रत है। मैंने इसका पालन-पोषण क्षत्रिय-धर्म के अनुसार ही किया है। अब आप इसे अपने साथ रख सकते हैं।

    यह कहकर देवी गंगा अदृश्य हो "गईं। पुत्र को पाकर राजा शांतनु प्रसन्न हो उठे। उन्होंने देवव्रत को हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया। यही देवव्रत आगे चलकर भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए।

    * * *

    4

    मत्स्यगंधा

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