Rastra Gaurav: Dr. A.P.J. Abdul kalam (राष्ट्र गौरव: डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम)
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About this ebook
Readers are going to know a lot about Dr. A.P.J. Abdul Kalam through this book. Like as- how he made India a self-dependent country in atomic power, how he maintained the dignity of his position by living with simplicity, how he become the president of India despite not having any political background. This book narrates his vision of India by 2020 as a highly developed nation of the world.
The language is simple and easy to understand. A must read book for everyone.
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Rastra Gaurav - Mahesh Sharma
उपलब्धियां
1. अद्भुत व्यक्तित्व
कहते हैं, इतिहास में वही नाम सुनहरे अक्षरों में लिखे जाते हैं, जो अपने पुरुषार्थ से समय की शिला पर अपनी सफलताओं की कहानियां लिखते हैं। इन्हीं सफलताओं के पथ पर एक नाम भारत के पूर्व राष्ट्रपति महामहिम डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का अंकित है। यह पुस्तक न तो पारंपरिक अर्थों में जीवनी है, न ही आलोचनात्मक विश्लेषण। यह डॉ. कलाम के व्यक्तित्व तथा जीवन के अप्रकट पहलुओं पर प्रकाश डालती है और हमें उनके व्यक्तित्व के बारे में एक गहरी समझ विकसित करने में मदद करती है। डॉ. कलाम का बहुपक्षीय व्यक्तित्व, जो विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा राष्ट्र के विकास में दिखता है। इसके अलावा संगीत, साहित्य एवं पर्यावरण में भी रुचि रखते थे। उनके व्यक्तित्व की प्रेरणादायी विशेषता उनकी मानवीय संवेदना है। उदारता और निःस्वार्थ सेवा की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। कर्मनिष्ठा, आत्मनिर्भरता, स्वावलंबिता तथा सहृदयता-ये सभी गुण डॉ. अब्दुल कलाम के अद्भुत व्यक्तित्व के आधार स्तंभ हैं। भारतीय समाज को गहराई से जानने वाले डॉ. कलाम अनुकंपा, तटस्थ भाव, धैर्य और सहानुभूति से समस्याओं का समाधान ढूंढने की कोशिश करते थे। अपनी योग्यताओं द्वारा भारत को विश्व की एक महाशक्ति के रूप में उभारने वाले डॉ. अब्दुल कलाम भारतीय अध्यात्म तथा दर्शन से भी अत्यंत प्रभावित थे।
जीवन परिचय
डॉ. अब्दुल कलाम की जीवनयात्रा परी कथाओं की कल्पनाओं तथा सुखद अनुभूतियों के सदृश न होकर कर्म पथ के कठोर अनुभवों पर आधारित है। तमिल संस्कृति तथा तमिल भाषा में पले-बढ़े कलाम बचपन से ही बच्चों की भीड़ में अलग-थलग दिखते थे। उनकी माता आशियम्मा मिलनसार स्वभाव की महिला थीं, उनका यही व्यवहार डॉ. कलाम को विरासत में मिला। पिता भौतिक सुखों में विश्वास नहीं रखते थे, अतः डॉ. अब्दुल कलाम ने भी ऐशो-आराम की जीवन-शैली पर कभी ध्यान नहीं दिया। नन्हें कलाम अपने घर से कुछ दूरी पर प्रतिष्ठित शिवमंदिर में प्रतिदिन जाया करते थे। इसके साथ ही उनके पिता पुरानी मस्जिद में उन्हें प्रतिदिन नमाज पढ़ने के लिए ले जाते थे। इस प्रकार कलाम के मन में बाल्यावस्था से ही दोनों धर्मों के प्रति आस्था पैदा हो गई थी।
वे इतने स्वावलंबी थे कि किशोरावस्था में किसी से भी आर्थिक सहायता लेने की अपेक्षा कड़ी मेहनत करना पसंद किया। उन्होंने अखबार बेचना अधिक श्रेष्ठ समझा। बचपन से ही डॉ. कलाम अत्यंत बुद्धिमान तथा मेधावी थे। बचपन से ही आगे बढ़ने और ऊंचे शिखर को छूने की असीम अभिलाषा संजोए अब्दुल कलाम जब आकाश में उड़ते हवाई जहाज को देखते थे, तो उनके मन में भी अनंत आकाश को छू लेने की इच्छा होती। जीवन में अनेक सफलताओं-असफलताओं से दो-चार होते हुए उन्हें पायलट की चयन परीक्षा में भी असफलता का मुख देखना पड़ा, किन्तु अब्दुल कलाम एक जीवट व्यक्तित्व के स्वामी थे। हतोत्साहित होकर एक ओर बैठ जाने की अपेक्षा उन्होंने स्वयं को विज्ञान के क्षेत्र में समर्पित कर दिया और निरंतर नवीन प्रयोगों एवं अनुसंधानों में जुटे रहे।
कहा गया है कि असफलता ही सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है। मिसाइल के क्षेत्र में भारत को अग्रणी कर डॉ. कलाम ने उपर्युक्त कथन को सत्य कर दिखाया। विश्व-भर के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों में सम्मिलित डॉ. कलाम ने ‘पृथ्वी’, ‘आकाश’, ‘त्रिशूल’, ‘नाग’ एवं ‘अग्नि’ आदि शक्तिशाली मिसाइलें बनाकर जहां एक ओर स्वयं की विलक्षण बौद्धिक क्षमता का परिचय दिया, वहीं दूसरी ओर सम्पूर्ण विश्व में भारत को एक अलग पहचान देकर उसे गौरवान्वित किया।
किसी ने शायद ही कभी यह कल्पना की होगी कि विश्व प्रसिद्ध परमाणु वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल कलाम एकमत से विश्व के सबसे विशाल लोकतांत्रिक देश, भारत के राष्ट्रपति मनोनीत होंगे, लेकिन एक निर्धन परिवार में पले-बढ़े कलाम कर्मपथ पर निष्ठापूर्वक चलते हुए अपनी लगन, परिश्रम तथा दृढ़ शक्ति के बल पर न केवल विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक बने, बल्कि नित्य नई ऊंचाइयों को छूते हुए देश के राष्ट्रपति पद पर आसीन हुए।
किसी व्यक्ति का चरित्र उसके नैतिक मूल्यों, विश्वास और व्यक्तित्व से मिलकर बनता है। व्यक्ति के चरित्र से ही उसके व्यवहार और कार्यों का निरूपण होता है, अतः चरित्र को ऐसी अमूल्य निधि कहा गया है, जिसे विश्व की सम्पूर्ण धन-सम्पदा देकर भी क्रय नहीं किया जा सकता।
डॉ. कलाम का चरित्र भी इन सभी गुणों से युक्त है। वस्तुतः उनका चरित्र नैतिक एवं मानवीय मूल्यों, विश्वास, सद्भावना, दृढ़ इच्छाशक्ति तथा परिश्रम का ऐसा अद्भुत संगम था, जिसकी मिसाल मिलना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। अपनी क्षमता तथा उपलब्धियों को ईश्वर की देन मानते हुए उन्होंने उन्हें भारतवासियों के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया था।
डॉ. अब्दुल कलाम एक विशुद्ध भारतीय और कट्टर देशभक्त थे। यही कारण है कि उन्हें देश का प्रथम भारतीय नागरिक बनने का गौरव प्राप्त हुआ। यद्यपि धर्म से वे मुसलमान थे, किन्तु कुरान शरीफ के साथ-साथ भगवद्गीता से भी उन्हें विशेष लगाव था। वे शाकाहारी थे, क्योंकि उन्हें किसी भी जीव की हत्या पसंद नहीं थी। ईश्वर में उनकी परम आस्था थी। उनका मानना था कि सभी धर्मों में जिस ईश्वर की महिमा प्रस्तुत की गई है, वह वास्तव में एक ही परमात्मा के विभिन्न स्वरूप हैं।
वस्तुतः डॉ. कलाम का जीवन एक आध्यात्मिक सोच वाले समर्पित भारतीय वैज्ञानिक के जीवन-संघर्ष की अत्यंत रोचक गाथा है। उनकी जीवनयात्रा का एक-एक पृष्ठ, उनके दृढ़ संकल्प और समदर्शन की कथा है। डॉ. कलाम अपने उच्च पद का विचार किए बिना न केवल युवाओं से, बल्कि छोटे-छोटे स्कूली बच्चों से भी जिस प्रेम और उत्साह के साथ मिलते थे, वह अद्भुत होता था। यदि यह कहें कि वे बच्चों में भारत की वास्तविक तस्वीर तलाशते थे, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे कहते थे-‘बच्चे समाज और राष्ट्र का भविष्य होते हैं। बच्चे जितने शिक्षित, संस्कारी व चरित्रवान होते हैं, समाज और राष्ट्र का भी उतना ही चारित्रिक विकास होता है। बच्चों की जिज्ञासाएं अद्भुत व अनुपम होती हैं और उनकी सोच को व्यापकता प्रदान करती हैं। उनकी जिज्ञासाओं का समाधान जीवन-पथ पर आगे बढ़ने हेतु उन्हें संबल प्रदान करता है।’
2. पिता की छांव में
डॉ. अब्दुल कलाम एक ऐसी शख्सियत का नाम है, जिनकी आंतरिक संपत्ति के आगे बाहरी उपलब्धियां गौण हैं। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को जानने-समझने के लिए तर्कों की नहीं, बल्कि तथ्यों की आवश्यकता है। और ये तथ्य हैं-उनके जीवन की संघर्षपूर्ण यादें। उन्हें अपने पिता से विरासत के रूप में ईमानदारी और आत्मानुशासन मिला तथा मां से ईश्वर में विश्वास और करुणा का भाव। उनके माता-पिता को समाज में एक आदर्श दंपती के रूप में सम्मान दिया जाता था।
15 अक्टूबर, 1931 को धनुषकोडी गांव (रामेश्वरम, तमिलनाडु) में एक मध्यमवर्गीय मुस्लिम तमिल परिवार में इनका जन्म हुआ। उस समय रामेश्वरम ब्रिटिश भारत में मद्रास (चेन्नई) राज्य का एक भाग था। भारत के दक्षिणी तट पर स्थित होने के कारण यहां जल्दी सुबह हो जाती है और नगरवासियों का दिन सूर्योदय, सूर्यास्त, समुद्र की लहरों व उसकी मधुर आवाजों के साथ आगे बढ़ता है। 1940 तक रामेश्वरम, ज्यादातर व्यापारियों तथा छोटे उद्योगों का एक लुप्तप्राय छोटा सा शहर था, जो अपने प्रतिष्ठित शिव मंदिर के कारण तीर्थयात्रियों के आने के बाद प्रसिद्ध हुआ। यहां के निवासी शांतिपूर्वक जीवन बिता रहे थे।
कलाम अपने 10 भाई-बहनों में सबसे छोटे थे, लंबे-चौड़े व सुंदर माता-पिता का छोटी कद-काठी का साधारण-सा दिखनेवाला बच्चा। पिता जैनुलाब्द्दीन न तो बहुत उच्च शिक्षित थे और न ही धनी, लेकिन वे बुद्धिमान और एक उदार मन वाले व्यक्ति थे। वे सीधे-सरल स्वभाव के आडंबरहीन व्यक्ति थे और सभी अनावश्यक एवं ऐशो-आराम वाली चीजों से दूर रहते थे। लेकिन घर में सभी आवश्यक चीजें समुचित मात्रा में सुलभता से उपलब्ध थी। इस प्रकार कलाम का बचपन भौतिक और भावनात्मक रूप से भी अत्यंत सुरक्षित था।
वे लोग 19वीं सदी के मध्य में निर्मित, चूना-पत्थर और ईटों से बने अपने पुश्तैनी घर में रहते थे। उनका एक संयुक्त परिवार था, जिसमें उनके माता-पिता, पत्नी और 10 बच्चे, भाई, उनकी पत्नी और उनके बच्चे साथ रहते थे। यह मकान काफी बड़ा था और रामेश्वरम में मस्जिद वाली गली में स्थित था। चूंकि वह मुहल्ला मुस्लिम बहुल था और इसका मस्जिद वाली गली नाम, यहां की एक बहुत पुरानी मस्जिद पर रखा गया था। रामेश्वरम का प्रसिद्ध शिव मंदिर उनके घर से लगभग 10 मिनट की पैदल दूरी पर था। मुहल्ले में दोनों धर्मों के पूजा-स्थल आस-पास होने के कारण हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के लोग बहुत आत्मीयता के साथ मिलजुलकर रहते थे। वहां जाति-पांति तथा धर्म-मजहब का भेदभाव न होने के कारण हिन्दू-मुसलमानों में एकजुटता थी। शायद यही वह प्रमुख कारण है कि मुस्लिम धर्म के साथ-साथ हिन्दू धर्म के अध्यात्म और दर्शन ने भी अब्दुल कलाम के हृदय पर अमिट छाप छोड़ी। उनके व्यक्तित्व से भी यह प्रभाव प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता था।
रामेश्वरम द्वीप पर जीवन बिताना एक मनोरम स्वप्न की तरह था, जहां समुद्र वहां के वासियों की ज़िंदगी का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा था। वहां रहने वाले सभी लोगों का किसी-न-किसी रूप में समुद्र के साथ एक रिश्ता बना हुआ था, चाहे वह मछुआरों के रूप में हो या फिर नाव के मालिक के तौर पर। जैनुलाब्द्दीन का नाव बनाने का व्यवसाय था और वे नाव बनाकर मछुआरों को किराये पर देते थे। इसके अलावा वे रामेश्वरम मस्जिद में इमाम भी थे। परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए वे नाविक का भी काम करते थे। इसी कारण अब्दुल कलाम को नाव की सैर करना बचपन से ही बहुत पसंद रहा था। उच्छल जल तरंगों को काटकर नाव का अपने लक्ष्य तक पहुंचना उन्हें सदैव अच्छा लगता था।
जैनुलाब्द्दीन अपनी ‘फेरी’ से रामेश्वरम तथा धनुषकोडि के बीच यात्रियों को लेकर जाते थे, जो लगभग 22 किलोमीटर का लंबा रास्ता है। उस समय ‘फेरी’ यात्रा सुविधाजनक साधन था। इससे आसानी से इस द्वीप पर पहुंचा जा सकता था। जब फेरी का व्यवसाय अच्छा चलने लगा तो जैनुलाब्द्दीन ने फेरी चलाने के लिए कुछ लोगों को नियुक्त किया, जो नाव में बिठाकर यात्रियों को उस पार ले जाने तथा इस पार ले आने का कार्य करते थे। उनकी ‘फेरी’ की सेवा मंदिर के साथ भी जुड़ी हुई थी। नन्हें कलाम भी कभी-कभी फेरी में चालक दल के साथ बैठकर लोगों के साथ घूमने निकल जाते थे। यात्रा पर निकले लोग अपने अनुभव बांटते थे, जिसे नन्हें कलाम बड़े ध्यान से सुना करते थे।
आर्थिक स्थिति सही न होने के कारण जैनुलाब्द्दीन के साथ भी जीवन की कई परेशनियां थी तथा जीना आसान नहीं था। उस छोटे से शहर में, जो कि मुख्य शहर से पूरी तरह से कटा हुआ था, वे अपनी जरूरतों को मुश्किल से पूरा कर रहे थे। बावजूद इसके, वे अपने पास मदद के लिए आने वाले किसी भी इंसान को मना नहीं करते थे।
जैनुलाब्द्दीन की दिनचर्या सुबह 4 बजे से पहले ही आरंभ हो जाती थी। वे घर में सबसे पहले उठते थे और सूर्योदय से पहले ही नमाज पढ़ लेते थे। वे एक श्रद्धालु व्यक्ति थे और उनकी आस्था पूर्णतः कुरान में थी। फिर वे घर से 4 मिलोमीटर दूर स्थित अपने नारियल के बगीचों की देखरेख करने के लिए सुबह की लंबी सैर पर निकल जाते थे। शाम को वे नन्हें कलाम को अपने साथ शाम की नमाज के लिए मस्जिद ले जाते थे। यद्यपि प्रतिदिन मस्जिद में पिता के साथ अरबी भाषा में नमाज पढ़ने वाला अब्दुल नमाज के अर्थ से पूर्णतः अनभिज्ञ था, तथापि उसे पूर्ण विश्वास था कि उसके मन के विचार, भाव और प्रार्थनाएं ईश्वर तक अवश्य पहुंचेंगी और इसी निष्ठा ने उनके विश्वास की कसौटी को और अधिक दृढ़ किया।
कलाम ने अपनी जीवनगाथा में एक जगह लिखा है- ‘नमाज के बाद जब पिताजी मस्जिद के बाहर आते तो विभिन्न धर्मों के लोग कटोरों में जल लिए उनकी ओर बढ़ते थे। मेरे पिताजी उस जल में अपनी उंगलियां डालते और फिर कुछ मंत्र पढ़ते और फिर कहते कि ले जाओ इसे मरीज को अल्लाह का नाम लेकर पिला दो, वो ठीक हो जायेगा। लोग वैसा ही करते तथा मरीज के स्वस्थ होने पर घर आकर पिताजी का शुक्रिया अदा करते और कहते कि खुदा की रहमत हो गई मरीज ठीक हो गया। उस समय मैं इतना छोटा था कि इन सब बातों का अर्थ समझ नहीं पाता था। किन्तु इतना जरूर लगता था कि जो भी हो रहा है, किसी अच्छे उद्देश्य के लिए हो रहा है। जब मैं अपने पिताजी से प्रश्न करता था, तो वे बड़े सहज और सरल भाव से मेरे हर प्रश्न का जवाब देते थे।’
कलाम अपने पिता के दर्शन से बेहद प्रभावित थे। उनके पिता पूरी तरह से आत्मिक ज्ञान से भरपूर थे और उन्हें धार्मिक ग्रंथों का काफी ज्ञान था। वे कलाम को हमेशा कहते थे-‘हम सबके जीवन में दिव्य शक्ति विद्यमान होती है, जो हमें नकारात्मक क्षणों में तथा दुःख के पलों से उबरने की शक्ति देती है। अगर हम अपने मस्तिष्क को जाग्रत कर लें और उस शक्ति को उजागर कर लें, तो हमें सफलता का मार्ग मिल सकता है और हम उच्च स्थान प्राप्त कर सकते हैं। हमें अपनी सीमाओं से बाहर आकर अपने दिमाग में बसी उस शक्ति को उभारना है। इससे हमें खुशी व शांति प्राप्त हो सकती है।’
कलाम कहते थे कि जीवन की कठिन परिस्थितियों में और असफलता के क्षणों में, मुझे जीवन में अपने पिता से मिली सलाह मेरे अंदर ऊर्जा भर देती है। यह वह शक्ति बनकर आती है, जिससे मेरी हिम्मत बढ़ जाती है।
कलाम की गणित में अधिक रुचि थी, इसलिए उनके पिता ने गणित के अध्यापक के पास उनके ट्यूशन पर जाने का इंतजाम कर दिया था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब अब्दुल कलाम के पिता उन्हें हाई स्कूल की पढ़ाई के लिए रामानाथपुरम् भेज रहे थे, तब उन्होंने बहुत भावविभोर होकर अपना आशीर्वाद दिया था कि-‘अब्दुल! दूर जाना बड़े होने का ही एक हिस्सा है। यदि तुम्हें वास्तव में आगे बढ़ना है, तो यहां से जाना ही पड़ेगा। हमारा प्यार तुम्हें बांधेगा नहीं और न ही हमारी जरूरतें तुम्हें रोकेंगी।।’ उन्होंने कलाम की माता की मनोस्थिति को भांपते हुए उन्हें ढांढस बंधाया और ईश्वर का वास्ता देते हुए कहा था- ‘तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हैं, बल्कि खुदा के बेटे-बेटियां हैं। वे तुम्हारे द्वारा तो आते हैं, किन्तु तुमसे होकर नहीं आते।’ साथ ही उनका यह भी कहना था- ‘अब्दुल! तुम निष्ठा और विश्वास में यदि श्रद्धा रखते हो तो अपनी नियति भी बदल सकते हो।’ पिता के