Shaktiswaroopa (शक्तिस्वरूपा)
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About this ebook
अरुणा का पुस्तक प्रेम व ज्ञान पिपास होना उन्हें उनके जीवन के लक्ष्य तक ले गया। इसके कारण उनमें धार्मिक, ऐतिहासिक व सामाजिक पुस्तकें पढ़ने व खोज करने की जिज्ञासा बढ़ी। फलस्वरूप इस क्षेत्र में आगे बढ़कर उन्होंने पौराणिक पुस्तकें भी लिखीं।
उन्होंने एम. एससी. कैमेस्ट्री में ग्वालियर यूनिवर्सिटी में तृतीय स्थान प्राप्त किया था। उन्हें पीएच. डी. में दखिला मिल गया साथ ही डी. आर. एल. एम. में नौकरी भी मिली। परन्तु उन्होंने एक अलग पथ, मातृत्व के पथ पर बढ़ना। पसन्द किया व उसमें सफल भी हुई। बच्चों के सजग हो जाने के उपरान्त उन्होंने 10 साल एक कम्पनी में मैनेजर के पद का कार्य भी सम्भाला।
आर्मी अफसर की पत्नी होने के कारण उन्हें लगभग सम्पूर्ण भारत व विदेश में भी रहने का अवसर मिला जिससे उनके ज्ञान की प्यास भी बुझी। उन्हें जब भी। अवसर मिला उन्होंने अपनी संस्कृति, इतिहास व पौराणिक ज्ञान को बढ़ाने के लिए कई धार्मिक यात्राएं भी की। उन्होंने अपने जीवन की दूसरी पारी में। अपने सत्तरखें दशक में अपनी प्रतिभा को गृहणी होने के साथ-साथ लेखिका होने के दायित्व निभाने में लगाया।
उनकी किताबें "रामायण समय की कसौटी पर",
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Book preview
Shaktiswaroopa (शक्तिस्वरूपा) - Aruna Trivedi
शक्तिस्वरूपा
अरुणा त्रिवेदी
eISBN: 978-93-5684-176-5
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2022
Shaktiswroopa (Novel)
By - Aruna Trivedi
समर्पण
मैंने यह पुस्तक अपनी माँ के जीवन से प्रेरित होकर लिखी है। इसके सभी पात्र कल्पित हैं। किसी के जीवन से उनके मेल होने पर मैं उत्तरदायी नहीं हूँ। किसी के भी जीवन की घटनाओं से उनका मेल एक संयोग ही होगा। मेरी यह पुस्तक उन्हें तथा उन्हीं की तरह की कर्मयोगिनी स्त्रियों को समर्पित है। यदि इसे पढ़कर कोई भी स्त्री अपनी नारी शक्ति को पहचान कर दृढ़प्रतिज्ञ होकर अपने उत्थान के लिये प्रेरित होकर कार्य करती है, तो मैं समझूगी कि मेरा प्रयत्न सफल रहा।
आभार
मैं यह पुस्तक लिखने से पहले सर्वप्रथम गणेश जी को प्रणाम करती हूँ। फिर माँ सरस्वती की वन्दना करती हूँ, जिन्होनें मुझे लिखने की शक्ति दी। तत्पश्चात मैं अपने कर्तव्य निष्ठ श्वसुर स्वर्गीय शिव शंकर लाल त्रिवेदी, धर्मनिष्ठ सास स्वर्गीय कमला देवी त्रिवेदी, एवम् मेरे जन्मदाता धर्मनिष्ठ पिताजी स्वर्गीय जय नारायण मिश्रा तथा कर्तव्य निष्ठ माँ स्वर्गीय शंकर देवी मिश्रा, चारों को प्रणाम करती हूँ।
मुझे इस पुस्तक को लिखने की प्रेरणा एवं ज्ञान ईश्वर से ही मिला है। पाठ्य सामग्री प्राप्त करवाने तथा पुस्तक की भाषा सुधारने के लिए मैं अपने पति कर्नल वी एन त्रिवेदी की आभारी हूँ। मेरे बड़े पुत्र अतुल त्रिवेदी, बड़ी पुत्रवधू मिनोरी त्रिवेदी, छोटे पुत्र अनुज त्रिवेदी, छोटी पुत्रवधू शची त्रिवेदी से बहुमूल्य परामर्श प्राप्त हुए।
मेरी पुस्तक की लिखावट को उचित विधि से कम्प्यूटर में विधिवत लगाने में मेरे पुत्र अनुज ने बहुत सहायता की है। मेरी रामायण पर पुस्तक रामायण समय की कसौटी पर
, रामायण फ्रॉम द पर्सपैक्टिव ऑफ टाइम
एवम् कृष्ण एक दृष्टा
को आप सब लोगों के सहयोग से बहुत ही प्रशंसा मिली है। मैं उसके लिए आप सभी की आभारी हूँ। मेरी बच्चों के लिए रामायण रामायण फार चिल्ड्रेन
रूपा पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित की जा रही है। मैंने बच्चों के लिये शिक्षा भरी कहानियों की एक पुस्तक राधा और हनू भइया
भी लिखी है जिसके लिये प्रकाशक ढूँढ रही हूँ।
भूमिका
भगवान ने स्त्री व पुरुष को बराबर की ही भूमिका दी है। उसके बनाये संसार को चलाने के लिये यह दोनों स्तम्भ ही बराबर का स्तर रखते हैं। बल्कि स्त्री को उन्होंने आत्मशक्ति व सहनशीलता ज्यादा ही दी है। परिवार उसके ही सहारे आगे बढ़ता है। पुरुष घर को चलाने के लिये मुख्य रूप से आर्थिक सहायता करता हैं। धनार्जन के उपरान्त उसके पास समय नहीं रहता। कुछ समय वह अपने स्वयम् की खुशी आदि के लिये भी निकाल लेता है। परन्तु नारी तो एक नई पीढ़ी को जन्म देती है फिर उससे पाये संस्कार से वही पीढ़ी अपना व समाज का विकास कर उन्नति करती है। यही नहीं वर्तमान में नारी इसके साथ-साथ बहुधा स्वयम् भी अर्थोपादन करती है। नारी अपना समय सन्तान व परिवार में ही लगाती है। उसका अपना स्वयम् का भी कोई समय नहीं होता। यदि वह अस्वस्थ भी रहती है तब भी अपने परिवार के लिये अपना दर्द छुपाकर परिवार को समर्पित रहती है। वह अपने अस्तित्व को ही भूल कर बस परिवार के लिये ही जीती है। भगवान भी जब राक्षसों को नष्ट करने में सफल न हो सके तब उन्होंने शक्ति
देवी को जन्म दिया। दुर्गा जी को सभी भगवान भी सर झुकाते हैं।
भारत में भी पहले नारी को बराबर का सम्मान मिलता था। उसको पुरुष के बराबर ही बुद्धिमान, शक्तिशाली मानते थे। राजा जनक के नवरत्नों में से एक स्त्री भी थी जिसका नाम गार्गी था। एक बार राजा जनक ने राजसूय यज्ञ करने के बाद एक प्रतियोगिता रखी थी। जो उस प्रतियोगिता में जीतता उसे बहुत बड़ा इनाम मिलना था। ऋषि यज्ञवल्क्य बिना प्रतियोगिता जीते ही अपने को विजयी बताकर वह इनाम लेकर चलने लगे। तब उन्हें सात-आठ ऋषियों ने रोक कर कहा कि अपनी जीत को दर्शित करके ही पुरस्कार को तुम ग्रहण कर सकते हो। तुम हमसे शास्त्रार्थ कर अपने को श्रेष्ठ साबित करो। तभी तुम पुरस्कार के अधिकारी बन सकते हो। वे अस्वला, आर्तभागा, भुजयू, उशास्ता व उद्धालक आदि ऋषि थे। उसमें से एक स्त्री भी थीं। जिनका नाम गार्गी था। जो कुन्डलिनी योग में विशेष प्रवीण थी। उस समूह में से भी एक एक-एक कर पहले सभी पुरुषों ने शास्त्रार्थ किया व सभी ऋषि याज्ञवल्क्य से हार गये थे। अन्त में गार्गी देवी ने ही उनसे कुछ प्रश्न पूछे। ऋषि यज्ञवल्क्य उन प्रश्नों का उत्तर न दे कर कहते हैं कि यदि ज्यादा प्रश्न पूछोगी तो तुम्हारा मस्तक फिर जायेगा। तब गार्गी कहती हैं कि सिर्फ दो प्रश्न के उत्तर दे दो। उनके उत्तर सुनकर गार्गी उन्हें श्रेष्ठ जानकार कह देती हैं। उसके बाद राजा जनक ने गार्गी को अपने नवरत्नों में रख लिया था। ब्राह्मणों का एक कात्यायनी गोत्र भी स्त्री के ही नाम पर चलता है। भारतीय बुद्धिजीवी स्त्रियों में एक राजा जनक के राज्य ऋषियों में से ऋषि मैत्री की पुत्री मैत्रेई थी। इन्हें अद्वैत दार्शनिक मानते हैं। कोई कहता है कि ये कुआरी थीं तथा संस्कृत साहित्य में इन्हें तथा गार्गी को ब्रह्मवादिनी कहते हैं। कोई इन्हें स्वयम् ऋषि यज्ञवल्क्य की दूसरी पत्नी मानते हैं।
आज भी कई नारियाँ ऐसी हुई है जिनके नाम पर हमें गर्व होता है। इनमें रानी एलिजाबेथ, रानी विक्टोरिया, गोल्डामायर जो इलराइल की प्रथम प्रघान मंत्री थी, मैडम क्यूरी, मारिया मान्टेसरी (जिनके नाम पर मान्टेसरी पढ़ाई की पद्वति चली), नोबल पुरस्कार विजेता मलाला, नर्सिंग में फ्लोरेन्स नाइटेंगिल, लेडी गाविडा, मागेट थैचर, जोन ऑफ आर्क, रजिया सुलतान, नूरजहाँ, अहिल्या बाई, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरत महल, कस्तुरबा गाँधी, ऐनी बेसेन्ट, मदर टेरेसा, इन्दिरा गाँधी व आजाद हिन्द फौज की कैप्टन लक्ष्मी बाई सहगल आदि मुख्य हैं।
कुछ समय के लिये भारत में जब मुगलों का राज्य था, उस समय, समय की नाजुकता देखते हुए स्त्री को थोड़ा दबाकर रखा गया। तब से हमारे समाज में पुरुषों ने समाज को पुरुष प्रधान बनाकर नारी को दबाकर ही रखा। परन्तु अब फिर से नारी ने अपनी शक्ति पहचान ली हैं व स्वयम् ऊपर उठकर आ रही है। अब वह हर क्षेत्र में पुरुषों के बराबर उठ रही है।
भारत में भी चानू शर्मिला, भक्ति, रूपा देवी, पहली अपंग पर्वतारोहिणी -अरुणिमा सिन्हा, बाक्सर मैरीकाम, विंग कमान्डर पूजा ठाकुर, मिसाइल वूमेन टेसी थामस, बछेन्द्री पाल–पहली भारतीय महिला जो एवरेस्ट पर चढ़ी, पहली भारतीय महिला डॉक्टर आनन्दी गोपाल जोशी आदि के नाम प्रमुख हैं। कुछ व्यक्ति जो अपने जीवन काल में ही जीरो से हीरो बनी उनमें धीरू भाई अम्बानी व लाल बहादुर शास्त्री व नरेन्द्र मोदी आते हैं। तो वही किरन बेदी, सुधा चन्द्रन, उर्सला बर्न, नेहा किरपाल, एकता कपूर आदि भी हैं।
यह पुस्तक भी एक ऐसी ही स्त्री की कहानी है। वह अपनी नारी शक्ति पर विश्वास करती थी। यह उस स्त्री के जीवन की सच्ची कहानी है। यह कहानी एक कर्मयोगिनी की है। जिसने यह जीवन जिया है। वह कर्म पर भाग्य से ज्यादा विश्वास करती थी। यहाँ तक कि कर्म पर भक्ति से भी ज्यादा विश्वास करती थी।
उसके जीवन का जब आप विस्तृत वर्णन पढ़ेंगे तब आप का भी सर उसके लिये श्रद्धा से झुक जायेगा। वह जब विवाह कर मिश्रा परिवार में आई थी तब वह केवल मिडिल पास थी। उसने अपने परिवार को उठाने के लिए अपनी शिक्षा बढ़ाई। अपनी शिक्षा बढ़ाने के लिए उसने अपने शिक्षा विभाग के नियमों को बदलवाकर अपने वरिष्ठ अफसरों से अनुमति लेती रही व अपनी शिक्षा बढ़ाई। एक मिडिल कक्षा पास स्त्री एम.ए., एम.एड., हो गई। एक प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका साठ साल की होने पर स्कूल की प्रिन्सिपल बन कर सेवा निवृत हुई। उसने नौकरी की। कई व्यक्तियों के शिक्षा को बढ़ाकर अपने परिवार को पालने में सक्षम बनाया।
अपने बच्चों को अपने अनुशासन में रखा परन्तु किसी अन्य को उन्हें कुछ कहने का मौका नहीं दिया। स्वयम् चाहे मारे या डांटें परन्तु बाहर वाला उसके बच्चों को कुछ नहीं कह सकता था। जिसके नाम पर उनका नाम था, उन्ही की तरह अपने बच्चों को संरक्षण देती थीं। वह अपने परिवार के प्रति पूर्ण समर्पित थीं। अपनी सास, देवर, जेठ सभी के प्रति अपना कर्तव्य निभाया। कहा जाता है कि यदि हम अपना कर्तव्य सही तरह से निभाते रहें तो इससे बड़ी पूजा कुछ नहीं है। कर्तव्य निभाने के विषय में वह दावे के साथ भगवान को भी कह सकती थी कि यदि हमने कहीं अपने कर्तव्य को न निभाया हो तो मुझे बताओ। अपने छात्रों को इतना प्यार करती थी कि सभी उनके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे।
रेलवे में ट्रैक पर पुल न होने के कारण दुर्घटनायें होती थीं। उसने समाज सेवा के लिये पुल बनवाया। अपने को एक बार कैन्सर होने का अनुमान होने पर डरी नहीं व अपना इलाज करवाया। तब पता चला कि कैन्सर नहीं था। दोबारा पुनः गले का कैन्सर होने पर अपना इलाज करवाया। अकेले ही रही व अपना ख्याल रखा। अकेले ही ऑटो से जाकर कीमोथैरेपी करवाकर आ जाती थी। कीमोथैरेपी के बाद शरीर में प्लेटलेट्स कम हो जाते हैं। शरीर में ताकत नहीं रहती। फिर भी वह हिम्मत से रहती थी।
वह समय के आगे चलने वाली स्त्री थी। जब समाज पुत्र न हों तो चार-चार विवाह करता था कि पुत्र चाहिये उस जमाने में वह अपनी पुत्रियों को पुत्रों से ज्यादा प्यार दुलार देती थीं। उनकी हर इच्छा पूर्ण करती थीं। कहती थी कि पता नहीं विवाह के उपरान्त उनका भाग्य कैसा हो? उनकी इच्छायें पूर्ण हो पायें या न हो पायें। अतः हम कोशिश करेंगे कि उनकी कोई इच्छा अधूरी न रहे। हँसी में उनके पुत्र कहते थे कि अम्मा की बेटियों के तो सात खून माफ हैं। विवाहित पुत्रियों व दामादों के सौ खून माफ हैं और नाती-नातिन, पोते-पोतियाँ तो कत्लेआम मचा दें, तो भी माफ है।
उस समय विवाह सम्बन्ध निश्चित होने के उपरान्त व विवाह से पहले सम्बन्ध टूटना बुरा मानते थे। उसने उस समय लड़का शराबी है पता चलने के कारण अपनी पुत्री का जहाँ सम्बन्ध होने वाला था वहाँ तिलक हो जाने के बाद भी विवाह सम्बन्ध स्वयम् तोड़ दिया। जरा भी नहीं डरी कि अब मेरी पुत्री के विवाह के लिये दूसरे सम्बन्ध मिलने में कुछ बाधा भी आ सकती है। अपनी पुत्रियों पर अटल विश्वास था कि एक बार देखने के उपरान्त कोई भी उनसे विवाह को मना नहीं करेगा। अड़ोस-पड़ोस में भी उनके बच्चे सदैव प्रशंसित होते थे।
पाकिस्तान, चीन से लड़ाई के समय सैनिकों को उत्साहित करने का प्रयत्न किया। सैनिको से भरी गाड़ी आने पर स्टेशन जाकर उन्हें चाय बिस्किट दिये। उनको तिलक लगवाया। उनके लिये पैसे जमाकर सहायता के लिए भेजे।
बाढ़ग्रस्त समाज के लिए पैसे एकत्रित कर उन्हें सहायता पहुँचाई। उनका बार-बार तबादला होने के कारण उन्होंने परेशानी उठाई। एक बार तो उनका जहाँ तबादला हुआ था वह डाकुओं की खुली जेल था। फिर भी वह डरती नहीं थी। उन दिनों वेतन भी नहीं मिला, परन्तु परेशानी का जमकर मुकाबला किया। अपनी आमदनी दूसरे तरीके से बढ़ाकर घर का खर्च चलाया। वह रूढ़ीवादी कुरीतियों को तोड़ने का साहस रखती थी। उन दिनों किसी विधवा का शुभ कार्यों मे शामिल होना बुरा मानते थे। समाज कहता था कि इसके हाथ लगने से शुभ काम भी अशुभ हो जायेगा। परन्तु उन्होंने अपनी विधवा देवरानी (शम्भूनारायण की पत्नी) सुभद्रा, को विधवा होने के उपरान्त भी अपने हर बच्चे के विवाह या अन्य शुभ कार्यों में बुलाया व हर मंगल कार्यों में उसकी वरिष्ठता के नम्बर पर हर जगह उसे बुलाकर उससे नेग करवाये। ऐसी स्त्री को शत्-शत् नमन। इस पुस्तक को पढ़ने के उपरान्त यदि आज की नारियाँ उसके चरित्र से कुछ भी सीख सकी, तो मैं समझेंगी कि मेरा प्रयत्न सफल रहा।
प्रारम्भ
अलका के पति कर्नल वीरेश आर्मी में थे। इस समय वो जएन.सी.सी. में सिकन्द्राबाद में तैनात थे। उनके दो पुत्र थे। बड़ा पुत्र राजू ए.एफ.एम.सी. से डॉक्टर की पढ़ाई पूर्ण करके रेलवे के अस्पताल में अपनी इन्टर्नशिप कर रहा था। छोटा पुत्र संजू आई.आई. टी. कानपुर में फाइनल ईयर में पढ़ रहा था। आज रात्रि से ही अलका का मन कछ बेचैन सा था। वह प्रात: उठकर नाश्ता आदि बनाकर पति व पुत्र को आफिस तथा अस्पताल भेजती है। पति को आफिस भेजने के बाद घर को सम्भालने में लग गई। घर साफ करके उसने पति व पुत्र के लिए भोजन बनाया। फिर जाकर चुपचाप पलंग पर लेट गई। उसका मन अपनी माँ की तरफ भटकने लगता है। उसकी माँ आज कल बीमार चल रही थीं। उन्हें गले का कैन्सर था। अलका को लगा कि कही अम्माजी की तबियत तो ज्यादा खराब नहीं हो गई। इतनी बेचैनी क्यों है? किसी तरह दिन चढ़ने लगा। घर के सारे काम खत्म किए।
दोपहर को जब पति खाना खाने आए, तब उन्होंने कहा कि ग्वालियर से फोन आया था कि अम्माजी की तबियत बहुत खराब है। तुम ग्वालियर चली जाओ।
अलका बोली एहसास तो मुझे भी यह हो रहा था। प्रातः से ही मन उलझन में था। मगर मैं ग्वालियर नहीं जाऊँगी। मेरे जाने से तुम्हें व राजू को परेशानी हो जायेगी। फिर रिजर्वेशन भी इतनी जल्दी नहीं मिलेगा।
वीरेश बोला मैंने राजू से कह दिया है वह डी.आर.एम. कोटे से एक सीट रिजर्व करवा देगा। वह रेलवे के अस्पताल में काम करने के कारण रिजर्वेशन सरलता से करवा सकता है। तुम अपनी तैयारी कर लो।
अलका अपनी तैयारी करती है। उसके पूरे जीवन में एक या दो ही ऐसे अवसर आये होंगे, जब अलका मायके या ससुराल अकेले जा रही थी। अलका चाहे दो दिन को जाए परन्तु सपरिवार ही जाती थी। उसके मायके में भी यही प्रचलन था, जो उसे बहुत पसन्द था। इस कारण उसने अपने घर में भी वह नियम बनाये रखने का प्रयत्न किया। उसे राजू व वीरेश को अकेले छोड़कर जाना अच्छा नहीं लग रहा था। अम्मा की तबियत को लेकर वह चिन्तित थी। अतः वह तैयारी कर लेती है। सिकन्द्राबाद से रात को आठ बजे एक गाड़ी दक्षिण एक्सप्रेस चलती थी, जो सीधे ग्वालियर होत हुये दिल्ली जाती थी। वीरेश व राजू अलका को उस गाड़ी में चढ़ाने गये। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। एक अजीब सी खामोशी छाई थी। चुप्पी में ही समय कट गया व गाड़ी ने स्टेशन छोड़ दिया। राजू जाती हुई गाड़ी को देखता रहा।
जब गाड़ी आंखों से ओझल हो गई तब स्टेशन पर खड़े राजू ने वीरेश से कहा कि मम्मी को कुछ बताया नहीं। वो अकेले ग्वालियर पहुँच तो जायेंगी? परेशान तो नहीं होंगी।
वीरेश ने कहा अलका को यहाँ से अम्माजी के न रहने का दुःखद समाचार कह कर भेजना और भी कष्टप्रद होता। अकेले माँ की मृत्यु के समाचार के बाद इतना लम्बा सफर तय करना कठिन होता। हम मजबूरीवश अभी उसके साथ जा नहीं सकते। अब वह बीमारी की चिन्ता करेगी पर पहुँच जायेगी। निढाल होकर अपना आपा नहीं खोयेगी। एक सप्ताह बाद मुझे भी छुट्टी मिल जायेगी। तब मैं भी चला जाऊँगा।
अलका खिड़की के पास सीट के किनारे बैठ कर बाहर चलता हुआ दृश्य देख रही थी, परन्तु उसका मन कहीं और भटक रहा था। उसे न बाहर कुछ दिख रहा था, न ही गाड़ी के अन्दर। उसे कोई आवाज भी सुनाई नहीं पड़ रही थी। उसे याद आता है कि इसी तरह कोटा में भी उसे अम्मा के कैंसर रोग से ग्रसित होने का समाचार मिला था, तथा वह अकेले ही उन्हें देखने के लिए ग्वालियर गई थी। उसे करवाचौथ के व्रत वाले दिन ही अम्माजी का पत्र मिला था। वह बहुत रोई थी। मन स्वीकार ही नहीं कर रहा था कि मेरे घर में किसी को यह असाध्य रोग हो सकता है। तब तीन-चार दिन में रिजर्वेशन करवा कर वह अम्माजी से मिलने गई थी।
उसे याद आता है…
शंकरी (यह अलका की माँ का नाम था) को कुछ दिनों से खाना खाने में तकलीफ हो रही थी। गले से खाना गुटकता नहीं था। साथ ही कफ बहुत ज्यादा बनता था। उन्होंने ग्वालियर में सब जगह अपनी कई जाँच करवाईं। परन्तु कुछ कारण न पता चल सका। तब वो अपने छोटे दामाद व बेटी सुनील व आभा के घर गई। सुनील स्वयम् एक डॉक्टर था। उसकी सहायता से उन्होंने एक गला-कान-नाक के विशष्ट डॉक्टर के पास जाकर अपनी जाँच