Hari Anant Hari Katha Ananta - (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता)
()
About this ebook
Read more from Swami Chaitanya Vitraag
Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 3 (हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता - भाग - 3) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsHari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 4 ('हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता' - भाग - 4) Rating: 0 out of 5 stars0 ratings
Related to Hari Anant Hari Katha Ananta - (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता)
Related ebooks
Hari Anant Hari Katha Ananta Bhag-2 (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता : भाग -2) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsवर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsSamaj Ki Shakti Stambh Naariyan (समाज की शक्ति स्तम्भ नारियाँ) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsवर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी (s) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsचमत्कार Rating: 3 out of 5 stars3/5प्रतिक्रमण (In Hindi) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsShrimad Bhagwat Geeta Yatharoop Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsRamakrishna Paramahansa - (रामकृष्ण परमहंस) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsआ! रस पी Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsश्रीमद्भगवद्गीता: चौपाई (कविता) में Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsGarud Puran in Hindi Rating: 2 out of 5 stars2/5संपूर्ण गीता Rating: 5 out of 5 stars5/5Yogi Kathaamrt : Ek Yogi Ki Atmakatha Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsअहिंसा Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsकाल चक्र: जागतिक मैत्री की ओर बढ़ते कदम Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsकथा सागर: 25 प्रेरणा कथाएं (भाग 14) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsKadve Pravachan Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsLal Bahadur Shastri Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsPrem Diwani (प्रेम दीवानी) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsआप्तवाणी-१ Rating: 5 out of 5 stars5/5श्रीरामचरितमानस: एक वृहद विश्लेषण Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsमृत्यु समय, पहले और पश्चात... (Hindi) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsमहाभारत के महापात्र: Epic characters of Mahabharatha (Hindi) Rating: 3 out of 5 stars3/5अंतर ज्वालाएँ (अतीत के बिंब) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsस्वर्गविभा ऑनलाइन त्रैमासिक हिंदी पत्रिका सितम्बर २०२२ Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsहिंदू पौराणिक कहानियाँ Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsगुरु-शिष्य Rating: 4 out of 5 stars4/5Lal Anchal Ka Tukada (लाल अंचल का टुकड़ा) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsअष्ट योगी Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsManavta Ka Surya - Gautam Buddha Rating: 0 out of 5 stars0 ratings
Reviews for Hari Anant Hari Katha Ananta - (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता)
0 ratings0 reviews
Book preview
Hari Anant Hari Katha Ananta - (हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता) - Swami Chaitanya Vitraag
डायरी संख्या-१
हरि अनन्त-हरि कथा अनन्ता
श्री राम, जै राम, जै जै राम ।
श्री सद्गुरु भगवान को प्रणाम ।।
श्री विघ्नेश्वर भगवान को प्रणाम,
श्री व्यास देव को प्रणाम,
माँ शारदा को प्रणाम,
श्री सद्गुरु भगवान को प्रणाम ।।
श्री राम, जै राम, जै जै राम ।
श्री राम, जै राम, जै जै राम ।।
हरि अनंत-हरि कथा अनन्ता-
हरि कथा एक जीवन यात्रा
तो यह रहस्य कथा प्रारंभ हो ही गई। यह निश्चय ही किसी साहित्यिक प्रतिष्ठा हेतु नहीं है और न किसी विषय विशेष से प्रयोजन है वरन् सारा जीवन ही लक्ष्य है-समग्र जीवन। इसलिए तो इसका नाम रखा है-हरि अनंत हरि कथा अनन्ता
। जीवन और हरि अभिन्न है-अनन्य है-अद्वैत है-फिर भी द्वैत है, जीवन अनादि है-अनन्त है और हरि भी। जीवन को जानना, हरि को जानना है और कोई दूसरा सीधा उपाय नहीं है। अतः समग्र जीवन ही लक्ष्य है-परोक्षतः हरि लक्ष्य है, यहाँ हरि की चर्चा है, हरि प्रारंभ में है, हरि मध्य में है और हरि को हम अंत में भी पाएंगे।
हरि अनंत-हरि कथा अनन्ता
।
शरीर का जन्म
यह एक शरीर की और उससे संबंधित अनेक रुपाकरों की ब्यौरेवार इतिहास कथा है, मैं साक्षी होकर ही सब कह रहा हूँ-जरा गौर से सुनना। इस शरीर का जन्म प्रातः चार बजकर पैंतीस मिनट, १६ नवंबर १६४२, रायपुर, मध्यप्रदेश में हुआ।
पारिवारिक पृष्ठभूमि
पिता तथा माता दोनों ही परिवारों में साधन संपन्नता थी। माता प्रज्ञा बाई स्वयं सुन्दर संस्कारों वाली महिला थी तथा उनका सम्पूर्ण घर विद्यानुरागी था। नाना आजीवन अन्न, नमक त्याग कर दूध एवं फल पर आश्रित रहते हुए परिव्राजक जीवन जीते रहे, लंबी आयु पाए थे। नाम श्री बालारामधर जी दीवान था। उनके पाँच पुत्र एवं यह बड़भागिनी कन्या थी। यही कन्या कालांतर में मेरी जननी बनी। पिता के घर में सब ओर मंगल था एवं मांगलिक कृत्यों में सबकी रुचि थी। प्रति सायं रामचरित मानस का पाठ एवं प्रति मंगलवार श्री बजरंगबली को प्रसाद चढ़ता था।
सब ओर संतोष था। इस प्रकार मेरी माँ तथा पिता दोनों ओर सुख-शांति थी। नीति और संतोष की संपदा थी उनके पास।
पिता श्री ईश्वरी प्रसाद शर्मा-शांत, गंभीर, कर्मठ व्यक्ति थे। दादा श्री श्री झब्बू लाल जी तिवारी भी ऐसे ही सुंदर संस्कारों से युक्त थे। दादी श्रीमति बदन बाई सद्गुणों की खान थी।
दिव्य परंपरा पर दादा श्री गनपत लाल तिवारी संबंधी मृत्यु प्रसंग की अलौकिकता
मैंने बाल्य काल में ही सुना था कि दादा के माता-पिता श्री गनपत लाल तिवारी अपनी चर्तुथावस्था में अपने अनेक रिश्तेदारों एवं संगी-साथियों सहित रामेश्वरम् तीर्थ यात्रा पर गए थे। संयोग की बात है कि वहाँ पहुँचने के बाद एक दिन श्री श्री गनपत लाल तिवारी जी सुबह-सुबह शरीर छोड़ गए। सब ओर शोक एवं हर्ष की मिश्रित भावना फैल गई। शोक इसलिए कि एक प्रियजन बिछुड़ गया। और हर्ष इसलिए क्योंकि तीर्थ में आकर प्राण निकले।
इससे भी ज्यादा संयोग की बात है कि ठीक दूसरे दिन और ठीक उसी समय उनकी धर्मप्राण पत्नी ने भी शरीर छोड़ दिया। वह प्रत्यक्षतः सती हो गई।
अब सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक तथ्य था कि ज्योंहि इस सती का शव तैयार करके समुद्र में बहाया गया, देखा गया कि चौबीस घंटे पूर्व बहाया गया वह शव भी थोड़ी दूर जाकर रुका हुआ है। जब सती का शव उसके समीप आया तभी उसमें भी गति आई और फिर दोनों साथ-साथ चल पड़े। जैसे जीवन भर साथ-साथ चलते रहे-वैसे ही मृत्योपरांत भी चलते रहे, क्या ही दिव्य संबंध है-क्या अलौकिक प्रीति है। ऐसा ही दिव्य संस्कार था वहाँ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीस्यसि- घर के सामने दो विशाल पीपल के पेड़। घर के पीछे अशोक वृक्ष का एक विराट रूप उपस्थित था। और बेल (बिल्व फल) भी। घर में अमरुद का पेड़ था। गाँव से अन्य फल आ जाते थे। नगर छोटा एवं सुंदर था। कभी राजघराने हुआ करते थे। सुना है महाराष्ट्र देशीय मराठे सामंत थे। और उसके पूर्व इस क्षेत्र में आदिवासी रहा करते थे। अभी भी बस्तर जिला में विश्व के प्राचीनतम् आदिवासी रहते हैं, ऐसा विश्वास है। सभ्यता एवं संस्कृति का विकास करीब चार सौ वर्षों से है। ब्राह्मण भी लगभग उतने ही पुराने काल से यहाँ है जो कि उत्तर प्रदेश एवं बिहार के विविध स्थलों से इस क्षेत्र में राजा और श्रीमंतो के बुलावे पर एवं आजीविका की खोज में आए थे, एवं आते रहे थे। ब्राह्मण दो किस्म के थे-सरयपारीय और कान्यकब्ज । कान्यकुब्ज बाद में आए। ये नाम उनके खाते के आधार पर रखे गए थे।
ब्राह्मण के पास अपार धन-दौलत, जमीनें आदि होती थी। कालांतर में धीरे-धीरे उस अचल संपत्ति के अधिक-से-अधिक हिस्सेदार होते चले जाने से ब्राह्मण थोड़े गरीब एवं असुविधा ग्रस्त हो चले थे। लेकिन नगर एवं क्षेत्र में उनकी प्रतिष्ठा अच्छी ही थी।
समूचे ब्राह्मण समाज में उस समय इस परिवार को विशेष सम्मान से देखा जाता था-क्योंकि इस परिवार में शांति थी। एकता थी। प्रेम था। नीति थी।
आविभवि
कुछ है। क्या है वह कोई नहीं जानता। कोई नहीं जान सका आज तक। जो जाना गया जो बताया गया। वह वही है-यह निश्चित रूप से कोई अधिकार पूर्वक नहीं कह सका। लेकिन कुछ है-जो अनुभव में आता है। और जिसे अनुभव होता है वह जानता है कि उस अनुभव में एक विचित्र एवं अपरिमेय गुणवत्ता है-वह गुण है आकर्षण का। इसलिए वह कृष्ण है। उसमें गुण है परम विश्रांति का। इसीलिए वह राम कहलाया। उसमें गुण है शुद्ध बोध का। इसीलिए वह बुद्ध भी कहलाये । तुम्हहिं जानहिं तुम्हहिं होई जाई। जो उसे जान लेता है वह वही हो जाता है। लेकिन क्या है वह। आज तक तो यह एक नाम से, एक रूप से कोई भी निश्चित नहीं कर सका। यह काम जैसे असंभव ही है। वह बँधता ही नहीं
लेकिन यह भी सच है कि उसे अनुभव किया जा सकता है। यद्यपि अनुभव अनुभवातीत है। अतः इसे अकाल, अलख, निर्वाण, शून्य, परा, पार, अज्ञेय और अद्वितीय भी कहा गया।
एकोऽहम् बहुस्याम् (Ever Expanding Universe)
अंशी रूप उस स्रोत से जुड़े होकर भी अनन्त-अनन्त कोटि अंश रूप हो होकर निःसृत होते रहे हैं। उन्हें जीव कहना ठीक लगता है। वे आत्माएँ नहीं है। वे जीव हैं। आत्मा तो स्वरूप है-स्वरूप तो अखंड है। यह तो स्वभाव है। स्वभाव तो अद्वैत है। अतः आत्मा है। आत्माएँ नहीं, हाँ जीव अवश्य हैं। वे जीव ईश्वराधारित होते हुए भी खेल के लिए विच्छिन्न से हो जाते हैं। इस स्वरूप विस्तार के माध्यम से वह स्रोत एक खेल में निमग्न है। वह स्रोत क्या है इसे कोई नहीं जानता और न ही यह खेल क्या है-इसे ही काई जान सका । हाँ, खेलने वाले अपनी उपस्थिति को जरूर निश्चित रूप से जानते रहते हैं। यह विचित्र है। यह विलक्षण है। यह भाषातीत है। यह भावातीत है। लेकिन है अवश्य । हाँ, और उसका अनुभव भी होता है।
रेने देकार्ते
प्रसिद्ध दार्शनिक रेने देकार्ते इसीलिए तो कहा करता था कि I think because I am. पहले वह कहा करता था कि I am because I think. फिर उसने सोचा कि अरे, यह कैसे संभव है कि मैं सोचता हूँ पहले फिर निष्कर्ष निकालता हूँ कि मैं हूँ और सोचने का परिणाम अपने होने की अनुभूति कैसे होती है। इस बात में जो तार्किक कमजोरी थी उसे उसने पकड़ लिया। बाद में कहने लगा कि नहीं, पहले मेरा होना जरूरी है तभी तो कोई सोचेगा। यदि कोई सोचने वाला पहले मौजूद नहीं हुआ तो कौन सोचेगा वहाँ । अतः वह कहने लगा कि नहीं, I think मैं सोचता हूँ क्योंकि मैं हूँ because I am.
इस प्रकार रेने देकार्ते क्या कह रहा है उस ओर मेरा ध्यान है। वह कह रहा है कि चाहे और हर किसी बात या चीज से इंकार किया जा सकता है या चाहे किसी भी चीज पर संदेह करो लेकिन संदेह करने वाले पर-इंकार करने वाले पर तो संदेह किया ही नहीं जा सकता। साक्षी असंदिग्ध है।
जीवन में जीव तो है और उन्हें अपनी उपस्थिति का भान है। वे षड्रस एवं त्रिगुण में मस्त हैं। सभी जीव-चाहे वह कितना भी जड़ या चेतन प्रतीत हो-परस्पर जुड़े हुए हैं। इस जोड़ का उन्हें पता नहीं। यही एक अगोचर (Phenomenon) है।
पर्दा उठा रहा हूँ। जीवन के इस नाटक को देखो। पर्त दर पर्त उघाडूंगा। जरा ध्यान देना।
रजिया से भेंट
रजिया एक नाम है जैसे राम और रजनीश नाम है। नाम का कोई लिंग नहीं जिसके साथ जुड़ जाए वही उसका लिंग बन जाता है। जैसे स्वभाव, स्वरूप, स्वास्थ्य, सौंदर्य, जीवन, प्राण, उर्जा, शक्ति, चैतन्य का कोई लिंग नहीं, जिस रूप के साथ संयुक्त हो जाता है, बस वह भी वैसा ही भासने लग जाता है।
रजिया ऐसी ही एक घटना है, एक होना है। वह सच ही Happening और Being दोनों एक साथ है। वह क्या है यह पूरा-पूरा, संत्तोषप्रद, सच-सच कह पाना तो असंभव ही है। फिर भी कहना है। अतः कहना हो रहा है। जैसे मजबूरी में, ताओतेहकिंग कहा गया, भागवत कहा गया, पर्वत पर उपदेश कहे गए। मजबूरी भी है-करुणा भी है।
दर्शन
सन् १६६४-६५ जुलाई। दिव्य दर्शन। माँ के दिव्य दर्शन। माँ आनन्दमयी की आभा और दिव्यत्व का तीव्र आभास । आनंद । आनंद ही आनंद । उत्सव ही उत्सव। निष्क्रिय शक्ति का उन्मेष । सक्रिय शक्ति का निर्वाण । अद्भुत्-विलक्षण !!!
माँ चिति शक्ति का प्राकट्य । सत्-चित्-आनंद की लीला। भक्ति-प्रेम-वात्सल्य-श्रद्धा। सौंदर्यबोध । शिशु की सौम्यता, बच्चे की मासूमियत। प्रपन्नावस्था। एक नशा। एक समभाव। एक तृप्ति और एक बेचैनी और क्षण-क्षण की जागरुकता। नवों प्रकार की भक्ति का उद्बोधन । अहोभाव । अनुग्रह । उत्साह । मुदिता । जीवन । रस । तू ही है। तू ही है।।
सहसा सब आत्मघाती विचारों का लोप । पुनर्जीवन का प्रवेश । अतीत से मुक्ति । वर्तमान से युक्ति । प्रसाद-कृपा-अहैतुकी कृपा । अहोभाव । तू ही है-तू ही है।
माँ आनंन्दमयी का रूप दर्शन तो बहुत बाद में हुआ। लेकिन आभा का आभास रजिया रूप में ही हो गया था। ऐसी है मेरी रजिया माँ । दिव्य दर्शन । भगवती कन्या।
रजिया नाम की महिमा
रजिया बानू-नाम परम पवित्र नाम है। यह एक शक्ति है। रजिया नाम ही नाम है। जैसे राम और प्रणव । और रजनीश और बुद्ध । यह श्रद्धा से ही जाना जाएगा। श्रद्धा से ही जाना गया है। यह अकल्पनीय है तुम सब लोगों के लिए कि राम और प्रणव के साथ जो हजारों-लाखों वर्षों से अनंत-अनंत साधकों, जीवों के द्वारा आराधित रहें है उनके साथ रजिया जैसा एकदम नया और अनसुना नाम कैसे जोड़ दिया गया लेकिन तुम भूल रहे हो कि अभी मैंने कहा कि श्रद्धा से जाना जाएगा। क्योंकि श्रद्धा से ही जाना गया है।
जो चीज जिस जीव के काम का है, सहयोगी है, वह उसे अवश्य ही प्राप्त हो जाती है।
यह ईश्वरीय नियम है-दैवी विधान है। दिव्य की व्यवस्था है।
सो मुझे जीव के कल्याणार्थ रजिया रूप में ही देवी ने, भगवती ने, माँ ने दर्शन दे दिया। और मैं सहसा बदल ही गया। मेरा आमूलचूल रुपांतरण हो गया। मैं रस में डूब गया। मैं पुनः शिशु हो गया और एक नये सिरे से मेरा लालन-पालन, भरण-पोषण होता रहा। यह सब एक रहस्यमय तरीके से हुआ। कर्ता कोई और ही था।
कर्ता की विशेषता ही होती है कि वह अदृश्य होता है। मैं माँ की लीला देखता रहा, देखता रहा और देखता रहा। यह कर्म चलता रहा। - और चलता रहेगा। A Long Live Affair.
आचार्य रजनीश से भेंट और नास्ट्रेडेमस की भविष्यवाणी
१६६४-६५ मई-जून में सद्गुरु के प्रथम दर्शन हुए।
भगवान रजनीश
मनुष्य के इतिहास में एक मोड़। मानवीय प्रतिभा का फूल । बीसवीं सदी के अंतिम समय में विश्व जन के सम्मुख प्रकट हुआ तीसरा ईसा विरोधी। नॉस्ट्रेडेमस की भविष्यवाणी सत्य है। ईसाईंयत खतरे में है। प्रभु ईसा का सच में ही यह–पुनर्जीवन (Ressurection) है। पहला विरोधी था नेपोलियन और दूसरा हुआ हिटलर । अब तीसरे विरोधी रजनीश के आने से सच ही प्रभु ईसा का पुनःजीवन हुआ।
सन् १९८५ तक भगवान रजनीश नाम विश्व के लिए एक सर्वज्ञात नाम हो गया । एक अकेला व्यक्ति और संपूर्ण विश्व की राजनीति, धार्मिक शक्ति दूसरी तरफ। यह अद्भुत खेल है। सन्यासी अपनी बात कहे चला जा रहा है। और सब सुने जा रहे हैं।
परिवेश
ब्राह्मणों का मोहल्ला-ब्राह्मण पारा । नगर-रायपुर । क्षेत्र-छत्तीसगढ़। अंग्रेजों के जमाने में प्रांत सी. पी. एण्ड बरार कहलाता था और बाद में कहलाया मध्यप्रदेश।
बाल्यकाल आनंदपूर्ण था। शहर छोटा-और घरेलू था। हिन्दूमुसलमान, छोटे-बड़े सब शांतिपूर्ण जीवन बिताते थे। सामाजिकता थी उनमें।
पिता का घर
हम लोग ब्राह्मणों के मोहल्ले ब्राह्मण पारा में रहते थे। उस मोहल्ले में भी अलग-अलग कुछ उप-मोहल्ले थे। रायपुर में मोहल्ले को पारा कहते हैं। वहाँ ब्राह्मण पारा विशेष स्थान रखता था। एक तो सब लोग वहाँ गाँव गौरी वाले थे और दूसरी ओर वे अपने बीच एकता भी रखते थे। इसी से पूरे नगर में इस मोहल्ले की प्रतिष्ठा थी। चाहे वह खेल-कूद हो या लड़ाई-झगड़ा सब में आगे रहते थे।
एक बार की बात है। सन् १६६३ ई० की होगी यह घटना। उस समय छत्तीसगढ़ के गाँवों-कस्बों में बंगाल की जात्रा-पार्टी की तरह नाचा के कार्यक्रम हुआ करते थे। रायपुर में कहीं-कहीं ऐसे कार्यक्रम होते थे। रात भर जाग कर लोग इसका आनंद लेते थे। एक छोटा-मोटा मेला ही लग जाता था। इससे बड़ा मेला गाँव में मड़ई के अवसर पर लगता था। छत्तीसगढ़ मेलों-ठेलों के लिए बड़ा प्रसिद्ध है। रायपुर में महादेव घाट पर खारुन नदी के किनारे कार्तिक पूर्णिमा को बड़ा भारी मेला लगता था। पूरे छत्तीसगढ़ के गाँवों से आए लोगों से भर जाता था। यह मेला देखने लायक होता है। हम सब बच्चों को हमारे घर के लोगों के साथ वहाँ जाने का मौका मिलता रहा। फिर थोड़ा बड़ा होने पर खुद ही दोस्तों की मंडली बनाकर हम लोग जाते थे। इसे वहाँ पुन्नी मेला कहते हैं। यह विषयांतर हो गया थोड़ा।
मैं जिस घटना की बात कर रहा था वह एक नाचा था। उस नाचा में ब्राह्मण पारा के कुछ युवकों (जो सब हमारे मित्र थे) की मेहतरों से कुछ झड़पें हो गई। मेहतरों का मोहल्ला भी हमारे मोहल्ले से थोड़ी ही दूरी पर था। यह घटना सुबह घटी। फिर दिन भर हमारे मोहल्ले में आजाद चौक पर, जहाँ हम बैठा करते थे-वहाँ तनाव रहा। रात होने पर लगभग नौ बजे सौ-दो सौ लोग जिसमें युवक ज्यादा थे, मेहतरों के घर की ओर निकल पड़े। सबके हाथ में कुछ-न-कुछ था। ये लोग बलवा करने जा रहे थे। मैं भी पीछे-पीछे हो लिया। मेहतरों के मोहल्ले में एक जगह चौक पर चबूतरा बना था। उस पर कुछ लोग चौपड़ खेल रहे थे। ज्योंहि इतनी बड़ी भीड़ को चिल्लाते हुए आते देखा तो वे कूद-कूद कर भाग निकले। एक आदमी फँस गया। सब लोग उसी पर मारो-मारो कहते हुए टूट पड़े। थोड़ी ही देर में वह मर गया। उसे मर गया देख अब लोग वापस भाग खड़े हुए। रात में ही पुलिस आजाद चौंक पहुँच गई। तब तक सब लोग अपने-अपने घर में जा चुके थे। वहाँ सड़क पर कोई नहीं मिला। फिर इससे दूसरे-तीसरे दिन मोहल्ले से चार–पाँच युवकों की गिरफ्तारियाँ हुईं। उनमें एक मित्र मेरे ही नाम का था। जब घर के लोगों ने सुना कि मेरे नाम पर वारंट है तो वे घबरा उठे। लेकिन बाद में जब मैं घर सकुशल पहुँचा तो वे शांत हुए। हमारे इन पाँचों मित्रों को पुलिस रिमांड पर छ: महीनें जेल में रहना पड़ा। लेकिन अंततः मोहल्ले वालों की एकता ने उन्हे छुड़ा लिया। उस साल हम लोगों ने होली नहीं मनाई थी। जब वे छूट कर आ गए तो उसी दिन हम लोगों ने होली खेली। ऐसी एकता थी उस समय उस मोहल्लें में। इसी से शहर में एक दबदबा था उनका। उस मोहल्ले का नाम लेने से ही लोग घबरा जाते थे।
ब्राह्मण पारा में उप-पाराओं के नाम कुछ इस प्रकार थे-पौताहा पारा, पचमैया पारा, मिसिर पारा, कंकाली पारा, दुबे पारा आदि।
एक ही घर में पाँच भाई थे। वे जब अलग-अलग हुए तो उनके परिवारों के इलाके को पचमैया पारा कहने लगे। ये लोग थोड़ा ज्यादा ही तेज तर्रार थे। इस मोहल्ले में पकलू उस्ताद प्रसिद्ध हुए। कभी जवानी के दिनों में पहलवानी का शौक किया था, इसलिए लोग पकलू उस्ताद कहते थे। इनके एक मित्र थे भकलू । ये दोनों अपनी तिकड़मों के लिए प्रसिद्ध थे।
पौताहा पारा पौता नामक गाँव के नाम पर बना। हमलोग वहीं रहते थे। पौता में हम लोगों का घर, खेत थे। हमलोग भी एक ही वंशवृक्ष के थे। यह मोहल्ला थोड़ा शांत प्रकृति का था। माधो प्रसाद तिवारी जी वकील थे। वे कविता भी करते थे। उन दिनों कवि होना एक गौरव की बात हुआ करती थी। यह बात बाद में बड़ा होने पर समझ पाया।
उस समय नगर में अनेक मोहल्ले थे जिनमें अलग-अलग जाति के लोग रहते थे। जाति से मतलब जाति, वर्ग से तो है लेकिन क्षेत्र आदि भी का द्योतक है यह शब्द, जैसे मराठे, बंगाली, गुजराती आदि। महाराष्ट्रीयन लोग तात्या पारा में रहते थे, तो बंगालियों के घर अधिकांशत: बूढ़ापारा में थे। गुजराती फाफाडीह में तो मारवाड़ी सदर बाजार के निवासी थे। एक पुरानी बस्ती नामक मोहल्ला था। उसकी प्राचीनता उस क्षेत्र में विद्यमान मंदिरों तथा गलियों से प्रकट होती थी। महंत लक्ष्मीनारायण दास का जैतू साव मंदिर, महंत नागरीदास का मंदिर, दूधाधारी मठ के महंत वैष्णवदास जी का दूधाधारी मंदिर आदि धार्मिक स्थल, जहाँ पर्व त्योहारों पर शहर के लोग जाया करते थे।
शहर सुदंर था । ब्राह्मणों का मोहल्ला जरा ज्यादा स्वच्छंद था। सबके सब वहीं के निवासी थे। तीन-चार सौ वर्षों पूर्व ये ब्राह्मण-गंगा जी के किनारे की भूमि छोड़कर इधर आ गए थे। अतः सरयूपारीय बाह्मण कहलाये। संन्यासी अपने वंश की बात कर रह थे।
मित्रगण
वीरेन्द्र, कमलेश, सुशील, श्रीधर, ये सब मित्र हैं। सब सिनेमा के शौकीन । प्रत्येक शनिवार-रविवार किसी न किसी सिनेमा में हाजिर । मुझे कम खर्च लगता था। सुशील पहले यह खर्च करते रहे फिर कमलेश करते रहे। चाहे कोई भी करें लेकिन सिनेमा खूब देखा जाता रहा। यह एक प्रकार का नशा था। सन् १९५० से लेकर १६६४ तक यह क्रम बना रहा। बाद में थोड़ी गंभीरता आ जाने से ये कम हो गया था।
बिनाका गीत माला
बिनाका टूथ पेस्ट कंपनी वालों की ओर से सन् १६५३-५४ में रेडियो पर बिनाका गीत माला सुनाया जाने लगा। १६ गीत होते थे। बुधवार को आठ से नौ के बीच रात में आता था। हम सब बिना नागा किए सुनते रहे। सिनेमा के गीत गाने का विशेष शौक शुरु हुआ। जो जारी रहा। पिता नाराज होते थे। पिता का डर बहुत रहा लेकिन सिनेमा का नशा कुछ ज्यादा ही सर चढ़ा हुआ था। अतः रात में बारह बजे तक कभी-कभी घर लौटना होता था। और उम्र भी उस समय यही कोई ६ या १० वर्ष की। सभी दोस्त कमी-बेसी से एक जैसे ही थे। लेकिन पढ़ाई-लिखाई में अलग-अलग थे। और अलग-अलग पाठशाला में भी थे। मुझे फुटबाल खेलने का शौक था खेलों में। वैसे लटू लड़ाना और गुल्ली डंडा भी अधिकार पूर्वक खेला करते थे।
होली
मोहल्ले में एक चौक है। चौक पर एक हौज है। होली के दिन उस हौज के पानी को रंग डाल कर रंगीन कर दिया जाता था। मिलकर सब लोग एक-दूसरे को उसमें डुबाते थे। चौक पूरा-पूरा रंग-बिरंगा हो जाता था।
अंग्रेजो ने वैसे ये हौज वास्तव में टाँगे वालों के घोड़ो के पीने के पानी के लिए बनाए थे। हरेक चौक में ये होते थे। तब रिक्शों का प्रचलन नहीं था। घोड़े वाले इक्के-टाँगे थे। रिक्शे आए करीब १६५० ईस्वी के आस-पास । नौरंग का टाँगा वहाँ प्रसिद्ध था। रिक्शा के आने से महँगाई के कारण टाँगे गायब ही हो गए। अब तो ऑटो-रिक्शा का जमाना आ गया है।
सत्ती बाजार और पूनम मिसल वाला
सत्ती बाजार जो वास्तव में एक सती के चौरे के आस-पास जुटा करता था, साग-सब्जी का छोटा-सा बाजार था। वहीं आया करता एक चाट वाला-पूनम मिसल वाला।
ठीक शाम पाँच बजे वह अपनी दुकान, जिसे लोग खोमचा कहते हैं, लेकर वह उपस्थित हो जाता रहा। और लोग आस-पास के मुहल्लों से बच्चों को लेकर पहुँच जाते थे। संन्यासी कहते हैं कि उनके दादाजी उसे लेकर वहाँ जाया करते थे। मिसल याने मिक्स्चर । यानी सब नमकीन, मिठाई-खटाई को मिलाकर बनाया गया मिश्रण। यह हुआ पूनम का मिसल जो खाये-वह कभी न भूलें। मैं तो आज तक नहीं भूला। अब वे प्यारे दिन कहाँ।
सुलेमान और ताजबीर
सुलेमान माने सुलेमान और ताजबीर माने ताजबीर। सुलेमान का घुटा हुआ सिर था और ढंग से तराशी हुई अरबी ढंग की मूंछ तथा दाढ़ी थी। गले में मनकों, पत्थरों तथा ताबीजों की माला, बदन पर अंगरखा और तहमत-यह उसकी वेषभूषा थी। एक आदर्श मुसलमान था वह ।
ताजबीर एक सलवार और उसपर एक कुर्ती पहनती थी, और कुर्ती पर चाँदी की छोटी-छोटी किंकिणियों की लड़ कॉलर पर झूलती रहती थी। वह सौम्यता की प्रतिमा थी। हमारी दादी के पास आया करती थी।
सुलेमान की तेल की एक घानी थी। खुद का बैल था। शुद्ध तेल बेचता था। ब्राह्मण पारा के सभी घरों में सुलेमान की दुकान का तेल ही उपयोग में आता था और घरों की औरतें सिर्फ ताजबीर के हाथों ही चूड़ियाँ पहनती थीं। ताजबीर रोज ही एक चक्कर हमारे घरों की लगा लेती थी। कहीं काम हुआ तो ठीक न तो सिर्फ दो घड़ी बैठकर बातें ही हो जाती थी। बहुत प्यारी थी ताजबीर। सुलेमान भी अपनी अरबी शान से रहते थे। हमेशा आँखों में सूरमा लगाये रहते थे। एक मस्ती-फकीराना ढंग की, उसके चेहरे पर होती थी। मानो कोई सूफी हो।
अखाड़ें
सुलेमान के घर के पड़ोस में ही एक अखाड़ा था। युवक वहाँ जाकर शरीर बनाते थे। उस जमाने में शहर में अनेक अखाड़े थे। नाग पंचमी के दिन स्थान-स्थान पर दंगल होते थे। जिनमें छोटे-बड़े सभी वर्गों के पहलवान हिस्सा लेते थे। कुश्ती के अलावा अनेक अन्य प्रतियोगिताएँ हुआ करती थी। कभी-कभी आस-पास के शहरों के पहलवान भी चुनौती देने या स्वीकारने के लिए नगर में आते थे। हिन्दू-मुसलमान सब समान थे। क्योंकि यह कोई जातीय परंपरा नहीं बल्कि एक खेल था, एक कला थी।
बाल्यकाल और शिक्षा
सन् १६४२ से १६४८ ई०:
जन्म के वर्ष भर की घटना
याद है जब माँ गोद में लेकर सुनार की दुकान पर ले गई थी। साथ में नानी भी थीं। नानी का मायका था वह- ग्राम बासिन । नाक और कानों में छेद करवाने गए थे। लेकिन प्रेम इतना था चारों ओर कि दर्द का कुछ पता ही नहीं चला।
अक्सर मामा घर-ग्राम किरवई जाना होता रहता था । अक्सर माँ संग होती थी, कभी-कभी नहीं भी। यह क्रम बहुत बचपन से लेकर अठारह वर्ष के उम्र तक बना रहा। फिर सहसा भंग हो गया तो भंग ही हो गया।
पिता से दूर-दूर का ही रिश्ता रहा। न वे कभी साथ उठे-बैठे. न उनके साथ कभी खाना, सोना ही हुआ। यह काम कभी-कभी आवश्यकतानुसार चाचा व्यासनारायण जी कर देते थे।
शिक्षकगण
पाठशाला भी जब गए तो नामांकन आदि सब चाचा व्यासनारायण जी ने किया। पिता का प्रत्यक्ष हाथ तो कभी नहीं दिखा फिर भी उनकी दृष्टि बराबर लगी रहती थी, एक-एक गतिविधि पर। अतः उनसे एक प्रकार की दूरी और भय का संबंध ही था।
पाठशाला में पहली कक्षा में शिक्षक थे श्री मोतीलाल वर्मा । बहुत ही सुंदर ढ़ग से वर्णमाला एवं गिनती-पहाड़ा सिखलाते थे। दूसरे वर्ष श्री मनीराम दुबे जी शिक्षक हुए। एक बार इसी कक्षा में गणित के विषय में फेल हो जाने से रुक गए थे। लेकिन इसके बाद कोई विघ्न नहीं हुआ। हाँ, एक बात हुई गणित के विषय से भय बैठ गया। लेकिन फिर भी अन्य विषयों में ठीक-ठीक ही था।
चित्रांकन में रुचि का जन्म
तीसरे वर्ष श्री शंकर राव शिक्षक थे। चित्रकला में उन्हें गहरी रुची थी। वे हर उत्सव-पर्व की छुट्टी के दिन के पहले वाले दिन शाम को बोर्ड पर उस विषय से संबंधित कोई चित्रांकन किया करते थे तथा उसे अपनी स्लेट पर उतारने को प्रोत्साहित करते थे। मैं उसमें अत्यंत आनंदित होता था। कारण, मेरा चित्र इतना ठीक बनता था कि स्वयं शिक्षक महोदय (गुरुजी) प्रधानाध्यापक को दिखाने ले जाया करते थे। कभी-कभी मुझे भी बुलवाया जाता था।
मेरी चित्रकला की भी अजीब प्रारंभ कथा है। इसी तीसरी कक्षा में जब पढ़ते थे तब मेरे सामने ही जो लड़का बैठता था-वह अपनी स्लेट पर एक चित्र निम्नांकित ढ़ग का अक्सर बनाया करता था-वह मुझे पीछे बैठे-बैठे देखकर अत्यंत आर्कषित करता था। मैं चुपचाप उसकी नकल करने लगा। दो-चार दिनों में ही मैं स्वयं सिद्धहस्त हो गया। और धीरेधीरे कुछ ही दिनों में सहसा कुशल होने लगा।
श्री शंकर राव जी का अनुग्रह जितना भी माना जाए उतना ही कम है। उन्होंने रस का स्रोत ही खोल दिया। बहुत प्यार करते थे वे और स्वयं भी बड़े प्यारे थे।
चतुर्थ वर्ष प्रधानाध्यापक जी ही कक्षा में बैठते थे। हम अनेक बच्चे उनके घर पर ही रात में पढ़ने जाते थे। वे सजातीय एवं रिश्तेदार भी थे अतः घर पर पढ़ने के अलावा हुड़दंग करना और भूख लगने पर कुछ खाना-पीना भी हो जाया करता था। कमलेश, व्यास आदि अनेक मित्र थे। यह आम पारा प्राथमिक पाठशाला की बात है।
मैं जब बालक था उस समय मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री थे पं० रविशंकर शुक्ल । ये कान्यकुब्जी ब्राह्मण थे। उनके समय में महंत लक्ष्मीनारायण दास जी मध्यप्रदेश के कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर भी आसीन हुए। महंत जी के नाम शहर के युवकों में अनेक चुटकुले प्रचलित थे। महंत जी पढ़े लिखे तो थे नहीं लेकिन अपनी सरलतावश या मूढतावश वे सभी सभा सोसाइटियों में उपस्थित हुआ करते थे एवं कुछ न कुछ भाषण जरूर देते थे। एक बार यूनिवर्सिटी के प्राध्यापकों के बीच बोल रहे थे। थोड़ी-सी हलचल हो गई बीच में किसी कारण, तो तुरंत महंत साहब आदतवश बोल उठे कि भाईयों और माताओं, चुप रहें। लेकिन वहाँ तो कोई भी माताजी उपस्थित नहीं थी। अतः लोग हँसते-हँसते लोट-पोट होते रहे।
एक अन्य अवसर पर महंत जी की बातों पर लोग हँसते-हँसते बेहाल हो गए। वे फुटबाल प्रतियोगता में पुरस्कार वितरण करने आए थे। वे वहाँ अपने भाषण में बोले कि खेल तीन प्रकार के होते हैं। इन्डोर तथा दूसरा आउटडोर तथा तीसरा फुटबाल का खेल। चाहे कुछ भी हो-लेकिन महंत जी लोकप्रिय बहुत थे। धन की कोई कमी नहीं थी। कांग्रेस पार्टी को उन्होंने बहुत पैसा दिया। वे निरक्षर होते हुए भी अपनी कर्मठता तथा विनय के द्वारा उँचाई की ओर ही बढ़ते रहे जबकि महंत वैष्णव दास अत्यंत मूढ़ और हस्यापद हरकतों के केन्द्र बने रहे तथा मठ की आकूत संपदा उसके हाथ से निकलती गई। उनको बहुत बदनामी का सामना करना पड़ा। वे कुटिल लोगों के शिकार बनते रहे। दुधाधारी मठ भारत के वैष्णव संप्रदाय का एक प्रमुख मठ है। ऐसा ही एक मठ बिलासपुर जिले में शिवरी नारायण का मठ भी था जहाँ कहते हैं विपुल सम्पदा गुप्त रूप से थी।
रायपुर नगर में ही बाल्यकाल, किशोरावस्था एवं युवापन बीता
बचपन में छुट्टियाँ अधिकांशतः मामा घर में ही बीतती थी। किरवई ग्राम राजिम के पास एक प्रसिद्ध गाँव था। हमारे नाना एवं मामा जी को सब जानते थे। उन लोगों के ऊपर ही राजिम स्थित छत्तीसगढ़ ब्रह्मचर्य आश्रम के संचालन का भार था। मामा जी तो मुनि के रूप में ही प्रसिद्ध थे। मैं मामा घर में भी पहला ही बालक था। मुझे मामा घर में खूब प्यार मिला। पास ही गाँव धमनी और बासिन में भी मेरे मामा (माँ का मामा घर) लोगों की बड़ी संख्या थी। शेष जो मामा नहीं थे, वे भी मामा बन गए थे।
बाद में बड़े मामा को रमेश और नरेश नाम से दो पुत्र हुए। छोटे मामा को सुरेश नाम से एक पुत्र हुआ। रमेश और सुरेश साथ-साथ खेलते थे। मेरे साथ कभी-कभी वहीं एक तेलीन्दु बालक राधे नाम का भी खेलता था। हम भाई-भाई हो गए थे। राधे का स्वभाव बहुत ही अच्छा था। बाद में वह एक सफल कृषक हो गया। रमेश डॉक्टर एवं सुरेश ग्राम सेवक हो गया। हम लोग कभी तालाब में जाकर कमल नाल पर फले कमल ककड़ी (पोखरा) तोड़ने का उपक्रम तो कभी बगीचे जाकर पेडो से आम-इमली तोड़ते, इसके लिए दोपहर का समय उपयुक्त होता । घर में डाँट भी पड़ती। लेकिन फिर भी हमलोग अपने ढंग से ही रहते थे। नानी जी दूध गरम करने के घर में, जिसे हम लोग दोहनी घर कहते थे-दूध रख देती थीं। खूब भीनी-भीनी खुशबू बाहर आती थी उसमें से । जब हम लोग देख लेते कि दूध ठंडा हो रहा है, तो चुपके से सारी मलाई साफ कर जाते थे। कभी मिलजुल कर तो कभी अकेले ही। नानी कभी डाँटती तो कभी हँस देतीं। मामियाँ मुझे बहुत प्यार करती थी। दो मामियाँ थी उस समय।
गाँव में हमारे मामा लोगों के अधीन दो तालाब थे। दोपहर हम लोग वहाँ जाते एवं चार-छ: घड़ों को बाँस की खपच्चियों से बाँधकर एक डोंगी बनाते थे। जिसे हमलोग घोड़ी कहते थे, उस पर संवार होकर निर्विघ्न हम लोग तलाब में घूमा करते, पोखरे तोड़-तोड़कर उन घड़ों में डालते जाते । यद्यपि में तैरना नहीं जानता था। फिर भी बाल सुलभ चंचलता तो थी ही अतः मैं उसी तरह पानी पर विचरण करने का आनंद ले लेता था। आम के बगीचों में पके-पके आम एकत्रित करने के लिए हमलोग साथ-साथ जाते थे। बचपन में खूब आम खाये।
नाना कभी-कभी गाँव आते। वे अपनी उम्र के बीच में ही वानप्रस्था हो गए थे तथा अनाज, नमक आदि का त्याग कर एक प्रकार से गृहत्याग ही कर लिया था। वे अक्सर हरिद्वार, वृंदावन, काशी आदि तीर्थों में भ्रमण करते रहते थे। वर्ष में एकाध बार वे गाँव जाते। लेकिन मैं देखता था कि जब वे गाँव में होते थे तो सब परिवार जन एवं नौकर-चाकर सतर्क रहते थे। यहाँ तक कि एक भैंस थी वह भी खूब तेज हो जाती थी। जहाँ नाना जी को देखा कि लगी दौड़ने।
नानाजी यद्यपि गाँव घर सब छोड़ चुके थे लेकिन सब लोग अनुभव करते थे कि उन्हें अत्यंत आसक्ति थी एवं वे सब लोगों पर क्रुद्ध होते रहते थे कि व्यवस्था नहीं है। वे सप्ताह में एक दिन उपवास एवं मौन रखते थे, लेकिन उसी दिन वे सबसे ज्यादा बोलते थे। मुँह से नहीं तो हाथ के इशारे से, ताली बजा–बजाकर बोलते थे। बड़ा अजीब दृश्य होता था। नानाजी अपने भोजन के लिए स्वयं तैयारी करते थे। वे बिना नमक की सब्जी या रोटी तैयार करते थे। वे प्रायः दूध ग्रहण करते थे। इसलिए उनके परिचित लोग उन्हें दधाधारी बाबा भी कहते थे। वे छत्तीसगढ़ में दीवान जी के नाम से प्रसिद्ध थे। रायपुर नगर के सभी बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों के घर पर उनका जाना—आना था। वे लोग उन्हें खूब आदर देते थे। लेकिन गाँव में उनका आना एक अनाहूत अमंगल की तरह होता था। कई बार नाराज होकर घर से कहते हुए निकलते कि जा रहा हूँ, फिर कभी नहीं आऊँगा लेकिन घंटे दो घंटे बाद पता चलता कि दीवान जी बस स्टैण्ड पर या किसी बगीचे में आम चूस रहे हैं या वापस आ रहे हैं। नानी जी से उनका संपर्क टूट गया था। लेकिन नानी अपने बाल-बच्चों में ही मग्न रहती थीं।
किरवई जाने पर धमनी और बासिन जाना जरूर होता था। मुझे इन गाँवों में खूब प्यार मिलता था।
तीव्र वैराग्य के भाव में उतरने-चढ़ने लगा था। मैं निरंतर सोचा करता था कि यह तेरा घर नहीं है। यह लोग तेरे लोग नहीं हैं। यह पिता तेरा पिता नहीं है। इस प्रकार की बातें उस बचपन में तेरह-चौदह वर्ष की उम्र में उठा करती थी। मैं बहुत विचलित हो उठता था। पिता की ओर से हमेशा एक निगरानीकर्ता का तीक्ष्ण व्यवहार मिलता था। अच्छे काम करने के बावजूद कभी कोमल और मधुर दो शब्द सुनने को नहीं मिले। इससे मेरा मन भावुक होकर सोचने लगता कि यह कैसा व्यवहार है। कहीं संतलन दिखलाई नहीं पड़ता था। वहीं दसरी ओर मेरे बाद पैदा हुए भाई अशोक के लिए उनके पास चौबीसों घंटे समय रहता था। वे उसे लिए लिए बैठे रहते थे। हमेशा पास ही रखते, खिलाते, पिलाते, बातें करते। आगे भी राजेश और प्रतिभा के साथ ऐसा ही मधुर व्यवहार बना रहा। लेकिन मेरे साथ न जाने क्यों जरूरत से ज्यादा ही तटस्थ थे। जिसे बालमन से समझ नहीं पाने से मैं विक्षब्ध रहा करता था तथा इसी अशांति से मैं बहुत बार ऐसे-ऐसे पत्र लिखकर अपने पढ़ने के टेबल पर रख छोड़ता था जिसमें मैं अपनी भावदशा का वर्णन करता था एवं घर से बाहर चले जाने की इच्छा को दुहराता। शायद वे पत्र कभी पढ़े नहीं गए।
इसी क्रम में साल दर साल बीतते गए।
मामा गाँव में तेल निकालने वाले तेली के घर में भी जाता था जहाँ चलती हुई घानी पर मुझे बैठने में बड़ा मजा आता था। कभी-कभी बढ़ई का काम करने वाले मिस्त्री के घर जाकर उसके नाप-जोख करने के यंत्रों को तथा लकड़ी को छीलने की क्रिया को आश्चर्य से देखता था।
गाँव की महिलाएँ कार्तिक के दिनों में स्नान के लिए अंधेरे में ही चार बजे के करीब तालाब जाती थीं-तथा वहाँ कुछ पूजा-पाठ भी करती थीं। साथ में हम बच्चे लोग भी प्रसाद के लोभ में सुबह-सुबह उनके साथ होते थे। मेरी माँ तथा नानी की आवाज सुरीली थी। वे भजन बहुत सुंदर गाती थी।
गाँव की दिवाली, दशहरा की आत्मीयता शहर में नहीं दिखलाई देती। गाँव एक छोटी ईकाई होने से भाईचारे की अभिव्यक्ति सहज होती है। शहर जितना बड़ा होगा, वहाँ प्रेम की अभिव्यक्ति उतनी ही कम होगी।
दिवाली पर ग्वाले लोग सुंदर वेषभूषा बनाकर जिसमें मोरपंख की सजावट विशेष होती थी-गाँव में नाचने निकलते थे। घर-घर जाते थे। बड़े खेतिहरों के घर पर थोड़ा विशेष नाचते थे। मैं जब बच्चा था तो वे मुझे कंधे पर लेकर नाचते थे। पटाखें, फुलझड़ियाँ, चलाने का मुझे शौक था। रायपुर से ले जाता था। उस जमाने में आज जैसे खतरनाक पटाखे कम बनते थे। लोग खाने-पीने पर ज्यादा खर्च करते थे। एक प्रकार की सादगी थी तब । तब गाँव गाँव था-शहर शहर।
चाय का प्रचलन ज्यादा नहीं था। सिर्फ कोई एकाध आदमी ही चाय पीता था। बाद में धीरे-धीरे यह सर्वत्र फैल गया।
मैंने बचपन में अनेक दीपावली अपने ननिहाल में ही मनाए। वहाँ धन-धान्य की प्रचुरता तथा पशुधन सब कुछ था । वहाँ अन्नकूट के दिन छप्पन प्रकार के भोग भगवान श्री कृष्ण को अर्पण होते थे। बड़े मामा पहले पूजा-पाठ करते थे तभी हम लोगों को व्यंजन प्रसाद के रूप में मिलते थे। घर पर लगभग सभी सदस्य मौजूद होते थे। आम के मौसम में आम, गन्ने के मौसम में गन्ने और अमरुद तथा बेल सब घर में ही होते थे। आमों को कच्चा तुड़वाकर दो-तीन बड़े-बड़े कमरों में पुआल देकर पकने छोड दिया जाता था। और जब पक जाते थे तो प्रतिदिन सुबह-शाम निकाल–निकाल कर बड़े-बड़े बर्तनों में पानी भर कर उसमें डाल दिया जाता था। दो-तीन घंटे में सब आम खाने लायक ठंडे हो जाते थे। प्रत्येक सदस्य दर्जन भर से कम तो खाता ही नहीं था ज्यादा मिल जाएं तो और अच्छा। रस अलग बनाया जाता था। नानी और मामियाँ आम पापड़ भी बनाती थी। हम बच्चे लोग भी अपना-अपना एक-एक बना लेते थे। माताएँ खाट पर कपड़े बिछाकर खाट के ही आकार का बनाती थीं-जिसे बन जाने पर कपड़े की तरह तह करके रखा जाता था। हम लोगों का काम प्रायः बैठने की पीढ़ियों पर बनता था या बड़ी-बड़ी थालियों में। गर्मी की छुट्टियाँ बिताकर वापस लौटने के बाद यह सामग्री काम आती थी। नानी जी इन सब कार्यों में बहुत ध्यान लगाती थीं। माँ के लिए उनके हृदय में कुछ विशेष स्थान था। मुझे भी बहुत प्यार करती थीं।
किरवई में ही पवन नाम के एक मेरे हम उम्र मामा जी रहते थे। हम दोनों में खूब पटती थी। वह कहानी कह-कह के मुझे खूब हँसाता था। बासिन में दोपहर के वक्त किसी पेड़ की डाल पर बैठकर खरखेसुना
की कहानी सुनाने का प्रसंग तो मेरे जेहन में घुस गया था।
सन् १६४६: संन्यास का प्रथम भाव
मैंने जीवन में, जहाँ तक याद है-अपने पिताजी के द्वारा बनवाये गये वस्त्र सिर्फ एक ही बार पहने हैं- और वह भी एक ही दिन चंद घंटे ही।
एक दिन की बात है, कहीं बाहर जाना हो रहा था माँ के साथ। किसी बात पर मुझे घर से बाहर निकलते ही विचित्र किस्म का क्रोध आया और उस क्रोध मैं मैंने नये कपड़े को, जो पहने थे, तार-तार कर डाला। जब माँ ने पिताजी का डर बतलाया तो वापस मैं घर लौट गया। मुझे अकेला छोड़कर सब लोग चले गए। घर में उस समय कोई नहीं था। सूना था। मैं डर के कारण नंगा ही रसोई घर में घुस गया और एक किनारे उकडू बैठ गया। मैं कुछ सोचने लगा। सोचने लगा कि मुझे घर से भाग जाना चाहिए । सामने के दिवाल पर ध्यान गया तो देखता हूँ कि खूटी से एक भगवा रंग का कपड़ा लटक रहा है। अब तो विचार और तेजी से चलने लगा कि संन्यासी का कपडा पहन कर घर से भाग जाना चाहिए। उम्र उस समय सात-आठ वर्ष की थी।
संन्यास के प्रति वह पहला आकर्षण था।
तब से वह घर मेरे लिए घर कभी नहीं रहा।
सन्यासी इस तरह अपनी स्मृतियों को कुरेदता हुआ अनेक अनेक बातें खोलता रहा। कभी घर की तो कभी पड़ोस की, कभी अपनी तो कभी शहर भर की। तरह-तरह की बातें-हरि अनंत हरि कथा अनंता
।
सन् १६५०-५६: दिवालों के कैनवास
चित्रकला का उन्मेष हो चुका है। एक प्रकार का नशा ही पकड़ गया। इतना कि वर्ष भर के अभ्यास होते-होते संपूर्ण परिवेश को पता चल गया कि यह बालक चित्रकार बनेगा। और सब विषय तो प्रिय थे ही लेकिन चित्र बनाना विशेष रूप से चलता रहा। घर की दिवालें, समीप ही स्थित बाल समाज पुस्तकालय की दिवालें एवं आगे थोड़ा बढ़ने पर स्थित म्युनिसिपल अस्पताल की दिवालें-कैनवास का काम करने लगीं। हनुमान जी, गणेश जी, तिरंगा झंडा, झोपड़ी, नदी, पेड़, पहाड़ ये मुख्य विषय हुआ करते थे। एक पत्थर को कुछ खोदकर हनुमान जी की आकृति बनाई तो बच्चों ने (मित्र मंडली) उठाकर उसे समीप के बजरंग मंदिर में ही स्थापित कर दिया। तथा बकायदा उसकी पूजा भी होने लगी। मुझे पाठशाला में तो चित्रकार के रूप में प्रसिद्धि मिली ही लेकिन सभी विषयों में प्रवीणता थी मेरी।
मेरी माध्यमिक शिक्षाः माधवराव सप्रे उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
प्राथमिक शिक्षा के बाद माध्यमिक पाठशाला में पाँचवी कक्षा में श्री आसाराम जी दुबे शिक्षक थे। मोहल्ले के ही थे। पिताजी के संग उठने-बैठने वाले थे। पिताजी ने उनके घर पर भी ट्यूशन पढ़ने के लिए भेजा। मेरे साथ अनेक मित्र जो सब के सब ब्राह्मण बालक ही थे, उनके घर पर पढ़ा करते थे। बड़ा मजा आता था। करीब चार साल तक पढ़ते रहे। पढ़ते भी थे, खेलते भी थे। नूतन, छोटे तथा शंकर उनके सुपुत्र थे। दो कन्याएँ एवं एक छोटा-सा पुत्र और थे। वे बहुत अच्छा पढ़ाते थे। ट्यूशन जरूर बहुत अच्छा करते थे लेकिन किसी शिष्य की कभी उपेक्षा नहीं हुई। वे शिक्षक होने के लिए जैसे पैदा हुए थे।
यह तत्कालीन सप्रे उच्चतर माध्यमिक पाठशाला की बात है। श्री कन्हैया लाल जी शर्मा प्रधानाध्यापक थे जो रिश्ते में हमारे दादा जी लगते थे।
❖ द्वितीय वर्ष में श्री द्वारका प्रसाद जी शर्मा शिक्षक थे। जब वे मारते थे किसी विद्यार्थी को तो उनकी घड़ी का चैन बार-बार खुल जाया करता था। जिसे वे एक हाथ से लगाते थे फिर घड़ी वाले हाथ से मारा करते थे। वैसे पढ़ाने में कुशल थे। उस जमाने में शिक्षक सब कुशल ही हुआ करते थे। शिक्षक-शिष्य संबंध भययुक्त आदर भाव युक्त था। द्वारका प्रसाद जी हमारे मामा श्री रामसहाय जी दीवान के विद्यार्थी काल के मित्र थे। सो मुझ पर विशेष ध्यान रखते थे। ये लोग बचपन में जैतू साव के मंदिर में रहे हुए थे। उस कक्षा में श्री छविलाल वर्मा नाम का एक विद्यार्थी था, जो उसके पूर्व किसी अन्य संस्था से आया था, उम्र में मुझ से दो साल बड़ा था। वह उसके पूर्व किसी प्राईमरी स्कूल में पढ़ा था, गणित में थोड़ा होशियार था। वह गाँव से आया था। छवि से मेरी विशेष मैत्री थी। छविलाल वर्मा ने कालांतर में शिक्षक पेशा ही अपनाया और जब संतान हुई तो उसका नाम कमलेश ही रखा। यह उसके प्रेम का ही परिणाम है। रायपुर में ही वह बस गया था।
❖ तीसरे साल में श्री खांडेकर जी शिक्षक हुए। बहुत बातें करते थे। तरह-तरह की। ज्यादातर तो अपनी तारीफ के ही पुल बाँधा करते थे, कुर्सी पर बैठे-बैठे। चोटी रखते थे जिसे किनारे गाँठ बाँध कर रखते थे। जब बातें करते थे तो सिर झटका यूँ खाता था कि चोटी कभी इधर तो कभी उधर डोला करती थी। और हम विद्यार्थी यह देख-देख आनंदित हुआ करते थे। अब्दुल मतीन मेरे बगल में बैठता था। मैं बचपन में अपने मित्रों में थोड़ा लंबा था अतः तमाम होशियारी के बावजूद पीछे के बेंच में बैठने को मिलता था। फिर कुछ-कुछ गुण स्वयंमेव मेरे अंदर प्रविष्ट हो गए जो पीछे बैठने वाले विद्यार्थियों में हुआ करते थे। और आगे चलकर ये पीछे बैठने से मैं ही गौरवान्वित भी होने लगा। तो अब्दुल मतीन मेरा मित्र था। हम दोनों को ही चित्र बनाने की धुन लगी हुई थी। वह और उसका बड़ा भाई, हॉकी बहुत अच्छा खेला करते थे। वह पाँचवी कक्षा में पीछे मेरे साथ राजेन्द्र कुमार शर्मा बैठता था जो बाद में श्री राम संगीत पाठशाला में शिक्षक हो गए। और मतीन तो बाल्यकाल में ही पाकिस्तान चला गया।
श्री खांडेकर जी संस्कृत बहुत अच्छा पढ़ाते थे। गणित भी अच्छा ही पढाते थे। उम्र से वृद्ध हो चले थे। हमारे बगल के ही एक शिक्षक थे श्री एन. एन. ठाकुर जिन्हें लड़के नगद नारायण ठाकुर कहते थे क्योंकि वे घर पर ट्युशन बहुत पढ़ाया करते थे। उस जमाने में प्राईवेट ट्युशन का प्रचलन कम ही था।
श्री खांडेकर जी बाद में रिटायर्ड होने के बाद दंतमंजन, सिर दर्द का बाम आदि घर पर ही बनाकर बाहर परिचितों को बेचा करते थे। बड़े गुणी व्यक्ति थे। महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थे।
पिता-पुत्र दोनों के शिक्षक
आठवीं में श्री चोखेलाल जी वर्मा मिले। वे हमेशा बात-बात में कहा करते थे कि अब तुझे पढ़ा रहा हूँ और इसी स्कूल में तेरे बाप को भी पढ़ाया था। यह भी एक संयोग ही था। चोखेलालजी चोखे ही थे। शिक्षकीय जीवन में ही अपने पुरुषार्थ से एक दुकान, एक बढ़िया मकान, लड़के-लड़कियों की अच्छी-अच्छी शादियाँ सब करा दी उन्होंने। पूरे शहर में व्यवसायी गुरुजी के नाम से चोखेलाला नाम को उन्होंने सार्थक किया।
कुप्पू स्वामी नामक एक सीधा-सरल किंतु पढ़ने-लिखने के नाम से दूर रहने वाला मित्र पड़ोसी बना। वह मुझे बहुत भाता था।
इस कक्षा में मैं वार्षिक परीक्षा में प्रथम रहा। वैसे इसके पूर्व सदा पहले सात के अंदर ही रहता था। और चित्रकला में हमेशा प्रथम रहा। मैं इस बार आशा करता था कि पिताजी अब मेरी प्रशंसा करेंगे।
सन् १६५६: गृहत्याग का द्वितीय तीव्र संकल्प
(पिता के तटस्थ व्यवहार से मैं दुःखी हो गया। वे कुछ नहीं बोले । लेकिन अपनी तमाम तैयारियों के बावजूद अपने पिताजी के द्वारा दो शब्द भी प्रशंसा के न सुन पाने के दुःख में और आगे बाहर पढ़ने के लिए घर छोड़ कर भाग जाने का संकल्प बार-बार उठने लगा।) माध्यमिक पाठशाला में हमें चित्रकला पढ़ाते थे श्री शंकर राव तैलंग। श्री तैलंग सिद्धहस्त चित्रकार थे। बहुत लगनशील एवं कठोर परिश्रमी थे। हमेशा चुस्त-दुरुस्त कमीज पैंट पहना करते थे। कद से छोटे थे-पतले दुबले । चुटकले सुनाने में उस्ताद । बच्चे बड़े प्रसन्न रहते थे उनसे ।
इसी पाठशाला में श्री अनंत माधव सप्रे नाम से एक अन्य शिक्षक थे जो हाई स्कूल के विद्यार्थीयों को ड्राइंग पढ़ाया करते थे। लेकिन मैंने तो विज्ञान का विषय चुन लिया था। अतः पाठशाला जीवन में कभी इन शिक्षक महोदय से कोई संपर्क नहीं रहा। यद्यपि ये शिक्षक महोदय इस छात्र की प्रतिभा को पहचान चके थे। पाठशाला में वार्षिक उत्सव के अवसर पर चित्रकला प्रदर्शनी भी होती थी। हर साल विशेष पुरस्कार से पुरस्कृत होने से संपूर्ण पाठशाला में मेरी ख्याति थी और लगभग सभी शिक्षकों का प्रेम मिलता रहा। श्री तैलंग जी बाद में इसी पाठशाला के प्राचार्य होकर फिर रिटायर हुए।
भूगोल श्री म. गो. मराठे लेते थे-जो पढ़ाते कम थे, पीटते ज्यादा थे। असल में वे पी. टी. टीचर थे। कवायद आदि करवाना, उन्हें सर्वाधिक प्रिय था। वे साल भर भारतवर्ष का नक्शा कैसे बनाया जाता है यही समझाते रहे। खेलकूद के शिक्षक को अब पढ़ाने लिखाने बैठा दो तो वे क्या करें!
इस समय तक श्री बालकृष्ण, जिन्हें लड़के बोगी कहा करते थे, प्रधानाध्यापक हो गए थे। वे दो साल रहे फिर बाद में श्री मुहम्मद इसहाक प्रधानाध्यापक हुए जो पहले उर्दू शिक्षक रहे। कुछ समय ही वे रहे। फिर कुछ राजनीति-वाजनीति करके श्री अग्रवाल प्रधानाचार्य हो गए।
नवीं कक्षा में शिक्षक श्री चौधरी जी थे। अंग्रेजी अच्छा पढ़ा लेते थे। बाद में शराब की लत ने उन्हें बर्बाद कर दिया।
गणित और विज्ञान, श्री अरुण कुमार मुखर्जी ही पढ़ाते थे। वे एक अति मृदुल, शांत, पवित्र किस्म के आदमी थे। कभी डाँट-डपट, मारना आदि उनकी कक्षा में नहीं होता था। वे पूरे पाठशाला में प्रसिद्ध थे अपनी सीधी-सरल प्रकृति के कारण । बच्चे बहुत खुश होते थे। वे बहुत शर्मीले स्वभाव के थे। और पढ़ाने में अत्यंत कुशल । अहिंसा की मूर्ति थे वे।
भूगोल के शिक्षक श्री बुद्ध सिंग जो कभी भी अपना नाम हिन्दी में नहीं लेते थे। सदैव कहते थे B. Singh । भूगोल की किताबों के लेखक भी थे। किताबें अच्छी थी। पूरे प्रांत में अपने विषय के अच्छे शिक्षक माने जाते थे। श्री तैलंग जी के बनाए रेखांकन थे उसमें। हमलोग उसी किताब को पढ़कर मैट्रिक में प्रवीणता पाए थे। इनका भेष मिलीट्री वालों जैसा होता था।
दसवीं कक्षा में शिक्षक हुए श्री तोरण सिंग ठाकुर । जो संयोग से इस लेखक के पड़ोसी भी थे। अपने बचपन से ही अत्यंत मेधावी विद्यार्थी के रूप में प्रख्यात थे। बाद में हमारे शिक्षक हुए, उसी समय उन्होंने इतिहास में एम. ए. किया। फिर बाद में भिलाई जाकर एक शिक्षण संस्था कल्याण शिक्षण समिति की स्थापना की। और अपने श्रम से कल्याण महाविद्यालय नामक एक कॉलेज की भी स्थापना की जहाँ छत्तीसगढ़ के प्रतिभावान युवकों को उन्होनें शिक्षक के रूप में जगह दी।
इस समय तक मेरे मित्रों के नाम इस प्रकार हैं- प्रकाश, अशोक, कौशल (कौशल प्रसाद नायक एक अन्य मित्र थे), वीरेन्द्र, श्रीधर, मोहम्मद हनीफ अंसारी, अनिल कुमार मिश्रा और अनेक । हाँ, मु. इसहाक मास्टर साहब के सुपुत्र श्री जाविदुल मलिक मेरे अत्यंत प्रिय मित्र थे।
प्रतिभा के धनी अनिल कुमार मिश्र पारस
माध्यमिक पाठशाला में प्रथम वर्ष से ही संग साथ रहा। हमेशा प्रथम स्थान लेते रहे। अत्यंत कुशाग्र बुद्धि एवं साहित्य कला में मर्मज्ञाता अद्वितीय थी। बचपन से ही पत्र-पत्रिकाओं में छापते रहे। लेकिन अल्प आयु में ही निधन हो गया। प्रतिभा की मूर्ति थे। कविता करने में तथा ज्योतिष में निष्णात। अपनी मृत्यु तिथि पूर्व ही बता चुके थे। धनुष्टंकार से शरीरांत हुआ। कुल २७-२८ वर्ष रहे। वे अविस्मरणीय सखा रहे। परम सहृद थे। मैट्रिक में प्रांत में प्रथम पच्चीस के अंदर थे। संपूर्ण शिक्षा वजीफा लेकर पूरा किया। माँ-बाप गरीब थे। बाप को जुए की लत थी। लेकिन यह लड़का अद्वितीय रूप से शांत, गंभीर, प्रिय था। हनीफ भी एक अंक पीछे मेरिट में आया। कालांतर में किसी शासकीय इंजिनियरिंग कॉलेज (जबलपुर) में प्रोफेसर हो गए और किसी बड़े घर में ससुराल बना। हॉकी खेलते समय बॉल मुँहपर लग जाने से हनीफ मियाँ के ऊपर का एक दाँत सामने ही आधा टूट गया था। यह एक निशानी रही उसके चेहरे पर । बहुत ही मधुर व्यवहार था उसका। हम सब लोग बहुत प्यार करते थे एक-दूसरे को। सब पढ़ाकू थे।
सन् १६४६-५६
हमारे पिताजी के एक परम मित्र थे श्री सतानंद दूबे । उनके सुपुत्र थे प्रकाश । प्रकाश तो मेरा सगा भाई जैसा ही था। असल में वह पड़ोस में ही रहता था। वह अपने माँ-बाप का इकलौता था। अतः ज्यादा फिकर पाता था। और घर में उसके माँ-पिताजी ही थे कुल । इसलिए वहाँ शांत वातावरण था। हम लोगों के घरों में तो बीस-बीस आदमी थे। मैं अक्सर शाम को और सुबह भी उसके घर में जाया करता था। प्रकाश का चचेरा बड़ा भाई चन्द्रशेखर बहुत ही ऊधमी था, लेकिन था भोला। और कुछ-कुछ मस्त-मौला। चंद्रशेखर हम लोगों का लीडर था। बिल्लू उर्फ उदय राम तिवारी हमारे एक अन्य लीडर थे जो जीवन में प्रथम लीडर थे। ये कालांतर में युवावस्था में मुझे ए. पि. एस. कहा करते थे। पूछने पर बताते थे ए. पि. एस. के मायने होता है-अमरकंटक पहाड़ का साधु । इनके छोटे भाई थे जनार्दन । वे भी संग साथ खेलने-कूदने वाले थे। असल में बचपन के तीन-चार साल तो उसी के घर में ही उछल-कूद मचाते बीता। कहा न, बिल्लू जी लीडर थे। यह नौ-दस वर्ष उम्र की बात है।
हाँ तो प्रकाश की बात कर रहा था। वह बहुत सीधा-साधा था और थोड़ा स्वास्थ्य से भी नरम-गरम ही रहता था । बड़े होने पर बाद में कृषि विभाग में एक अफसर हुए। उनके पिता श्री सतानंद जी दूबे पिताजी के
अशोक-कौशल
मेरे ये रिश्ते में भी आते थे। श्री वृजभूषण दुबे के सुपुत्र थे कौशल चंद्र और अशोक उनके चचेरे भाई थे। ये हमारी दादी जी की ओर से संबंधित थे। कुशाग्र बुद्धि थी। कौशल कविताएँ भी किया करते थे। कविता थी तुकांत-ओ लौकी-कद्दूराज की डौकी। डौकी कहते हैं छत्तीसगढ़ में पत्नी को । मजाकिया किस्म का दोस्त था। बाद में डॉक्टर हुए।
अशोक अत्यंत मेधावी था। हम सब से उम्र में छोटे थे लेकिन शरीर से समान था। चेहरे पर तेज था। हम सब ब्राह्मण बालक सुंदर और सौम्य स्वभाव के थे। यद्यपि हमारा मोहल्ला शरारती लड़कों के मोहल्ले के नाम से सारे शहर में प्रसिद्ध था।
अशोक शिक्षा समाप्त करके मेडिकल रिप्रजेंटेटिव हो गए थे। लेकिन कुछ वर्षों के बाद छोड़-छाड़कर खुद का एक धंधा किया। संयोग से धंधा ठप्प पड़ गया। फिर रायपुर में ही खालासा विद्यालय में शिक्षक हो गए थे। स्वभाव में शांति ज्यों-की-त्यों बनी रही। Brilliant था वह।
श्रीधर
ये श्री रामेश्वरधर जी दीवान के सुपुत्र थे। श्री दीवान जी अपने समय में मोहल्ले के बुद्धिजीवी थे। जब महात्मा गाँधी जी रायपुर-आनंद समाज पुस्तकालय में पधारे थे तब मीटिंग में उन्हें मिस्टर गाँधी संबोधित कर बैठे थे। बड़ी भद्द हुई दीवान जी की। वैसे सौम्य दर्शन और कुशल गृहस्थ थे। श्रीधर उनके द्वितीय पुत्र थे। श्रीधर बहुत सुंदर और सदैव स्वस्थ्य रहे। बाद में डॉक्टर बने, सफल । डॉक्टर बनना ही था उसे । हाई स्कूल में हम सब मित्र, विज्ञान के विद्यार्थी थे लेकिन इसको क्या सूझी कला (Arts) की कक्षा में बैठने लगे। करीब वर्ष बीत गए। फिर इसी विषय से मैट्रिक भी की। लेकिन जब हम कॉलेज गए तब प्राणिविज्ञान में प्रवेश पा