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Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 3 (हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता - भाग - 3)
Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 3 (हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता - भाग - 3)
Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 3 (हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता - भाग - 3)
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Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 3 (हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता - भाग - 3)

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उपनिषदों में वर्णित "द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया" जैसी बात है यह। शायद यह उससे भी थोड़ा अलग है क्योंकि तब मैं किसी रस में होता हूँ तो वहाँ कोई हिस्सा मेरा अलग बैठा साक्षी वाक्षी नहीं रहता बल्कि मैं पूरा का पूरा उस रस से युक्त हो जाता हूँ। जीवन को उसमें डूब कर जीता हूँ - हर क्षण को, हर रस को। यही मेरा वर्तमान है। इसमें बुद्ध की उपेक्षा, महावीर की वीतरागता, कृष्ण की मधुरता और जीसस क्राइस्ट का कष्ट सहन समान रूप से मौजूद होते हैं। साथ ही होता है अभिनव गुप्त की ईश्वर प्रत्यभिज्ञा और सुकरात का रहस्य बोध।
संक्षेप में यही मेरी जीवन चर्चा है- मेरा भागवत पथ जिसने बुद्ध से शुरू होकर वासुदेव तक मुझे पहुँचा दिया। मैं वासुदेव को जी रहा हूँ। यह सब मैं कोई आत्मप्रशंसा में नहीं कह रहा हूँ। इन बातों को कहने के पीछे एक ही प्रयास है मेरी कि शायद तुम्हें भी अपने मार्ग को ढूँढ़ने में कुछ मदद मिल सके।
-स्वामी चैतन्य वीतराग
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateJun 3, 2022
ISBN9789355993441
Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 3 (हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता - भाग - 3)

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    Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 3 (हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता - भाग - 3) - Swami Chaitanya Vitraag

    डायरी संख्या, ७

    रायपुर

    23 फरवरी, 1991

    कल इराक ने सोवियत प्रस्ताव को मान लिया, लेकिन अमेरिका अभी भी नहीं मान रहा है। अमेरिका दो चीजे माँग रहा है, एक सद्दाम को गद्दी से उतार कर उसे दंडित करना और दूसरा युद्ध की भरपाई इराक से वसूलना।

    अब यह दोनों बातें एकदम अनैतिक हैं। अमेरिका ऐसा पहले बार नहीं कर रहा है। इसके पहले भी पनाया, ग्रेनाडा, निकारागुआ और अनेक जगहों में अमेरिका ने ऐसा ही किया, उन देशों को एक तरह से गुलाम बना कर रख दिया। अब यही कुकृत्य वह इराक में भी करना चाह रहा है लेकिन यहाँ उसकी दाल हजार कोशिशों के बावजूद नहीं गल पा रही है। एक तो इराकी मानस का राष्ट्रगर्व और सद्दाम का नेतृत्व अचल खड़ा है और दूसरी ओर अब सोवियत संघ, ईरान, जोर्डन, भारत और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी ने भी सद्दाम के बचाव में अभियान छेड़ दिया है। उधर लीबिया के राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी अलग कसमसा रहा है। कास्ट्रो अलग बेचैन है। अमेरिका के लिये कोई भी विध्वंसक कदम अब उसको मंहगा पड़ेगा। मानवतावादी शक्तियों का अभ्युदय हो गया है। अब यह जल्दी ही और शक्तिशाली हो जायगा। यह इराक के लिये प्रतीक्षा और अमेरिका के लिये परीक्षा की घड़ी है। अब निर्णय लेना सद्दाम को नहीं, बुश को है। वही अब जिम्मेदार होगा। और मैं समझता हूँ, उसे किसी न किसी ढंग से विश्व जनमत के सामने झुकना ही होगा। कुवैत पर अधिकार कर लेने से पहले दुनिया इराक के विरुद्ध हो गयी थी तो अब कुवैत के बहाने ईराक को तबाह करने की अमेरिकी मंशा को पढ़ लेने के पश्चात् अमेरिका के खिलाफ खड़ी हो गयी है दुनिया। अमेरिका को कटघरे में खड़ा कर दिया जाएगा, जल्दी ही।

    तुम सोचते होंगे कि क्यों मैं सद्दाम हुसैन के इतने पक्ष में हूँ। इसके कारण हैं। यद्यपि कुवैत को अपने अधिकार में ले लेने के उसके कृत्य को मैं उचित नहीं मानता, यह राजनीति, विदेश नीति मुझे मान्य नहीं है कि कोई राष्ट्र चाहे वह कितना ही शक्ति संपन्न हो, उसे कोई अधिकार नहीं कि वह किसी कमजोर छोटे देश की संप्रभुता और सार्वभौमिकता को चोट करे। चाहे वह कुवैत पर इराक का अधिकार करना हो, या तिब्बत पर चीन का, या अभी जो अमेरिका कर रहा है इराक के साथ, वह मान्य नहीं है मुझे। फिर भी सद्दाम हुसैन के प्रति मेरा लगाव है वह अकारण नहीं है, न ही इसलिये है कि वह अभी दया का पात्र है। वह दयनीय नहीं है, वह वीर है।

    असल में सद्दाम में ओशो रजनीश के तत्व मौजूद हैं, ओशो ही सद्दाम के रूप में जैसे एक भिन्न रूप में पुनः प्रकट हो गये हैं जैसे, मुझे ऐसे लगता है। ओशो और सद्दाम में किसी चुनौती को चुनौती देने का दुस्साहस एक समान गुण है।

    रजनीश जी का तो रोनाल्ड रीगन की सरकार ने आसानी से अमेरिका से न केवल बेदखल किया बल्कि एक प्रकार से उनके स्वास्थ्य को हमेशा के लिये चौपट कर दिया जिसके फलस्वरूप वे पाँच साल के भीतर देहत्याग पर मजबूर हो गये।

    ओशो को तो अमेरिका ने दबा दिया क्योंकि वह पूर्णतः एक आध्यात्मिक आदमी थे, किंतु अब पाला पड़ा है एक योद्धा से, जो सिर्फ तर्क की ही भाषा नहीं जानता बल्कि जंग की भी भाषा जानता है। ओशो हमेशा कहा करते थे-जाहिर है कि जब फूल और पत्थर टकरायेंगे तो फूल ही नष्ट होगा। और ऐसा ही उनके साथ हुआ, वे दुनिया की तमाम पाखंडी व्यवस्थाओं, व्यक्तियों, शासनाध्यक्षों के साथ टकराये, अंत में जाके अमेरिका के राष्ट्रपति से टकरा गये और वैटिकन के पोप से टकरा गये, जीसस से, इसाईयत से, मदर टेरेसा से टकरा गये, इतने बड़े-बड़े चट्टान और एक कोमल फूल, वहीं हुआ जो होना था, फूल टूट गया। ओशो ने देह त्याग दिया 19 जनवरी, 1991 को। लेकिन अभी सद्दाम हुसैन जिंदा है, बुश उसे भी नष्ट कर देना चाहता है, अब देखना यह है कि परमात्मा को क्या मंजूर है। वैसे दुआएँ तो सद्दाम के साथ ही हैं। सद्दाम बहुत बड़ी आशा है आने वाले भविष्य के लिये। परमात्मा उसे लंबी उम्र दे। जर्मनी में जो काम बिस्मार्क ने किया, तुर्की में जो काम कमाल पाशा ने किया, मिश्र में जो काम नासिर ने किया, भारत में जो काम नेहरू ने किया और अमेरिका में जो काम लिंकन ने किया, जो काम आज से कई हजार साल पहले स्पार्टाकस ने किया था, शोषकों के खिलाफ विद्रोह, अपनी जाति को गौरव प्रदान करना, उन्हें उसकी अस्मिता प्रदान करना और विकास के हर संभव उपायों को अपनाना, आधुनिकता और स्वतंत्रता को स्थापित करना, राष्ट्र को एक करना, यही महान् काम सद्दाम ने किया है, खासकर महिलाओं की आजादी को कायम कर के उसने बहुत बड़ा काम किया। अरब राष्ट्रों में सबसे आधुनिक समाज इराकी जनता का ही था। इसी का नतीजा हुआ कि वह साम्राज्यवाद और शोषण के खिलाफ पहले खड़ा हुआ और अंत तक खड़ा रहा। विश्व भर के अन्य राष्ट्र अचंभित है आज इस छोटे से देश की राष्ट्र भावना को देखकर।

    इराक और सद्दाम हुसैन आने वाले कल की एकमात्र आशा है, तमाम विकासशील और स्वतंत्रता प्रिय तमाम लोकतांत्रिक प्रगतिशील देशों के लिये। खासकर भारत के लिये, जिससे अमेरिका के संबंध बहुत अच्छे कभी भी नहीं रहे। सोवियत रूस भी आगे पहले की तरह कितना मदद दे पायेगा ठीक समय पर, यह कहना अब मुश्किल है। इसलिये भारत को तो इराक पर इस अमेरिकी धौंस पट्टी से खास सबक लेना चाहिये और अपनी क्षमता का समय रहते पूर्ण विकास कर लेना चाहिये।

    मेरे संन्यास के पूर्व एक पत्र में ओशो रजनीश ने मुझे लिखा था कि रस को उलीचो, रस को उठते-बैठते बिखेरो चारों ओर। रस दान की प्रक्रिया से ही प्रकट होता है कृष्ण, कबीर, मीरा। रस उलीचो। रस बिखरने से रह जाये तो वह विष बन जाता है, और बिखरते ही वही अमृत बन जाता है, इसलिये रस को उलीचो, संकोच छोड़ो और रस को बिखेरो चारों ओर। यह सन् 67-68 की बात है।

    मैं याद करता हूँ तो याद आती है मेरी कला सृजन की प्रक्रिया जिसके तहत मैं सन् 62 से सन् 68 तक अपने चित्र बनाता रहा।

    मैं कुछ नहीं करता था। मैं सिर्फ पेन हाथ में ले लेता था और सामने सब रंग (वाटर प्रूफ) तथा जरूरी ब्रश आदि रख लेता था फिर अपने को खाली कर लेता था, उसके बाद हाथ आप ही आप चलता था। आप ही आप spontaneously रंगों का चुनाव होता था। सब कुछ आप ही आप होता था, कोई पूर्व योजना नहीं होती थी, सब अज्ञात उतरने लगता था। इस तरह मैं सन् 62 से सन् 70 तक चित्र बनाता रहा। मैं तो उसमें कहीं रहता था, सिवाय एक यांत्रिक निमित्त के। मेरे चित्रों का कोई कर्त्ता नहीं है, वे एकदम शून्य से आये हैं। यद्यपि वे मेरे अचेतन की अभिव्यक्ति थे किंतु अपनी निर्दोष किंतु चुभने वाली रेखाओं के लिये तुरंत राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत हो चुके थे। ललित कला अकादमी के सन् 1965 की राष्ट्रीय प्रदर्शनी में प्रदर्शित हो जाने से अभूतपूर्व उपलब्धि का संतोष मुझे प्राप्त हो चुका था।

    चित्र बनाने की प्रक्रिया की इसलिए याद हो आई क्योंकि आज कल तुम लोगों के सामने जो ये बातें करता हूँ वह भी उसी तरह अनायास, अनायोजित और स्पान्टेनियस हैपनिंग्स है। इसमें कर्त्ता नामौजूद है। चित्र बन रहे हैं लेकिन बिना किसी कर्त्ता के। मैं तो प्रकट रूप से इसका उदाहरण समझता हूँ, क्योंकि उन दिनों को मैंने बहुत सघनता के साथ जिया है। उस समय के मेरे मित्र लोग यह बात बता सकेंगे।

    अभी भी जो कहता हूँ, ये कुछ बातें जिन्हें मैं कहने लायक समझता हूँ वे तुम लोगों के सामने कह देता हूँ। इनमें व्याकरण ढूँढ़ना, इनमें साहित्य ढूँढ़ना, इनमें कोई वक्तृत्व की कुशलता खोजना निरर्थक होगा।

    यह एक साधारण आदमी की बातें हैं। ये सब संवाद हैं। यह कोई ज्ञान प्रदर्शन, उपदेश आदि नहीं हैं, यह बातचीत है, यह एकदम अनौपचारिक चर्चा है, मेरे और तुम्हारे बीच।

    मुझे आश्चर्य है कि आज लंबे समय से मैं सुनाये जा रहा हूँ और तुममें से किसी ने एक बार भी हूँ-हाँ भी नहीं किया अब तक। क्या तुम लोगों ने भी महाभारत के रचनाकार महर्षि व्यास जी और उसको लिपिबद्ध करने वाले श्री गणेश जी की वार्त्ता को सुन लिया है? मुझे तो ऐसा ही लगने लगा है।

    हुआ ऐसे कि जब महाभारत नाम से महान ग्रंथ की रचना पूर्ण हो चुकी तब गणेश जी से व्यास जी ने एक बात कही।

    व्यास जी बोले, गणेश जी, मुझे एक बात पर बड़ी जिज्ञासा हो रही है कि इस महाभारत ग्रंथ की रचना की संपूर्ण अवधि में मैं तो निरंतर बोलता रहा, लेकिन आपके मुँह से हूँ-हाँ भी नहीं निकला, आपके इस तरह मौन रहने का, क्या मैं राज जान सकता हूँ? तब गणेश जी ने कहा "महर्षि, सब संयमों में प्रथम है, वाचा का संयम, वाक्संयम। वाक् के प्रयोग से ही मित्र और शत्रु पैदा होते हैं। अतः वाक्संयम सबसे पहला संयम है। फिर जैसे किसी दीपक में बाती जलती है तो ज्यादा लौ के साथ वह जलेगी तो तुरंत बुझ जायगी, क्योंकि उसकी प्राण शक्ति क्षीण हो जाएगी। ऐसे ही जीवों में प्राण शक्ति असंयमित व्यवहारों से क्षीण होती है। जीवन की लौ संयम से जलाने से वह दीर्घायु होती है। इसीलिये मैं मौन का उपासक हूँ। ऐसा कहकर गणेश जी पुनः चुप हो गये। बादरायण जी तो उनका मुँह ही देखते रह गये।

    मैं समझता हूँ तुम लोगों ने यह प्रसंग अवश्य कहीं सुना होगा तभी तो इतने मौन के साथ मुझे सुनते आये हो।

    मैं बोल रहा हूँ, कुछ कह भी रहा हूँ तो इसीलिये कि वह मौन वह वाक्संयम उपलब्ध हो तुम्हें।

    अभी देखो न कैसी आग भरी और अहंकार पूर्ण वाणी बोल रहे हैं बुश महाशय, कैसे बौराये हुए हैं, जरा देखो इन्हें। इन्हें कोई जाकर यह गणेश जी बात सुनाओ।

    जब सारी दुनिया ने एक स्वर से सोवियत शांति प्रस्ताव के पक्ष में अपना समर्थन दे दिया है, जब प्रस्ताव सं॰रा॰सु॰प॰ को सौंप दिया गया है, तब उसे सीधे-सीधे नामंजूर करने का हक किसने दिया है अमेरिका, ब्रिटेन को, क्या ये सं॰ रा॰सं॰ से ऊपर हो गये है।

    वे जो मन में आये कह रहं हैं, दुनिया में आतंक का साया गहराता जा रहा है, इराक पर जो जोर-जुल्म हो रहा है, सद्दाम हुसैन को जिस तरह समर्पण करवाने के लिये विनाश का खेल खेल रहा है अमेरिका, उससे अब तो सारे विकासशील देश और खासकर छोटे देश एक अज्ञात भय से घिर गये हैं कि कहीं यही हाल...। अब तो क्लस्टर बम और नापाम बम भी गिराये जो रहे हैं।

    अब तो दुनिया भर के स्वाभिमानी राष्ट्र नेताओं और प्रगतिशील राष्ट्रों को पहले अमेरिका को ध्यान में रखना होगा तभी वह कुछ कर पायगा। इराक के साथ अमेरिकी ब्रिटानी यह व्यवहार तो भविष्य में जो सच्ची लोकतांत्रिक सरकारें होंगी उनके लिये खतरे की घंटी है, पहले हमसे निपटो बच्चू, यहाँ आओ, घुटने टेको, सलाम करो फिर चढ़ावा चढ़ा कर जाओ और अपनी सीमा को याद रखते हुए जियो, ऐसा कह रहे हैं वे।

    रंगदारी छोड़ना नहीं चाहते। कहते हैं न कि एक बार आदम का खून जब किसी शेर को लग जाता है तो वह नये-नये शिकार को तलाशता रहता है, बस ठीक इसी तरह से दोनों देश पुराने उपनिवेशवादी साम्राज्यवादी रहे हैं, इनके मुँह का वह स्वाद अभी गया नहीं है। अब इनकी जीभ ही कोई काट कर अलग कर दे तो शायद मुक्ति मिले दुनिया को।

    अमेरिका-ब्रिटेन और इजरायल, ये तीनों राष्ट्र अभी मानवता के शत्रु बने हुए हैं। ये अपनी व्यावसायिक स्वार्थ वश इतने संवेदन शून्य हो गये हैं कि हथियारों के व्यवसाय के लिये मार्केट तैयार करने के लिये लाखों लोगों के खून से नहा रहे हैं, ये दरिंदे हैं, आदमी नहीं।

    निश्चय ही इन देशेां में भी समझदार शांतिवादी और बड़े संवेदनशील लोग होंगे, वे तिलमिला रहे होंगे, वे प्रार्थनाएँ करते होंगे। लेकिन इनके होने से क्या फायदा, उनके देश नीति निर्धारण में जब उनका कोई रोल नहीं तो उनके तिलमिलाने का क्या लाभ।

    ओशो ने आवाहन किया था दुनिया भर के वैज्ञानिकों का कि अपने सेवाएँ विध्वंसक कार्यों के लिये मत दो, अपनी सरकारों से असहयोग करो।

    लेकिन किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। थोड़ी बहुत चर्चा हुई और बात जहाँ की तहाँ रह गयी।

    आगे शायद कभी समझ आये।

    टी॰वी॰ समाचारों के माध्यम से अनेक बातें सामने आती हैं, जो शायद सिर्फ समाचार पत्र से संभव नहीं था। यह audio video का संयोग मनुष्य के बहुत काम का है। अभी तो सारी दुनिया ही में टी॰वी॰ प्रसारणों का देखना शहर-शहर ही नहीं, गाँव-गाँव में और झुग्गी झोपड़ियों तक में फैल चुका है।

    अभी खाड़ी में जो युद्ध हो रहा है उसका फिल्म अमेरिका के ही एक कंपनी C.N.N. कैबल न्यूज नेटवर्क ने जारी किया है और वह भी बगदाद में बैठकर। उसकी टीम युद्ध के चित्र उतार रही है उधर और इधर अपने टी॰वी॰ पर लोग उसे देख रहे हैं ठीक वैसे ही जैसे हम लोग क्रिकेट मैच देखते हैं।

    मैं तो टी॰वी॰ अक्सर देखता हूँ, समय बहुत है मेरे पास, और सेलूलाइड स्क्रीन से मेरा कुछ गहरा संबंध ही है। और मैं जो देखता हूँ गौर से देखता हूँ। कलाकार हूँ न, इसीलिये।

    आज कल खाड़ी के समाचारों को दुनिया के आम लोगों की तरह ही मैं भी सुनता हूँ। उत्सुकता बनी रहती है।

    कल इराक ने जिस नम्रता के साथ सोवियत प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, वह विलक्षण आचरण है, समय की माँग के प्रति सुंदर response है, दुनिया के सब देश इस युद्ध के शुरू होने के बाद पहली बार थोड़ा राहत महसूस कर सके और शांतिमय भविष्य की कल्पना करने लगे, लेकिन बुश के दंभ ने, उसके जिद्दी रवैये ने मुँह का स्वाद कसैला कर दिया। टी॰वी॰ पर वह जिस ढंग से दिखलाई पड़ता है, और सद्दाम जिस ढंग से दिखलाई पड़ता है, मामला ऐसा हो जाता है कि हाथ कंगन को आरसी क्या, वाली बात हो जाती है, यानी बुश को देखकर ही लगता है कि इसे क्या हो गया है, इसे कोई समझाता क्यों नहीं कि अपनी जिद से बाज आये।

    और सद्दाम को देखकर लगता है एक खुशमिजाज और हरदम ड्यूटी पर हाजिर हँसते हुए ही दिखते हैं।

    हो सकता है मेरी यह बात बचकानी लगे, कि टी॰ वी॰ पर दो-चार चित्र देखकर राय बना ली। हाँ, है तो यह बचकानी बात ही। लेकिन राज की बात है एक और, वह यह कि असल में हम जब किसी से परिचित होते हैं, या मिलते हैं तब दो तल पर यह घटना घटती है, साथ-साथ, एक बुद्धि से और दूसरा हृदय से। बुद्धि को समय लग जाता है किसी को पहचानने में। कई बार तो वह धोखा भी खा जाती है लेकिन हृदय को समय नहीं लगता, वह instantaneously महसूस कर लेता है। वह कभी धोखा नहीं खाता।

    तुम लोगों को कई बार कह चुका हूँ कि मेरा response हृदय से पहले स्फुरित होता है फिर बुद्धि के मार्फत् मुखरित होता है। बुद्धि की इसमें निर्णायक भूमिका कभी नहीं होती, वह सदा सहायक है, हृदय का। मैं हृदय केंद्रित हूँ। यह बात तुम लोग हमेशा के लिये जान लो।

    मेरा इसमें कुछ लेना-देना नहीं, यह टी॰वी॰ है, उस पर जो चित्र जैसा उभरा उसका वैसा वर्णन कर दिया। जैसे यह टी॰वी॰ स्वयं निरपेक्ष है इन चित्रों से, वैसे ही मैं भी निरपेक्ष ही रहता हूँ।

    अब समझ में आया कि टी॰वी॰ से मेरा खास लगाव क्यों है, क्योंकि हम दोनों निरपेक्ष हैं। यह भी कमाल की रही।

    होली आ रही है इसलिये चित्त कुछ-कुछ विनोद की ओर भाग रहा है।

    इस पर एक प्रसंग याद आ रहा है। पं॰ खयाली राम ‘दिल’ दहलवी का वह वाकया याद आ रहा है जब वे आम सड़क पर पकडो-पकड़ो करते हुए एक दिन वे किसी साहब के पीछे-पीछे दौड़ लगाते पाये गये दिन दहाड़े, तब का वाकया है यह।

    लोगों ने बामुश्किल दहलवी जी को पकड़ा, तो वे चिल्लाने लगे कि पकड़ो उसे पहले, मुझे छोड़ो। लोगों ने पूछा उस आदमी से आपका क्या लेना-देना?

    दहलवी जी ने झल्लाते हुए कहा कि क्या लेना-देना पूछते हो, अरे वह धूर्त है, पापी है, उसने अपना पूरा कलाम मुझे सुना लिया और अब मैं सुनाता इसके पहले ही भाग गया। तुम लोग उसे पकड़ो।

    असल में बात यह है कि यही दहलवी साहब कुछ अर्सा पहले खूब बीमार पड़ गये थे। लोग तो आशा ही छोड़ चुके थे, दो बार जमीन पर उतारे भी जा चुके थे। ऐसे ही अवसर पर दूर शहर से उनके पुराने कवि मित्र मसिजीवी जी बालमपुरिया उनसे भेंट करने आये। उन्हें दहलवी जी की तबियत की नाशाजगी का जब पता चला, वे बहुत दुःखी हुए। वे तुरंत उस कमरे में गये जहाँ दहलवी जी का मृत प्राय शरीर बिस्तर पर पड़ा था। और कोई नहीं था कमरे में। सब जब लोग बाहर बैठे इंतजार कर रहे थे कि दहलवी जी अब कूच करेंगे, तब करेंगे।

    लेकिन हुआ कुछ अप्रत्याशित ही।

    हुआ ऐसे कि अपने पुराने कवि मित्र बालमपुरिया को देखकर दहलवी जी की मृत देह में कुछ प्राणों का संचार-सा हुआ। वे मुस्कराये और बोले, मित्र बालमपुरिया, जरा दरवाजा बंद कर दो और उस अलमारी से वह लाल वाली डायरी निकाल लाना।

    घटना को शायद वे महाशय जानते रहे होंगे, इसी से दहलवी जी के काव्यभार को वे वहन करने के पहले ही भाग खड़े हुए।

    इन खयाली राम दिल दहलवी जी का उल्लेख आगे भी करूँगा जैस-जैसे प्रसंग आयेंगे।

    दिया तले अंधेरा,

    मैं इस बात पर जब-जब सोचता हूँ कि बुद्ध के साथ, महावीर के साथ, सुकरात के साथ, कृष्ण के साथ, ओशो रजनीश के साथ, गांधी के साथ जो हुआ, जो उनके अपने कहलाने वाले शिष्यों और संबंधियों के द्वारा हुआ वह आश्चर्यजनक रूप से एक जैसा ही है।

    बुद्ध को बुत में तब्दील कर दिया गया, निर्वाण को पूजा-पाठ में बदल दिया गया। बुद्ध ने जिस वैदिक कर्मकाण्ड का जीवन भर विरोध किया, ब्राह्मण शिष्यों ने उनके जाते ही उनकी हजारों मूर्तियाँ और मंदिर बनावा कर शून्यता को वहाँ दफन कर दिया और पुरोहित कर्म का प्राधान्य हो गया जो वर्तमान बौद्ध धर्म है।

    महावीर के मौन संदेशों को ऋषि गौतम ने, एक ब्राह्मण ने शब्दों में बाँधा फिर वह और और शब्दों में बँधता गया। इस प्रकार एक महावीर के मौन संदेश की सौ सौ व्याख्याएँ हो गयी। सा-सौ, अलग-अलग और परस्पर दुश्मनी रखने वाले पंथ बन गये।

    सुकरात के जीवन भर के श्रम का कुल यही परिणाम रहा कि कुछ लोग उन्हें अभी भी याद रखे हुए हैं। लेकिन लोग उन्हें उनके विचारों के कारण नहीं, विष देकर मार डालने के कारण सुकरात को याद रखे हुए हैं।

    सुकरात इतना विद्वान था, बुद्धिमान था कि सारा एथेंस उन्हें गुरु कह कर पुकारता था लेकिन उसकी पत्नी पर इसका कोई असर नहीं पड़ा था, वह ज्यों की त्यों कर्कशा थी। लेकिन सुकरात हमेशा हँसते रहते थे। कहते हैं कि कभी-कभी सुकरात की पिटाई वगैरह भी कर देती थी वह। उस पर कभी भी सुकरात की बुद्धिमत्ता का कोई प्रभाव नहीं पड़ सका।

    कृष्ण जैसा अब कौन हो सकता है भला, वह तो एक बार जो हो गये, सो हो गये। परमात्मापन के इतने सारे तत्त्व एक साथ किसी शरीर में मौजूद हों, न कृष्ण के पहले ही हुआ, न बाद में हो सका, मानव इतिहास में वह अकेली घटना थी।

    जब महाभारत समाप्त हो गया और पांडव हस्तिनापुर में अपना राज पाट करने लगे तब श्री कृष्ण जी द्वारका जाकर वहाँ अपनी राजधानी बनाई और यादव कुल को वहाँ बसाया, स्वयं भी उनके बीच रहने लगे। थोड़े ही दिनों में यादव वंश अपनी समृद्धि के नशे में उन्मत्त होने लगे और कृष्ण जी के उपदेशों से ठीक विपरीत आचरण करने लगे। अंत में निराश होकर श्री कृष्ण को अपने वंश के नाश का उपाय करना पड़ा था, ऐसा भागवत ग्रंथ में उल्लिखित है।

    ओशो रजनीश ने अपने समग्र विधायक स्वभाव के कारण अपने शिष्यों को खूब प्यार दिया और बदले में दुनिया भर में फैले उनके शिष्यों ने भी उन्हें अपना प्यार दिया। लेकिन यह भी सत्य है कि उनको स्वयं शारीरिक रूप से भी और उनके काम को भी उनकी ही निकटतम शिष्या और उसके षड्यंत्र कारी ग्रुप ने धक्का पहुँचाया। सिर्फ दो-चार शिष्यों के गिरोह ने संपूण रजनीश आंदोलन को, मसीहा के जीवन समेत नष्ट कर दिया। और ये शिष्य ओशो के निकटतम थे।

    गांधी को अपने अंतिम काल में, खासकर भारत की आजादी के बाद तो बहुत मायूस हो गये थे, जो लोग उनको चारों ओर घेरे रहते थे, बात-बात में उनसे पूछकर या बताकर ही कोई काम करते थे, वे अब उनसे मिलने-जुलने की पहले जैसी जरूरत महसूस नहीं करते, सब काम भी अपने-अपने फैसले से करते हैं। बहुत सारे काम तो बापू के सिद्धांतों से विपरीत भी होने लगे, तो बापू ने कहा, अब मैं बेकार की चीज हो गया हूँ। पहले सोचता था, ईश्वर से सवा सौ साल की आयु माँगू, लेकिन अब सोचता हूँ ईश्वर मुझे अब उठा ले।

    मैं अपने ऊपर भी कभी-कभी सोचता हूँ, अपने आसपास नजर उठाता हूँ। जो निकटतम हैं उसे देखता हूँ तो यह बात और साफ लगती है कि बुद्धिमत्ता और प्रेम किसी का कितना भी पूर्ण और पवित्र हो, उसे ग्रहण करना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि ऐसे व्यक्ति के कोई कितना करीब है। रिश्तों के बंधनों से, शरीर और समाज के बंधनों से बुद्धिमत्ता और प्रेम का आदान-प्रदान संभव नहीं बन पाता। और उल्टे अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो व्यक्ति बुद्धिमत्ता और प्रेम की पूर्णता को अपना स्वभाव बना लेता है, वह ऐसे लोगों से घिर जाता है, जिनका बुद्धिमत्ता और प्रेम की पवित्रता से कोई लेना-देना नहीं होता।

    जीसस क्राइस्ट इस संबंध में एक बोध कथा दुहराते थे कि, किसी भी चरवाहे के लिये सबसे प्यारा मेमना वही होता है जो शाम होने पर अन्य सारे मेमनों से, भेंड़ों से अलग कहीं भटक जाता है। उसे ढूँढ़कर चरवाहा जब लाता है तब अन्य भेंड़ो की तरह हाँक कर पैदल नहीं, बल्कि अपनी गोद में उठा कर लाता है, रास्ते भर नसीहतें देते कि, देख अब तू इस तरह नहीं अलग होना, ऐसी गल्ती तू अब नहीं करेगा न, आदि-आदि तरह से वह उसे समझाता, पुचकारता, अपना संपूर्ण प्यार उस दिन उसी पर उड़ेल देता।

    ठीक उसी प्रकार किसी भी पिता को, गुरु को, महान आत्मा को उसके सबसे दुर्बल और भटके हुऐ ;सवेज वदमेद्ध बच्चों के लिये ही ज्यादा प्यार आता है, अब इसे कोई दिया तले अंधेरा कहे या करूणा और प्रेम का उदात्तीकरण।

    प्रेम जीवन है इसलिये वह नष्ट होने के भय से मुक्त होता है। चाहे उसे किसी के साथ रख दो, वह राजी होगा। राजी होना प्रेम का स्वभाव है।

    प्रेम परमात्मा के अशुभ और असुंदर से उतना ही राजी है, जितना शुभ और सुंदर से। प्रेम तो स्वयं जीवन है। वह कभी नष्ट नहीं होता।

    महात्मा उस प्रेम को बेशर्त देते हैं। अब किसी को स्वीकार्य हो या न हो, जो समीप हैं उनके लिये भी, जो दूर हैं उनके लिये भी।

    लेकिन आश्चर्य कि हर बार कोई ना कोई ढंग से महान आत्माओं के उस महान दान का मूल्य न समझ अपनी क्षुद्र प्यालियों को भरने में ही लगे रहते हैं लोग। और यह काम प्रायः निकट के ही लोग करते हैं, वे अंधकार से बाहर ही नहीं आते, वे अपने घेरे से बाहर नहीं आते और अंततः चिड़िया उड़ जाती है, हंस उड़ जाता है और लोग देखते रह जाते हैं, आँसू ही परिणाम होता है।

    पुनरपि जननम्, पुनरपि मरणम्,

    पुनरपि जननी जठरे शयनम्,

    भज गोविंदम् भज गोविंदम्,

    गेविंदम् भज मूढ़ मते।

    सद्दाम ने अपनी ओर से कुवैत से हटने की पेशकश के बावजूद अमेरिकी अगुवाई वाली ब॰रा॰से॰ ने जमीनी लड़ाई शुरू कर दी तथा इस प्रकार सोवियत शांति योजना तथा गु॰नि॰दे॰ के अभियान के साथ-साथ सु॰ परिषद की मीटिंग भी स्थगित हो गयी। अब असली जंग शुरू हो गई। हजारों मारे जायेंगे, हजारों अपंग हो जायेंगे। यह दोनों ओर होगा।

    अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस ने अपने-अपने समाचार स्त्रोतों पर सेंसर लागू कर दिया है। C.N.N. का प्रसारण भी इसमें आ गया है।

    एक ओर अमेरिका यह भी प्रसारित कर रहा है आज इतने युद्ध बंदी बनाये गये, और कल इतने बनाये गये। और इस बात को प्रसारित होने से रोक रहे है कि ब॰रा॰से॰ के कितने सैनिक मारे जा रहे हैं, कि कितनी लाशें अमेरिकी लाशों की बन चुकी हैं। वह पूरी सतर्कता बरत रहा है कि कहीं यह लीक हो जाएगा तो इस अभियान में लगे तमाम राष्ट्रों में युद्ध के खिलाफ आंदोलन छिड़ जायगा और लोग अपने-अपने लोगों को वापस बुलाने की माँग करेंगे। क्योंकि यह युद्ध ऐसा है जिसमें इस सेना के किसी भी देश का इससे कोई लेना-देना नहीं है, सिवाय एक दो अरब देशों के, जिनकी इराक के साथ पुरानी रंजिश है।

    अमेरिकी गठबंधन इतनी कुटिलता पर उतर आएगा-यह आशा दुनिया को नहीं थी। आज विश्व का शांतिमय वर्ग बहुत विक्षुब्ध है, इतना विक्षोभ तो द्वितीय महायुद्ध के समय भी नहीं था क्योंकि उसमें सीध-सीधे हिटलर की विध्वंसक छवि दिख रही थी जो समस्त मानवता का दुश्मन हो गया था। लेकिन इस युद्ध में किसी को पहचानना मुश्किल हो गया है, जो लोग बहुसंख्यक हैं, जो लोग मानव सेवा का मुखौटा लगाये हुए हैं, वे ही लोग नापाम बम बरसा रहे हैं, वे ही लोग सं॰रा॰सं॰ को एक ओर धकेल कर किनारे लगा दिये हैं, सद्दाम को पहले लोग बदनाम कर रहे थे, अब कोई बताये कि इनमें से कौन है हिटलर, सद्दाम या बुश, या मेजर या मितराँ, शमीर या कुइयार या गौर्बाच्यौफ, या शाह फहद या हुस्नी मुबारका, कौन है असली गुनहगार, सब धर्म की लड़ाई की बात कह रहे हैं, सब न्याय की दुहाई दे रहे हैं, अब किसका गला पकड़ोगे, किसे समझाओगे, कौन है असली जिम्मेदार इस खून खराबे का, कौन है जिसकी जिह्वा इस रक्त से त्तृप्त हो रही है, सद्दाम? सद्दाम तो बेचारा शिकार हो रहा है, चारा बन गया है इस भीषण ब॰रा॰से॰ का। वह तो मार खा रहा है। उसे मैं अब कैसे दोष दूँ?

    यह अमेरिका गठबंधन और उसके अरब गुलाम राष्ट्र, ये ही इस साजिश के जिम्मेदार हैं। आने वाला इतिहास इन पर थूकेगा। इनकी कायरता पर थूकेगा, इनकी बर्बरता पर थूकेगा। इनके दोगलेपन के लिये इन्हें सदैव याद रखा जाएगा।

    मासूम इराकी नागरिकों पर नापाम बरसा कर इन्होंने राक्षसों में अपना नाम लिखवा लिया है। इराक ने तो कहा है कि सब ओर से शांति प्रस्ताव भिजवाकर उसे सब ढंग से मान लेने पर भी, शांति की चाहत के बावजूद ईराक पर हमला करके अमेरिका ने विश्वासघात किया है। इधर शांति प्रस्ताव, सुरक्षा परिषद की बैठक आदि करवाते रहे और इधर जमीनी लड़ाई की तैयारी करते रहे। इराक के साथ यह धोखा हुआ है। यह तो विश्वासघात हो गया।

    ईराक और सद्दाम हुसैन ही विक्षुब्ध नहीं है अभी, अभी दुनिया के तमाम आँख वाले, हृदय वाले और संवेदनशील लोग विक्षुब्ध हैं।

    अमेरिका का यह कृत्य निर्लज्जता की भी सीमा पार कर लेने जैसा है। असल में वह युद्धोन्मत्त-पागल हो गया है। इराक को और सद्दाम को उसने एक प्रतीक के रूप में लिया है और उसके बहाने वह संपूर्ण विश्व को अपनी शक्ति दिखाना चाहता है और आने वाले समय में इतिहास को अपने ढंग से बनाने का सपना देख रहा है वह जिसका अगुआ वाशिंगटन हो। अब सं॰ रा॰ सं॰ बेकार की चीज हो गयी है। अब अमेरिका की अगुआई में एक समिति बननी चाहिये जो विश्व का पुनर्निमाण अपने ढंग से करे। ऐसा वह सपना देख रहा है। यह युद्ध उसी की पूर्व तैयारी है। लेकिन यह हो नहीं सकेगा। यह प्रकृति के नियमों के विपरीत है। आखिर निर्णायक तो मनुष्य ही है। और मनुष्य मन सर्वत्र एक समान है। दुनिया में अनेक राष्ट्र हैं जो अपना वर्चस्व किसी भी स्थिति में खोना नहीं चाहेंगे। अमेरिका या ब्रिटेन सोचे कि मुखिया बन जाए विश्व पंचायत का, तो वे गफलत में हैं। फ्रांस भी है, जर्मनी है, जापान है, चीन है और देर-सबेर सोवियत रूस भी पुनः शक्ति हासिल कर लेगा। तब ऐसी हालत में भविष्य में कोई राष्ट्र चौधरी बनने का सपना भले ही देख ले, लेकिन संभव नहीं होगा यह। भविष्य में यह असंभव होगा।

    अब आदमी ज्यादा सतर्क हो गया है। सं॰रा॰सं॰ की विफलता ने झकझोर दिया है विश्व की चेतना को। राजनेताओं पर से विश्वास उठ गया है। अनेक देशों में अपने राष्ट्राध्यक्षों के खिलाफ, उनकी नीतियों के खिलाफ जन आंदोलन छिड़ जाने की संभावना है। यह युद्ध सामान्य चरित्र का न होकर अब एक धर्म युद्ध बन गया है। कभी दुनिया ने इराक की निंदा की थी, उसे भला-बुरा भी कहा और कहा कि सद्दाम हुसैन ने कुवैत को निगल कर अच्छा नहीं किया, अब वही दुनिया सद्दाम में अच्छाइयाँ ढूँढ रही है, अब दुनिया के सामने जो सिनेरियो है, वह एकदम विपरीत है, अब असली खलनायक यह अमेरिकी गठबंधन के सदस्य राष्ट्र ही हैं।

    अभी भले ही ये लोग बेखौफ अपना शक्ति प्रदर्शन करने में मशगूल हैं लेकिन, इन्हें दुनिया ने पहचान लिया है, अच्छी तरह। भविष्य इनका अच्छा नहीं है, ये अपराधी हैं, इसलिये आज नहीं कल किसी विश्वव्यापी आंदोलन के हाथों इनका ट्रायल लिया जाएगा, इन्हें कटघरे में खड़ा होना ही होना है।

    आम आदमी ने पहचान लिया है अब इस अमेरिकी चरित्र को, सारी दुनिया ने जान लिया है, ब्रिटेन और फ्रांस को तो पहले से ही जानते आयी है दुनिया कि किस तरह सारी दुनिया को अपने उपनिवेशों में तब्दील कर उन पर ये शासन करते रहे। अकेले सं॰रा॰सं॰ अमेरिका में ही बारह-तेरह उपनिवेश राज्य थे, दो सौ साल पहले ब्रिटेन का। अमेरिकी भूमि पर तब लन्दन का शासन चलता था।

    लेकिन अब समय बदल गया है। बहुत बदल गया है। आज सोच की स्वतंत्रता ज्यादा है। आज समता का भाव ज्यादा है। आज कम्यूनिकेशन संभावना ज्यादा है।

    आज का आदमी अब जो भविष्य गढ़ेगा उसमें वह हमारी कई भूलों को शायद नहीं करेगा, निश्चय ही उसकी चेतना, उसकी लोक कल्याणकारी सोच व्यापक होगी, कल की संकीर्णताओं से मुक्त वह एक ऐसी व्यवस्था के बनने में सहयोगी होगा जिसमें संवाद का स्थान होगा। जहाँ संसद का, सभा का महत्त्व होगा, जिस व्यवस्था में प्रतिभा के जरिये, वाणी के जरिये सब मतभेदों को समझा-परखा जायेगा, जहाँ उग्रता या हिंसा का ख्याल मात्र अपनी हार मानी जायगी। जिस पर क्रोध जीत जाय, वह कायर है। जिस पर हिंसा जीत जाए, वह कायरपुरुष है। अकंप रहना, खुला रहना जहाँ पात्रता हो, ऐसा संसद, ऐसी सभा बनेगी, ऐसे सदस्य होंगे।

    बाकी आने वाली मानव इतिहास के उस भव्य भवन की नींव में तो इराक ईंट के रूप में होगा। यह इराक के बलिदान की कीमत पर हासिल हो रहा है।

    कर्बला में जो शहादत हुए थे, हुसैन, आज उस महान आत्मा की याद ताजा हो आयी है, इस हुसैन

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