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Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 4 ('हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता' - भाग - 4)
Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 4 ('हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता' - भाग - 4)
Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 4 ('हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता' - भाग - 4)
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Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 4 ('हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता' - भाग - 4)

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भीनी भीनी गंध जिस बात की वर्षों पूर्व उठनी प्रारंभ हो चुकी थी- वह तथ्य अब उजागर हो गया है। मैं आज के प्रत्येक क्षण को आने वाले कल के लिये उपयोग कर रहा हूँ। मेरी मुट्ठी की प्रत्येक ईंट भविष्य के महल के निर्माण में लग रही है।
आज मैं पूर्ण निरहंकारिता के साथ यह बात कह सकता हूँ कि विधि के हाथों जैसे आज की कहानी कल लिखी जा चुकी थी आज वह प्रकट हुई या हो रही है, वैसे ही आने वाले कल की कहानी भी लिखी जा चुकी है। मैं स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ कि उस विराट खेल में मेरी क्या स्थिति है। मेरी भूमिका अब एकदम स्पष्ट हो गई है। विधि के हाथों मेरा भविष्य लिखा जा चुका है। और मैं यह देखकर चकित हूँ कि अकथनीय और अकल्पनीय होने को है। मैं अपने सौभाग्य को देखकर स्तंभित हूँ। मुझ पर सद्गुरु सत्ता की महती कृपा का जो यह परिणाम है वह मुझे परमात्मा के श्री चरणों में समर्पित हो जाने के लिये प्रेरित कर रहा है- मैं समर्पित हो चुका हूँ। श्री भगवान अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ मुझ पर प्रसन्न हैं। भगवती मेरे प्रति अनंत वात्सल्य से आपूरित हैं। अस्तित्व अपने अनंत अनंत हाथों से मेरे ऊपर आशीष वर्षा कर रहा है। मुझे भीतर बाहर से वासुदेव श्री विष्णु ने घेर लिया है। संपूर्ण संत परंपरा मेरे प्रति अपने पवित्र प्रेम की धारा को मोड़ चुकी है। युगो युगो से साधुजनों के स्नेह से मुझे नहलाया जा रहा है।
यह सब देख देख कर मैं परमात्मा सतगुरु सत्ता को स्मरण कर कर के कृत कृत हो रहा हूँ। मैं परम आनंद में हूँ, मैं विह्वल हूँ, मैं और वह एक दूसरे में समा गये हैं- मैं क्या-क्या कहूं- कैसे व्यक्त करूं, कितना कहूं- मैं कह नहीं सकता। सोचता हूँ- इसे रहस्य ही रहने दूं फिर सोचता हूँ- नहीं कह दूं।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateJun 3, 2022
ISBN9789355993472
Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 4 ('हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता' - भाग - 4)

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    Hari Anant- Hari Katha Ananta - Part - 4 ('हरि अनन्त- हरि कथा अनन्ता' - भाग - 4) - Swami Chaitanya Vitraag

    डायरी संख्या-१०

    Learning

    The process of learning exists from cradle to grave.

    Yes, even the last breath can also be used for transcendence, to be free from the past and to take a leap jump into the unknown the unknowable.

    But why to wait? Why to postpone for tomorrow. Why not now. Any moment can be the last moment.

    This present moment is the only opportunity.

    If one misses this present moment, he misses it for ever because tomorrow never comes, tomorrow never exists.

    Be, rational and courageous to drop the past immediately.

    Thus the Liberation.

    -1.3.1992

    Love is immortal

    Because

    Love is God.

    Love is eternal

    because Love is God.

    Love is divine

    because Love is God.

    बोध और आचरण:

    (Appearance and Reality)

    मैंने सुना है कि सुप्रसिद्ध आंग्ल साहित्यकार और विचारक जार्ज बर्नाड शॉ किसी भोज में आमंत्रित थे। वे जब वहां पहुंचे तब वे वही पोशाक पहने हुए थे जो अक्सर वे पहना करते थे। दरवाजे पर ही दरबान ने उन्हें रोक दिया और अंदर प्रवेश करने से यह कह कर मना कर दी कि भोज में आमंत्रित होने के लिये आवश्यक वस्त्र वे नहीं पहने हुए हैं।

    बर्नार्ड शॉ वापस लौट आये अपने घर और फिर वे आवश्यक पोशाक पहन कर पुन: उस भोज में गये। वहां पहंच कर जब सब लोग डाइनिंग टेबल पर उपस्थित हुए तो बर्नार्ड शॉ ने एक एक आइटम को उठा-उठा कर अपने वस्त्रों पर उड़ेलना शुरू कर दिया और कहते गये कि लो खाओ- यह खाओ वह खाओ।

    जो लोग वहां उपस्थित थे वे सब के सब भौचक थे लेकिन शॉ जब कुछ कर रहा है तो उसमें कोई बात होगी यह सोचकर उन्होंने पूछ लिया तब शॉ के उत्तर से पता चला कि दरबान के रोकने का यह परिणाम है।

    बर्नार्ड शॉ जैसे लोग समाज में रहते तो हैं लेकिन उनके सोचने और जीने का ढंग भिन्न होता है। उसके पीछे किसी सामाजिक मान्यता या धारणा का हाथ नहीं उनकी अंतर्दृष्टि और सहजता होती है।

    मैं तुमसे यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे साथ भी अनेक अवसरों पर ऐसा ही होता रहा है।

    मैं व्यक्ति की स्वतंत्रता और सहजता मे आस्था रखने वाला व्यक्ति हूँ। मैं समाज में रहता हूँ लेकिन सामाजिक मापदण्डों और धारणाओं से स्वयं को बंधा हुआ नहीं रख सकता। मैं अपने हृदय से जीने वाला व्यक्ति हूँ, क्षण-क्षण spontaneous होता है मेरा आचरण।

    मेरा उठना-बैठना, मेरा खाना-पीना, मेरा पहनना-ओढ़ना, मेरी खुशी और सुविधा के हिसाब से होता है। जीवन मेरा है और उसे जिस ढंग से मैं चाहूं मुझे जीने का अधिकार है। हां मैं इतना तो ध्यान अवश्य रखता हूँ कि मेरे कारण किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता और सुविधा न छिनने पाये। मैं यही तुम्हें भी समझाता रहा हूँ कि ऐसे जियो ऐसे सहज रहो।

    मैंने जब से एक बात को तय पाया है कि परमात्मा ही है सब रूपों में, सब स्थानों में और मैं भी परमात्मा ही हूँ। तब से न कोई दूसरा रहा, न कोई अच्छा रहा, न बुरा, न किसी से बैर न किसी से भय, न कहीं ऊपर उठना है न कहीं नीचे गिरना है।

    भगवान श्री रजनीश भी कहते थे कि चदरिया उसी की है उसी से बनी है फिर कबीर की भांति जस की तस बनाये रखने की फिक्र भी क्या करना - चाहे तुम कैसे भी और कितना भी उसको मोड़ो-तोड़ो वह जस का तस रहेगा ही रहेगा क्योंकि चदरिया परमात्मा की है - श्री राम की है और परमात्मा से ही बनी है- चादर के रेशे–रेशे में राम ही विराजमान हैं।

    मैंने गरुवाणी को सना ही नहीं, जी भी रहा हूँ।

    मैं निशंक रहता हूँ, आत्मश्रद्धा से भरा हुआ हूँ और हर क्षण परमात्मा को, उनकी अनंतता को, उनकी दयालुता को, उनकी कृपा को, उनकी रहस्यमयता को, उनकी आप्तकामता और तृप्ति को स्मरण करता हूँ और यह सोचकर कि मैं भी वही हूँ – परम संतुष्टि अनुभव करते रहता हूँ। यह मेरी स्थिति है।

    और लोग सामाजिकता के नाम पर मंदबुद्धिता का, जड़ता का, और अंधता का शिकार होकर मुझे जब देखते हैं तो उन्हें मेरी वह स्थिति तो नजर नहीं आती, उन्हें नजर आता है मेरा पहनना, खाना-पीना, उठना-बैठना।

    मैं स्वयं को हर क्षण याद रखता हूँ, स्वभाव को, स्वरूप को। मै ध्यान ही नहीं देता कि दूसरों को मैं क्या दिख रहा हूँ।

    सनातन रूप से जो मैं हूँ उस पर मेरी दृष्टि रहती है- क्षणिक रूप से मैं क्या दिखता हूँ उस पर मेरा ध्यान कतई नहीं होता, न हो सकता।

    अजीब बात तो यह है कि मैं अपनी प्रज्ञा और अपने अनुभव के आधार पर लोगों से यह कहता हूँ कि तुम सब भी परमात्मा ही की प्रतिमाएं हो, तुम्हारे रेशे-रेशे में वही मौजूद है। तुम पवित्र हो पूर्ण हो – लेकिन लोग मुझे समझाने में व्यर्थ अपना श्रम लगाते हैं कि मैं अपवित्र हूँ कि मैं दूषित हूँ, अधार्मिक हूँ। यही तो बुद्ध को सुनना पड़ा था, यही तो जीसस को सुनाया गया था, यही ओशो को भी सुनना पड़ा। अब मुझे भी यही सब सुनाया जा रहा है।

    शायद यही समाज की नियति है। परमात्मा का विस्मरण ही दुःख है।

    जपुजी-

    जीसस क्राइस्ट अक्सर यह बोध कथा लोगों को सुनाया करते थे।

    एक दिन एक गांव में वहां के सबसे धनी व्यक्ति जमींदार ने अपने कर्मचारी से कहा कि कल सुबह से ही एक बहुत बड़ा उद्यान बनवाना है। उसके लिये मजदूर बुलाओ और तुरंत काम शुरू करवा दो, कल सुबह से ही।

    दूसरे दिन सुबह उस जमींदार का आदमी मजदूर बुलाने के लिये निकल पड़ा। गांव में जितने भी मजदूर मिलते गये उन्हें काम पर भेजता गया। फिर दूसरे गांवों में भी जाना पड़ा क्योंकि काम बड़ा था। सौ-दो सौ मजदूरों की व्यवस्था करनी थी। कोई मजदूर जल्दी मिल गया वह जल्दी आ गया। कोई देर से मिला तो वह देर से पहुंचा। कोई दिन आधा बीत जाने पर पहुंचा तो कोई शाम होने पर । कोई-कोई तो काम खत्म हो गया दिन भर का तब पहुंचे।

    जब दिन ढल गया और मजदूरों को उनकी मजदूरी देने का समय हो गया तब उस जमींदार ने सब मजदूरों को लाइन में खड़े हो जाने को कहा और एक-एक करके मजदूरों को वह उनकी दैनिक मजदूरी प्रदान करने लगा। परा काम करने वालों को तो उसने उनकी मजदरी दी ही उसने शेष सभी को भी उतनी ही मजदूरी बांट दी। इससे हुआ यह कि जो मजदूर अपना काम पूरा किये थे वे कसमसाये – उन्होंने उस जमींदार से कहा कि यह तो सरासर अन्याय है उनके प्रति । उस जमींदार ने उनसे पूछा कि उनकी दैनिक मजदूरी क्या है और वह उन्हें मिला है कि नहीं तब उन मजदूरों ने कहा कि हां मिला है। तब उस जमींदार ने उनसे पूछा कि फिर उनके प्रति कैसे अन्याय हुआ है। मजदूरों ने कहा कि जिन्होंने कोई काम ही नहीं किया उन्हें क्यों मजदूरी दी गयी।

    इस पर वह जमींदार पहले तो खूब हँसा फिर कहा कि- अरे, यह तो विचित्र बात है, धन मेरा है, उसे कैसे देना, किसे देना यह उसकी इच्छा पर निर्भर है कि उसके लिये उसे किसी की आज्ञा लेनी होगी।

    धन मेरा है मैं किसी को क्या देता हूँ यह मैं सोचूंगा न कि तुम । तुम्हें तुम्हारा हक मिल गया यही तुम्हारे लिये पर्याप्त होना चाहिये। ऐसा उसने जवाब दे दिया।

    जीसस कहते हैं कि परमात्मा उसी प्रकार से अपनी कृपा बिना भेद-भाव के सब पर बरसाते हैं। पात्र-अपात्र का भी भेद नहीं करते। कभी-कभी तो अपने ही द्वारा बनाई गयी कर्म की व्यवस्था को परे हटाकर वे अत्यंत करूणा से भर कर कुपात्र पर भी अपनी कृपा की वर्षा कर देते हैं।

    मुझे यह कहानी आज इसलिये याद हो आयी क्योंकि स्वरण ने एक गुरुवाणी का जिक्र किया जिसमें गुरु नानक देव कहते हैं- प्रार्थना करते हैं परमात्मा से और उसी के द्वारा परमात्मा की शरणागत वत्सलता को समझाते हैं। नानक कहते हैं कि- प्रभु, मैंने धर्म, तप, संयम, साधु संगत और सेवा कुछ नहीं जाना- मैं, सदा आपसे दूर ले जाने वाले कुमार्गों पर चलता रहा, बुराइयों से भरा रहा फिर भी मेरा हृदय आज पुकार-पुकार कर कहता है कि मुझे अपने शरण में ले लो और अपना लो-आप महान् हैं।

    मैं भी यही कहता आया हूँ कि सच्चे दिल से निकली हुई प्रार्थना को परमात्मा अवश्य सुनते हैं। पुकारो तो पूरे दिल से पुकारो, उनका कोष अक्षय है। वह कभी कम नहीं होता।

    तुम क्या हो, क्या पात्रता है तुम्हारी, तुम पात्र हो, कि अपात्र कि कुपात्र यह कोई मायने नहीं रखता। यदि तुमने आज अपने को परमात्मा की याद से भर लिया और उसकी मदद के लिये तड़प उठे तो वह जरूर पहुँचेगा- वह दीन बंधु है- वह भक्तों के मान रखने के पीछे अपने मान अपने नियम कानून सबको छोड़ देता है।

    प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर,

    प्रभु को नियम बदलते देखा गया है।

    तुम भी देखोगे,

    पुकारो उसे।

    मन-

    कल मैं एक कैसेट सुन रहा था जिसमें भगवान श्री रजनीश जी कह रहे थे कि सबसे बड़ा और घातक कुसंग है यदि कोई तो वह है मन का।

    मैं पिछले कुछ समय से बार-बार तुम्हारे समक्ष इस बात को भिन्न-भिन्न ढंग से कहे जा रहा हूँ, यह तुम्हें अच्छी तरह याद होगा।

    भगवान इस युग के सर्वोच्च बुद्धिमत्ता के प्रतीक हैं। उनकी वाणी सनातन सत्य की अभिव्यक्ति है। मैं मन पर उनकी बातों को सुन कर रोमांचित हो उठा।

    मैं बार-बार फिर तुमसे कह रहा हूँ कि अपने इस शत्रु को और उसकी चालों को समझो यह सबसे प्रमुख काम है। इस एक काम को तुमने कर लिया तो तुमने अपने रूपांतरण की दिशा में आधी से ज्यादा यात्रा पूरी कर ली, ऐसा समझो।

    मन तुम्हारे साथ तुम्हारे ही द्वारा दिये गये प्रवाह (शरण) के बल पर जब से तुम शरीर धारण शुरू किये हो तब से तुम्हारे साथ-साथ है और जब से तुम मनुष्य हुए हो तब से कुछ ज्यादा ही शक्तिशाली हो गया। तुमने उसे खूब पोषण दिया है।

    तुम गौर से देखोगे तो तुम्हारे जीवन में तनावों को पैदा करने में तुम्हारे मन का ही मुख्य हाथ रहा है। चाहे वह कुछ पाने का तनाव हो या चाहे वह कुछ खोने का तनाव हो।

    मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम अपने जीवन को तनावमुक्त और सुख-शांति से भरना भी चाहते हो। तुम सब कुछ इसी एक आशा को, इसी एक सपने को पूरा करने के लिये करने आये हो। आज और अभी भी जो कर रहे हो वह उसी लक्ष्य को साधने के लिये कर रहे हो।

    मैं साथ में एक बात और देख रहा हूँ- क्योंकि मैं मन को अच्छी तरह जानता हूँ, अपने और सबके मन को । मन सबका एक ही होता है।

    मन बहुत चालाक है। बहुत-बहुत चालाक।

    मुझे एक पौराणिक कथा याद आती है जिसमें एक युवराज को एक श्राप के अनुसार सांप के काटने से मरना था। उसकी शादी भी हो गयी। उस युवराज के पिता राजा ने एक ऐसा महल बनवाया जिसमें किसी तरह कोई भी रास्ता ऐसा नहीं होना चाहिये कि किसी सर्प के उसके भीतर प्रवेश की कोई संभावना हो। सब तरह से इंतजाम पक्का कर लिया गया। लेकिन संयोग से एक बारीक छेद एक जगह दीवार पर छोड़ दिया गया था। सांप वहीं से, उसी एक छिद्र से भीतर घुस गया।

    मैं देख रहा हूँ कि लोग अपने जीवन को सुख-शांति से भरना भी चाहते हैं, उस दिशा के चेतन होते हैं, सब करते हैं लेकिन कहीं मन के महल में यह मन ही किसी कोने कातर में एक सुराख भी रख छोड़ता है। जब हम अपने को किसी ध्येय प्राप्ति के लिये समझते हैं कि पूरा-पूरा तैयार कर लिया है, मन को पक्का कर लिया है तब भी मन के किसी हिस्से में, अंधेरे में, अचेतन में कोई सुराख रख ही छोड़ते हैं, बस, वह छिद्र ही पर्याप्त जगह हो जाती है, उस सांप के प्रवेश के लिये जो हमें डस लेता है, डसता है वह एक क्षण में लेकिन जिसका परिणाम हमारे जीवन यात्रा में बहुत दूरगामी सिद्ध होता है।

    सारी तैयारियों के बावजूद हमारी एक कमजोरी हमारी एक छोटी-सी भूल, जिसे भूल कहना ठीक नहीं क्योंकि हम ही मौका देते हैं अपने मन को । मन हमारा यंत्र है एक इंद्रिय है, हमारा मालिक नहीं। मन मनुष्य के उपयोग के लिये। मनुष्य को चाहिये कि मन को अपने आदेश में रखे न कि मन के आदेश से स्वयं संचालित हो। लेकिन देखा यही जाता है कि लोग अपने-अपने मन के गुलाम से हो गये हैं और अपने-अपने मन के महल में एक सुराख रख छोड़ते हैं, वे सोचते हैं अब सांप नहीं आयेगा और कहीं भीतर से उस सांप की प्रतीक्षा भी करते हैं, स्वयं ही उसके लिये सराख रख छोडा है।

    यह स्थिति है आदमी की एक तरफ अपने जीवन को सुख-शांति से भरने के लिये तैयारी भी जुटाते हैं और दूसरी ओर मन की चाल में फंसकर कहीं अपने आत्मघात की भी तैयारी रख छोड़ते हैं। ऐसा है मन की संरचना। ऐसा होता है मन की सुननेवाले का जीवन । यही कुसंग है- मन का कुसंग।

    मन तुम्हें एक दिन गिड़गिड़ाने पर मजबूर कर देता है, गुलाम भिखमंगा बना देता है। हमेशा इस बात का ध्यान करो कि जो काम तुम अपने जीवन में सुख-शांति को स्थायी बनाने के लिये कर रहे हो वह तुम अपने हृदय की आवाज को सुनकर कर रहे हो या मन की सुनकर। फर्क यह है कि हृदय जब भी किसी बात के लिये तुम्हें प्रेरित करेगा तो वहां उस काम का कोई विकल्प नहीं होगा और मन जब किसी दिशा में चलने को कहेगा तो कहीं न कहीं ठीक उससे उल्टी दिशा के विकल्प को भी एक संभावना के रूप में सुरक्षित रख लेना चाहेगा।

    मन कभी भी सौ प्रतिशत नहीं होगा यही उसकी पहचान है। मन को कितना भी तैयार करो, एक सुराख वह रख ही लेगा, बस यही पहचान है। वही सुराख तुम्हारे सब किये-कराये पर पानी फेर देगा और तुम्हें विषाक्त कर देगा, यह स्मरण में रख लो।

    मनुष्य है क्या? जो मनन करता है वही मनुष्य है। जो किसी कर्म को, विचार को, शब्द को पूरा-परा तौल कर, अपने भविष्य के लिये उसकी उपादेयता को समझ कर विवेकपूर्ण निर्णय लेता है, वही मनुष्य है, न कि अपनी कमजोरियों को जो कि हमेशा मन में शरण पाती हैउन्हे स्वीकार करके जिये वह मनुष्य नहीं, वह पशु के समान है। मनुष्य अपने स्वभाव से नीचे गिर कर जीवन को जीता है, इसी से उसे मनुष्य कहना गलत है। मनुष्य तो बुद्ध है, मोहम्मद है, जीसस है।

    तुम्हें मैं तुम्हारे मन की गुलामी करते नहीं देख सकता, मैं चाहता रहा हूँ कि तुम सुरक्षित रहो, तुम सच में ही सुख-शांति से भर उठो।

    मैं रोज-रोज मात्र इसी एक लक्ष्य से प्रेरित होकर ये सब बातें कह रहा हूँ।

    अपने मन को पहचानो। अपने उस सनातन शत्रु को पहचानो जिसे तुमने अपना मित्र बनाकर अपने भीतर बिठा रखा है- मित्र ही नहीं अब तो वह लगभग तुम्हारे मालिक की भांति तुम्हें नचाता रहता है।

    स्वयं को पहचानो। अपने को सच ही सुख-शांति से भरना चाहते हो, स्वयं को तनावों से मुक्त और सदा-सदा के लिये संतुष्ट और प्रसन्न करना चाहते हो तो तुम्हें अपने हृदय की सुनना होगा।

    प्रत्येक हृदय में परमात्मा का वास है, कहा गया है। ज्यों-ज्यों तुम अपने हृदय को तृप्त करते जाओगे तुम पाओगे कि सरलता और सहजता और शांति आप ही आप तुम्हारे जीवन में भरने लगेगी।

    अपने हृदय की सुनना अपने भीतर उपस्थित परमात्मा की पूजा-अर्चना है। मन के द्वन्दमय अवस्था से स्वयं को मुक्त करो और हृदय की निर्द्वद्व अवस्था को जियो, नैसर्गिक होकर जियो।

    याद रखो तुम्हारे प्रत्येक कर्म, विचार और भावना को प्रतिपल परमात्मा देख रहा है, वह तुम्हें वही भविष्य प्रदान करता है जैसी तुम्हारी तैयारी होती है। मन की तुम्हारी तैयारी सदैव उस सुराख के कारण दूषित होती है इसी से आज तक तुम स्वयं अपने ही हाथों छले गये हो, मन की कुसंगति के कारण । अब यह अभ्यास बंद करो और परमात्मा की ओर आंखें उठाओ। वही शांति का एकमात्र मार्ग है।

    मन और हृदय की आवाजों की पहचान-

    Mind is Demanding, Heart is Giving.

    जब भी कुछ पाने की लालसा पैदा हो, जिससे ऐंद्रिक सुख का संबंध हो, जब भी समाज में या किसी दूसरे व्यक्ति की नजरों में प्रतिष्ठित होने की कोई चेष्टा हो, जब भी कुछ देने के साथ-साथ कोई माँग भी भीतर जुड़ी हुई हो, जब भी किसी कृत्य के पीछे किसी व्यक्ति के दुःख या पीड़ा की चिंता कम, अपने सुख और भोग की चिंता ज्यादा हो तो समझो मन ने आवाज दी है यह मन का खेल है। यह शैतान की आवाज है।

    हृदय की आवाज मन से ठीक विपरीत होती है। जब किसी के लिये उसके आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से कुछ करने की प्रेरणा हो, जब भी अपने को असुविधा और कष्ट में, अपमान में पड़कर भी किसी के लिये कुछ त्याग करने की प्रेरणा हो, दृष्टि में दूसरे के प्रति दया, प्रेम और करूणा हो तो समझो हृदय से आवाज उठी है। अपने किसी कृत्य के पीछे अपना कोई सुख कारण न हो, अपना पाना ध्यान में न आये, न तन का, न मन का- सिर्फ सेवा करने में ही तृप्ति हो तो निश्चय जानो कि परमात्मा ने तुम्हारे भीतर आवाज दी है।

    मैं तुम्हारी मुश्किल को भी जानता हूँ। सचमुच मन और हृदय में, उनकी आवाजों में भेद कर सकना एक कठिन काम है। इसीलिये तो धोखा होता रहा है। कोई यह सोचकर थोड़े ही किसी कदम को उठाता है कि यह उसके मन की आवाज है, सभी यह समझते हैं कि यह आवाज उनके हृदय से उठी है। लोग हृदय को भी मन कहते हैं बोल-चाल में। लेकिन दोनों में भेद है, मौलिक भेद है, गुणात्मक भेद है, मन और हृदय एक-दूसरे से भिन्न ही नहीं, विपरीत भी हैं। मन श्रद्धा पैदा करेगा तो पीछे-पीछे संदेह की गुंजाइश भी रख छोड़ेगा। मन प्रेम पैदा करेगा तो भीतर-भीतर कहीं नफरत को भी बचा लेगा। मन सेवा की भावना पैदा करेगा तो जरूरत पड़ने पर शिकायतों को भी खड़ा कर देगा। मन कभी अपूर्व शांति का एहसास पैदा करेगा तो उसे समाप्त कर देने के लिये किसी तनाव की सृष्टि भी कर लेगा। मन कभी भी स्थिर नहीं हो सकता। पेंडुलम की भांति इस ओर से उस ओर एक-दूसरे के विपरीत दिशाओं में तुम्हें बहा ले जाता है। मन में पाये हुए प्रत्येक उपलब्धि को तुम अंत होते देखोगे। मन में सब सुख समय आते ही समाप्त हो जाते हैं और उसके स्थान पर ठीक विपरीत अवस्था दुःख की आ जाती हैयह नियम है, यही स्वभाव है मन का।

    तो जान लो मन में कोई विचार, कोई संकल्प उठा है तो वहां कहीं उस विचार या संकल्प को ध्वस्त करने वाली शक्ति भी तुम्हारे भीतर सक्रिय होगी।

    इस बात का पता लगाने के लिये तुम्हें शांत बैठना होगा, मनन करना होगा, ध्यान करना होगा। जब तुम ध्यान से देखोगे, ढूंढोगे तो तुम्हें साफ दिखलाई पड़ जाएगा कि कहीं आपके भीतर ही अपने ही संकल्प और भावना की कमजोर करने वाली विपरीत भावना भी मौजूद है। उस विपरीत की मौजूदगी के कारण ही तुम्हारे सब संकल्प, तुम्हारे दृढ़ विचार तुम्हारे सुख-सपने सब बिखर जाते रहे है। मन की सुनकर चलने वालों के साथ यही होना है।

    हृदय की आवाज और हृदय की आवाज पर जीने की पहचान है आत्मसंतोष और उस संतोष में मांसलता की नहीं अलौकिकता की अनुभूति। हृदय की आवाज की पहचान है कहीं से अनंत की पुकार की अनुभूति, अनंत से जुड़ने की अनुभूति। हृदय से जीने की पहचान है अपने संकल्प का रोज-रोज, हजार-हजार गुना दृढ़ होते जाना, हृदय से जीने की पहचान है, सफलता-असफलता, संयोग-वियोग, सब स्थितियों में परमात्मा को स्मरण रखना और जो कुछ भी मिला है, उसी के लिये अत्यंत अनुगृहीत होना, हृदय से जीने का अर्थ है अपने सुख के स्रोत को अपने भीतर ढूंढ लेना।

    हृदय की आवाज हमेशा दूसरे की सुख-शांति को ध्यान में रखकर उठती है, हृदय की आवाज में अपना स्वार्थ, अपना सुख, हमेशा गौण होता है। इसलिये हृदय की आवाज पर चलने वाले व्यक्ति को कभी शिकायतों से घिरे हुए नहीं पाओगे। उनकी तृप्ति अनंत होती है जो मिला है उसी में होती है, संतोष धन उनके पास होता है।

    हृदय की आवाज में कभी भी हिंसा, क्रोध, शोषण, लेन-देन और कपट जैसी बातों के लिये कोई गुंजाइस नहीं हो सकती। हृदय हमेशा प्रेम, त्याग, सेवा सरलता और खुशी के रास्ते पर ही चलने की प्रेरणा देता है। इनसे विपरीत की कल्पना भी नहीं कर सकता एक हृदयवान व्यक्ति ।

    मन संदेहों का घर है तो

    हृदय श्रद्धा का।

    मन लेन-देन का खेल है तो

    हृदय समर्पण का।

    मन शैतान की करामात है तो

    हृदय परमात्मा की लीला है।

    मन एक से कभी तृप्त नहीं होता,

    मन नये-नये की ओर हमें धकेलता है।

    हृदय एक जगह ठहर जाता है

    उससे तृप्त हो जाता है।

    मन माँग है

    हृदय दान है।

    मन ढेरों सुखों से भी तृप्त नहीं होता।

    हृदय सुख के एक टुकड़े से ही तृप्त हो जाता है।

    मन गुलामी है

    हृदय स्वतंत्रता है।

    मन दावा करता है

    हृदय नेकी करता और श्रेय की इच्छा नहीं करता।

    मन चिरंतन असंतोष है

    हृदय सनातन शांति का घर है।

    मन द्वन्द्वों से भरा होता है

    हृदय निर्द्वन्द्व और निश्चिंतता है।

    मन नास्तिकता है

    हृदय प्रभु पर अगाध श्रद्धा है।

    मन बंधन और हृदय मुक्ति है।

    हृदय कहता है They Will Be Done

    तुम्हारा मनन और ध्यान जितना गहरा होगा, तुम्हारे ध्यान में जितनी गहराई होगी, तुम्हारी दृष्टि में, सोच में स्पष्टता होगी- उसी के हिसाब से तुम मन और हृदय में भेद कर पाओगे। मैंने जो कहा वह मेरे अपने अनुभव से कहा । वह तुम्हारे हाथों में शब्द ही होंगे अभी। तुम अपने ध्यान से जब देखोगे स्पष्ट देखोगे तभी तुम मार्ग पकड़ सकोगे, अभी तो यही नहीं पकड़ पाते हो कि कौन आवाज मन की प्रेरणा है और कौन हृदय की। मन को हृदय माने बैठे हो।

    अब इस भूल को खत्म करो। मन को उसकी सीमा में रखो। हृदय की सुनो, तभी तुम एक दिन सचमुच अपनी सुख-शांति का स्रोत अवश्य पा लोगे। मैं तो तुम्हारे साथ हर क्षण हूँ। मैं इसी के लिये हूँ।

    12.3.1992

    मेरे कर्मों का प्रेरणा स्रोत

    मैं इस बात को तुम्हारे और सबके सामने एकदम स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरे हाथों जो भी हो रहा है, सामाजिक, असामाजिक, नैतिक-अनैतिक, मीठा या कड़वा, वह सब का सब सिर्फ एक ही लक्ष्य को सामने रखकर किया गया है कि लोगों का हृदय केंद्र (Heart Centre) खुल जाये, कि तुम लोगों के हृदय को मैं स्पंदित कर दूं। क्योंकि मैं जान गया हूँ कि तुम्हें तुम्हारी स्वाभाविक शांति की ओर ले जाने के लिये तुम्हारे हृदय केंद्र का सक्रिय होना सबसे पहले जरूरी है। धर्म की ओर परमात्मा की ओर तुम्हारे जीवन को मोड़ने के लिये इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

    तुम परमात्मा से जुड़ जाओ, बस मेरा एक ही लक्ष्य है, यही मेरे कर्मों का एकमात्र प्रेरणा स्रोत है।

    मैं हूँ कहां, परमात्मा ही यह सब कर करवा रहा है।

    जो तुझु भावै, सो साईं भक्तीकार,

    तू सदा रहे सलामत निरंकार।

    बस दो ही दिशाएं हैं सोचने-विचारने की।

    एक है अपने जीवन में जो-जो अभाव है, उन अभावों की लिस्ट तैयार करते जाना और अपने भाग्य को दुर्भाग्य समझना। मन का यही स्वभाव है।

    निश्चय ही यह ढंग दुःख, पीड़ा और पछतावा से तुम्हें भर देता है।

    दूसरा ढंग है परमात्मा की कृपा को और उस कृपा से प्राप्त अपनी उपलब्धियों का निरंतर स्मरण करना और अपने भाग्य को सौभाग्य मानना। यह हृदय का स्वभाव है।

    यह ढंग तुम्हें संतोष, तृप्ति और दिव्य सुख से भर देगा।

    करके देखो और जानो।

    बुद्ध का प्यार : एक कीमिया (Alchemy)

    बुद्ध जब प्यार करता है तब वह प्यार-प्यार नहीं- प्रार्थना होती है। बुद्ध जब प्यार करता है तब वह प्यार–प्यार नहीं करूणा होती है। बुद्ध जब प्यार करता है तब वह प्यार-प्यार नहीं एक शरण होता है और बुद्ध जब प्यार करता है तब वह प्यार–प्यार नहीं एक सहयोग के लिये बढ़ा हुआ हाथ होता है। बुद्ध का प्यार मैत्री भावना है।

    बुद्ध का प्यार परोपकारी होता है। बुद्ध के प्यार में बुद्ध के भीतर किसी तृष्णा का परिणाम नहीं होता। बुद्ध के भीतर तृष्णा होती ही नहीं, बुद्ध सदैव आप्त काम होता है। बुद्ध के प्यार में बुद्ध के सुख में कोई वृद्धि नहीं होती। बुद्ध अपने बोध से, अपनी अवस्था से स्वयं ही सुखी होता है। उसका यह बोध सुख अनंत है और शुद्धतम है, पावन है।

    बुद्ध जिसे प्यार करता है- वह उसका कल्याण मित्र होता है, उसका वैद्य होता है, वह उसके साथ का दीपक होता है।

    बुद्ध का प्यार एक Commitment होता है। बुद्ध का प्यार एक Assurance होता है। बुद्ध का प्यार One sided होता है unconditional होता है, बेशर्त होता है।

    बुद्ध का प्यार सिर्फ देने की भावना है, देते चले जाने का। बुद्ध स्वभाव और स्वरूप से अनंत और पूर्ण है, महाशून्य है, प्रत्यक्ष परमात्मा (अवलोकितेश्वर) हैं- इसीलिये वे अपना सब कुछ भी दे दे तब भी वे जैसे के तैसे, ज्यों का त्यों ही बने रहते हैं, वे अपरिसीम नहीं अपरिवर्तनीय भी है। इसीलिये बुद्ध का प्यार गंगा की तरह बहता है, बहते ही चला जाता है।

    बुद्ध का प्यार जिसके लिये भी है उसे अनंत अपरिवर्तनीय, बुद्धप्रज्ञा की अवस्था तक ऊपर उठा न ले तब तक के लिये है। बुद्ध सनातन गुरु होता है महापरिनिर्वाण की अवस्था तक साथ निभाने वाला होता है।

    बुद्ध जिसके हाथ को अपने हाथ में ले लेता है, वह उसे चिरकाल के लिये ले लेता है। बुद्ध का साथ समय के मापदण्ड से मापा जा सकने वाला नहीं eternal होता है नित्य होता है। बुद्ध का प्यार कालातीत होता है।

    बुद्ध के प्यार की कामना करो।

    बुद्ध को प्यार करो।

    बुद्ध का प्यार वह नौका है जो तुम्हे तुम्हारे गंतव्य तक पहुंचा देगा। बुद्ध का प्यार तुम्हारे पथ को सुस्पष्ट और आनंदपूर्ण बना देगा। बुद्ध का प्यार तुम्हारे जीवन को एक अलौकिक चेतना से भर देगा, तुम रूपांतरित होने लगोगे। बुद्ध का प्यार Alchemy है, एक कीमिया है, तुम्हें रूपांतरण से गुजारने की।

    बुद्ध स्वयं पारस है जो अपने संपर्क में आने वाले जीवों को पुण्य भूमि की ओर प्रेरित कर देते हैं।

    बुद्ध का प्यार सिर्फ प्यार ही नहीं तुम्हें होश से भरने की एक रहस्यपूर्ण विधि है। बुद्ध का प्यार सिर्फ प्यार ही नहीं तुम्हें अमृत से भरने की एक कला है। बुद्ध का प्यार सिर्फ प्यार ही नहीं तुम्हारी चेतना को कामनाओं और तष्णाओं के दलदल से उबार कर समाधि तक सम्यक बोध तक उठा देने का विज्ञान है। बुद्ध का प्रेम तुम्हारे लिये एक अनंत प्रार्थना बन जाता है।

    बुद्ध का प्यार–प्यार ही नहीं तुम्हारे भीतर बुद्धत्व का प्रस्फुटन बन जाता है। बुद्ध का प्यार तुम्हें बुद्ध हुआ देखने हेतु ही है। तब तक किसी बुद्ध को ढूंढो, उसे पहचानो उसका संग-साथ करों, उसके हाथ में अपना हाथ सौंप दो।

    याद रखो सिर्फ कोई बुद्ध ही प्रेम कर सकता है। भगवान श्री रजनीश ने इस बात हो अनेकशः दुहराया है कि सिर्फ बुद्ध ही प्रेम दे सकते हैं, जो प्रेम तुम्हें पूर्णत्व की बुद्धत्व की यात्रा के अंतिम क्षण तक मिलता रहेगा। बुद्ध का प्रेम तुम्हारी अक्षय निधि है तुम्हारा जन्मों-जन्मों का सच्चा साथी है।

    बुद्ध को प्यार करो और बुद्ध का प्यार प्राप्त करो- यही तुम्हारे जीवन की धन्यता है।

    साधु और साधक

    (Morality and Seeking)

    दुनिया में आदमी जब से समाज बनाकर रहने लगा तब से ही उसकी सभ्यता और संस्कृति का विकास होता आया है। आम आदमी अपनी आदिम कबीलाई स्थिति से काफी आगे बढ़ कर सामाजिक हो गया है। समाज को समाज बनाये रखने में ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ नीति और धर्म का भी बहुत हाथ रहा है। खास कर नीति का नैतिकता। परस्पर निर्भरता के आधार पर टिकी हुई यह समाज व्यवस्था फिर भी कुरूपता, हिंसा और भेदभाव से मुक्त नहीं हुई है। आदमी की कोशिशें जारी हैं।

    नीति का जोर सुधार पर है तो धर्म का रूपांतरण पर। समाज का ज्यादा संबंध सुधारों से ही होता है, समूह से होता है। धर्म का संबंध व्यक्ति से है, धर्म आत्मरूपांतरण का मार्ग दिखाता है। समूह तक आते-आते वह भी समाज के हाथों नीति का ही रूप ले लेता है।

    धर्म को, धर्म के मर्म को, धर्म के मूल स्वरूप को समझना, उसे अनुभव करना विरले ही लोगों के लिये संभव हो पाता है। किसी सद्गुरू या संत के मुंह से धर्म की व्याख्या सुनने वाले हजारों लाखों लोग होते हैं लेकिन गुरु के संकेतों को ठीक-ठीक समझने वाली आंखें और गुरु के संकेत को महसूस करने वाले हृदय बहुत कम होते हैं।

    नीति सीधी साफ इबारत है, उसे सभी पढ़े-लिखे, गैर पढ़े-लिखे सभी समझ जाते हैं। नीति कानून की किताब है।

    समाज में दो किस्म के लोग होते हैं, सज्जन या दुर्जन, नैतिक और अनैतिक। इन दोनों प्रभेदों के अलावा कुछ एक लोग ऐसे भी होते हैं जो नीति वादियों के लिये सदैव एक पहेली होते हैं, उन कुछेक व्यक्तियों को नैतिक और अनैतिक दोनों किस्म के लोग समझने में असमर्थ होते हैं। धर्म का संबंध ऐसे ही व्यक्तियों से होता है। वे अपने आचरणों से रहस्यमय से लगते हैं। वे न नीति की फिक्र करते हैं न अनीति की। वे अपने अंतःकरण की मान कर चलते हैं।

    मैंने एक चर्च के पादरी के विषय में सुना है। उस बस्ती में चमड़े का काम होता था। मजदूरों और कारीगरों को चमड़ा मुश्किल से मिलता था। दाम बढे हए थे, रोजी-रोटी चलाना कठिन हो गया था। तब वह पादरी दिन भर लोगों को नैतिकता का उपदेश देता और रात के अंधेरे में व्यापारियों की गोदामों से चमड़ा चोरी करता और गरीबों में उसे बांट आता। बहुत दिनों तक किसी को पता ही नहीं चल सका। जब पता चला तो समस्या उठ खड़ी हुई कि उसके कृत्य को क्या कहा जाय अच्छा या बुरा। ऐसे लोगों की समाज में प्रतिष्ठा खतरे में पड़ जाना स्वाभाविक है।

    मैंने एक और घटना सुनी है कि एक बार एक व्यक्ति का मनीबैग एक लुटेरा छीन कर भाग रहा था। वह व्यक्ति उसके पीछे-पीछे भाग रहा था। इस दृश्य को एक पादरी देख रहा था। यह एक बगीचे का दृश्य था। फिर उस लुटेरे को मुश्किल से उस मनीबैग वाले व्यक्ति ने पकड़ लिया तथा उसे नीचे गिरा कर उसकी छाती पर बैठ गया, इतना देखना था कि पादरी से रहा न गया वह दौड़कर आ पहुंचा और धक्के देकर उस आदमी को गिरा दिया। उसके गिरते ही नीचे पड़ा वह लुटेरा भाग गया। बाद में वह आदमी पादरी पर बरस पड़ा कि आपने यह क्या किया एक अपराधी को आपने बचा लिया। तब जाकर उस पादरी को अपने किये पर बहत शर्मिदंगी उठानी पड़ी। इसे क्या कहा जाए, अच्छा किया या बुरा?

    असल में सवाल कृत्य का उतना नहीं है जितना होश का है। होश में रहकर, परमात्मा को साक्षी बनाकर, जो काम किया जाए तो वह काम ऊपर-ऊपर से अनैतिक दिख कर भी शुभ है और जो काम अहंकार से प्रेरित होकर बेहोशी में किया जाए वह काम ऊपर-ऊपर से नैतिक दिखकर भी अशुभ ही होता है।

    समाज में फिट होने के लिये, समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये, दूसरों के मुंह से अपने को सज्जन कहलाने के लिये जो काम किये जाते हैं वे सब नैतिक कहलाते हैं। अनैतिक लोगों को दण्ड का भय देकर और लाभ का लोभ देकर सुधारने का नाम नैतिकता है। लेकिन इस प्रकार तो आज तक दुनिया में शुभ की प्रतिष्ठा, अहिंसा की प्रतिष्ठा नहीं हो सकी। साधु बन जाना ही

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