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आ! रस पी
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आ! रस पी

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About this ebook

The Book shows the 'sameness of major religions and reveals the paths back to "your Father's house." God Jeev and Maya are eternal. Nobody made them; however, God governs the two. Jesus is an Avtar is proved when we understand the attributes of Descensions.

Languageहिन्दी
Release dateApr 20, 2024
ISBN9789362613943
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    आ! रस पी - Yogesh Chandra Swami

    श्रेष्ठ पुरुष पुस्तक के संबंध में क्या कहते हैं

    उन्हीं के शब्दों में

    महामण्डलेश्वर जी का कथन

    जीते हज़ारों के इनाम

    Quiz

    हर प्रश्न 25 नम्बर का। किन्हीं 4 के उत्तर दीजिये :-

    1. लीला समेटने के पश्चात कृष्ण अब धरती पर कहाँ रह रहे हैं ? ( उत्तर भागवतानुसार)

    2. भगवान् ने मानव शरीर हमें क्यों दिया है ?

    3. आप की राय में भगवत प्राप्ति कैसे हो ? (200 शब्द)

    4. माया क्या है ? (200 शब्द)

    5. भागवतानुसार सबसे आसान धर्म कौन सा और क्यों ?

    6. आप कौन हैं ? (200 शब्द)

    सभी प्रश्न अनिवार्य प्रत्येक के 10 नम्बर :-

    1. शरीर के कितने द्वार ? नाम बताए.

    2. काल कन्या, प्रज्वर, अप्रज्ञात व सौ सिर वाला सर्प भागवत में किन्हें कहा गया है ?

    3. अपना यौवन‌‌ देकर अपने पिता की वृदधावस्था किसने ली ? इस कथा के माध्यम से क्या शिक्षा दी गई है ?

    4. झूठ बोलना कब निन्दनीय नहीं ?

    5. सौ जन्मो तक ठीक ठीक कर्म कांड करने का भागवत् के मत में क्या फल है और इससे भी अधिक पुण्य का कौन सा फल है ? इन दोनों से भी बड़ा लाभ भागवत बताती है क्या ?

    पुरस्कार

    प्रथम( एक) : दस हजार रुपये 10,000/

    द्वितीय (एक) : पांच हजार रुपये 5000/-

    तृतीय (एक) : दो हजार रुपये 2000/-

    प्रोत्साहन पुरस्कार (दस) : एक-एक हजार रुपये 1000/-

    साथ में प्रमाण पत्र

    पारितोषिक बोर्ड में लेखक और वात्स्यायन‌ शर्मा हैं जिनका निर्णय‌ अंतिम होगा। उत्तर‌ रजिस्ट्री द्वारा‌ इस पते पर भेजें – योगेश चंद्र स्वामी, मंदिर श्री मधो बिहारीजी, अपोजिट रिज़र्व पुलिस लाइन, स्टेशन रोड, जयपुर, राजस्थान - 302006 । अंतिम तिथि 23.12.2023 है ।

    बोर्ड मैम्बर व उनके परिवार के सदस्य प्रतियोगिता में भाग ‌नहीं ले सकेगें।

    उत्तर सनातन धर्म पर आधारित हों और शास्त्र को उद्धृत‌ भी करें यथा भगवान् के भक्त का पतन नही होता… गीता ९/३१।

    सभी प्रश्नों के उत्तर ''आ! रस पी" में भी मिल सकते हैं।

    ऋणदाता

    किस-किस दाता का नाम लूँ, ऋणी बहुतों का हूँ।

    यह शरीर भगवान को प्राप्त करने हेतु उसी के द्वारा दिया हुआ है - ऐसा जाना गीता प्रेस, गोरखपुर के साहित्य से; विशेषकर, श्री जयदयाल जी गोयंदका, श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार और श्री रामसुखदास जी के लेखों से। हम ही उससे विमुख हैं। वह तो बाँहें पसारे अनन्त काल से हमारी बाट जो रहा कब हम उसके सम्मुख हों- यह समझाया दिवंगत जगतगुरुत्तम श्री कृपालुजी महाराज ने। उनका मानना है कि आनंद या सुख जिसे हम अनंत काल से इस संसार में खोज रहे हैं, हमें नहीं मिला है; क्योंकि संसार में यह आनंद है ही नहीं। आनन्द केवल भगवान में ही है, उनका पर्याय है।

    बचपन में ही भगवान के प्रति अनुराग का बीज बोया दादी की माता श्रीमती अैजन देवी (भाभू) व पितामह महंत श्री प्रकाश चंद्र स्वामी (बार-एट-लॉ) ने, भागवत की कथाएँ, भक्त ध्रुव और प्रहलाद संबंधित, सुना-सुना कर। ध्यान योग के पथ पर चलाया श्री चंद्र प्रकाशजी गुप्ता, श्री हरप्रसाद जी मिश्रा ‘ओवैसी’ और श्री डूंगरदास जी महाराज ने। साधना के प्रारंभिक काल में पग-पग पर डगमगाते हुए कदमों को संभाला श्री सागर चंद सोनी एडवोकेट ने। सदाचार, कक्षा में अच्छे अंक लाना व अच्छा साहित्य पढ़ना सीखा माता श्रीमती सत्यवती (एम. ए. अंग्रेज़ी व दर्शन शास्त्र, साहित्य रत्न हिन्दी, डिप्लोमा जर्मन भाषा) से। गुरु भाई श्री पवन गुप्ता अब भी ध्यान योग के रास्ते पर आगे बढ़ा रहे हैं। भगवत-संबंधी अपने अनुभव सुना कर पिता महंत डॉ. महेश चंद्र स्वामी, बुआ श्रीमती विजयलक्ष्मी शर्मा और पत्नी बीना ने भक्ति की लौ को और भी अधिक दाहकता दी। भगवान के संबंध में मैं आज जो कुछ भी जानता हूँ वह सब इन लोगों के एवं बहुत बड़ी संख्या में अन्य लोगों के मुझ पर किए गए अनुग्रह के कारण ही है। इनमें अमरीका के यूनिटी स्कूल आफ क्रिश्चियनिटी की श्रीमती मिरटिल और श्री चार्लस फिलमोर व डॉ. कैडी भी हैं।

    गुरुओं की सूचि अवधूत के गुरुओं जैसी तो नहीं, परन्तु बड़ी तो है। किस-किस का नाम लूँ, ऋणी बहुतों का हूँ । भांजे ‘छोटू’ चि. कमलकान्त का नाम लेकर सूची समाप्त करनी पड़ रही है।

    छोटू, भाई पवन जी गुप्ता, बुआ विजयलक्ष्मी और महाराज डूंगरदास जी के अलावा अन्य सब प्रेरणा देकर प्रभु-धाम को जा चुके हैं। ये लोग अभी भी उत्साह के स्त्रोत हैं।

    कुछ लिखना संभव ही नहीं था यदि श्री वात्स्यायन शर्मा, (निवर्तमान संयोजक, हिंदी विभाग, मेयो कॉलेज, अजमेर) डायरेक्टर-प्रिंसिपल, मयूरा स्कूल, जयपुर लैपटॉप टाइपिंग और वॉइस टाइपिंग (Laptop Typing and Voice Typing) नहीं सिखाते। साइट- http://www.primelements.com- भी इन्होंने ही लॉन्च करवाई है। मूल में त्रुटि एवं प्रिंट योग्य वाँछित सुधार भी इन्होंने‌ ही किया है।

    पुत्री श्रीमती पदमा जमाता श्री प्रदीप, पुत्री श्रीमती जया जमाता श्री पुलकित, पुत्र श्री प्रणव एवं पुत्रवधु श्रीमती नूपुर ने उत्साहवर्धन किया और लैपटॉप से मदद भी की।

    अंततः मुद्रक एवं प्रकाशक ब्लूरोज पब्लिकेशन सहर्ष योगदान के लिए हार्दिक आभार।

    योगेश चन्द्र स्वामी (RHJS. Retd)

    महंत (माधोबिहारी मंदिर, जयपुर)

    प्राक्कथन

    वेदों का सार है - श्रीमद्भागवत पुराण। कलियुग में लोग भगवान को अधिक समय नहीं देते। इस युग का धर्म ही यही है, कोई क्या हट करे ? इसलिए, इस सार का भी सार और छोटा रूप करने का प्रयत्न किया गया है भागवत सत् संधान में। इसमें रस ही रस है। छोटे से कलश में बहुत भारी अमृत राशि को भरने का प्रयास किया गया है। इस कारण से घनत्व ज़्यादा है। धीरे-धीरे पीएँ और पचाएँ। भागवत के संबंध में सोचते ही रस का ध्यान आता है, अस्तु आ रस पी लिखा गया है। इसे वेदों का विस्तार भी कहा जा सकता है। सनातन सत्य को बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है ताकि कम पढ़े-लिखे व संस्कृत न जानने वाले भी वेदों को समझ सकें और भगवान को प्राप्त कर लें। क्लिष्ट व तकनीकी भाषा का प्रयोग ना के बराबर बहुत आवश्यक होने पर ही किया गया है। यहाँ यह बता दिया जान उपयुक्त समझता हूँ कि यह पुस्तक ज्ञानियों के लिए नहीं है। ज्ञानी से अभिप्राय है - विद्वान, पंडितजन, अधिक पढ़े लिखे लोग, वेद - शास्त्रों को गहनता और सूक्ष्मता से जाननेवाले तथा अपने मत के अलावा अन्य विचारों को हीन मानने वाले लोग। यह उनके लिए है जिन्हें पुस्तकीय-ज्ञान तो है; परन्तु, ‘ढाई आखर प्रेम का’ कम जान सके हैं।

    सनातन धर्म में सबसे प्यारी और महत्वपूर्ण बात यह बताई गई है कि भगवत-प्राप्ति हर कोई कर सकता है, चाहे जिस भी वर्ण का हो और चाहे जिस भी आश्रम में रह रहा हो। चाहे आखिरी साँस ही चल रही हो। जो कोई वर्णाश्रम धर्म नहीं मानता हो, वह भी भगवान को प्राप्त करने का अधिकारी है, उसे भी मनचाहा नुस्खा मिलेगा श्रीमद्भागवत में।

    वर्तमान ग्रंथ अन्य भागवत की पुस्तकों से अलग कैसे ?

    जिस तरह से मूल भागवत प्राप्त होती है प्रथम स्कंध से द्वादश स्कंध तक, उससे यह पुस्तक थोड़ी-सी भिन्न है। इसके पृथक-पृथक अध्यायों में भिन्न-भिन्न विषयों पर चर्चा की गई है यथा अवतार, भक्त चरित्र, धर्म, सामाजिक व्यवस्था आदि पर पृथक-पृथक अध्याय रखे गए हैं। उदाहरण के लिये ध्रुव चरित चौथे, प्रह्लाद सातवें, गजेंद्र आठवें व वृत्रासुर छठे स्कंध में हैं मूल भागवत में; भक्ति से संबंधित हैं, इस कारण से हमने इनकी चर्चा एक साथ एक ही अध्याय में की है। इन भक्तों की भक्ति की समानता और भिन्नता पर भी बात की गई है। इसी प्रकार सृष्टि और प्रलय भी साथ-साथ चर्चित किए गए हैं। सनातन धर्म मानता है कि सर्ग-विसर्ग होता ही रहता है, अनंत बार हो चुका है जबकि अन्य धर्म वर्तमान सृष्टि की रचना प्रथम बार होना कहते हैं। आशा है, नवीन रस मिलेगा।

    भागवत में अजगर-प्रवृत्ति में रहने वालों की कथा (ऋषभदेव) है तो भोगों को भोगते हुए परमात्मा प्राप्ति (प्रियव्रत) की बात भी है। अवतार कृष्ण, कपिल, नारद, हँस, सनकादि कुमार, ब्रह्माजी, शंकरजी व अन्य ऋषिगण ने आध्यात्मिक सिद्धान्त सरल ढंग से समझाए हैं। आवागमन से छूटने के अनेकों मार्ग बताये गए हैं। अभेद-भेद, निराकार-साकार, निष्काम-सकाम - हर प्रकार की साधना का उल्लेख है। भोगों से भरा गृहस्थाश्रम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता जो अपनी आत्मा में रमण करता है।

    संदर्भ कैसे देखें ? कौन-सा तथ्य मूल भागवत में किस स्थान में मिलेगा इसका संकेत स्कंध अध्याय व श्लोक संख्या लिख कर स्थान-स्थान पर बताया गया है। जैसा कि भागवत 5/1/17 लिखा गया है, यहाँ पर स्कंध पाँचवा है, अध्याय पहला और श्लोक सत्रहवाँ। इस प्रकार पाठक मूल से देखकर सत्यता जाँच सकेंगे और साथ ही पाठकों की भागवत व अन्य भगवत संबंधी ग्रंथ पढ़ने में रुचि पैदा होगी। आध्यात्मिक सिद्धांत अध्याय के अंत में भी इंगित किए गए हैं। इनका अध्ययन करने से लेख समझने में सुगमता रहेगी। भागवत के अलावा अन्य स्त्रोत्र से ली गई सामग्री के साथ स्त्रोत का नाम यथा गीता, देवी भागवत, ब्रह्मसंहिता, पदम पुराण, स्कंद पुराण, भक्ति वेदांत ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किताब आदि लिख दिया गया है। जो वैदिक सिद्धांत कुरान, बाइबिल वह अन्य धर्म ग्रंथों में देखने को मिलते हैं उनकी भी उचित स्थान पर चर्चा करने में संकोच नहीं किया गया है।

    अपने आप को विद्वान कहने वाले कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि भागवत में राधा तत्व, जो श्रीकृष्ण की आत्मा है, पर चर्चा नहीं है। यह सही नहीं है। कई स्थानों पर भागवत में राधा शब्द छुपे रूप से आया है और अन्य स्थानों पर राधा के पर्यायवाची जैसे कि श्री, लक्ष्मी, रमा, प्रिया, कांता आदि नाम प्रयुक्त हुए है। जिस संदर्भ में इन शब्दों का प्रयोग किया गया है उससे निष्कर्ष यही निकलता है कि यह कृष्ण-प्रिया, कृष्णात्मा राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। फिर, इस सत्य पर ध्यान रहे कि राधा और कृष्ण एक ही तत्व हैं, दो नहीं।

    भगवान ने हमारे दो कौड़ी के दिमाग में हमें तुच्छ बुद्धि दे दी है जिस कारण से हम अपने आप को बहुत चतुर समझते हैं और संतों की बातों को भोले बच्चे के समान स्वीकार नहीं करते। (Whoever does not receive the kingdom of heaven as a little child shall not enter it) इस होशियारी के कारण हम किसी व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति या स्थान को तभी छोड़ते हैं जब पहले से अधिक अच्छा व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति या स्थान हमें प्राप्त हो जाता है। वृंदावन का बंदर दर्शनार्थियों का चश्मा चोरी से छीन कर ले जाता है और उसे जब दोनों हाथों में चने की पोटलियाँ दे दी जाती हैं तब वह चश्मे को फेंक कर पोटलियाँ उठा लेता है। बंदर जैसे ही बन जाएँ। संसार में आसक्ति तब तक ना छोड़ें जब तक भगवान ना मिल जाएँ। जैसे-जैसे भगवान मे अनुराग बढ़ेगा संसार से घटेगा। जब भगवान मिलें तब ही संसार छोड़ें क्योंकि हम चतुर हैं! ऐसा भी हम कर सकते हैं। इसलिए उनके पीछे पड़ जाओ, चौबीस घंटे मन उन्हीं में लगाए रखो। वह जब मिलेंगे तो संसार छोड़ देना। (आप क्या छोड़ेगें तब संसार आप ही छूट जाएगा! आपको संसार की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी) जब चने की पोटली मिल गई तो निरर्थक वस्तु, चश्मे का बंदर क्या करेगा ? ओ प्यारे बंदर, तेरे सामने चना है, चश्मा फेंक दे, चना उठा ले! अपने हाथों से चश्मा छोड़ेगा तभी तो चना पकड़ने के लिए तेरे हाथ खाली होंगें! मन में भगवान को बिठाएगा तब ही तो संसार हटेगा!

    यह भागवत ग्रंथ भगवान का स्वरूप है, नष्ट प्रायः भक्ति को पुष्टि देने हेतु इसकी रचना हुई है। लेखक का यह पूरा विश्वास है कि यदि कोई भागवत की कथाएँ को ध्यानपूर्वक पढ़े तथा उन का मनन-निदिध्यासन करे तो भगवत-प्राप्ति हो जाएगी। भागवत में कृष्ण ने उद्धव को आध्यात्मिक नियम समझाया है - जो पुरुष निरंतर विषय चिंतन किया करता है उसका चित् विषयों में फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित् मुझ में तल्लीन हो जाता है।

    नियम पूर्वक दसवां स्कंध पढ़ने से कृष्ण मिलते हैं। आत्मदेव को मिले तो हमें क्यों नहीं मिलेंगे।¹

    इस पुस्तक की काफी सामग्री पूर्व में मेरी साइट (http://www.primelements.com) , Quora , Youtube channel – Saral dharm पर प्रकाशित हो चुकी हैं।

    आओ! रस में डूबें।

    *** इतिश्री ***

    1 भागवत माहात्म्य 5/79-80

    समर्पण

    संसार रचयिता- पालनकर्ता-संहारकर्ता को

    जो प्रत्येक जीव के प्रत्येक कर्म के फलदाता हैं

    और

    गणेश जी को

    जो बुद्धि प्रदाता हैं

    और

    मेरी पितामही श्रीमती कमला देवी आभा को

    जिनके जैसे

    मनुष्य भगवान ने बनाना बंद कर दिया है

    सादर समर्पित है ।

    लेखक परिचय

    इस संसार के जीवन चक्र में एक तथ्य पढ़ने और सुनने को अवश्य ही मिलता है कि पूर्वजन्म के संगी, साथी, मित्र, परिचित अलग-अलग रूपों में आपको हर जन्म में मिलते हैं। श्री योगेश चन्द्र स्वामी जी से परिचय, प्रगाढ़ता के मूल में भी कहीं न कहीं यही मूल भावना रही होगी।

    पिता डॉ. महेश चन्द्र स्वामी और माता श्रीमती सत्यवती दोनों ही भगवत प्रेम से आबद्ध थे। योगेश जी में साधना के विभिन्न आयामों के स्पर्श, भगवत प्रेम का बीजारोपण और पल्लवन में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वल्लरी पोषक तत्वों का संयोजन कर ही लेती है। आध्यात्मिक यात्रा में विभिन्न सोपानों पर इन्हें ये ‘पोषक तत्व’ विपुल मात्रा में मिलते रहे, यह भगवत कृपा ही रही है।

    आपकी शिक्षा स्थली मूलतः जयपुर ही रहा है। इण्डियन स्कूल सर्टिफिकिट (सीनियर कैमब्रिज), सैंट सेवियर स्कूल (अब सैंट सेवियर्स) से स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् विज्ञान विषय में स्नातक डूंगर कालेज बीकानेर व महाराजा‌ कालेज जयपुर से तत्पश्चात यूनिवर्सिटी कैम्पस जयपुर से वकालत की शिक्षा प्राप्त की।

    वर्ष 1976 से 1982 के दौरान जयपुर में वकालत का कार्य किया और 1982 में ही राजस्थान जुडिशियल सर्विसेज में आ गए। यह भगवत कृपा ही थी कि इस दौरान भी निष्काम आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर रहे।

    आपने शिक्षा और कर्म की इस यात्रा में महर्षि सांदीपनी राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन-मध्य प्रदेश से ‘वेद निपुण’, ज्योतिष के कृष्णमूर्ती संस्थान (बंगलौर) से ‘ज्योतिष विशारद’ की उपाधि के साथ-साथ गीता आचार्य, (लॉर्ड जगन्नाथ चेरिटेबल ट्रस्ट, जयपुर) की पदवी भी प्राप्त की।

    उस ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं है जिसे बाँटा नहीं जाए। जन-मानस में आध्यात्मिक चेतना का सतत् और सुग्राह्य प्रवाह बना रहे, वे सरल रूप में जीवन और अध्यात्म को आत्मसात कर सकें इसी उद्देश्य के साथ ‘क्योरा’ (Quora) के मंच पर लोगों से संवाद स्थापित करने का कार्य किया और आज इन लोगों की संख्या 30 लाख से अधिक है। ‘सरल धर्म’ (Saral Dharm) के नाम से यू ट्यूब चैनल स्थापित किया जिससे हजारों लोग लाभान्वित हो रहे हैं। आपके बहुत से आलेख आपकी साईट - http://www.primelements.com पर भी उपलब्ध हैं जो कि आध्यात्मिक पिपासुओं की जिज्ञासा को तृप्त करने में महती भूमिका निबाह रही है।

    भगवत की असीम कृपा है, सौभाग्य है कि वर्तमान में जयपुर में चांदपोल बाहर स्थित माधोबिहारीजी के मंदिर में महंत हैं।

    श्री स्वामी जी कृत एवं संयोजित - भगवत सत्संधान ‘आ! रस पी’ ईश्वरीय प्रेरणा है। यह सहज सरल ग्राह्य भाषा में होने के कारण सुधि पाठकों में भक्ति-भाव-स्पंदन के लिए प्रेरित करेगी।

    मैं आपके स्वस्थ और भगवत कृपा पूर्ण मंगल जीवन की शुभकामना करता हूँ ।

    वात्स्यायन शर्मा

    निदेशक, प्राचार्य

    मयूरा स्कूल (जयपुर)

    अनुक्रमणिका

    अध्याय - 1 क्या है भागवत ?

    अध्याय - 2 वेद

    अध्याय- 3 भागवत का परमतत्व : भगवान श्री कृष्ण

    अध्याय - 4 मैं कौन ?

    अध्याय - 5 माया

    अध्याय - 6 काल

    अध्याय - 7 तत्वों से संबंधित सांख्ययोग

    अध्याय - 8 प्रलय

    अध्याय - 9 अवतार

    अध्याय - 10 भागवत में वृत्रासुरादि भक्त

    अध्याय - 11ध्यान योग और ध्यान विधि

    अध्याय - 12 वर्णाश्रम धर्म

    अध्याय - 13 पुत्र प्राप्ति, भार्या प्राप्ति व समस्त कामना पूर्ति

    अध्याय - 14 लोक - परलोक : अब सदा यहाँ रहो

    अध्याय - 15 भक्ति

    अध्याय - 16 मन रे तू काहे ना धीर धरे!

    अध्याय - 17 पौराणिक भारत (1)

    अध्याय - 18 पौराणिक भारत (2)

    अध्याय - 19 सत्संग

    अध्याय - 20 भागवत में शाप और वरदान

    अध्याय - 21 पापविमोचन

    अध्याय - 22 यह प्यास कभी नहीं बुझेगी

    अध्याय - 23 प्रार्थना पुरुषार्थ प्रारब्ध और भगवत् कृपा

    अध्याय - 24 मुक्ति

    अध्याय - 25 तत्काल मुक्ति/परमात्माप्राप्ति

    अध्याय - 26 आ! रस पी

    अध्याय - 27 यूँ ही

    अध्याय - 28 सबसे सरल धर्म

    अध्याय - 29 ज़रा ठहरो

    अध्याय - 30 अन्त वचन

    अध्याय - 1

    क्या है भागवत ?

    मुझसे बड़ा कौन त्यागी

    तज हीरा माटी माँगी।

    अविनाशी हो चाहूँ सौ साल आयुष,

    है कोई ऐसा चतुर मानुष ?

    रोज़ जूते खाऊँ फिर भी बैठूँ बीच उन्हीं बंधु,

    क्या हुआ अनंत काल से पुकार रहे दीनबंधु।

    शरीर को मानूँ अपना,

    कौन है किशना ?

    ऐसे मायाबद्ध भ्रमित जीवों को जगाने के लिए है- भागवत, भवसागर से पार पाने का साधन!

    यह मेरी और उनकी प्रेम गाथा है। हमें दो चुड़ैलें मिलने नहीं दे रहीं। पहली माया है। दूसरी मुक्ति।

    मुक्ति दाँव लगा खड़ी है। जैसे ही यह माया से छूटेगा, दबोच लूँगी। मुक्ति बड़ी भूतनी है, पकड़ लेती है तो छूटा ही नहीं जा सकता, अनन्त काल तक। ऐसा दि.जगत् गुरुत्तम कृपालुजी कहा करते थे।

    इनसे बचने और भगवान को प्राप्त करने के उपाय बताने वाली दयामयी माँ है - भागवत!

    भागवत पुराण वेदों के गंभीर विषयों को सरल भाषा और गाथाओं के माध्यम से विस्तार से व्यक्त करती है। ब्रह्मा जी के मुख से मत्स्य पुराणानुसार² पहले यह प्रकट हुई हैं तत्पश्चात वेद। भागवत महापुराण सनातन धर्म के अठारह महापुराणों³ में से एक है। देवी भागवत से भिन्न बताने के लिए इसे श्रीमद्भागवत कहा जाता है। वैष्णवों को यह विशेष प्रिय है। कृष्ण-भक्तों के लिए अमृत समान है। इसमें बारह स्कंध, तीन सौ पैंतीस अध्याय और अठारह हज़ार श्लोक हैं। भक्तों पर कृपा करके श्री कृष्ण अंतर्ध्यान होकर भागवत में प्रवेश कर गए हैं; इसके सेवन, श्रवण और दर्शन मात्र से ही मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं। कलियुग का यही प्रधान धर्म बताया गया है। सबसे पहले ब्रह्म कल्प में स्वयं भगवान ने इसका ज्ञान ब्रह्मा जी को दिया। ब्रह्माजी के जीवन का प्रथम दिवस ब्रह्म कल्प कहलाता है। अभी इनके जीवन के पचास वर्ष बीत चुके हैं, इक्यावनवें वर्ष का प्रथम दिवस है। इस दिवस को श्वेत वराह कल्प कहते हैं। ब्रह्मा जी ने फिर नारद जी को इसका उपदेश दिया और आज्ञा दी कि वे इसका विस्तार करें – इसमें भगवान की विभूतियों का वर्णन है। तुम इसका विस्तार करो। इसका सेवन करने वाले माया से मोहित नहीं होता सनातन ऋषि नर-नारायण द्वारा भी श्रीमद्भागवत पुराण नारद जी को सुनाया गया था। नारद जी से यह व्यास जी के पास गया और उनसे उनके पुत्र शुकदेव जी को मिला। श्री कृष्ण के लीला समेटने के पश्चात् करीब तीस वर्ष का समय बीतने पर परमहंस शुकदेव जी ने इसे राजा परीक्षित को सुनाया और कलियुग के दो सौ वर्ष बीत जाने पर गोकर्ण जी ने यह कथा धुंधकारी को सुनाई जिससे उसका प्रेतयोनि से छुटकारा ही नहीं हुआ अपितु वैकुंठ प्राप्ति भी हुई।

    इस ग्रंथ में भागवत धर्म का निरूपण है। भागवत का ज्ञान श्रीकृष्ण ने लीला समेटने से पूर्व उद्धव जी को भी दिया था। मैत्रेय जी ने वह भागवत, जो सङ्कर्षण भगवान ने पाताल में सनकादिक ऋषियों को सुनाया था, विदुर जी को सुनाया। इस ग्रंथ में भगवान के जन्मरहस्य को समझाया गया है कि सर्वशक्तिमान माँ के पेट से बालक की तरह जन्म नहीं लेते अपितु उनका जन्म दिव्य होता है और लीला पश्चात् धरती पर शरीर छोड़ कर नहीं, सशरीर, अपने धाम जाते हैं। चरित्र रहस्य में दिखाया गया है कि भगवान ने गोपियों के साथ इस प्रकार विहार किया जैसे कि एक छोटा शिशु अपनी परछाई से खेले। भगवान बछड़े बन गए, बहुत सारे बछड़ों के रूप में, और, किसी को, यहाँ तक कि बलराम जी तक को भनक नहीं पड़ी। कंस के अखाड़े में गए तो भिन्न-भिन्न लोगों को उनकी अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार पृथक-पृथक रूप के दिखाई दिए। किसी को बालक, किसी को प्रियतम, किसी को भगवान, किसी को सखा और कंस जैसों को साक्षात मौत अर्थात् काल के रूप में दिखे। इसमें भगवान के प्रभाव का रहस्य भी बताया गया है - दिव्य, चिन्मय, अप्राकृत, साक्षी, सबके अंतःकरण में रहनेवाले, अनंत आदि। प्रभु के वचन रहस्यों को भी खोल कर रख दिया गया है। रहस्य यह कि सब कुछ छोड़ कर भगवान की शरण ग्रहण की जाए जिससे सदा के लिए जीव निर्भय हो जाए। श्रीमद्भागवत (देवी भागवत से पृथक) में श्रीकृष्ण ने उद्धव को कुछ वही बातें बताई हैं जो अर्जुन को गीता में, विशेषकर सब धर्मों को छोड़कर भगवान की शरण ग्रहण करने के संबंध में।

    अन्य पुराणों की भाँति इसमें भी सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मनु, अवतार, निरोध, भक्ति और शरणागति की चर्चा है। कलि युग में बहुत से अवगुण होने के साथ साथ उसके गुणों का रहस्योद्घाटन भी किया है कि इस युग में केवल संकीर्तन से ही मुक्ति हो जाती है। कलियुग में पाप कर्म करने पर ही पाप माना जाता है संकल्प से नहीं और अच्छा कर्म संकल्प मात्र से ही मान लिया जाता है तथा पापी भी अगर भक्ति करे तो कृष्ण-धाम की प्राप्ति हो जाती है। यह नारद जी कह रहे हैं।

    भागवत महापुराण को पद्मपुराण में ब्रह्मसूत्र का भाष्य घोषित गया है और गरुड़ पुराण इसे वेदांत का सार कहता है। मत्स्य पुराण वेद समान बताता है। श्रीमद्भागवत अपने संबंध में बताती है कि भागवत समस्त उपनिषदों का सार है। जैसे नदियों में गंगा, देवताओं में विष्णु, वैष्णवों में शंकर जी तथा क्षेत्रों में काशी सर्वश्रेष्ठ है, उसी प्रकार पुराणों में श्रीमद्भागवत का स्थान सबसे ऊँचा है। कर्मों की आत्यंतिक निवृत्ति भी ज्ञान वैराग्य एवं भक्ति से युक्त है। इसे पढ़ने से सुनने से और अच्छी तरह मनन करने से भगवान की भक्ति प्राप्त होती है।

    इस पुराण को लिखने का कारण है कि व्यासजी को समस्त पुराणों को लिखने के पश्चात व वेदों का विभाजन करने पर भी संतोष नहीं मिला। नारदजी ने इसका रहस्य बताया कि व्यासजी ने भगवत-लीला के संबंध में प्राय: कम ही लिखा है। नारद जी ने अपनी राय बताई कि उनकी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते है वह शास्त्रीय ज्ञान अधूरा है, जिस वाणी से प्रभु का यशगान नहीं किया जाए, वह अपवित्र है। भगवान की लीलाओं का गान करने के लिए तथा स्त्री, शूद्र, पतित द्विज जाति (जिन्हें पूर्व में वेद पढ़ने का अधिकार था,⁴ कालांतर में यह छीन लिया गया था) को वेदों का ज्ञान देने के लिए भागवत की रचना की गई, व्यास जी द्वारा। इसमें पाद्मकल्प की घटनाओं का वर्णन है। विद्वान जैसे कि स्वामी श्रीधर, श्री जीव गोस्वामी तथा श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती के मतानुसार वराह कल्प,जो वर्तमानकल्प है और पाद्म कल्प में कोई विरोधाभास नहीं है, दोनों एक ही कल्प के दो नाम है। परंतु, मूल भागवत कहती है कि ब्रह्मा जी के प्रथम परार्द्ध का अंतिम कल्प पाद्मकल्प कहलाता है। वर्तमान में ब्रह्मा जी के दूसरे परार्ध का आरंभिक कल्प चल रहा है, इसे वाराहकल्प कहते हैं और इसमें भगवान ने शूकर रूप धारण किया था। हमारे लिए मूल भागवत को मानना ही उचित रहेगा।

    जिस प्रकार भारत के संविधान की प्रस्तावना (preamble) में पूरे संविधान का प्रयोजन बताया गया है और मूलभूत ढाँचा दर्शाया गया है, इसी प्रकार भागवत के मंगलाचरण में यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि भागवत में चारों कैतव – अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष – के अलावा धर्म का निरूपण किया गया है अर्थात् विशुद्ध भक्ति, जिसमें मोक्ष पर्यंत तक की कामना ना हो। इसीलिए जगतगुरुत्तम श्री कृपालु जी कहते हैं कि जहाँ गीता का दर्शन समाप्त होता है वहाँ से ही भागवत आरंभ होती है। गीता के अंत में श्री कृष्ण पापों से मुक्त करने की बात करते हैं और भागवत मुक्ति को भी ठोकर लगाती है। यदि चारों पुरुषार्थों में से कोई भगवत-प्रेम में बाधा हो तो भगवान उसे छीन लेते हैं। परंतु साथ ही भक्ति करने वाले का, स्वयं पर आश्रित होने वाले का, भरण-पोषण भी भगवान करते हैं, गीता में भी कृष्ण ऐसा ही कहते हैं। भागवत के भगवान सर्वशक्तिमान हैं, स्वयं प्रकाश हैं, माया और माया के कार्य से मुक्त हैं, तीनों तापों - दैहिक दैविक भौतिक का नाश करने वाले हैं, चेतन हैं और भागवत सुनने वालों के हृदय में आकर बैठ जाते हैं। विशेष महत्व भक्ति को दिया गया है। परंतु ज्ञान, कर्म योग, ध्यान योग, क्रियायोग, अष्टांगयोग का भी वर्णन मिलता है। वर्णाश्रम-धर्म, स्त्री-धर्म, संन्यास-धर्म और मानव-धर्म को भी स्थान दिया गया है। भगवान के विभिन्न अवतारों की चर्चा है। भागवत से हमारा अभिप्राय श्रीमद्भागवत से है। पौराणिक समय में तकनीक, विज्ञान, धर्म और सामाजिक व्यवस्था कैसी थी इसका भी जगह-जगह भागवत में वर्णन मिलता है। पृथ्वी का भूगोल बताया गया है, स्वर्ग आदि उच्च लोकों व नर्क आदि नीच लोकों के संबंध में भी जानकारी दी गई है।

    भागवत के दस लक्षण बताए जाते हैं। प्रथम, ‘सर्ग’। भगवान के संकल्प से सृष्टि का कार्य आरंभ होता है और महतत्त्व आदि बनते हैं, इसे ‘सर्ग’ कहते हैं। ब्रह्मा जी जो सृष्टि का कार्य करते हैं उसे ‘विसर्ग’ कहते हैं। इस सृष्टि को स्थिर रखने को ‘स्थान’ कहते हैं। पोषण का वर्णन छठे स्कन्ध में किया गया है, जिसका अर्थ है ‘भक्तों पर भगवान की कृपा’। ‘मन्वंतर’ प्रजापालन करने वाले अधिपतियों को कहा गया है। भक्तों को बंधन में डालने वाली वासनाओं का वर्णन भी है जिसे ‘ऊति’ कहते हैं। भगवान के अवतारों की कथा को ‘ईश कथा’ कहते हैं। जीव का भगवान में लीन हो जाना ‘निरोध’ कहा गया है। अपने स्वरुप में स्थित होने को ‘मुक्ति’। और भगवान को सब का ‘आश्रय’ बताया गया है। भगवान से ही जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय है।

    वास्तव में देखा जाए तो भागवत कुछ भी नहीं है – तेरी मेरी कहानी है अर्थात् जीव और ब्रह्म का संबंध समझानेवाला ज्ञान है। इन दोनों के बीच में पर्दा डालनेवाली माया की भी कहानी है। पुरंजन आख्यान में तो हर बात साफ कर दी गई है। कुछ ईसाई हर नकारात्मक पहलू को शैतान के सिर मंड देते हैं (बाइबिल में, जो चालीस पृथक-पृथक व्यक्तियों द्वारा लिखित पंद्रह सौ वर्षों का इतिहास सड़सठ पुस्तकों में बताती है, कई स्थानों पर शैतान का वर्णन है। यह लोगों को ईश्वर से दूर करता है।) ऐसे ही कुछ हिंदू भी माया को सब दुखों के लिये दोष देते हैं। परंतु माया खलनायिका नहीं है, यह भगवान की अपरा शक्ति है, हमारी मित्र है, प्रतिपल हमें दुख देकर समझाती है, ‘संसार में सुख नहीं है, सुख के लिए भगवान की ओर जाओ।’

    इसमें यों तो मोक्ष प्राप्ति के तीनों मार्गों का निरूपण है, परन्तु विशेष महत्त्व भक्ति को दिया गया है। यदि भक्ति आ जाए तो ज्ञान और वैराग्य जो उसके पुत्र हैं, स्वयं आ जाते हैं। अन्य सभी पुराणों में ऐसा नहीं है। उदाहरणत: देवी भागवत में, जो सारस्वत कल्प की है, स्वयं देवी कहती हैं हिमालय को भक्ति की जो पराकाष्ठा है, उसी को ज्ञान कहते हैं। वैराग्य की भी चरम सीमा ज्ञान ही है; क्योंकि, ज्ञान हो जाने पर भक्ति और वैराग्य दोनों स्वयं सिद्ध हो जाते हैं … ज्ञान प्राप्त करने का भली-भाँति प्रयत्न करना चाहिए। देवी यह भी बताती हैं कि भक्ति करने पर किसी को यदि ज्ञान प्राप्त ना हुआ हो और वह मर जाए तो वह मणिद्वीप (देवी का लोक) में जाता है। वहाँ पर भोगों में आसक्त नहीं होता,अंत में देवी के रूप का सम्यक ज्ञान प्राप्त करके वहीं मुक्त हो जाता है और, जिस भक्त में वैराग्य तो उत्पन्न हो गया है परंतु, ज्ञान का पूर्ण उदय नहीं हुआ है, वह मृत्यु पश्चात ब्रह्मा के लोक में पूरे एक कल्प तक रहता है तत्पश्चात श्रीमानों के घर में जन्म लेता है (योगभ्रष्ट के लिए भी श्री कृष्ण जी ने गीता में ऐसा ही कुछ कहा है), वहाँ पर पुनः साधना करता है और ज्ञान प्राप्त करके सदा के लिए मुक्त हो जाता है।

    भागवत का सार यही है कि हम अपनी जीवनशैली को ऐसा बनालें कि अंत समय में भगवान की स्मृति बनी रहे! भगवान को याद करते हुए शरीर त्यागने पर भगवान की प्राप्ति होती है, ऐसा भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है।

    भागवत क्यों पढ़ें ?

    यह दिखलाती है कि संसार में प्रत्येक मनुष्य सुख की खोज में है। पर सुख अनंत काल से असंख्य जन्मों में मिला नहीं। खोज सही स्थान पर नहीं की। संसार में की जहाँ आनंद है ही नहीं। खारे समुद्र में गंगाजल ढूँढ रहे हैं! यह रहस्य खोलती है कि सुख भगवान में ही है और कैसे मिल सकता है। विषय सुख की कामना से महान दुःख मोल लेने वाले लोगों की दुःख निवृत्ति का साधन है भागवत।

    इसे पढ़ने में लाभ ही लाभ हैं। गोकर्ण द्वारा भागवत उनके मृतक भाई धुंधुकारी के प्रेत को सुनाई गई और उसकी प्रेतयोनि छूट गई। यह प्रेतयोनि गया जी में श्राद्ध आदि कर्मकांड करने पर भी नहीं छूटी थी। इसे सुनकर, धुंधुकारी की ही तरह स्थिर चित् से खूब मनन और निदिध्यासन करने पर पूरा गाँव का गाँव - कुत्ते, चाण्डाल पर्यंत सभी के सभी विमान में बैठ कर योगीदुर्लभ गोलोक धाम गया। पूरे गाँव को व गोकर्ण जी को लेने के लिए स्वयं भगवान श्री कृष्ण विमान पर आए। सर्पदंश से मृत्यु होने से,आम धारणा है, सद्गति नहीं होती; परन्तु भागवत के प्रताप से परीक्षित वैकुण्ठ गए। इसे सुनने से समस्त कामनाएँ पूर्ण होती हैं। कामनाएँ दो ही हैं। एक कृष्ण की दूसरे धन की। कृष्ण के अलावा जो भी कामना है, उसे धन की कामना कहते हैं। जब सुनने वाला और सुनाने वाला एक ही प्रकार की कामना रखता हो तो सुनने-सुनाने में रस आता है। अन्यथा रस में कमी रहती है। जो धन की इच्छा रखता हो उसे तो भागवत विधि-विधान से सुननी चाहिए। विधि-विधान में त्रुटि होने पर धन की प्राप्ति नहीं होती। कृष्ण की कामना वाले बिना विधि-विधान के भागवत सुन सकते हैं। भागवत सुनना चार प्रकार का होता है - सात्विक, राजसिक, तामसिक और निर्गुण। एक या दो महीने में धीरे-धीरे आनंद और रस लेते हुए बिना परिश्रम के जो सेवन होता है, वह आनंद को बढ़ाने वाला है, इसे सात्विक कहते हैं। राजस् वह है जिसमें बहुत ज्यादा तैयारी की गई हो, बहुत-सी पूजा सामग्रियाँ इकट्ठी की गई हों, सम्पन्नता दिखाई गई हो और जो बड़े ही परिश्रम और बहुत उतावली के साथ सात दिनों में ही समाप्त कर दी जाए। भागवत का तामस सेवन वह है जो कभी भूल से छोड़ दिया जाए, स्मरण आने पर फिर कर लिया जाए। इस प्रकार एक वर्ष तक आलस्य और बिना श्रद्धा के साथ चलाया जाए। निर्गुण सेवन सदा ही किया जाता है। इसमें भक्ति की प्रधानता होती है और भगवान के प्रेम के कारण सुना जाता है। भागवत का सेवन चाहे जैसा हो अच्छा ही है। तामस सेवन भी ना करने से तो अच्छा ही है। भागवत का हर प्रकार का सेवन मंगलमय है। श्रीमद् भागवत को सुनने और सुनाने से भगवत धाम की प्राप्ति होती है। यह हर प्रकार के भौतिक सुख भी प्रदान करती है। यज्ञ आदि कर्मकांड से मिलने वाली सिद्धि दुर्लभ हो गई हैं। वह भी सुखपूर्वक भागवत कथा श्रवण से मिल सकती है। जो सकाम भाव से भागवत का सेवन करते हैं वे मनुष्य इस संसार में सारे भोगों को भोग कर अंत में भागवत के संग से ही भगवान के परम धाम को प्राप्त हो जाते हैं।

    अठाईस वें द्वापर में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अवतार लिया और अपनी माया का पर्दा हटा कर भक्तों को अपना प्रकाश दिया। उनके जाने के बाद कृष्ण तत्व का प्रकाश देने के लिए हमारे पास क्या है ? भागवत है! यही भागवत की सबसे बड़ी महिमा है – इसका माहात्म्य पदमपुराण में वर्णित है तथा भागवत के प्रथम स्कन्द के पूर्व और बारहवें के पश्चात है। कृष्ण भागवत में समाए हुए हैं, सो भागवत से भक्त कहते हैं :

    तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी!

    इसे सुनने के अधिकारी कौन-कौन नहीं है ? जो भगवान का भक्त ना हो, जो इसे सुनने का जिज्ञासु ना हो और जो भगवान में विश्वास नहीं रखता हो उसे यह वेद फलरूपी भागवत नहीं सुनानी चाहिए। सनातन धर्म का सिद्धांत - प्यासा कुएँ के पास आता है कुआँ प्यासे के पास नहीं जाता। जबकि अन्य धर्म हर प्रयास से अपने अनुयायी बढ़ाने में लिप्त हैं।

    सबसे बड़ी बात है, यह धरती पर ही उपलब्ध है अन्य लोकों में नहीं।

    अभिमन्यु-पुत्र परीक्षित की उत्तरा के गर्भ में कृष्ण ने रक्षा की, आगे ये चक्रवती सम्राट बने, बड़े-बड़े यज्ञ किए और कलि का दमन भी किया। एक बार शिकार पर थे, भूखे-प्यासे एक आश्रम में चले गए। वहाँ शमीक मुनि को आसन पर ध्यान में बैठे देखा। किसी ने इनका आदर-सत्कार नहीं किया, क्रोध में राजा ने एक मरा हुआ साँप मुनि के गले में डाल दिया। इनके पुत्र श्रृंगी को जब पता चला तो उन्होंने राजा को शाप दिया कि राजा को सातवें दिन तक्षक डसे। मुनि को पता लगने पर मुनि ने राजा को सूचना भिजवा दी और बेटे को धिक्कारा कि उसने छोटे अपराध की बड़ी सज़ा दी है तथा राजा न रहने पर संसार में अराजकता हो जाती है।

    सूचना पाकर परीक्षित गंगातट पर आमरण अनशन-व्रत लेकर बैठ गए। विचरते हुए शुकदेव परमहंस वहाँ पहुँचे और राजा के अनुरोध पर कि मरणासन व्यक्ति को क्या करना चाहिए, उन्हें भागवत सुनाई जिसका सार है कि संसार से विमुख हो भगवान के सम्मुख होना। राजा खटवांग ने दो घड़ी में भगवत-प्राप्ति की थी; परीक्षित के पास तो सात दिवस थे। (हम और आप के पास इतना सा समय भी है क्या ? कोई जानता है क्या ?)

    भागवत में भगवान को प्राप्त करने के, आवागमन से छूटने के मार्ग बताये हैं, कलियुग के अल्पायु अल्पबुद्धि मनुष्यों के लिये।

    इसमें एक ही सत्य को बार-बार, हजार बार नहीं तो सैकड़ों बार तो दोहराया गया है- हमसब आनंद की खोज में है ! असंख्य जन्मों के पश्चात व अनंतकाल बीतने पर भी यह आनंद हमको को नहीं मिला है, प्राप्त नहीं हुआ है। इसका कारण है कि हमने आनंद की खोज गलत स्थान पर की है। अभी भी संसार में हम आनंद को खोज रहे हैं। यह संसार में नहीं है। संसार से हमारा अभिप्राय है धरती से लगाकर ब्रह्मा के लोक तक तथा एक छोटे से तिनके से लगाकर ब्रह्मा तक। आनंद केवल भगवान में ही है, हम भगवान के स्वरूप या अंश होने के कारण अपने अंशी आनन्द, भगवान, को ही ढूँढ रहे हैं। यह आनंद हमें भगवान के सम्मुख होने पर और संसार से विमुख होने पर ही प्राप्त हो सकता है। आनंद प्राप्ति का मार्ग भागवत हमें बता रही है। भगवान साधनसाध्य नहीं है बल्कि कृपासाध्य हैं और भगवान कृपा उसी पर करते हैं जिसको उनके लिए उत्कट इच्छा होती है और जो उनके बिना रह नहीं सकता। प्राकृत नेत्रों से दिखाई नहीं देते बल्कि भगवान कृपा करके जब दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं तब भगवान दिखते हैं। यह सिद्धांत मुण्डक और श्ववेताश्वतर उपनिषद बता रहे हैं। ⁵ भागवत का अध्ययन करते हैं हुए हम देखेंगे कि यही सिद्धांत कई बार भागवत भी हमें बता रही है और उनकी शरण ग्रहण करने को कह रही है,क्योंकि भागवत वेदों का निचोड़ है।

    अनेक पुराण क्यों ?

    वेदव्यास जी ने विभिन्न देवताओं के नाम से विभिन्न पुराणों की रचना की है,इसका अभिप्राय यही प्रतीत होता है कि संसार में अनेक प्रकार के उपासक हैं। कोई देवी का उपासक है, कोई शंकर का, कोई विष्णु का, कोई गणेश का, कोई सूर्य का, कोई कार्तिकेय का इत्यादि। इन सभी भक्तों को शीघ्र परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति करवाने के आशय से व्यास जी ने एक एक देवता को प्रधानता देकर उन उन देवताओं के नाम से पुराणों की रचना की। उनमें सभी उपासकों को एक परब्रह्म परमात्मा की ओर ही आकृष्ट किया गया है।

    गीता प्रेस, गोरखपुर के गोयंदका साहब, समझाते हैं कि शिव पुराण में शिव जी को ही ब्रह्मा विष्णु महेश की उत्पत्ति का कारण बताया है एवं सृष्टि उत्पत्ति पालन और संहार शक्ति प्रदान करने वाले भगवान सदाशिव ही हैं। इस तरह विष्णु पुराण में बताया गया है कि श्री विष्णु ही सृष्टि की उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले हैं एवं श्री देवी भागवत में देवी को परम शक्ति बतला कर ब्रह्मा विष्णु महेश का देवी से ही आविर्भाव और तिरोभाव बताया गया है।

    इस तरह शिव पुराण में शिव को, विष्णु पुराण में विष्णु को और देवी भागवत में देवी को पूर्णब्रह्म बताया गया है। ऐसा ही हमें सूर्य, गणेश आदि पुराणों के संबंध में समझना चाहिए। भाव इतना ही है कि शिव के उपासक को यह कहा गया है कि शिव ही सबसे बढ़कर हैं उन से बढ़कर कोई नहीं। शिव ही ब्रह्मा विष्णु और महेश के रूप में प्रकट होकर सृष्टि की उत्पत्ति पालन और संहार करते हैं। वही साक्षात पूर्ण परमात्मा हैं। वही सर्व आधार और सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिए शिव के उपासक को शिव से बढ़कर किसी भी देवता को नहीं मानना चाहिए। इसी प्रकार विष्णु के उपासकों के लिए कहा गया है कि विष्णु सबसे बड़े हैं उन से बढ़कर अन्य कोई नहीं। पूर्णब्रह्म श्री विष्णु ही ब्रह्मा विष्णु महेश के रूप में संसार का उत्पादन पालन और संहार करते हैं। व्यास जी का इतना ही तात्पर्य है कि शैव, वैष्णव और शाक्त आदि सभी उपासक अपने अपने इष्ट देव को सबसे बड़ा माने और अपने इष्टदेव में एक निष्ठा रखें और उन्हीं की अनन्य भाव से उपासना करें।

    कोई ऐसा मतलब बिल्कुल ना निकाले की भगवान एक नहीं अनेक है। भगवान तो एक ही हैं उनके अलग-अलग रूप नाम हैं। जिसे जो पसंद हो उसकी उपासना अनन्य रूप से करे।

    सकाम भक्ति का भी कई स्थानों पर (गज, ध्रवादि, पयोव्रत व पुंसवन व्रत कथाएँ) वर्णन है। परंतु सकाम भक्ति भी केवल भगवान की ही बताई गई है अन्य देवता, यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत, मनुष्य आदि की नहीं। और, यह भी इसलिए कि किसी तरह मन भगवान में लग जाए। यदि मन भगवान में लगेगा,चाहें कामना से ही हो, तो भगवान की ही प्राप्ति होगी।

    भागवत भगवान का धर्म समझाती है। भगवान की कथा सुनने से मन भगवान में जाता है, हम मन की आँखों से लीला देखते हैं और यह कई सन्तों के अनुसार भागवत प्राप्ति का सरलतम साधन है।

    भागवत में बहुत-सी कथाओं के पश्चात लिखा है कि इसे पढ़ने-सुनने-सुनाने से अमुक लाभ मिलता है। कोई कहता है, हमने ऐसा किया कोई लाभ नहीं हुआ! उत्तर भागवत माहात्म्य⁶ में ही है। सारे गाँव ने कथा सुनी। विमान तो धुंधीकारी को ही लेने आया। कारण इसने सुनने के साथ साथ खूब मनन-चिंतन और निदिध्यासन भी किया। जब सबने अगली बार यह किया तो पूरा गाँव ही विमानों में बैठ कृष्णधाम गया।

    पूरी लगन श्रद्धा रखें वर्णित,फल मिलेगा, स्मरण रहे भागवत में कृष्ण बैठे हैं!

    ग्रंथ की रचना वेदव्यास जी ने वेदों का मंथन करके की है ताकि कलियुग के हम जैसे अल्पबुद्धि प्राणी अल्पायु रहते हुए इसे समझ सकें। वेदों का मंथन और आयुर्वेद की दवाई बनाना एक समान-सा है। दवाई में जड़ी-बूटी को सुखाया जाता है, कूटा जाता है, जलाकर भस्म किया जाता है, उसका रस निकाला जाता है और ज़मीन में गाड़ के उसको सड़ाया भी जाता है और इस तरह की और भी अन्य क्रियाएँ की जाती है; तब जाकर आसव भस्म, रस आदि औषधियाँ तैयार होती हैं। ऐसी मेहनत व्यास जी ने वेदों के साथ की, तब एक भागवत रूपी गुटिका बनी है, इसे न चबाना है न निगलना, मुँह में रखते ही पिघल कर मन-बुद्धि को बसमें कर लेती है। यह मीठी औषधि है, सुनने में मिठास और फल भी मीठा - भवबंधन नाशक।

    सो एक दृष्टि वेदों पर भी डालने की आवश्यकता है। अस्तु आगे एक छोटा सा अध्याय वेदों पर।

    आध्येता निम्न सूत्र देखें-

    भागवत 1/1/3

    भागवत 1/18/7, 2/1/6,, 2/8/28,2/10/47, 2/7/51-53, 12/4/41, 2/9/44, 3/4/13,3/8/21, 10/3/8- 9, 11/31/6, 10/33/17, 11/12/14-15, 12/13/17-18, 2/1/6, 12/7/22-24

    भागवत 2/10/47

    भागवत 2 /1/1/3

    --- इतिश्री अध्याय-1 क्या है भागवत ? ---

    2 भागवत 1/1/3

    3 18 पुराण:-ब्रह्मपुराण, पदम पुराण, विष्णु पुराण, शिव पुराण, लिंग पुराण. गरुड़ पुराण, नारद पुराण भागवत पुराण, अग्नि पुराण, स्कंद पुराण, भविष्य पुराण ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कंडेय पुराण, वामन पुराण वराह पुराण मत्स्य पुराण कूर्म पुराण और ब्रह्मांड पुराण ।

    4 यजुर्वेद 26/2,

    5 श्वेतशवतर उपनिषद 4/20, मुण्डक उपनिषद 3/2/3

    6 भागवत माहात्म्य 6/94-95, 2/15, माहात्म्य ( उत्तर) 3/10-11, 4/24-44

    अध्याय - 2

    वेद

    भागवत वेदों का सार है इसलिए यह जानना आवश्यक हैं कि वेद क्या हैं ?

    वेद भगवान का नि:श्वास हैं। यह मनुष्य द्वारा रचित नहीं हैं, इसलिए अपौरुषेय कहलाते हैं। वेद ईश्वर रूप हैं इसलिए किसी भी काल में उनका नाश नहीं होता। प्रलय (Dissolution of the World) के समय इनका तिरोभाव ही होता है, अन्त नहीं। सर्ग के आरंभ में प्रलय में तिरोधान हुए वेदों को भगवान महाविष्णु प्रकट करते हैं, सर्वप्रथम ब्रह्माजी को और ब्रह्माजी के द्वारा ऋषियों को पुनः प्राप्त होते हैं।

    ये ‘श्रुति’ कहलाते हैं। गहन ध्यान की अवस्था में व समाधी अवस्था में ही ये ऋषियों को प्राप्त होते हैं, ये मंत्र-दृष्टा ऋषि कहलाते हैं। वेदों में भगवान का ज्ञान है, अलौकिक। वेद भी अनादि हैं, भगवान, जीव और माया की तरह। हर बार प्रलय के समय लुप्त हो जाते हैं और सर्ग के समय पूर्वोक्तानुसार प्रकट होते हैं, जैसे कि पूर्वसर्ग में थे। इस प्रकार नित्य हैं। वेदों की ज्ञानराशि परमात्मा में सूक्ष्म रुप से पूर्व में भी विद्यमान थी, अब भी है और आगे भी रहेगी। इन्हें श्रुति कहा गया है क्योंकि वेद गुरुद्वारा शिष्य को, शिष्य द्वारा फिर अपने शिष्य को पाठ करके सुनाया जाता था। इसलिए, यह ज्ञान गुरु-शिष्य परंपरा से हमारे पास तक पहुँचा। पूर्व में इन्हें लिपिबद्ध नहीं किया जाता था अपितु बोलकर ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलते थे।

    वेद के पाठ करने के आठ प्रकार महर्षियों ने बताए हैं - जटा, माला, शिखा, रेखा, ध्वज, दंड, रथ और घन। इन्हें विकृतियाँ भी कहा गया है। करीबन तीन हज़ार वर्ष ईसा पूर्व वेदव्यासजी ने यह मानते हुए कि कलियुग में मनुष्य अल्पचेती और अल्पवयी होंगे, इन्हें चार भागों में विभाजित किया।

    वेदों की इस प्रकार चार शाखाएँ हुईं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद।

    ऋग्वेद की परंपरा ऋषि पैल से आरंभ हुई। ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ बताई जाती हैं जिनमें से उपलब्ध हैं शाकाल और शंकायन का ब्राह्मण और आरण्यक भाग। इसके मंत्र वैदिक समय के देवताओं की प्रशंसा में है और यज्ञ (Yajna) में काम आते हैं। अग्नि और सूर्य ऋग्वेद के मुख्य देवता हैं। पहला मंत्र ही अग्नि (Fire-God) को समर्पित है। दूसरे देवता वरुण, रूद्र, मारुत और शिव हैं। इनमें से रूद्र और विष्णु के अलावा बाकि सब देवता स्वर्गलोक के देवता हैं। कुछ किस्से-कहानियाँ भी इनमें हैं, जैसे भगवान वामन की, राजा माँ धाता की, ऋषि दधीच आदि की। इसका ‘पुरुष-सूक्त’ परमब्रह्म के सम्बन्ध में बतलाता है। इसका ज्ञाता ऋत्विक (यज्ञ करने वाला विशेषज्ञ) कहलाता है। यह यज्ञ-सामग्री ग्रहण करने के लिए इंद्र, विष्णु, वरुण आदि देवताओं को बुलाता है।

    यजुर्वेद (जिसका अध्ययन वेदव्यास ने वैशम्पायन को सर्वप्रथम कराया) की एक सौ नौ शाखाओं में से केवल सात ही मिल पाती हैं। इसमें यज्ञ संबंधी सामग्री-विचार मुख्य है। असध्वर्यु, ऋत्विक (जो यज्ञ

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