Sanskrit Vangmay Mein Manav Vyaktitva
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डॉ देवेन्द्र कुमार का जन्म ग्राम चॉदगढ़ी जिला अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) के एक किसान लोधी परिवार में 9 नवंबर सन् 1979 में हुआ। आपने गांव में ही स्थित आर्य शिशु विद्यालय चॉदगढ़ी से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। आपने दसवीं एवं 12वीं की शिक्षा जनकल्याण इण्टर कॉलेज दतावली, अलीगढ़ से उत्तीर्ण की तथा स्नातक की शिक्षा डॉ भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा से सम्बद्ध कोठीवाल आढतिया महाविद्यालय कासगंज (एटा) से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा साथ ही संस्कृत विषय में सर्वोच्च अंक प्राप्त होने से "आचार्य वेदव्रत शास्त्री" रजत पदक से सम्मानित किया गया। तदुपरान्त स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण करने के लिए अपने गृह जनपद अलीगढ़ के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान धर्म समाज कॉलेज अलीगढ़ में अध्ययन करते हुए प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण कर स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। आपने यू.जी.सी. द्वारा आयोजित परीक्षा नेट(संस्कृत) उत्तीर्ण की । आपको डॉ भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा से ही वर्ष 2009 में संस्कृत विषय में पी-एच.डी. की उपाधि से सम्मानित किया गया। वर्तमान समय में आप उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग इलाहाबाद द्वारा चयनित होकर 12 वर्षों से निरन्तर रायबरेली के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान कमला नेहरू स्नातकोत्तर महाविद्यालय तेजगांव, रायबरेली में विभागाध्यक्ष (संस्कृत विभाग) के पद पर आसीन होते हुए स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर की कक्षाओं में अध्यापन कार्य कर तत्पश्चात् जनपद अलीगढ़ के प्रतिष्ठित महाविद्यालय "श्री वार्ष्णेय महाविद्यालय अलीगढ़" में एकल स्थानान्तरण प्रक्रिया के माध्यम से स्थानान्तरित होकर अध्यक्ष (संस्कृत विभाग) के पद पर आसीन रहते हुए अद्यतन स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर की कक्षाओं में अध्यापन कार्य कर रहे हैं। लेखन एवं गायन में रुचि होने के कारण आपके अनेकों संस्कृत/हिंदी गीत यूट्यूब (Chandan Sanskrit Prawah) के माध्यम से निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। आपके अनेकों शोध पत्र राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित हैं।
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Sanskrit Vangmay Mein Manav Vyaktitva - Dr. Devendra Kumar
व्यक्तित्व
इस संसार में जितने भी मनुष्य है, उन सबका अपना अलग-अलग व्यक्तित्व है और वही उनका व्यक्तित्व उनकी पहचान है। कोटि-कोटि मनुष्यों की भीड़ में भी वह अपने निराले व्यक्तित्व के कारण पहचान लिया जाता है। यही उसकी विशेषता है। यही उसका व्यक्तित्व है। प्रकृति का यह नियम है कि एक मनुष्य की आकृति दूसरे व्यक्ति से भिन्न होती है तथा उसका स्वभाव संस्कार एवं उसकी प्रवृत्ति में भी असमानता होती है। यह असमानता ही प्रकृति का सौन्दर्य है। प्रकृति हर पल स्वयं को सजाती और सवारती है। प्रकृति के हर पल होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों को हमारी दृष्टि देख नहीं सकती है।
व्यक्तित्व व्यक्ति का वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण है जिससे निम्नता से उच्चता के शिखर पर पहुँच जाता है। यदि व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावी होता है तो लोग उसका आदर-सम्मान करते हैं प्रभावी व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति सर्वत्र यश-कीर्ति का भागी होता है। सफल व्यक्तित्व निर्माण की प्रथम सीढ़ी उसके घर परिवार, समाज आदि से मिले संस्कार होते हैं। यही संस्कार उसके व्यक्तित्व का आधार होते हैं किन्तु इनके अतरिक्त व्यक्ति चाहे तो स्वयं एक सफल व्यक्तित्व निर्माण का कारण हो सकता है। उसके लिए उसे कुछ ऐसा करना होगा जिससे वह संसार में भौतिक उन्नति करते हुए आध्यात्मिक मार्ग का अनुगामी होकर अपने जीवन के मुख्य उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त कर सके। सफल और संस्कारमयी व्यक्तित्व के लिए व्यक्ति को निज आत्मविश्वास जगाना होगा। आलस्य से बचना, जिज्ञासा की भूख, विनम्रता, त्याग,कठिनाइयों से न भागना, बुरे विचारों से बचना, प्रिय बोलना, लीक से हटकर चलना, परोपकर, दया, चारित्रिक पवित्रता, सम्मान देना, तथा वर्तमान में जीना आदि गुणों का विकास करना होगा। उक्त इन सभी गुणों के कारण ही व्यक्ति की एक अलग पहचान होती है और इन्हीं गुणों के कारण परिवार हो या समाज, देश हो या विदेश, नौकरी हो उद्योग, प्रशासन हो या राजनैतिक तन्त्र, अर्थात् वह सर्वत्र सम्मान और यश का भागी होगा तथा इन्हीं गुणों के द्वारा वह सफल जीवन व्यतीत करते हुए परमोद्देश्य को प्राप्त कर सकेगा।
अतः व्यक्तित्व निर्माण के प्रति हरपल सजग रहने की आवश्यकता है लेकिन मन में प्रश्न उठता है कि हम जिस व्यक्तित्व की बात कर रहे हैं वह क्या है? अर्थात् व्यक्तित्व किसे कहते हैं? व्यक्तित्व का क्या अर्थ है? उन सभी उक्त प्रश्नों के उत्तर में व्यक्तित्व का सामान्य अर्थ व्यक्ति के बाहय रूप से लिया जाता है, परन्तु मनोविज्ञान में व्यक्तिव्त का अर्थ व्यक्ति के रूप, गुणों की समष्टि से है, अर्थात् व्यक्ति के बाह्य आवरण के गुण और आन्तरिक तत्व दोनों को माना जाता है।
परसोना (PERSONA)
परसोना एक लैटिन शब्द है इसका अर्थ मुखोटा या नकाब (Mask) से होता है, जिसके नायक नाटक में भिन्न-भिन्न भूमिकाओं को करने के लिये प्रयोग में लाता है।
परसोना
से आशय व्यक्ति के उस रूप या भूमिकाओं से होता है। जो उसके वास्तविक रूप या भूमिका से बिल्कुल भिन्न होता है। इसका महत्व इसलिये है कि व्यक्ति को अपने दिन प्रतिदिन की जिन्दगी में विभिन्न तरह की भूमिकाएँ करनी पड़ती हैं उसके सफलता प्राप्त करने के लिये यह आवश्यक है।
यद्यपि परसोना
एक उपयोगी प्रत्यय है फिर भी इसके कुछ हानिकारक प्रभाव है जैसे कोई व्यक्ति यह समझने की भूल कर सकता है कि परसोना ही व्यक्ति का वास्तविक रूप है इससे व्यक्ति के वास्तविक रूप को समझने में कठिनाई हो सकती है इस शब्द के अर्थ के कारण तब व्यक्तित्व को बाहरी वेश-भूषा तथा दिखावे के आधार पर परिभाषित किया गया। क्योंकि 'व्यक्तित्व' अर्थात्
Personality शब्द का आधार
Persona" परसन ही है लेकिन धीरे-धीरे इस शाब्दिक अर्थ का त्याग कर व्यक्तित्व की नयी परिभाषाएं दी गयी।
व्यक्तित्व (PERSONALITY)
व्यक्तित्व को ऑग्लभाषा में Personality कहते हैं जो लैटिन शब्द Persona परसोना से बना है जो व्यक्तित्व को बाहरी वेष-भूषा तथा दिखावटीपन द्वारा व्यक्त करता है।
व्यक्तित्व से तात्पर्य कमोवेश स्थायी आन्तरिक कारणों से होता है। जो व्यक्तित्व के व्यवहार को एक समय से दूसरे समय में संगत बनाता है। तथा तुल्य परिस्थितियों में अन्य लोगों के व्यवहार से अलग करता है।
[1]
व्यक्तियों के अनूठे एवं संवेगों चिन्तनों तथा व्यवहारों के साक्षेप रूप से स्थिर पैटर्न के रूप में व्यक्तित्व को सामान्यतः परिभाषित किया जाता है।
[2]
इस प्रकार अनेक मनीषियों ने व्यक्तित्व को अनेक प्रकार से परिभाषित किया है-
लेकिन सबसे उपयुक्त एवं सर्वमान्य परिभाषा आलपोर्ट ने दी है उनके अनुसार व्यक्तित्व व्यक्ति के भीतर उन मनोशारीरिक तन्त्रों का गतिशील या गत्यात्मक संगठन है जो वातावरण में उसके अपूर्ण समयोजन को निर्धारित करते हैं।"[3]
आलपोर्ट की परिभाषा की पूर्ण व्याख्या इस प्रकार है।
1. मनोशारीरिक तन्त्रः- व्यक्तित्व एक ऐसा तन्त्र है जिसके मानसिक व शारीरिक दोनों ही पक्ष होते हैं। यह तन्त्र ऐसे तत्वों का संगठन होता है जो आपस में अन्तःक्रिया करते हैं। इसके मुख्य तत्व, शीलगुण, संवेग, ज्ञान, शक्ति, चरित्र आदि जो सभी मानसिक गुण हैं परन्तु इन सबका आधार शरीर है। शरीर के द्वारा ही व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को दर्शाता है पंचभौतिक शरीर से भौतिक एवं आध्यात्मिक व्यक्त्वि का विकास होता है। शीलगुण, संवेग, ज्ञानादि शरीर में विद्यमान होते हैं। आत्मा भी शरीर के अंदर निवास करती है। यह आत्मा सदा सत्य भाषण तप, ज्ञान और ब्रह्मचर्य से प्राप्त होता है दोषों से मुक्त हुये यति ही प्रकाश से युक्त और शुभ्र इसको शरीर के भीतर ही विद्यमान देखते हैं।
[4]
व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक रूप से प्रभावित होता है। अतः व्यक्ति न तो पूर्णतः मानसिक है और न पूर्णतः शारीरिक है। व्यक्तित्व इन दोनों तरह के पक्षों का मिश्रण है।
2. गत्यात्मक संगठन:- गत्यात्मक संगठन से तात्पर्य यह है कि मनोशारीरिक तन्त्र के भिन्न-भिन्न तत्व जैसे शीलगुण आदत आदि एक दूसरे से आपस में इस तरह सम्बन्धित होकर संगठित होते हैं कि उन्हें एक दूसरे से पूर्णतः अलग नहीं किया जा सकता हैं। इस तरह के संगठन में विसंगठन भी सम्मलित होता है, जिसके सहारे असामान्य व्यवहार होता है।
3. स्वतन्त्रताः– व्यक्ति का व्यवहार एक समय से दूसरे समय में संगत होता हैं। संगतता से आशय यह है कि व्यक्ति का व्यवहार दो विभिन्न अवसरों पर भी लगभग एक समान होता है। व्यक्ति के व्यवहार मं इसी संगतता के आधार पर उसमें विभिन्न शीलगुण के होने का अनुमान लगाया जाता है।
4. वातावरण में अपूर्ण समायोजन का निर्धारण- वातावरण का प्रत्येक व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है। उस वातावरण के साथ समायोजन करने का ढंग भी प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होता हैं। व्यक्ति वातावरण के साथ केवल समायोजन ही नहीं करता अपितु उस वातावरण के साथ उस तरह की अन्तः क्रिया भी करता है कि उस वातावरण को भी व्यक्ति के साथ अनुकूल या अभियोजन योग्य होना पड़ता है।
अब कहा जा सकता है कि व्यक्तित्व में भिन्न-भिन्न शीलगुणों का एक ऐसा संगठन होता है जिसके कारण व्यक्ति का व्यवहार तथा विचार किसी भी वातावरण में अपने ढंग का अर्थात अपूर्व होता है।
2
विकसित व्यक्तित्व के मूल घटक
व्यक्ति की संरचना के लिए फ्रॉयड ने आकारात्मक मॉडल को अपनाया है। आकारात्मक मॉडल से तात्पर्य ऐसे पहलू से होता है जहाँ पर संघर्षमय परिस्थिति की गत्यात्मकता उत्पन्न होती है। व्यक्तित्व के गयात्मक शक्तियों के बीच होने वाले संघर्षों का एक कार्यस्थल होता है जिसे फ्रायड ने तीन स्तरों में बाँटा है-
1. चेतन (Conscious) - चेतन से तात्पर्य मन में वैसे भाग से होता है जिसमें वे सभी अनुभूतियों एवं संवेदनाएँ होती हैं, जिनका सम्बन्ध वर्तमान से होता है दूसरे शब्दों में चेतन क्रियाओं का सम्बन्ध तत्कालिक अनुभवों से होता है। फलतः चेतन व्यक्ति का लघु एवं समिति पहलू प्रतिनिधित्व करता है। किसी भी क्षण व्यक्ति के मन में आ रही अनुभूतियों का संबंध उनके चेतन से ही होता है।
2. अर्द्धचेतन (Subconscious) - अर्द्धचेतन से तात्पर्य वैसे मानसिक स्तर से होता है जो सचमुच में न तो पूर्णतः चेतन होता है और न ही पूर्णतः अचेतन इसमें वैसी इच्छाऐं, विचार, भाव आदि होते हैं जो हमारे वर्तमान चेतन या अनुभव में नहीं होते हैं परन्तु प्रयास करने पर वे हमारे चेतन मन में आ जाते हैं।
3. अचेतन (Unconscious) अचेतन का शाब्दिक अर्थ है जो चेतन से परे हो, हमारे कुछ अनुभव इस प्रकार के होते हैं जो न तो हमारे चेतन में होते हैं और न अर्द्धचेतन में ऐसे अनुभव अचेतन में होते हैं। अचेतन मन में रहने वाले विचार एवं इच्छाओं का स्वरूप कामुक, असामाजिक, अनैतिक तथा घ्रणित होता है। चूँकि ऐसी इच्छाओं और विचारों का दिन-प्रतिदिन की जिन्दगी में पूरा करना सम्भव नहीं हो पाता है अतः उसको चेतन से हटाकर अचेतन में दमित कर दिया जाता है जहाँ जाकर ऐसी इच्छाएँ समाप्त नहीं हो जाती हैं। हाँ थोड़ी देर के लिए निष्क्रिय अवश्य हो जाती है और चेतन में आने का भरसक प्रयास भी करती हैं।
संरचनात्मक या गयात्मक
संरचनात्मक या गयात्मक मॉडल से तात्पर्य उन साधनों से होता है जिनके द्वारा प्रवृत्तियों से उत्पन्न मानसिक संघर्षो का समाधान होता है ऐसे साधन तीन हैं-
1. उपाहं (Id)- उपाहं व्यक्तित्व का जैविक तत्व है जिनमें उन प्रवृत्तियों की भरमार होती है, जो जन्मजात होती है तथा जो असंगठित, कामुक, आक्रामकता पूर्ण तथा नियमादि को मानने वाली नहीं होती है। एक नवजात शिशु की मूलतः उपाहं की प्रवृत्तियों की ही भरमार होती है उपाह की प्रवृत्तियों आनंद सिद्धान्त
द्वारा निर्धारित होती है। उपाहं मूलतः दो प्रकार के पराक्रम को अपनाता है, सहज प्रक्रिया तथा प्राथमिक प्रक्रिया। सहज प्रक्रिया में उपाह तनाव उत्पन्न करने वाले स्रोत के प्रति अपने आप अनुक्रिया कर तनाव को दूर करता है। खाँसना, छींकना, आँख मिचलाना आदि कुछ ऐसी ही सहज प्रक्रियाओं के उदाहरण हैं। प्राथमिक प्रक्रिया में व्यक्ति वैसे उद्दीपकों जिनसे पहले इच्छा की संतुष्टि होती है, के बारे में एक मात्र कल्पना कर अपना संघर्ष या तनाव दूर करता है।
2. अहं (Ego)- मन के गयात्मक पहलू का दूसरा प्रमुख भाग अहं है। जन्म के कुछ दिन बाद तक बच्चा पूर्णतः उपाहं की प्रवृत्तियों द्वारा नियंत्रिण होता है परन्तु सामाजिक नियमों एवं नैतिक मूल्यों के कारण वह ऐसी प्रवृत्तियों या इच्छाओं से विस्थापित होता है जो इस प्रक्रिया में उससे अहं का विकास होता है। अतः अहं मन का वह हिस्सा है जिसका संबंध वास्तविकता से होता है तथा जो बचपन में उपाहं की प्रवृत्तियों से ही जन्म लेता है। अहं वास्तविकता सिद्धान्त द्वारा नियन्त्रित होता है।
3. पराहं (Super Ego)- पराहं को अहं से ऊँचा भी कहा गया है। उचित अनुचित के निर्णय को सीखने के साथ ही बच्चे में पराहं के विकास की शुरूआत होती है। बचपन में सामाजीकरण के दौरान बच्चा माता-पिता द्वारा दिए गये उपदेशों को अपने अहं में आत्मसात कर लेता है और यही बाद में पराहं का रूप ले लेता है। पराहं विकसित होकर एक तरह उपाह की कामुक आक्रामक एवं अनैतिक प्रवृत्तियों पर रोक लगाता है। ऐसी स्थिति में उसमें समझ आने लगती है और उचित अनुचित का निर्णय करने लगता है तथा अनैतिक प्रवृत्तियों पर रोक लगाने और "अर्थ एवं अनर्थ का भली-भाँति विचार करके ही मनुष्य कोई कार्य करे।
लाभ हो तो वह कार्य करें, हानि हो तो उसका परित्याग करें।"[5] अतः बच्चा पहचानकर कार्य करने लगता है। तो दूसरी ओर अहं (Ego) को वास्तविक एवं यथार्थ लक्ष्यों से हटाकर नैतिक लक्ष्यों की ओर ले जाता है। एक पूर्णतः विकसित पराहं व्यक्ति के कामुक एवं आक्रामक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण दमन के माध्यम से करता है। दमन का प्रयोग स्वयं नहीं करता फिर भी वह अहं को दमन के प्रयोग का आदेश देकर ऐसी इच्छाओं पर नियंत्रण रखता है। यदि अहं इस आदेश का पालन नहीं करता है तो इससे व्यक्ति में दोश-भाव उत्पन्न हो जाता है। उपाहं के ही समान पराहं को भी अवास्तविक कहा गया है क्योंकि पराहं इस बात का ख्याल नहीं करता कि उसके नैतिक आदेशों को पूरा करने में वातावरण में उपस्थिति किन-किन कठिनाईयों का सामना अहं को करना होता है। वह आँखें मूँदकर अपने नैतिक आदेशों की पूर्णता को लक्ष्य की ओर अहं (Ego) को खींचने की भरपूर कोशिश करता है। अहं के समान पराहं (Super Ego) चेतन, अर्द्धचेतन एवं अचेतन तीनों ही होता है।
व्यक्तित्व के तन्त्र या संरचनाऐं
1. चेतन एवं अहं (Conscious & Ego) - मन को दो भागों में बाँटा गया है- चेतन और अचेतन। चेतन से तात्पर्य मन के उस भाग से है, जिसका संबंध प्रत्यक्ष, चिन्तन, भाव तथा स्मरण से होता है, वास्तव में चेतन एक ऐसा ज्ञान है जो अपने दिन-प्रतिदिन की सामान्य क्रियाओं को सम्पन्न करता है। चेतन मन में प्रतिदिन संकल्प-विकल्प पानी के बुदबुदे की तरह उठते और मिटते रहते हैं। सभी इन्द्रियों में मन ही प्रधान होता है प्रतिदिन की क्रियायें पूर्ण करने में मन का योगदान होता है। मन को परिभाषित करते हुए कहा है- मनोनाम संकल्प विकल्पात्मिकान्तः करणवृत्ति"[6] अर्थात् संकल्प और विकल्प करने वाली अन्तःकरण की वृत्ति मन है। चेतन में नये नये विचार उत्पन्न होते हैं जिससे उसके (व्यक्ति के) व्यक्तित्व का विकास हो । चेतन का संबंध अहं से होता है कोई भी मानसिक सामग्री का ज्ञान अहं द्वारा नहीं हो पाता है उसे अचेतन कहा जाता है। अतः चेतना का केन्द्र होता है।
2. अचेतन (Unconscious) - मन का दूसरा महत्वपूर्ण भाग अचेतन है जिसका तात्पर्य उन सभी मानसिक क्रियाओं से होता है जो अहं (Ego) से संबंधित नहीं होते हैं। अचेतन में दो प्रकार की सामग्रियाँ सम्मिलित होती हैं। प्रथम जो सामग्री कभी चेतन में थी परन्तु बाद में उनका दमन अचेतन में कर दिया गया था। द्वितीय इसमें उन सामग्रियों को रखा जाता है जो कभी भी चेतन में नहीं थीं। युंग ने अचेतन को दो भागों में बाँटा है-
i) व्यक्तिगत अचेतन- अचेतन का सबसे ऊपरी एवं सतही स्तर को व्यक्तिगत अचेतन कहा जाता है जिसमें सभी तरह की दमित इच्छाऐं भूली बिसरी यादें तथा व्यक्ति में अचेतन रूप से प्राप्त अनुभूतियाँ आदि संचित होती हैं। इसमें शैशव की दमित इच्छाऐं एवं यादें भी सम्मिलित होती हैं। इसे व्यक्तिगत अचेतन इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह प्रत्येक व्यक्ति में अपने ढंग का अर्थात् अपूर्व होता है। व्यक्तिगत अचेतन के अर्न्तवस्तु को मनोग्रन्थि कहा जाता है।
जब एक बार व्यक्ति में मनोग्रन्थि का निर्माण हो जाता है तो वह चेतन के अधीन नहीं होता है, बल्कि वह चेतन के साथ बीच-बीच में रोक-टोक भी करने लग जाता है। मनोग्रन्थियाँ अधिकांशतः चेतन होती हैं और वह व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों तरह के अचेतनों से भी उत्पन्न हो सकती हैं।
ii) सामूहिक अचेतन (Collective Unconscious) - सामूहिक अचेतन युंग का सबसे महत्वपूर्ण परन्तु विवादास्पद संप्रत्यय है। यह मन का सबसे गहरा एवं अप्रवेश्य भाग है। जिस तरह से व्यक्तिगत अचेतन में व्यक्ति की अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियाँ संचित होती हैं उसी तरह से सामूहिक अचेतन में पूरे मानव जाति की अनूभूतियाँ जो हम लोगों में से प्रत्येक को अपने पूर्वजों से प्राप्त होती हैं, संचित होती है इसमें संचित अनुभूतियाँ प्रत्येक पीड़ी के प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में दोहरायी जाती हैं।
सामूहिक अचेतन के तत्व सुषुप्त एवं निष्क्रिय नहीं होते हैं बल्कि सक्रिय होते हैं और व्यक्ति के संवेग, चिन्तन एवं क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। व्यक्तियों में तरह-तरह के धार्मिक विश्वासों पौराणिक कथाओं तथा दन्त-कथाओं आदि का स्रोत यही सामूहिक अचेतन ही होता है। अभिव्यक्ति व्यक्तियों के स्वप्न एवं कल्पनाचिन्तन में होता है जिसमें निम्न हैं-
अ) परसोना (Persona) - परसोना शब्द से तात्पर्य एक नकाब (Mask) से होता है जिसे नाटक करने वाले व्यक्ति अपने मुँह पर इसलिये लगाते हैं कि वे विभिन्न भूमिकाऐं कर सकें परसोना से तात्पर्य व्यक्ति के उस रूप या भूमिका से सर्वथा भिन्न होता है
। परसोना का महत्व इसलिए है कि व्यक्ति को अपने दिन-प्रतिदिन की जिन्दगी में विभिन्न तरह की करनी पड़ती है और उसमें सफलता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति भिन्न तरह की भूमिका करे।
ब) एनीमा तथा एनीमस - मनुष्य एक उभयलिंगी या द्विलिंगी प्राणी होता है। जैविक स्तर पर दोनों यौन के व्यक्ति अपने लिंग के उपयुक्त हारमोन्स के अलावा विपरीत लिंग के हारमोन्स का स्राव करते हैं। मनोवैज्ञानिक स्तर पर प्रत्येक यौन अर्थात् स्त्री एवं पुरूष दोनों ही अपने यौन के अलावा विपरीत यौन के गुणों एवं चित्त प्रकृति की भी अभिव्यक्ति करते हैं क्योंकि सदियों से ये दोनों ही साथ-साथ रहते आये हैं। महिलाओं में पौरुषत्व के 1 रूप में 'एनीमस' तथा पुरुषों में स्त्रैण तत्वों के रूप में 'एनीमा' कहा जाता है। ये दोनों आदि रूप से मनुष्य के समायोजन को समझने तथा मानवता को जीवित रखने में काफी मदद मिलती है।
स) छाया (Shadow)- छाया एक ऐसा आदि रूप है जिसमें वैसी इच्छायें होती हैं, जिसे समाज आपत्तिजनक, अनैतिक बुरा आदि समझता है। व्यक्ति जब असामाजिक कार्य करता है तब समाज उसे घृणा की दृष्टि से देखता है। ऐसे कार्य करने वाले को दुष्ट कहा जाता है, वह दुष्ट सदैव दूसरों का अहित करता