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Management Guru Acharya Mahaparg - (मैनेजमेंट गुरु आचार्य महाप्रज्ञ)
Management Guru Acharya Mahaparg - (मैनेजमेंट गुरु आचार्य महाप्रज्ञ)
Management Guru Acharya Mahaparg - (मैनेजमेंट गुरु आचार्य महाप्रज्ञ)
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Management Guru Acharya Mahaparg - (मैनेजमेंट गुरु आचार्य महाप्रज्ञ)

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दिव्यद्रष्टा आचार्य महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में ‘मैनेजमेंट गुरु महाप्रज्ञ’ पुस्तक एक गुरु एवं कुशल जीवन प्रबंधक के तौर पर आचार्य महाप्रज्ञ के सुविचारों को पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास है। मैनेजमेंट का अर्थ है प्रबंधन।और जीवन में सफलता हेतु सही प्रबंधन का मार्गदर्शन एक गुरु की क्षत्रछाया में प्राप्त होता है क्योंकि गुरु ही अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाता है। इस पुस्तक के माध्यम से पाठक महाप्रज्ञ जी द्वारा गुरु की भूमिका निभाते हुए सफल एवं सार्थक जीवन जीने हेतु जीवन प्रबंधन के कुछ उपायों को अपनाकर भौतिक सफलताओं को प्राप्त कर सकते हैं और आध्यात्मिक शिखर को भी छू सकते हैं। इस पुस्तक में विषय की सारगर्भिता,संक्षिप्तता एवं सम्पूर्णता का विशेष ध्यान रखा गया है। आचार्य महाप्रज्ञ ने व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व को नवजीवन प्रबंधन का जो विचार दिया निश्चय ही वे व्यक्ति के लिए पथ प्रदर्शक का काम करेगी और सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा स्रोत भी बनेगी।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 1, 2020
ISBN9789390287819
Management Guru Acharya Mahaparg - (मैनेजमेंट गुरु आचार्य महाप्रज्ञ)

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    Management Guru Acharya Mahaparg - (मैनेजमेंट गुरु आचार्य महाप्रज्ञ) - Naresh Shandilya

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    गुरु अर्थात जीवन का मैनेजमेंट

    पश्चिमी देशों में गुरु का कोई महत्त्व नहीं है। वहां विज्ञान और विज्ञापन का महत्त्व है, परंतु भारत में सदियों से गुरु का महत्त्व रहा है। यहां की माटी एवं जनजीवन में गुरु को ईश्वर तुल्य माना गया है, क्योंकि गुरु न हो तो ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग कौन दिखायेगा ? गुरु ही शिष्य का मार्गदर्शन करते हैं और वे ही जीवन को ऊर्जामय बनाते हैं।

    तुलसी विश्वविद्यालय

    सन 1954 में कार्तिक माह की घटना है। मुंबई के भारतीय विद्या भवन में संस्कृत संगोष्ठी का आयोजन था। जैन धर्म के संत पूज्य गुरुदेव तुलसी का चातुर्मासिक प्रवास था। उच्चकोटि के विद्वानों के असाधारण समागम से बेहद पावन वातावरण बन गया था। पूज्य गुरुदेव के साथ आचार्य महाप्रज्ञ जी भी उस संगोष्ठी को पावन करने के लिए विराजमान थे। यहां आचार्य महाप्रज्ञ जी ने अपनी मधुर व पवित्र वाणी में संस्कृत भाषा में ओम के म् पर धाराप्रवाह वक्तव्य दिया। साथ ही, आशु कविता भी की। आचार्य जी ने सभी को जैसे मंत्रमुग्ध कर दिया था। सभी सम्मोहित होकर, अपने अस्तित्व को भूलकर आचार्य जी की वाणी के रस में डूबे थे। जब आचार्य जी ने वाणी को विराम दिया तो सभी को लगा, जैसे एक दिव्य स्वप्न देखकर जागे हों...।

    कार्यक्रम की समाप्ति के बाद पूज्य गुरुवर तुलसी जी ने प्रस्थान किया तो आचार्य महाप्रज्ञ जी भी उनके पीछे चलने लगे। तभी वहां आये चार-पांच प्रोफेसरों ने उन्हें घेर लिया और सवाल किया, मुनि जी, आपने किस विश्वविद्यालय में अध्ययन किया है?

    सवाल सही था। उनके ज्ञान-सागर के स्रोत को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होनी ही चाहिए थी।

    आचार्य महाप्रज्ञ इस पर मुस्कुराए और अपने आगे चल रहे पूज्य गुरु तुलसी जी की ओर संकेत करते हुए कहा, तुलसी विश्वविद्यालय से।

    यह उन प्रोफेसरों के लिए सर्वथा अपरिचित और नया नाम था। सभी उनकी ओर देखने लगे। सभी ने अपनी स्मृति पर बहुत जोर डाला कि ये विश्वविद्यालय कहां है! पर जवाब शून्य ही मिला। बात सही भी थी। देशभर में इस नाम का कोई विश्वविद्यालय नहीं था।

    थक-हारकर उन्होंने आचार्य जी से पुनः प्रश्न किया, मुनि जी, यह विश्वविद्यालय कहां है? हम तो ये नाम पहली बार सुन रहे हैं!

    आप नाम में खो गए, मेरे संकेत की ओर ध्यान नहीं दिया। तभी उन्होंने पुनः सवाल किया है! आचार्य जी फिर मुस्कुराए और पुनः आगे जा रहे अपने गुरु पूज्य तुलसी जी की ओर इशारा करते हुए कहा, वह जो आगे चल रहा है। हमने इसी चलते-फिरते विश्वविद्यालय में पढ़ाई की है।

    सभी प्रोफेसर आश्चर्यचकित होकर आचार्य जी को देखने लगे।

    बाद में इस घटना पर पूज्य गुरु तुलसी जी ने कहा, एक दिन वह था, जब मुनि नथमल जी (आचार्य महाप्रज्ञ जी) अपने शिक्षक की शिकायत लेकर अपने गुरुवर के पास गए थे। एक दिन वह आया जब उन्हें मेरी पाठशाला में पढ़ने का गौरव प्राप्त हुआ। यद्यपि मेरी पाठशाला छोटी थी। उसमें गिने-चुने विद्यार्थी थे। उस समय किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि हमारे यहां कोई विश्वविद्यालय हो सकता है और संयोग की बात है कि आज ‘जैन विश्व भारती संस्थान’- मान्य विश्वविद्यालय चल रहा है। मेरा सपना है कि यह विश्वविद्यालय यूनीक बने और इसमें मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ जी) जैसे विद्यार्थी तैयार हों।

    जीवन विकास में गुरु की भूमिका

    यह गुरु और शिष्य के लिए गौरव का पल होता है, जब कोई गुरु अपने शिष्य की इस प्रकार प्रशंसा करता है। गुरु होकर शिष्य में अपने गुरु को ढूंढ़ने का प्रयास करता है।

    किसी के भी जीवन को अर्थवान और सार्थक बनाने में गुरु की अहम भूमिका होती है। गुरु न केवल जीवन पथ से परिचित करवाता है, बल्कि व्यक्ति को आत्मा के साथ परमात्मा से भी रूबरू करवाता है।

    इसीलिए कहा गया है-

    गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु,

    गुरु देवो महेश्वरा,

    गुरु साक्षात परब्रह्म,

    तस्मै श्री गुरुवे नमः।

    गुरु! यह शब्द दो शब्दों से बना हुआ है- गु+रु। गु का अर्थ होता है-अंधकार (अज्ञान) और रु का अर्थ होता है- प्रकाश यानी ज्ञान। गुरु हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की तरफ लेकर जाता है।

    पश्चिमी देशों में गुरु का कोई महत्त्व नहीं है। वहां विज्ञान और विज्ञापन का महत्त्व है, परंतु भारत में सदियों से गुरु का महत्त्व रहा है। यहां की माटी एवं जनजीवन में गुरु को ईश्वर तुल्य माना गया है, क्योंकि गुरु न हो तो ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग कौन दिखायेगा? गुरु ही शिष्य का मार्गदर्शन करते हैं और वे ही जीवन को ऊर्जामय बनाते हैं।

    जीवन विकास के लिए भारतीय संस्कृति में गुरु की महत्त्वपूर्ण भूमिका मानी गई है। गुरु की सन्निधि, प्रवचन, आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए, उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है। क्योंकि गुरु बिना न आत्म-दर्शन होता और न परमात्म-दर्शन। इन्हीं की प्रेरणा से आत्मा चैतन्यमय बनती है। गुरु भवसागर पार पाने में नाविक का दायित्व निभाते हैं। वे हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्नविनाशक होते हैं। उनका जीवन शिष्य के लिए आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है। अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता, जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखंडों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके।

    गुरुओं के शांत पवित्र सान्निध्य में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तद्नुकूल उज्ज्वल और उदात्त हुआ करती है। सादा जीवन, उच्च विचार गुरुजनों का मूल मंत्र होता है। तप और त्याग ही उनका पवित्र ध्येय होता है। लोकहित के लिए अपने जीवन का बलिदान और शिक्षादान ही उनका जीवन आदर्श हुआ करता है।

    प्राचीन काल में गुरु ही शिष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह का ज्ञान देते थे, लेकिन आज वक्त बदल गया है। आजकल विद्यार्थियों को व्यावहारिक शिक्षा देने वाले को शिक्षक और आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले को गुरु कहा जाता है। शिक्षक कई हो सकते हैं, लेकिन गुरु एक ही होते हैं। हमारे धर्मग्रंथों में गुरु शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा गया है कि जो शिष्य के कानों में ज्ञान रूपी अमृत का सिंचन करे और धर्म का रहस्योद्घाटन करे, वही गुरु है। यह जरूरी नहीं है कि हम किसी व्यक्ति को ही अपना गुरु बनाएं। योग दर्शन नामक पुस्तक में भगवान श्रीकृष्ण को जगत्गुरु कहा गया है, क्योंकि महाभारत के युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया था। माता-पिता केवल हमारे शरीर की उत्पत्ति के कारण हैं, लेकिन हमारे जीवन को सुसंस्कृत करके उसे सर्वांग सुंदर बनाने का कार्य गुरु या आचार्य का ही है।

    इसीलिए गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश से भी अधिक महत्त्व दिया गया है। संत कबीर का यह दोहा प्रसिद्ध है-

    गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय,

    बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।

    मीराबाई भी कहती हैं, मैंने ईश्वर रूपी रत्न प्राप्त कर लिया है। मेरे सद्गुरु ने मुझ पर कृपा कर यह बहुमूल्य रत्न मुझे दिया है। इसी तरह लगभग सभी संतों ने गुरु की महिमा बताई है।

    बालक की पहली गुरु उसकी माता होती है। मां की गोद में बैठकर बालक बोलना सीखता है। उचित-अनुचित तथा अच्छे-बुरे का साधारण ज्ञान उसे मां से ही प्राप्त होता है। बालक पाठशाला जाता है। वहां उसे विद्या गुरु या शिक्षा गुरु मिलते हैं। वर्षों तक बालक को शिक्षा गुरुओं से व विविध प्रकार का ज्ञान जिन अनुभवी लोगों से प्राप्त होता है, वे ही उसके गुरु कहलाते हैं।

    आचार्य चाणक्य ने ही अपनी विलक्षण शिक्षा देकर चंद्रगुप्त मौर्य को मगध सम्राट बनाया था। महाभारत के युद्ध में विजयी होने वाले पांडवों को अस्त्र-शस्त्र विद्या में कुशल गुरु द्रोणाचार्य ने ही बनाया था।

    ज्ञान के बिना जीवन निरर्थक है और ज्ञान केवल गुरु से ही मिलता है। इसलिए जीवन में गुरु का स्थान बहुत ऊंचा है। भारत में गुरु का महत्त्व सदैव रहा है और रहेगा।

    आचार्य महाप्रज्ञ जी ने गुरु के वचन, कर्म और संदेश को आत्मसात् किया। तभी वे खुद गुरु स्थान को प्राप्त कर सके। गुरु पूज्य तुलसी जी के बारे में वे कहते हैं-

    पूज्य गुरुदेव मेरे जीवन निर्माता और भाग्यविधाता थे। उन्होंने जितना मुझे दिया, उतना शायद ही किसी गुरु ने अपने शिष्य को दिया हो। यह अन्वेषण का विषय है। उन्होंने अपने शिष्य के बारे में जितना कहा और लिखा, शायद भारतीय इतिहास में किसी गुरु ने अपने शिष्य के बारे में नहीं कहा, नहीं लिखा। शिष्य की ख्याति को उन्होंने अपनी ख्याति माना, शिष्य के उत्कर्ष को अपने उत्कर्ष के रूप में स्वीकार किया। उनके आंतरिक उद्गारों में उनकी उदारता, महानता और प्रमोद भावना का पद-पद पर साक्षात्कार होता रहा।

    आचार्य महाप्रज्ञ जी ने गुरु को आत्मसात् किया। उनके वचन को ईश्वर का आदेश माना। तभी गुरु शब्द के मर्म को समझ पाए। तभी उनके श्रीमुख से निकलता है, गुरु के निर्देश में छिपे हुए रहस्यों को पकड़ने का प्रयत्न करो, सफलता तुम्हारे द्वार पर दस्तक देगी। गुरु के निर्देश में यदि तर्क करोगे तो कभी भी सफलता के शिखर पर नहीं पहुंच पाओगे।

    "अपने मस्तिष्कीय हृदय में गुरु की प्रतिमा को स्थापित करो।

    जो अव्यक्त है, वह स्वयं व्यक्त होने लगेगा।

    जो अदृश्य है, वह स्वयं दृश्य बनने लगेगा।

    ध्यान के प्रयोग से गुरु का साक्षात्कार हो सकता है।"

    आचार्य जी पूज्य गुरु तुलसी जी के बारे में कहते हैं, जिनकी ध्वनि आज भी कानों में प्रतिध्वनित हो रही है, जिनका बिंब आज भी आंखों में प्रतिबिंबित हो रहा है, जिनका पारिपार्श्विक वातावरण आज भी परिमल बिखेर रहा है, जिनकी रसना के प्रकंपन आज भी जन-जन को रसमय बना रहे हैं, जिनके हाथ का स्पर्श आज भी मस्तक के न्यूरोंस को स्पंदित कर रहा है, जिनका चिंतन आज भी मन को आहार दे रहा है, पोषण दे रहा है, जिनका पवित्र भाव आज भी विभाव को स्वभाव बना रहा है- इन सप्त धातुओं से निर्मित प्रतिमा के चरणों में इंद्रिय-चेतना, मनस-चेतना और भाव-चेतना का पूर्ण समर्पण।

    सही कहते हैं आचार्य महाप्रज्ञ। गुरु ही हमारे जीवन को व्यवस्थित करता है। गुरु का हर भाव, हर कर्म, हर वाणी, हर संदेश और हर शिक्षा हमें जीवन के ऊंच शिखर पर ले जाती है। जीवन का मैनेजमेंट करना गुरु बिना नहीं सीखा जा सकता।

    जीवन का अहम गुण है वाणी

    वाणी से शुभचिंतक भी बनाये जा सकते हैं और शत्रु भी। जीवन की सफलता में वाणी महत्त्वपूर्ण है। और वाणी का सही समय और सही स्थान पर उपयोग करने की कला जीवन को सार्थकता देती है।

    मीठी वाणी बोलिए, सब जग अपना होय

    फारस देश में एक स्त्री थी। वह शहद बेचने का काम करती थी। शहद तो वह बेचती ही थी, उसकी वाणी भी शहद जैसी ही मीठी थी। उसकी दुकान पर खरीददारों की भीड़ लगी रहती थी। एक ओछी प्रवृति वाले व्यक्ति ने देखा कि शहद बेचने से एक महिला इतना लाभ कमा रही है, तो उसने भी उस दुकान के नजदीक एक दुकान में शहद बेचना शुरू कर दिया। उसका स्वभाव कठोर था।

    एक दिन एक ग्राहक ने सहज में ही उससे पूछ लिया कि शहद मिलावटी तो नहीं! उसने भड़ककर कहा, जो स्वयं नकली होता है, वही दूसरे के सामान को नकली बताता है।

    ग्राहक उसकी कड़क आवाज से घबराकर लौट गया। वही आदमी फिर महिला के पास पहुंचा और वही सवाल पूछ बैठा। महिला ने मुस्कुराते हुए कहा, जब वह खुद असली है, तो वह नकली शहद क्यों बेचेगी!

    ग्राहक मुस्कुरा उठा और शहद ले गया।

    विनम्र स्वभाव और मीठी वाणी का हर तरह की सफलता में योगदान रहता है, इसलिए मनुष्य को हमेशा मीठी वाणी बोलनी चाहिए।

    हमेशा याद रखिये कि वाणी में इतनी शक्ति होती है कि कड़वा बोलने वाले का शहद भी नहीं बिकता और मीठा बोलने वाले की मिर्ची भी बिक जाती है। वास्तव में मीठी वाणी बोलना न सिर्फ अपने, बल्कि दूसरों के कानों को भी सुकून देता है। किसी ने सत्य ही कहा है- जरूरी नहीं कि आप केवल मिठाई खिलाकर दूसरों का मुंह मीठा करें, आप मीठा बोलकर भी लोगों का मुंह मीठा कर सकते हैं।

    यहां तक कि विभिन्न वेदों और शास्त्रों में भी वाणी संयम को सर्वश्रेष्ठ तप कहा गया है।

    ऋग्वेद में कहा गया है- ‘या ते जिह्वा मधुमति सुमेधने देवेषूच्यत उरुचि।’ यानी तू मीठी और सद्बुद्धि युक्त वाणी का प्रयोग कर, जिसे देव बोलते हैं।

    नीतिशास्त्र में कहा गया है- ‘झूठ बोलना, कटु बोलना, असंगत बात कहना, अहंकारयुक्त शब्द बोलना, निंदा करना आदि वाणी के ऐसे उद्वेग दोष हैं, जिनसे मनुष्य पग-पग पर संकट में पड़ता है। अतः एक-एक शब्द सोच-समझकर बोलना चाहिए।’

    वहीं विदुर नीति में कहा गया है- ‘असंयमपूर्ण बोलने की अपेक्षा मौन रहना श्रेयस्कर है। सत्य, प्रिय और धर्मयुक्त वचन ही उच्चारित करने चाहिए। मनमाने ढंग से ऊटपटांग बोल देने वाला पग-पग पर शत्रु पैदा करता है।’ मीठे वचनों में इतनी शक्ति और आकर्षण होता है कि पराया आदमी भी मित्र व हितैषी बन जाता है, जबकि कटु वचन बोलने वाला भाई-बांधवों और मित्रों को भी दुश्मन बना लेता है।

    भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘पार्थ, जिस वाणी को धारण करने से मानव को यश और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, जिससे मनुष्य की विद्वान के रूप में पहचान होती है, उस वाणी को वाक् कहते हैं। ऐसा व्यक्ति वागीश अर्थात वाणी का देवता कहलाता है।’

    वागीश थे महाप्रज्ञ

    आचार्य महाप्रज्ञ को उपरोक्त दृष्टि से ‘वागीश’ कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। कटु वचन का उपयोग अपने जीवन में कभी आचार्य जी ने नहीं किया। ज्ञान वह रस है, अगर शुद्ध व मधुर वाणी में न दिया जाए तो वह कानों के अंदर सहजता से नहीं जा पाता। आचार्य जी के कर्म, व्यवहार व वाणी में समानता थी। इसी कारण लोगों ने उन्हें न केवल नजदीकी से जाना, बल्कि उनके कर्म व संदेश को आत्मसात् भी किया। और इसी के चलते अपने जीवन को सार्थक व सफल बनाया।

    आचार्य जी ने समझाया है- "भगवान महावीर का कथन है- दंड तीन होते हैं। मन का दंड, वाणी का दंड और काया का दंड।

    इन तीनों का स्वतंत्र मूल्य है। कई बार हम कहते हैं, मैं यह कहना तो नहीं चाहता था, पर वाणी से निकल गया। यह वाणी तंत्र के स्वतंत्र अस्तित्व का द्योतक है। हमने जिस स्थिति में वाणी को जैसा अभ्यास दे दिया, उस प्रकार की घटना घटित हो जाती है। क्रोध उभरा और आपके न चाहने पर भी वैसे शब्द निकल जाएंगे, जो अप्रिय होते हैं। कभी-कभी मन के न चाहने पर भी अघटित घटित हो जाता है। यदि मन ही सब कुछ होता तो ऐसा कभी नहीं हो सकता। यदि मन का एकछत्र साम्राज्य होता तो उसके विपरीत कुछ भी नहीं हो पाता। पर ऐसा नहीं है। मन का, वाणी का और शरीर का अपना-अपना स्वतंत्र तंत्र है।"

    एक अन्य प्रकार से आचार्य जी ने समझाया है- "वाणी की भी संभव शक्ति होती है और संभाव्य शक्ति होती है। तीर्थंकर बोलते हैं, तब उनकी वाणी एक योजन तक सुनाई देती है। उनकी वाणी अनेक भाषाओं में परिणत हो जाती है। यह उनकी संभव शक्ति है। वह सहज ही उन्हें प्राप्त है। दूसरों के लिए यह संभाव्य शक्ति है।

    वाक वीर्य के दो रूप हैं। एक है- क्षीरास्नवलब्धि और दूसरा है-मध्यस्रवलब्धि। इन लब्धियों से संपन्न व्यक्ति जब बोलता है, तब सुनने वाले को लगता है मानो वह दूध पी रहा है, मधु चाट रहा है। शब्द इतने मीठे होते हैं। यह उस लब्धि-संपन्न व्यक्ति के लिए सहज है। हर व्यक्ति इसे प्राप्त कर सकता है, संभाव्य है सबके लिए।"

    आचार्य जी ने इसे एक कथा रूप में इस प्रकार समझाने की कोशिश की- "एक राजा आचार्य के पास आकर बोला- ‘गुरुदेव! देवताओं की आयु बहुत लंबी होती है। क्या वे जीते-जीते नहीं अघाते?’

    आचार्य ने कहा- ‘वे इतने सुख में जीते हैं कि उन्हें काल-बोध ही नहीं होता। काल का बोध उन्हें होता है, जो कष्ट में जीवन बिताते हैं।’

    राजा ने कहा- ‘यह कैसे संभव है? काल का बोध क्यों नहीं होता?’

    आचार्य क्षीरास्नवलब्धि से संपन्न थे। उन्होंने कहा- ‘राजन! कुछ देर उपदेश सुन लो।’

    राजा उपदेश सुनने बैठा। आचार्य बोलने लगे। दो प्रहर बीत गए। राजा तन्मय होकर सुनता रहा। उपदेश के अंत में आचार्य ने राजा से पूछा- ‘कितने समय से उपदेश सुन रहे हो?’

    ‘गुरुदेव! अभी दो क्षण ही तो हुए हैं। अभी-अभी तो आपने उपदेश शुरू किया है।’

    आचार्य ने कहा- ‘राजन! तुम्हें उपदेश इतना मीठा और सरल लगा कि काल का बोध ही नहीं हुआ। मुझे बोलते दो प्रहर हो गए हैं।’

    राजा आवाक् रह गया। यह वाक-शक्ति का रूप है।

    वाकई वाणी से शुभचिंतक भी बनाये जा सकते हैं और शत्रु भी। जीवन की सफलता में वाणी महत्त्वपूर्ण है। और वाणी का सही समय और सही स्थान पर उपयोग करने की कला जीवन को सार्थकता देती है।

    गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है-

    तुलसी मीठे वचन तै, सुख उपजत चहुं ओर।

    वशीकरण के मंत्र हैं, तज दे वचन कठोर।

    और संत कबीर भी कहते हैं-

    ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।

    औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय।

    तलवार का घाव देर-सबेर भर जाता है, किंतु कटु वाणी से हुआ घाव कभी नहीं भरता। इसलिए हमेशा मीठा और उचित बोलिए। खुद भी प्रसन्न होइए और दूसरों को भी प्रसन्न कीजिए। ये जीवन का अहम मैनेजमेंट है।

    अहंकार: सफल जीवन का दुश्मन

    आचार्य महाप्रज्ञ जी ने अहं को जहां व्यक्ति के विकास में बाधक बताया है, वहीं इस मकड़ जाल से बाहर आकर सार्थक जीवन जीने का उपाय भी सुझाया है। वे कहते हैं, "जो अहं भाव से पीड़ित है, वह विनम्र नहीं हो सकता। वह दूसरों को सहयोग नहीं दे सकता। संयम का भी योग नहीं दे सकता। उसे पग-पग पर अहं सताने लग जाता है।

    अहंकार के अभिशाप से बचें

    व्यक्ति जब पद, प्रतिष्ठा और सम्मान पाता है, ऐसे में उसके अंदर सबसे अधिक अहंकार पनपने का डर होता है। ऐसे में आवश्यक ये है कि मनुष्य अपनी जुबान कभी बहकने न दे, उसे संयमित रखे। जुबान बहकने से कई विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इसी तरह मनुष्य को कभी भी पद व सामर्थ्य पाकर अहंकार का पालन नहीं करना चाहिए। मनुष्य को हमेशा अच्छे चरित्र और व्यवहार का पालन करना चाहिए। इससे समस्याएं अपने आप दूर भागती हैं।

    वैसे अहंकार की तुष्टि किसी चीज को पाने से नहीं, बल्कि उस चीज को किसी दूसरे की अपेक्षा अधिक पाने से होती है। अहंकार गुणों का नहीं, वस्तुओं का होता है। संपत्ति का, रूप का, बल का, पद का, विद्या का अहंकार करना यह सिद्ध करता है कि उस व्यक्ति की शिक्षा उन सांसारिक पदार्थों को ही महत्त्व देने तक सीमित है अथवा उन भौतिक परिस्थितियों को सब कुछ समझने तक है, जिनके स्थायित्व का कोई ठिकाना नहीं।

    अहंकार का उद्देश्य ही यह है कि सामने वालों को यह अनुभव कराया जाये कि वे अहंकारी की तुलना में छोटे ही हैं। प्रकृति के कुछ ऐसे नियम हैं कि घमंडी व्यक्ति का शीर्ष अपने आप नीचा हो जाता है। अहंकार जीवन के कुछ दिन भौतिक सुख देगा, पर इसका परिणाम जीवन गति को विराम लगाता है।

    अमीरी के ठाठ-बाठ इसी दृष्टि से बनाये जाते हैं कि संपर्क में आने वाले लोग अपने साथ उसकी तुलना करें और यह स्वीकार करें कि यह व्यक्ति हमारी अपेक्षा बड़ा या बहुत बड़ा है। वैभव के आधार पर बड़प्पन पाने का तरीका ही यह है। कर्मों का खेल कुछ ऐसा होता है कि ऐसे अहंकारी व्यक्ति जितनी ऊंचाई पर अपने को दिखाने का प्रयास करते हैं उतनी ही ऊंचाई से गिर जाते हैं।

    आज जो धनी है, या उच्च पद पर है, आजीवन वैसी ही स्थितियां जरूरी नहीं कि बनी रहेंगी। आय घटने, खर्च बढ़ने के कई बार ऐसे अप्रत्याशित कारण होते हैं, जिनके कारण संग्रहित पूंजी शीघ्र समाप्त हो जाती है। व्यापार में मंदी, कृषि में वर्षा न होना या बाढ़, चोरी, बीमारी, मुकदमेबाजी, विवाह या दिखावे बाजी के ऐसे खर्च आ सकते हैं, जिनके कारण संपन्नता एक झटके में अदृश्य हो जाती है।

    आय के स्रोत सूख जाते हैं। बच्चे व्यसनी, आलसी एवं कुमार्गगामी निकले तो भी संपत्ति देर तक नहीं ठहरती। ऐसा ही पद के संबंध में भी होता है कि वह हमेशा किसी एक का बनकर नहीं रहता।

    पृथ्वी, जैसे लाखों सुंदर ग्रह हैं, जहां असंख्य प्रजातियों के प्राणी रहते हैं, हर ग्रह में भौतिक शरीर वाले प्राणियों के आकार व बाह्य रूप वहां के वातावरण पर निर्भर करते है। हमारी पृथ्वी पर मनुष्य सबसे उच्च श्रेणी का प्राणी है, चाहे बाहर से कैसे भी हो, अंतर में आत्मा का अंश है। पर पिछले जन्मो-जन्मांतरों के कर्मों के कारण हर प्राणी का मौलिक ज्ञान व रूप अलग होता है।

    कई बार रूपवान मनुष्य चाहे विवेकी हो भी, दूसरे लोग उसके अहंकार की भावना को जगा देते हैं। ऐसा कभी न होने दें। अपने रूप, शारीरिक सुंदरता पर अभिमान व अहंकार एक नशा बन जाता है और यदि विवेक व शील न हो तो उसका परिणाम भयानक होता है। अधिकतर ऐसे अहंकारी लोग मनोविकारों के शिकार हो जाते हैं।

    शरीर बल या मनोबल का दुरुपयोग व अहंकार का अर्थ है एक दिन यह बल हमसे छीन लिया जाएगा। हजारों जड़ मूर्ख शरीर के बल पर दुर्बलों को सताकर जो पाप कर्म कमाते हैं, वह इसी जीवन में एक अभिशाप बन जाता है।

    पदवी पद व कुर्सी का अहंकार अति भयानक होता है और इसके मद में कितने ही आरंभ में विवेकी व धर्मी लोग, भ्रष्ट बन अधर्मी, अविवेकी बन जाते हैं। ईश्वर से मिली योग्यताओं को मानव-सेवा में लगा कर ही हम अपनी आत्मा के पथ पर आगे जायेंगे। यदि हम अपने पद का दुरुपयोग करेंगे तो पैसा व वैभव तो खूब मिलेगा, पर वह क्षण भंगुर ही होगा। पाप से कमाया धन अमृत नहीं जहर बन जाता है।

    महाप्रज्ञ ने अहंकार को माना बड़ी बाधा

    आचार्य महाप्रज्ञ जी ने अहं को जहां व्यक्ति के विकास में बाधक बताया है, वहीं इस मकड़ जाल से बाहर आकर सार्थक जीवन जीने का उपाय भी सुझाया है। वे कहते हैं, "जो अहं भाव से पीड़ित है, वह विनम्र नहीं हो सकता। वह दूसरों को सहयोग नहीं दे सकता। संयम का भी योग नहीं दे सकता। उसे पग-पग पर अहं सताने लग जाता है। अहं जब विस्मृत होता है, तब ममकार बन जाता है। ममकार कोई अलग नहीं है। अहं का ही एक रूप है- ममकार। जब अहंकार किसी के साथ घनिष्ठ संबंध जोड़ लेता है, किसी को घनिष्ठ मान लेता है तो अहंकार ममकार के रूप में बदल जाता है। मेरा शरीर, मेरा धन, मेरा परिवार, मेरा घर- यह जो मेरापन है, वह सारा ममकार है। यह अहं का ही विस्तार है। अहंकार ने शरीर, धन आदि के साथ घनिष्ठता स्थापित कर ली, और वह ममकार के रूप में बदल गया। इस अहं का विसर्जन कठिन होता है। आत्मशोधन में यह बहुत बड़ी बाधा है। जो व्यक्ति आत्म-नियंत्रण करता है, उसके लिए यह सुविधा हो जाती है कि जब तक आत्म-नियंत्रण करता है, बाहरी आवेगों और बाहरी निमित्तों से बचता है तो अहं के शोधन की, अहं के विसर्जन की संभावनाएं उसके सामने सहज रूप में उपस्थित हो जाती हैं।

    अहं की ग्रंथि बहुत जटिल होती है। उसके शोधन की प्रक्रिया के दो महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं- स्वाध्याय और ध्यान। इन दोनों साधनों के द्वारा अहं की ग्रंथि को काटा जा सकता है। अपने आपको जानने का प्रयत्न, अध्ययन, मनन और चिंतन स्वाध्याय है। जब वह ज्ञान और चिंतन एकाग्रता की निश्चित बिंदु पर पहुंचता है, तब वह ध्यान बन जाता है। ज्ञान और ध्यान, स्वाध्याय और ध्यान, एक ही हैं, वास्तव में दो नहीं हैं। केवल मात्रा का अंतर है, परिमाण का

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