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Bhagwad Geeta (Part-2)
Bhagwad Geeta (Part-2)
Bhagwad Geeta (Part-2)
Ebook1,037 pages8 hours

Bhagwad Geeta (Part-2)

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भगवद्-गीता वैदिक संस्कृति का एक पवित्रा शास्त्रा है। जैसा कि सभी शास्त्रों के साथ हुआ, यह ज्ञान भी मौखिक रूप से प्रसारित होता रहा है। इसलिए संस्कृत में इसे ‘श्रुति’ कहते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘सुना हुआ’। भगवद्-गीता प्रायः ‘गीता’ कही जाती है। जिसका संस्कृत में निहित अर्थ है ‘पवित्रा गीत’। जहां वेद और उपनिषद अपने आप में पूरे ग्रन्थ हैं। ‘गीता’ प्रसि( हिन्दू ग्रन्थ ‘महाभारत’ का ही एक अंग है। ‘महाभारत’ को भी एक पुराण की संज्ञा दी जाती है। अतः गीता महाभारत की कहानी का एक हिस्सा ही है। परमहंस नित्यानंद ने इस पुस्तक में भगवद् गीता के रहस्यों की सटीक व्याख्या की है जो पढ़ने वालों को एक नई दिशा देती है और वे भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षा को अपनाते हुए आज के युग में आनन्ददायक जीवन व्यतीत कर सकते हैं।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateOct 27, 2020
ISBN9789352966455
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    Bhagwad Geeta (Part-2) - Paramhansa Nityanand

    परिशिष्ट

    सप्तम अध्याय

    समझ के विकास प्राप्त करो

    ज्ञान-विज्ञान योग

    समस्त जीव सदा आसक्ति और विद्वेष के

    द्वन्द्व में फँसे रहते हैं। महायोगी कृष्ण

    यहाँ इस बन्धन से मुक्त होने का

    मार्ग समझाते हैं।

    समझो और विकसित हो ओ

    इस अध्याय को शुरू करने से पूर्व हमें देखना चाहिए कि कृष्ण ने इस अध्याय को क्यों हमें दिया है? बार-बार कृष्ण एक ही सत्य दुहराते हैं, और कुछ नहीं कहते! फिर इतने अध्यायों की जरूरत ही क्या है?

    लोग कह सकते हैं कि कृष्ण स्वयम् को दुहरा रहे हैं। वह कह सकते हैं: ‘‘कृष्ण कितनी बार यह कहेंगे कि आत्मा अजर-अमर है कि सारे कर्म निष्काम भाव से करना चाहिए या निर्वाण प्राप्ति हित समर्पण आवश्यक है?’’

    लोग मुझसे पूछते रहते हैं: ‘‘स्वामीजी! कितने दिन में हम ध्यान लगाना सीख जाएंगे?’’ मैं उन्हें बताता हूँ: ‘‘ध्यान लगाने के लिए तो दो मिनट ही काफी हैं। पर यह समझने के लिए कि ध्यान लगाना क्या नहीं है, तुम्हें दस दिन चाहिए!’’

    कृष्ण को ज्ञात है कि अर्जुन हम लोगों जैसा ही है- वह मानो समस्त मनुष्यों का प्रतीक है। किसी को यह समझाना कि क्या करना चाहिए और क्या सही है, काफी नहीं होता। मानव मस्तिष्क सौ में से निन्यानवे कारण ढूंढ लेगा कि क्या अन्यथा भी सही है। इसलिए गुरु को यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि वे निन्यानवे विकल्प क्यों सही नहीं है और क्यों हमें वही मार्ग चुनना चाहिए जो गुरु बताते हैं।

    यही तो कृष्ण कह रहे हैं। वह ऐसा इसलिए कहते हैं जिससे उनका बताया हुआ विकल्प अर्जुन की चेतना में गहरे बैठ जाए और इस माध्यम से हर एक उस व्यक्ति के मन में भी जो भगवद् गीता का पारायण करते हैं।

    भारत में एक पूरा दर्शन है-न्यायशास्त्र का यानी तर्क का शास्त्र। इसके अनुसार हर वाक्य के दो तार्किक अर्थ निकाले जा सकते हैं। न्याय की पहली पंक्ति नियमित तर्कसम्मत होती है-पाप का अर्थ नियमित भी होता है।

    उदाहरण के लिए मैं कहता हूँ: ‘‘सब लोगों के एक ही सर होता है। और सुकरात एक आदमी है।’’ तो हमारा सहज निष्कर्ष होगा तीसरा वाक्यः ‘‘सुकरात के भी एक ही सर है।’’ यह साधारण तर्क है। दूसरे प्रकार का तर्क होता है थोड़े उच्च स्तर का तर्क। जैसे हम यह कहें ‘‘दो द्वार हैं’’ और ‘‘एक द्वार खुला है।’’ तो साधारण श्रोता तुरन्त यह निष्कर्ष निकालेगा कि ‘‘दूसरा द्वार बन्द है।’’ लेकिन इस प्रकार के तर्क में हम पहले दो वक्तव्य के आधार पर किसी निष्कर्ष पर छलांग कर नहीं पहुंच सकते। दूसरा द्वार भी खुला हो सकता है। हम नहीं जानते। हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते जब तक हमें यह स्पष्ट न बताया जाए कि दूसरा द्वार बन्द है।

    अतः श्रोता, पाठक या शिष्य समझने में कोई गलती न कर जाएं, इसलिए गुरु हमें स्पष्ट बताता है कि कौन-सा द्वार खुला है और कौन-सा बन्द है। यह शिष्य या श्रोता की अपनी समझ पर नहीं छोड़ा जा सकता।

    लेकिन गुरु सिर्फ इसी कारणवश अपने निर्देश स्पष्ट नहीं करता। जब सत्य हमारे अन्दर पैठता है तो उसे पूरा पैठना चाहिए, कोई भी भाग अनपैठा न रह जाए, न उसके पैठने में हमारे अन्दर से कोई प्रतिरोध पैदा हो। जब कोई बात स्पष्ट न की जाए तो दिमाग उसके अपने विकल्प तलाशने लगता है और अपने तर्क बनाने लगता है। फिर वह बताए हुए मार्ग पर ध्यान एकाग्र नहीं करता। वह बात का मर्म नहीं समझ पाता और धीरे-धीरे बहकने लगता है। इसी बहकाव से उसे थकान भी महसूस होती है। एक थका मन तो गलती करेगा ही।

    जीवन में प्रायः हम पहले दावे तर्क की पद्धति का प्रयोग कर निष्कर्षों पर छलांग लगाते रहते हैं जबकि हमारे निर्णय दूसरी तर्क पद्धति के अनुसार किए जाने चाहिए। जैसे ही किसी ने कहाः ‘‘आपके अंदर करुणा का अभाव है,’’ तो हम तुरन्त बचाव की मुद्रा में आकर कहने लगते हैं: ‘‘आपका मतलब है मैं खूँखार हूँ?’’ यह कहने की कोई जरूरत नहीं। किसी का वक्तव्य है कि ‘‘तुममें करुणा का भाव नहीं है’’ तो इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि ‘हम नृशंस है या हिंसक हैं!’’ इस प्रकार निष्कर्षों पर ऐसी मनचाही छलांगें लगाकर न सिर्फ हम अपने लिए परेशानी पैदा करते हैं वरन् दूसरों को भी विचलित कर देते हैं। इस प्रकार की गलती हम प्रायः करते हैं।

    हम ऐसी गलती प्रायः तभी करते हैं जब हम बिना पूरी जागरूकता के अपने दिमाग का प्रयोग करते हैं। यह समझ लें कि वे शब्द जो हमारे अन्दर गूँजते रहते हैं और बारम्बार उभरते हैं, हमारा पूरा जीवन बचा सकते हैं। यदि शब्द ऊर्जा में कोई निष्कर्ष निकाला गया तो सभी के लिए हम परेशानी पैदा कर देते हैं। हमें पूरी जागरूकता के साथ ही अपना दिमाग लगाना चाहिए।

    साधारण गुरुजन अपना दर्शन तर्क की दूसरी पद्धति से स्पष्ट करते हैं, इसलिए उनकी सही समझ नहीं हो पाती। पर कृष्ण तो जगद्गुरु हैं। उन्हें सभी के मन का भाव मालूम रहता है। उन्हें यह तर्क की समस्या भी ज्ञात होगी। इसलिए वे अपना संदेश इस तरह दे रहे हैं कि हम किसी निष्कर्ष पर ‘कूद’ ही नहीं सकते। वह तो (पिछले उदाहरण में दिए गए) तीनों वाक्यों (संभावनाओं) को स्पष्ट करते हैं। वह तो कहते हैं: ‘‘वहाँ दो दरवाजे हैं, एक दरवाजा खुला है और दूसरा बन्द है।’’ यानी किसी और कल्पना या विकल्प ढूँढ़ने की कोई गुंजाइश ही नहीं है! वह हमको हमीं से बचा रहे हैं (कि हम कहीं खुद को बहका न दें)।

    यदि हम इस प्रकार जल्दबाजी में निष्कर्षों पर ‘कूदते’ रहेंगे तो हम पूरा संदेश और उसमें निहित सत्य ग्रहण नहीं कर पाएंगे। कृष्ण इस भटकाव से हमें बचाते हैं। इसलिए वह हर अध्याय में वही सत्य एक फर्क तर्क पद्धति के द्वारा स्पष्ट करते हैं। यानी बात वही कहते हैं पर तर्क के विभिन्न स्तरों के साथ जिससे सुनने वाले गलती से भी उनका सही संदेश पाने से वंचित न हो जाएं।

    अरबों में से कोई बिरला ही

    मुझ तक पहुंच पाता है

    7.1 कृष्ण भगवान बोलेः पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित्त तथा अनन्य भाव से मेरे पारायण में होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार सम्पूर्ण विभूति-बल ऐश्वर्यादि से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशय सहित जानेगा-उसको सुन!

    7.2 मैं तेरे लिए इस विज्ञानसहित तत्त्वज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता।

    7.3 परन्तु हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मेरी प्राप्ति का प्रयत्न करता है और उन प्रयत्न करनेवाले योगियों में भी कोई ही पुरुष मेरे परायण होकर मुझको तत्त्वतः जानता है, अर्थात् यथार्थ रूप में समझ पाता है।

    7.4 पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार के द्वारा ऐसे आठ प्रकारों में बंटी हुई मेरी प्रकृति है।

    7.5 यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा-मेरी जड़-प्रकृति है। और यहां कहो! इससे दूसरों को, जिसमें यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीव रूपी अर्थात् चेतन-प्रकृति ज्ञान।

    बार-बार लोग मुझसे पूछते हैं: ‘‘स्वामीजी! आपने भगवतगीता पर ही प्रवचन देना क्यों चुना? ‘अष्टावक्र गीता’, ‘पतंजलि योग सूत्र’ ब्रह्मसूत्र’ या ‘उपनिषद्’ पर क्यों नहीं?’’ मैंने बताया, इसलिए कि गीता सत्य को सम्पूर्णता से उद्घाटित करती है। कृष्ण ने हर प्रकार के आदमी के लिए कुंडलियां तैयार की हैं। वह हर आदमी की जिज्ञासा या इच्छापूर्ति करते हैं। वह कहते हैं: ‘‘अर्जुन, सुन! सम्पूर्ण चेतना को मुझमें स्थापित कर और ध्यान मुझमें ही एकाग्र कर जो योग करते हैं वह निःसंदेह मुझ तक पहुँचते हैं।’’ इस वक्तव्य में कृष्ण ‘मुझ’ का तीन बार प्रयोग करते हैं। यह देखकर कोई मनोचिकित्सक तो यही कहेगा कि कृष्ण बेहद ‘अहम्वादी’ हैं। बार-बार कृष्ण कहते हैं: ‘‘मुझमें समर्पण कर-मैं ही सब कुछ हूँ।’’ यहाँ समझना चाहिए कि वह अपनी (ईश्वर की) गरिमा का बखान कर रहे हैं। वह जो कृष्ण को अहम्वादी समझता है, गीता द्वारा स्थापित सत्य को गवां देता है। इसी तरह वह जो कृष्ण को प्रेम करता है और उनके रूप माधुरी में डूब जाता है, गीता के असली रस से वंचित हो जाता है।

    जब लोग इस रूप जाल में उलझते हैं तो वे रूप की पूजा करते हुए धीरे-धीरे यही कहने लगते हैं: ‘‘गीता महान है। कृष्ण ही ईश्वर हैं।" वह निश्चित ऐसा कुछ कह सकते हैं पर शायद यह हमारे लिए नहीं है। यह व्यावहारिक नहीं है। इस तरह की उक्तियाँ उनके और कृष्ण के मध्य एक दूरी पैदा कर देती है। वे बजाए गीता का अध्ययन, मनन करें, उसकी पूजा करने लगते हैं। यदि हमारे पास घड़ा भरा शुद्ध दूध हो और बजाय उसको पीने के हम रोज ही उसकी पूजा करें तो क्या हमारा स्वास्थ्य बनेगा? भई! दूध का फायदा तो उसे पीकर ही मिल सकता है।

    जब तक हम कृष्ण की कही बातों को आत्मसात् नहीं करते, हमें गीता से कोई लाभ नहीं मिलने वाला। इसलिए मैं तो सदा लोगों को समझाता हूँ कि यहूदियों ने क्राइस्ट से अपना बचाव उसे सूली पर चढ़ाकर किया और हिन्दुओं ने कृष्ण से बचाव उन्हें पूजकर और उनकी फोटो दीवार पर टांग कर की है। जब हम कृष्ण की कही हुई बातें अपने जीवन में चरितार्थ नहीं करते तो कृष्ण की पूजा ऐसी ही है मानो उनको सूली पर चढ़ा दिया जाए। यानी यह सत्य से बच निकलने का एक शातिर तरीका है।

    लेकिन वे लोग जिन्होंने क्राइस्ट को सूली पर चढ़ाया, कम-से-कम एक बड़ी गलती करने का अपराधबोध तो रखते हैं, कृष्ण को (उनका चित्र) दीवार पर लटकाने वालों को यह ग्लानि भी नहीं होती। अर्थात् बड़ी चतुराई से वे कृष्ण-शिक्षा से पलायन कर लेते हैं। वे लोग जो कृष्ण की तफरीह करते हैं, उन्हें अहम्वादी समझते हैं। उनके रूप के पूजक उनके वे प्रेम में ही मस्त रहते हैं। पर गीता को वही समझ पाता है जो कृष्ण (के बताए सत्यों को जीवन में) को अनुभव करता है।

    ईश्वरत्व की तरफ बढ़ना ही

    सही रास्ता है

    हम इस अध्याय में, बहरहाल, हम बताएंगे कि किस प्रकार मानव को ईश्वरत्व की ओर बढ़ना चाहिए, क्यों बढ़ना चाहिए और किस स्तर पर आकर उन्हें ऐसा करना सही रहेगा। बाइबल की एक सुन्दर उक्ति हैः ‘‘ईश्वर ने मनुष्य को अपने ही साँचे में ढालकर बनाया है,’’ पर मैं आपसे कहता हूँ: ‘‘मनुष्य ने अपने साँचे के अनुसार ईश्वर को पैदा किया है।’’ यानी हम ईश्वर को उसी रूप में देखते हैं जिस रूप में हम चाहते हैं कि यह हमारी सेवा (भला) करें। हम ईश्वर की तरफ किस स्तर से बढ़ें? हम परिपक्वता कैसे प्राप्त करे? कृष्ण इन्हीं प्रश्नों का उत्तर इस अध्याय में देते हैं: ‘‘कई सहस्रों में से कोई एक सम्पूर्णता पाने का प्रयास करता है,’’ वह कहते हैं और ‘‘उनमें से भी कोई एक बिरला व्यक्ति मुझे सत्य रूप में देख (समझ) पाता है।’’ उन्होंने ‘कई हज़ार’ ही कहा है, पर मैं कहता हूँ: ‘अरबों में से’। शायद उन दिनों जनसंख्या इतनी ज्यादा नहीं थी- इसलिए वे सिर्फ हजारों की बात करते हैं। अब तो यह मानना चाहिए कि ‘अरबों में से’ कोई एक प्रयास सफल हो पाता है।

    मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चियतति सिद्धये।

    यततामपि सिद्धानां कश्चिन्यां वेत्ति तत्त्वतः।।

    यहाँ भी लाखों लोग हैं पर गीता के इस प्रवचन को सुनने के लिए कुछ सौ ही आ पाए हैं। और इन कुछ सौ में से भी कुछ ही वैसे सुन पाएंगे जैसी गीता अभिव्यक्त की जाती है। हम यह सुन तो लेते हैं पर ध्यान से नहीं। यह न समझें कि सुनना सदा पूरी समझ से सुनना होता है।

    मैं प्रायः लोगों से अनुरोध करता रहता हूँ कि मेरी कही बात किसी दूसरे के सामने न दुहराएं। यदि कहना ही हो तो कृपा करके यूँ कहेः ‘‘मैंने यह बातें सुनी थीं।’’ साथ में यह कभी न जोड़ें- ‘‘स्वामीजी ने ऐसा कहा था।’’ क्योंकि कई बार हम कही गई बात को पूरा ग्रहण नहीं कर पाते। आधुनिक वैज्ञानिकों का कथन है कि हमारे चारों तरफ जो होता रहता है उसका 2 प्रतिशत ही हम ग्रहण कर पाते या समझ पाते हैं। यह तो ऐसा ही है जैसे कि 100 पृष्ठों के एक उपन्यास को आप सिर्फ इसके दो ही पृष्ठों में दुबारा रचना चाहें? यह मूल उपन्यास को कितनी ईमानदारी से व्यक्त कर पाएगा? इसी प्रकार मेरा कहा हुआ भी आप मात्र 2 प्रतिशत ही ग्रहण कर पाते हैं। और यदि इस पूरे प्रवचन के मात्र 2 प्रतिशत से आप पूरा प्रवचन दुहराना चाहें तो वह आपका प्रवचन ही होगा, मेरा नहीं। इसलिए यहां जब तक बैठें, इस बारे में पूरी तरह स्पष्ट समझ रखें। इसका यह भी अर्थ नहीं कि आप यहाँ, बैठकर पूरे ध्यान से सुने भी न। यदि आप लोगों को बताना चाहते हैं जो मैंने कहा है, तो कृपया इस प्रकार कहेः ‘‘मैंने नित्यानन्द जी को यूँ कहते सुना है," यह नहीं कि ‘नित्यानंद ने कहा’ क्योंकि आप अपनी सोच में निष्कर्षों पर तुरन्त पहुँचते रहेंगे और सही-सही बात नहीं पकड़ पाएंगे।

    गुरु या स्वामी तो सदैव अपने अनुभवों को साझा करने को तैयार रहता है। यही तो उसके जीवन में मिशन होता है। किसी प्रबुद्ध ज्ञानी को जो असीम करुणा की अनुभूति होती है वह सदा अपने बाँटे जाने को तत्पर रहती है। वह स्वयम् ही उसको ज्यादा-से-ज्यादा वितरित करना चाहता है। इसलिए कृष्ण यहाँ कहते हैं कि वह अब समझाने को तैयार हैं। प्रश्न ये हैं कि क्या अर्जुन सुनने को तैयार है? क्या हम, अब भी सुनने को तैयार हैं?

    यह कृष्ण क्यों कहते हैं कि बहुत कम लोग इस तरफ प्रयास करते हैं और उनमें भी बहुत ही थोड़े सफल हो पाते हैं। स्मरण रहे कि वह आत्म-साक्षात्कार की बात यहाँ कर रहे हैं। यानी यह समझने की कि हम हैं क्या? यह प्रयास करना भी इतना कठिन क्यों है? हम इस ओर प्रयास ही नहीं करना चाहते क्योंकि हमें भय लगता है। किसी भी मौन की अवस्था में हम बेचैन हो जाते हैं। यदि मैं कुछ देर को मौन धारण किए श्रोताओं के सामने बैठा रहूँ तो सब में ही एक बेचैनी व्याप्त हो जाएगी और थोड़े विचलित हो जाएंगे।

    हमें ध्यान करना इतना मुश्किल क्यों प्रतीत होता है? आधा घन्टा भी मौन होकर हम इस एकाग्रता के साथ नहीं बैठ सकते? स्वयम् को इतना समय भी नहीं दे सकते? क्यों? हम एक ही अखबार बार-बार क्यों पढ़ना चाहेंगे? यह समझ लें कि इन सबका एक भाग ही कारण है-हम अपने साथ अकेले रहने में भयभीत होते हैं। पर हम अपने साथ रहने में भयाक्रान्त क्यों रहते हैं? इन सवालों का उत्तर हमें स्वयम् से पूछना चाहिए।

    यदि आत्मानुभूति पाने का अर्थ है उसी स्थिति को लौटना जहाँ से हम आए हैं और हम जानते हैं कि वह स्थिति तो आनन्द एवम् दिव्यता से परिपूर्ण थी, तो हम अपने साथ से इतना घबराते क्यों हैं? सत्य तो यह है कि हम भूल चुके हैं कि हम कहाँ से आए हैं। हमारा जिस तरह से पालन-पोषण होता है और हमें ‘शिक्षित’ किया जाता है उसमें यह संभव ही नहीं कि हमें ज्ञात हो पाए कि हमारा उत्स आनन्द से है और या हम उसे पुनः प्राप्त कर सकते हैं। यदि हमें यह मालूम हो सके कि कितना आसान है उस आनन्द के स्रोत तक वापस पहुँचना-यानी अपने भूल उन तक, तो फिर हमें कोई रोक नहीं सकता। पर यह बन्धन हमारा समाज, धर्म, राजनीतिक और पारिवारिक नियम-प्रतिबन्ध पैदा कर हमें रोकते हैं। ये सब प्रतिबन्ध के सिद्धान्त पर काम करते हैं।

    जिस क्षण हमें अनुभूति हो जाए कि हम वास्तव में कौन हैं, हम मुक्त हो जाते हैं। फिर यह सारी संस्थाएं हमारे मार्ग में कोई बाधा नहीं डाल पाएंगीं। पर वे हमें चारा डालकर दण्ड की लकड़ी अपने हाथ में रखते हैं। बचपन से ही हमारा पोषण ऐसा किया जाता है कि हम अपने अन्दर गहराई से न झाँक पाएँ-क्योंकि यदि हम ऐसा कर पाए तो हम सत्य जानकर तुरन्त मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। तब हमें न मंदिरों की जरूरत रहेगी, न चर्चों या मस्जिदों की, न धर्मगुरुओं या राजनीतिक लीडरों की। पर ये संस्थाएँ हमारे अन्दर भय पैदा करती हैं कि यदि हमने उनकी बात नहीं मानी तो सब जगह अराजकता और विलम्ब फैल जाएगा।

    पर कोई पूछे कि हमारे खुद को जान लेने से, इस सत्य को समझ लेने से, भय या अराजकता क्यों फैलेगी? शायद इसलिए कि यह ज्ञान और इसकी जागरूकता हमारे अन्दर से सारा बहम और भय हटा देगा। तब प्रसन्नता के लिए हमें बाहरी प्रलोभनों की कोई जरूरत नहीं रहेगी। हम पूरी तरह मुक्त हो जाएंगे। पर समाज को यह अपने अस्तित्व के लिए एक बड़ी चुनौती या खतरा लगता है। हमारे समाज में ज्यादातर लोग इन गहन सत्यों से वाकिफ़ नहीं है और जो कुछ लोग जानते भी हैं वे इनसे बचते ही है क्योंकि व्यावहारिकता में इन्हें उतारने में इतना सत्य पचाना मुश्किल ही होगा! यही समझ हर समाज अपनी पीढ़ियों को देता रहता है जिससे वे अपने गहन भ्रम में पड़े रहते हैं। उनके लिए ऐसा करना बहुत सुविधाजनक भी है।

    आदि शंकराचार्य-भारत के महान संत-यही बात अपनी प्रसिद्ध कृति ‘भजगोविन्दम्’ में यूँ कहते हैं: का ते कान्ता, कस्ते पुत्रः ? अर्थात् जब गमन की बेला आती है तो पत्नी और पुत्र कहाँ होते हैं? सभी को अकेले ही जाना पड़ता है। अकेले ही सब आते हैं और अकेले ही जाते हैं। एक बार आपका शरीर ठण्डा (मृत) हुआ तो आपसे अति प्रेम करने वाली आपकी भार्या भी आपसे डरने लगती है।

    इसलिए यदि हमें सत्य जानना है तो हमें अपना खास ख़याल रखना पड़ेगा। हमें थोड़ा स्वार्थी भी होना पड़ेगा क्योंकि इस आत्मानुभूति के अन्वेषण में बगैर स्वार्थी हुए आप मार्ग पर प्रवेश ही नहीं कर सकते। लेकिन इस स्वार्थ का मूल प्रयोजन स्वार्थरहित होने की अदम्य चाह ही है। क्योंकि जब हम अपने असितत्व की मूल तह तक पहुँच जाते हैं तो हम सारी मानवता से एकात्म हो जाते हैं। फिर तो हमारे बीच किसी प्रकार का भेदभाव रह ही नहीं जाता। इसलिए हमारा जीवनसाथी भी हमसे खुश नहीं होगा यदि हम स्वयम् को पहचान जाते हैं। क्योंकि हम तब उनके अधिकार-संग्रह क्षेत्र से परे चले जाएंगे। इस समय में हम समग्र मानवता के साथ अपने आनन्द का साझा करते हैं। उनको (जीवनसाथियों को) भी समझना चाहिए कि उनका प्राणाधार समस्त जगत के साथ जुड़ गया है और आत्मानुभूति का प्रेमानन्द अनन्त है, और या यह जितना बाँटा जाएगा उतना ही बढ़ेगा।

    आत्मानुभूति प्राप्त करने का मार्ग वस्तुतः एकाकीपन का मार्ग है। यह अकेलेपन का मार्ग होते हुए भी इसमें तनहाई या अलगाव या ‘अकेलेपन’ का भाव नहीं होता। यह वह ‘एकाकीपन’ है जिसमें सब एक ही लगते हैं-यानी अलग-अलग खंडों में कटे हुए नहीं वरन् सम्पूर्णता में एक। तब हम एक द्वीप नहीं समग्र विश्व का रूप होते हैं।

    यही वह ज्ञान है जो कृष्ण समस्त मानवता को देते हैं। अपनी गहन करुणा से वह कहते हैं: ‘‘मुझे सुनो और अपनी आत्मा में मुझे पहचान कर मुक्त हो जाओ।’’ करोड़ों में एक ही उनकी बात मानकर इस पथ पर अग्रसर होते हैं। इसलिए करोड़ों में एक को ही यह आत्मानुभूति होती है और जिसने स्वयम् को प्राप्त कर लिया उसने मुझको (ईश्वर या कृष्ण को) पा लिया। क्या यह पथ दुष्कर है? नहीं। ऐसा नहीं है। पर यह मुश्किल क्यों लगता है? असल में हमें बाहरी विश्व इतना मोहक लगता है कि हम कभी इस आत्म-खोज की यात्रा पर जाने का प्रयत्न ही नहीं करते। दूसरों को दोष लगाना हमेशा आसान रहता है और इस आड़ में हम वहीं रहने का तर्क ढूँढ़ लेते हैं जहां थे। हम परिवर्तन मार्ग पर बढ़ना ही नहीं चाहते।

    बुद्ध हमारे मन की तुलना एक बन्दर के साथ करते हैं जो सदा एक स्थिति से दूसरी के लिए उछलता रहता है। यही फर्क है हममें और पशुओं में। पशुओं या पौधों में भी बुद्धिमत्ता एवं भाव होते हैं जैसा कि साइंस (विज्ञान) सिद्ध कर चुकी है। परन्तु उनके मन बन्दर जैसे उछल कूद नहीं करते रहते। बन्दरों का मन भी ऐसा नहीं होता। पशु सदा प्रकृति के साथ रहते हैं: वे तब खाते हैं जब उन्हें भूख लगती है और जब थक जाते हैं तब सो जाते हैं। परन्तु मनुष्यों के पास तो मन रूपी एक शक्तिशाली औजार है जिसके द्वारा वे स्वयम् को बना या बिगाड़ सकते हैं। और ज्यादातर क्या हमेशा वे प्रकृति के विरुद्ध ही काम करते हैं।

    पूरी गीता में कृष्ण यही बताते हैं कि मन को कैसे नियंत्रित करें। यह करने के लिए हमें सिर्फ इस महायोगी, जगत्गुरु का निर्देशन स्वीकार करना है। निःसन्देह हम उन हजारों-अरबों में से एक हो सकते हैं जो उनसे एकात्म हो सकता है। परन्तु उनका अनुसरण करने के लिए हमें उनको समझना जरूरी है। इन श्लोकों में कृष्ण बताते हैं कि वह कौन हैं। वह स्वयम् को खास तौर पर अपनी प्रकट ऊर्जाओं के रूप से अलग करते हैं। पाँच मूल तत्त्व, मन-बुद्धि, अहंकार बेशक उनकी ही ऊर्जा का प्राकट्य है, पर वे ऊर्जाएं स्वयम् वे नहीं हैं।

    प्रकट रूप और अप्रकट रूप

    हिन्दू दर्शन, ‘सांख्य’ एवम् वेदान्त के सिद्धान्तों के अनुसार पुरुष और प्रकृति का संयोग सृष्टि का मूल कारण है। पुरुष और प्रकृति अप्रकट ऊर्जा के स्रोत हैं जिनमें पुरुष अकर्मक और प्रकृति कर्मक स्रोत माने जाते हैं। हर चीज़ का विश्व में उद्गम इन्हीं दोनों के समागम से होता है।

    प्रकृति वैश्विक (कॉस्मिक) और व्यक्तिगत बुद्धिमत्ता प्रदाता है जो पंच महाभूत या मूल प्राकृतिक तत्त्वों का भी कारण होती है। तैत्तरीय उपनिषद् स्पष्ट करती है कि आकाश तत्त्व का निर्माण भी वैश्विक ऊर्जा से ही होता है जिसे ‘ईश्वर’ ऊर्जा भी कहते हैं और जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त रहती है। यही ऊर्जा वायु पैदा करती है जो हमारे शरीर-मन तंत्र को प्राणवायु या जीवन ऊर्जा प्रदान कर जीवित रखती है।

    वायु ऊर्जा से ऊष्मा-ऊर्जा या ‘अग्नि’ पैदा होती है। ‘आपस’ या ‘जल ऊर्जा’ अग्नि ऊर्जा से पैदा होती है। पृथ्वी की ऊर्जा का स्रोत जल की ऊर्जा ही होती है। तैत्तरीय उपनिषद् आगे कहती है कि पृथ्वी ऊर्जा से पेड़-पौधे और भोजन (या भोज्य तत्त्वों) का निर्माण होता है जो मनुष्य जीवन का उत्स बनाते हैं। मनुष्य में बुद्धिमत्ता समस्त वैश्विक बुद्धिमत्ता का ‘होलोग्राम’ (निचोड़) होता है। इस प्रकार ऊर्जा का चक्र सम्पूर्ण होता है।

    यह ‘ऊर्जा-वृक्ष’-सूक्ष्म ऊर्जा प्राकट्य से स्थूल प्राकट्य तक-एक तरह से सृजन की पूरी कहानी सुनाता है। सहस्रों वर्ष पूर्व हमारे प्राचीन वैदिक सभ्यता के मनीषियों ने इन सत्यों का उद्घाटन बिना किसी बाहरी सहायता के किया था। उनके अन्तर्मुखी ध्यान में उन्हें इनका प्रज्ञा-ज्ञान हुआ था, बाहर सृष्टि के अवलोकन से नहीं। इसलिए हमारे वैदिक रीति-रिवाज बड़े सार्थक हैं। आज वे हमें जाहिरी तौर पर दकियानूसी और निरर्थक इसलिए लगते हैं क्योंकि उनमें निहित अर्थों का जुड़ाव हम खो चुके हैं। आध्यात्मिकता का अर्थ है अपनी हर गतिविधि में इसी आत्म-तत्त्व की उपस्थिति देखना।

    अग्नि से सम्बन्धित सारे रीति-रिवाज वे तरीके हैं जिनके द्वारा ईश्वर या आकाश तत्त्व से वैश्विक ऊर्जा प्राप्त कर उसका व्यक्ति में संचार किया जाता है। प्राकृतिक पंच महाभूत तत्त्वों से प्राप्त ऊर्जा में हम पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को तो सीधे प्राप्त कर सकते हैं। हम अपने भोजन, पेय इत्यादि द्वारा इन्हीं ऊर्जाओं को प्राप्त कर और इनका निष्क्रमण कर जीवन को कायम रखते हैं। परन्तु हम अपने मन के रोड़े के कारण आकाश तत्त्व में प्राप्त ऊर्जा या ईश्वर ऊर्जा से सीधे संपर्क नहीं कर पाते।

    ध्यान करना ही वह एकमात्र तरीका है जिससे हम ब्रह्माण्ड की वैश्विक ऊर्जा को ग्रहण या आत्मसात् कर सकते हैं। वैदिक अग्नि सम्बन्धी कृत्य सामूहिक ध्यान की प्रक्रिया दिखाते हैं-यानी कई लोगों का एक साथ ध्यानाभ्यास। हमें इनमें सिर्फ उपस्थित रहकर ऊर्जा को अपने में जज्ब करना होता है, भले ही हमारे अन्दर ध्यान करने की क्षमता हो न हो।

    वैश्विक चेतना या बुद्धिमत्ता का प्रतिबिम्बन मानव या उसके मन द्वारा होता है। मन से यह ऊर्जा इन्द्रियों तक जाती है जिनके द्वारा बाह्य दिशा से हमारा संपर्क होता है। हमारी पाँचों इन्द्रियाँ-यथा रूप, रस, शब्द, स्पर्श और घ्राण-बोध देने वाले संपर्क सूत्र का सीधा सम्बन्ध प्राकृतिक पंच तत्त्वों से होता है। ईश्वर या आकाशतत्त्व का सम्बन्ध ध्वनि के माध्यम से कानों से, हवा का स्पर्श से, अग्नि का रंग और रूप से और इसलिए दृश्य और आंखों से, जल का स्वादेन्द्रिय से और पृथ्वी का घ्राण शक्ति या नाक से होता है। मन को इन्हीं इन्द्रिय बोधों से सूचना प्राप्त होती है और इसके आधार पर वह अपना कर्म निर्धारित कर कर्मेन्द्रियों को कार्यशील करता है। लेकिन जब इन्द्रियों का बाह्य विश्व से पूरा संपर्क तोड़ दिया जाता है तो उन्हें अपनी ‘खुराक’ नहीं मिल पाती और मन ‘बन्द’ हो जाता है। मन के बंद होने से विचार भी पैदा होने रुक जाते हैं। अहम् भाव भी तो मन की ही पैदावार होती है। यह भी एक भ्रम का स्वरूप ही होता है, कोई सत्य नहीं। आत्म-साक्षात्कार या ईश्वरीय तत्त्व से मिलन तब ही संभव होता है जब अहम् ‘शून्य’ हो और मन ‘बंद’ हो। तब ही हमारी आंतरिक चेतना या बुद्धिमत्ता जागकर वैश्विक चेतना के साथ एकात्म होने लगती है।

    यहाँ कृष्ण इसी अहंकार की बात करते हैं। इसके द्वारा ही हम अपनी पहचान बाहरी विश्व में प्रक्षेपित करते हैं। यह सदा बढ़ी-चढ़ी रहता है क्योंकि हम अपने को ऐसा ही समझते हैं। हमारे ‘अहम् ’ का एक दूसरा पहलू भी है, जिसे ‘ममंकार’ कहा जाता है जो हम अपने अंतर की ओर प्रक्षेपित करते हैं। यह सदैव हमारी आंतरिक छवि दिखाता है जैसा हम मन में स्वयम् को समझते हैं। इसलिए यह सदा हमारी अपनी बाह्य छवि की तुलना में काफी घटा हुआ होता है।

    यह बाह्य और आंतरिक प्रक्षेपण में दो छवियों का फर्क तरह-तरह के तनाव, कष्टों और बेचैनी (व्याधियों) का कारण होता है। लेकिन जब हमारा अपने आत्म या ईश्वर से साक्षात्कार हो जाता है तो हमें लगता है कि हम भी वही ईश्वरीय चेतना है- या ईश्वर हैं- ‘उससे’ रंचमात्र भी कम नहीं। हमारी अपनी कोई भी प्रक्षेपित छवि इस आत्म-साक्षात्कार द्वारा प्राप्त छवि से नीची ही होती है। तब तो हम उन ऊर्जाओं के परे चले जाते हैं जिनका संयोजन हमारा निर्माण करता है। हमारे अन्दर साधारणतया यही कमी रहती है कि हमें इस दैवी चेतना के बारे में जागरूकता का एहसास नहीं रहता। हमारी सहज अवस्था स्वयम् को पहचानना है। एक बार यह समझ में आ जाए कि हम भी ईश्वर हैं तो कृष्ण और हमारे बीच कोई फर्क ही नहीं रहता और हम पूरी तरह प्रबुद्ध हो जाते हैं। कृष्ण यही साबित करने के लिए अवतरित हुए थे। उन्हें यह सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं थी कि वह ईश्वर है। उन्हें कोई परवाह भी नहीं होती कि हम यह बात जानते हैं या नहीं। उनका उद्देश्य था अर्जुन को ज्ञान देकर प्रबुद्ध करना और अर्जुन के माध्यम से समस्त मानवता को ज्ञान देना। उनका मिशन था (या है) यह सिद्ध करना कि हम भी ईश्वर हैं।

    मैं ही वह सूत्र हूँ!

    7.6 (अर्जुन)! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव (उत्पत्ति का कारण) तथा प्रलय हूँ।

    7.7 धनंजय! मेरे सिवा किंचित भी कोई दूसरी वस्तु नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र की मणियों (मनकों) सदृश गुँथा हुआ है।

    7.8 कौन्तेय! जल में मैं ही रस हूँ तथा चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार तथा आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।

    7.9 मैं पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि में तेज हूँ, सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ।

    ‘‘मैं ही वह सूत्र हूँ,’’ कृष्ण कहते हैं-‘‘वह तकनीक या एकता सूत्र हूँ जिससे सारा अस्तित्व बँधा रहता है।’’

    क्या सुन्दर उपमा है! इसलिए तो वह सूत्रधार है, अर्थात् समस्त विश्व के नाटक के निर्देशक एवम् नियंत्रक! उनकी ऊर्जा के अभाव में विश्व में न कुछ हो सकता है, न कुछ विनष्ट किया जा सकता है।

    लोग प्रायः मुझसे पूछते हैं कि मैं अपने आपको स्वामी-वह भी तृतीय पुरुष सम्बोधन में-क्यों कहता हूँ? मैं क्यों इस प्रकार के वस्त्र धारण करता हूँ और इस प्रकार अपनी तस्वीरें उतरवाने की अनुमति देता हूँ। मैं उनसे कहता हूँ कि मैं तो अपनी पहचान भी इस शरीर द्वारा नहीं बनाता हूँ। यह खाल भी मेरे लिए पराई प्रतीत होती है- मेरी खाल और इन आवरणों में मेरे लिए कोई फर्क नहीं है। पर उससे फर्क क्या पड़ता है? मैं तो अपने को ऐसे ही देखता हूँ जैसे तुम सब मुझे देखते हो-साक्षी भाव से! या वैसे जैसे कि कोई किसी मूर्ति को निहारे। यदि यह शरीर अच्छा वस्त्र धारण किए है तो मुझे अच्छा लगता है-जैसे किसी भी सुंदर वस्तु को देखकर किसी को लगता है।

    ईश्वर-एक विचार (धारणा)

    आपके लिए ईश्वर मात्र एक धारणा है; विचार है। ईश्वर का विचार किया और कई गुणों को उनके साथ जोड़ दिया। ईश्वर के बारे में ऐसे ही चर्चा की जाती है जैसे आप किसी मित्र या रिश्तेदार की बात करते हैं। आपके लिए सिर्फ आपकी अपनी पहचान असली है। इसके बिना तो आप खो जाते हैं। यानी वास्तविकता आपकी पहचान ही है। यह ‘मैं’ का भाव है जो आपको जीवन्त रखता है। परन्तु मेरे लिए ईश्वर ही वास्तविकता है, एकमात्र सत्य है। मैं ईश्वर के साथ ही नित्य वास करता हूँ। शरीर, मन या शरीर-मन तंत्र की पहचान मेरे लिए अस्तित्व नहीं रखती। यह तो मात्र एक अवधारणा है। इसलिए जब मैं अपना हवाला देता हूँ तो मैं इस शरीर मन-तंत्र को वैसे ही सम्बोधित करता हूँ जैसा आप इसे कहते हो। मैं भी स्वयम् को स्वामी या ऐसा ही कुछ कहता हूँ।

    सत्य तो यह है कि बिना परब्रह्म कृष्ण (विश्व की उस चरम सत्ता) की अनुमति के मैं तो एक उंगली भी नहीं हिला सकता। आपको यह विचार ‘बकवास’ लग सकता है। कभी वह कहता है कि ‘वह प्रबुद्ध ज्ञानी है और कभी कहता है वह स्वयम् कुछ नहीं करता-जो करता है ईश्वर ही करता है।’ पर आप इसे मानें या न मानें, समझे या न समझें, सत्य यही है।

    मेरे शिष्य जानते हैं कि जब कोई मुझमें गहरी श्रद्धा रखे हुए मेरे पास अपनी समस्या ले के आता है, तो मैं कहता हूँ: ‘‘मैं इसको देखूँगा!’’ यदि कोई ऐसा व्यक्ति आता है जो मेरे लिए गहन श्रद्धा का भाव विकसित करने वाला है तो मैं कहता हूँ कि मैं उसके लिए ‘आनन्देश्वर’ से प्रार्थना करूँगा। वे सभी प्रसन्नचित्त होकर वापस चले जाते हैं। जब मैं कहता हूँ ‘मैं देखूँगा’ तो मैं वह समस्या ईश्वर को समर्पित कर देता हूँ। अब ये उसका काम है कि उसे दूर करें। क्योंकि मुझमें उनके लिए पूर्ण आस्था है और मैं कभी निराश नहीं होता।

    लोग जानते हैं कि रुद्राक्ष की या रक्तचन्दन की माला मात्र एक माला ही नहीं होती। यह ईश्वर से जुड़ी उनकी ‘हॉट वाइन’ का काम करती है। जब किसी को तुरन्त सहायता या किसी प्रकार की मदद चाहिए तो वे लोग माला लेकर जप करने या प्रार्थना करने लगते हैं। परिणाम प्रायः तुरन्त ही प्राप्त होता है।

    इस सब का मुझसे कोई ताल्लुक नहीं है- यह तो ईश्वर का खेल है। क्योंकि जैसे ही मुझे लगेगा कि यह मेरे ‘तप’ के कारण हो रहा है, यह होना बन्द हो जाएगा। इसमें ‘मैं’ कुछ नहीं करता हूँ या कर सकता हूँ। यह शक्तिवान ऊर्जा तो कुछ भी कर सकती है। महागुरु (कृष्ण) कहते हैं: ‘‘मैं वही नहीं जो तुम देखते हो। मैं वह ऊर्जा नहीं जो प्रकट होती है। यह मोर-मुकुटधारी बाँसुरीवादक छह फुट कृष्ण का कोई चमत्कार नहीं है। यह तो उस निराकार ऊर्जा का करिश्मा है जो वासुदेव (वसुदेव के पुत्र) के परे है; यह परब्रह्म कृष्ण का चमत्कार है जो यह सब कुछ होता है।’’

    जब हम कोई हार या माला देखते हैं तो क्या हमारी निगाह उसको जोड़ने वाले धागे पर जाती है? मोती या हीरे का हार हो तो उसका धागा सोने का ही होता है-पर धागे को तो हम तब ही देख पाते हैं जब हार टूट जाए और हीरे-मोती के मनके जमीन पर बिखर जाएं। और तब हम धागे को ही दोष देते हैं।

    कृष्ण कहते हैं कि वह हर माला का वह धागा हैं जिसके बिना कोई हार बन ही नहीं सकता-अर्थात् वे वह अदृश्य मूल तत्त्व हैं जिसकी अनुपस्थिति कोई पदार्थ कर ही नहीं सकता! क्या आपने सोचा है यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कैसे काम करता है? इसमें अरबों ग्रह-नक्षत्र, करोड़ों मन्दाकिनियाँ और कई तारे निहित होते हैं। सड़कों पर यातायात निलंबित करने के लिए पुलिसवाले और क्षतरियां लगी रहती हैं। पर अपनी मन्दाकिनी ‘मिल्की वे’ में तो न कोई पुलिसवाला दिखाई पड़ता है न कोई लाल बत्ती, लेकिन फिर भी सितारों के यातायात में तो कोई गलती या हादसा नहीं होता। पूरी व्यवस्था त्रुटिहीन रूप से कार्यरत रहती है।

    क्या आप उस बुद्धिमत्ता की कल्पना भी कर सकते हैं जो इन अनगिनत लोकों वाले ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करती है? यह कैसे होता है-इतनी आपा-धापी और इतनी जबरदस्त आवाजाही, जो वैसे ही अराजकतापूर्ण लगती है, पर पूरी तरह अनुशासन में रहती है- इसको कौन नियंत्रित करता है? क्या कोई इसका उत्तरदायी है या यह सब अपने-आप ही चलता रहता है? दूसरी तरफ अपने इस छोटे-से शरीर में देखें जिसमें हम सब गतिविधियाँ नियंत्रण में रखना चाहते हैं। पर इसके बारे में हम कुछ भी निश्चिंतता से नहीं कह सकते। पूरा नियंत्रण रखने के बावजूद गड़बड़ी कभी-न-कभी दिखाई ही पड़ जाती है। वस्तुतः मात्र नियंत्रण व्यवस्था नहीं ला सकता। सिर्फ व्यवस्था में स्वतंत्रता हो तो ही ऐसा संभव हो सकता है। संपूर्ण व्यवस्था और अव्यवस्था का कारण और प्रभाव कृष्ण का वैश्विक रूप ही है-वही व्यवस्था भी है और अव्यवस्था भी।

    कृष्ण ने अर्जुन को भगवद् गीता में जो उपदेश दिए हैं वह काफी गहरे और अर्थपूर्ण हैं पर अर्जुन के सामने वह पूरी स्पष्टता से उभरते हैं। ऐसा लगता है कि अर्जुन बालक है और कृष्ण उसके माँ-बाप या शिक्षक जो पूरी तन्मयता से उस बच्चे को पढ़ा रहे हैं। समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी को इतनी तन्मयता से उपदेश देना उनकी (मनुष्य या) अर्जुन के प्रति गहरी करुणा का परिचायक है। कृष्ण उसे बताते हैं कि वह किसी भी तत्त्व की असली गुणवत्ता है; वही आदि-ध्वनि प्रणव मंत्र ‘ओम्’ है और वही चाँद-सूरज में ज्योति का स्रोत है।

    बिना परब्रह्म कृष्ण की ऊर्जा के जीवन किसी भी रूप में अस्तित्व में ही नहीं रह सकता। लेकिन इस ऊर्जा क्षेत्र में रहते हुए भी हम ऊर्जा के इस स्रोत से विमुख हो जाते हैं। प्रसिद्ध रहस्यवादी कवि कबीर इसी बात को एक रूपक में ढालकर कहते हैं कि हम सभी उस मछली के समान हैं जो पानी में रहते हुए भी यही कहती रहती हैः ‘‘मैं प्यासी हूँ। (जल बिच मीन पियासी/मोहि सुनि-सुनि आवत् हाँसी)। कबीर चेताते हैं: ‘मूर्ख! जाग! तू मछली होकर जल में प्यासा नहीं रह सकता।’’

    यहाँ कृष्ण पूरी गहराई से यह स्पष्ट करते हैं कि वही सब कुछ हैं (इस ब्रह्माण्ड के) पर सबसे परे भी हैं। वही सृष्टा-ब्रह्मा, पालक-विष्णु और पुनर्जीवन-प्रदाता-शिव हैं। वही सब कुछ हैं और सबसे ऊपर (परे) भी हैं।

    मैं शाश्वत हूँ

    7.10 हे पार्थ! मैं ही सम्पूर्ण भूतों (जीवों) का सनातन बीज (उत्पत्ति स्रोत) हूँ तथा मैं ही बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।

    7.11 हे भरत श्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसिक्त और कामनाओं से रहित बल हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल ‘काम’ हूँ।

    7.12 तथा जो भी सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं उन सबको तू ‘मुझसे ही (उत्पन्न) होने वाले हैं-ऐसा जान! पर वास्तव में मैं उनमें नहीं वे मुझमें हैं।

    7.13 किन्तु गुणों के कार्यरूप सात्त्विक, राजस और तामस-इन तीनों प्रकार के भावों से यह संसार मोहित हो रहा है, इसलिए तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता।

    7.14 क्योंकि यह अलौकिक त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। जो पुरुष मुझको ही निरंतर भजते हैं, वे ही इस माया का उल्लंघन कर पाते हैं।

    7.15 माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा (छीना) जा चुका है-ऐसे आसुरी भाव वाले मनुष्यों में नीच और दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझे नहीं भजते।

    प्रभु कहते हैं: ‘‘मैं ही प्रजनन ऊर्जा हूँ’’, ‘‘मैं ही समस्त जीवों की उत्पत्ति का आदि बीज हूँ।’’ वह न कोई बहाना बनाते हैं न कोई खेद प्रकट करते हैं।

    वह कहते हैं कि मैं ही प्रजनन करने वाली ऊर्जा हूँ परन्तु इसमें कोई वासनात्मक कल्पना नहीं हैं।’’ वैसे सर्जक कोई कैसे हो सकता है बिना सर्जनात्मक शक्ति के?

    हमारे प्राचीन ऋषिगण-यथा महर्षि वशिष्ठ और व्यास-गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी व बच्चों के साथ ही रहते थे। परन्तु वे भी प्रबुद्ध ज्ञानी थे। सिर्फ हनुमान और गणेश को छोड़ दे तो हमारे सभी देवता विवाहित थे। कृष्ण के तो 16,008 पत्नियाँ थीं।

    जीवन अपने रूप में बिना प्रजनन या यौन-क्रिया के कैसे चल सकता है? यदि ब्रह्मचर्य (या सेली वेसी-कौमार्यपन) का स्वाभाविक रूप से पालन किया जाना है तो यह आवश्यक है कि प्रथम आध्यात्मिक अनुभव कैशोर्य अवस्था के बहाने ही हो जाए-यानी जीवन प्रदायिनी, यौन-ऊर्जा ऊर्ध्वगामी होकर भावातीत आध्यात्मिक ऊर्जा में बदल जाए। जिनका यह आध्यात्मिक जागरण हो जाता है वे परमहंस कहे जाते हैं क्योंकि उनका प्रारब्ध कर्म (अर्थात् कामनाएं जो जन्म के साथ पैदा होती हैं) ऐसा ही होता है।

    कैशोर्य अवस्था शुरू होने के पश्चात् ब्रह्मचर्य के लिए बाध्य रहना कठिन होता है। यह प्रक्रिया किसी ज्ञानी की देख-रेख में सम्पन्न होनी चाहिए। नहीं तो भिक्षु या संन्यासी (तथाकथित) सिर्फ ब्रह्मचारी होने का बहाना करते रहेंगे; उनके मन में तो तरह-तरह की यौन कल्पनाएँ चरितार्थ होकर फट पड़ने को व्याकुल रहेंगी। जैसा पहले स्पष्ट किया गया शब्द ‘ब्रह्मचर्य’ का मूल अर्थ हैः ‘वास्तविकता में रहना।’

    एक दंत-कथा के अनुसार कृष्ण एक बार अपनी गोपियों के समूह के साथ यमुना नदी को पार करने पहुँचे। नदी में बाढ़ थी। कृष्ण ने यमुना को सम्बोधित कियाः ‘‘यदि मैं सत्य रूप से ब्रह्मचारी रहा होऊँ तो हमें रास्ते दे दो पार जाने के लिए।’’ नदी ने रास्ता दे दिया और कृष्ण आराम से गोपियों के साथ दूसरे किनारे पर पहुँच गए।

    वहाँ पर एक संन्यासी यह सब देख रहा था। उसे बड़ा आश्चर्य हुआः ‘‘कृष्ण! ब्रह्मचारी? वह सदा अपनी प्रेमिकाओं से घिरा रहता है। प्रेमालाप करता है और कहता है कि वह ब्रह्मचारी है। यमुना भी इसे स्वीकार करती है! यह कैसे संभव है?’’

    कृष्ण इसी का मर्म यहाँ समझाते हैं! कल्पनाएँ हमारी समस्याओं की जड़ होती हैं। जैसे ही एक सत्य हुई, दूसरी पैदा हो जाती है। यानी हम सभी वास्तविकता में जी ही नहीं पाते। वास्तविकता में जीने के लिए वर्तमान क्षण में जीना जरूरी है। जब आप वर्तमान क्षण में जीते हैं तो आप कृष्ण होते हैं और जब विगत या आगत में घूमते रहते हैं तो हम कल्पनाओं के जाल में उलझ जाते हैं। हम तब अपने शरीर की सीमाओं में नहीं रहते। ऐसे तो हम सदा कष्ट ही पाते रहेंगे। यदि हम अपनी कल्पनाओं से त्राण पा सकें तभी हम आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। तब आपको अपने भोगवादी संग्रहण को त्याग करने की जरूरत भी नहीं रहती।

    तब आप अपनी धन-दौलत, काम, पत्नी-बच्चों के साथ आनन्द-भोग कर सकते हैं और अपना प्राप्य आनन्दपूर्वक प्राप्त कर सकते हैं। पर उस सबकी कल्पनाएं न करे जो आपके पास नहीं है। ज्यादा-से-ज्यादा के लालच से त्राण पाकर उसमें आनन्द लें जो आपके पास उपलब्ध है।

    अपने वर्तमान में लौटें, अभी और यहीं-यानी वास्तविकता में और आप ब्रह्मचारी हो जाएंगे।

    गुणों के परे जाना

    इन श्लोकों में कृष्ण गुणों की बात करते हैं-यानी प्राकृतिक प्रवृत्ति के बारे में समझाते हैं। प्रकृति, यानी वह ऊर्जा जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, के तीन प्रकार होते हैं। जब प्रकृति पूर्ण संतुलन में होती है, तब वह विशुद्ध विभव ऊर्जा होती है। जब यह संतुलन भंग हो जाता है तो गुण अपना रंग दिखाने लगते हैं। कोई विरला ही ऐसा व्यक्ति होता है जिसकी प्रकृति में मात्र एक ही गुण हो। प्रायः तीनों गुणों का समागम ही उपस्थित होता है। यह तीन गुण, जिनके बारे में कृष्ण उल्लेख करते हैं, सत्त्व, राजस और तमस जिनको साधारणतया शांति, वासनापूर्ण आक्रामकता और निष्क्रियता या अज्ञान के रूप में समझा जाता है।

    इन तीनों गुणों की आपसी अंतर्क्रिया मन को कार्यशील करती है और मन द्वारा सक्रियता दिखाती है। गुण किसी व्यक्ति की अवस्था का द्योतक नहीं होता वरन् इनके कारण मन की अवस्था बनती है। सत्त्व, स्वयम् शुभता या शांति का परिचायक नहीं होता; वह तो वह निर्माण खण्ड है जो शांति को स्थापित करता है। (यानी यह वह ईंट है जो इमारत बनाती है)

    कृष्ण कहते हैं कि जब कोई इन गुणों के पार जाता है वह कृष्ण यानी त्रिगुण रहित या त्रिगुणातीत हो जाता है। ऐसे व्यक्ति पर मन या कर्म का कोई असर नहीं होता। लेकिन जब ईश्वर का अवतार होता है तो उसमें से कोई-न-कोई गुण का प्राबल्य होता है, तभी वह ‘जीव’ बन जाता है। इसे यूँ समझें-शुद्ध सुवर्ण से कोई आभूषण तैयार नहीं हो सकता; स्वर्ण को ताँबे या किसी अन्य नीचे स्तर की धातु से मिलाना ही पड़ेगा-तभी गहना बन पाएगा।

    इसी तरह उस ऊर्जा का स्रोत, जो गुणातीत है, में थोड़ा सत्त्व गुण का प्राबल्य होना ही चाहिए तब ही वह धरती पर उतर सकता है या इस जीवन में मिल सकता है। इसलिए वासुदेव कृष्ण (वसुदेव के पुत्र) में भी पृथ्वी पर आने के लिए किसी गुण की प्रबलता होनी चाहिए।

    परन्तु यह स्मरण रहे कि भगवद् गीता परब्रह्म कृष्ण के मुँह से निकली है, वासुदेव कृष्ण के मुँह से नहीं। इसलिए वह स्पष्ट कहते हैं: ‘‘मैं गुणातीत हूँ: परम पुरुष हूँ; जो प्रकृति को जाग्रत करता है।’’ वह स्वयम् प्रकृति के प्रभाव से परे रहता है।

    इस पादार्थिक विश्व में प्रवेश करने वाले लोगों में हम इन तीनों गुणों का प्रभाव स्पष्ट देख सकते हैं। साधारणतया लोग राजस के प्रभाव में होते हैं- यानी आक्रामक वासना से भरे हुए तथा अन्य गुण, सत्त्व और तमस का यथोचित अनुपात लिए। क्रियाशीलता में राजस गुण की प्रमुखता आवश्यक है।

    जब लोग आश्रम के वातावरण में आते हैं-वैराग्य और निरासक्ति को प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हुए-तब प्रायः गहरे तमस या अकर्म स्थिति में डूब जाते हैं। वह अवस्था निष्क्रियता की ही होती है जब पूर्व जीवन की सारी अर्थहीन गतिविधियों के संवेग को दबाया जाता है और आप अकर्मण्य हो जाते हैं। देर तक सोना तथा कुछ भी न करने की इच्छा होना। परन्तु यह तो गुजारने वाला काल होता है-धीरे-धीरे कट जाता है। सारे दबे भाव उभरते जाते हैं और विगलित होते जाते हैं। तब आप सत्त्व में प्रवेश करते हैं। यह सुनकर आश्चर्य जरूर हो सकता है कि सत्त्व में प्रवेश के पूर्व व्यक्ति तमस में आता है। पर होता ऐसा ही है। तमस में घिरा हुआ व्यक्ति वह होता है जो कृष्ण के प्रति समर्पण नहीं करता। ऐसा व्यक्ति अज्ञान के अंधकार में ही रहता है-उसे अपनी ऊर्जा के विभव या संभावना का ज्ञान तक नहीं होता। उस समय वह पशु से ज्यादा कतई नहीं होता। ‘माया’ भी इन गुणों की अंतर्क्रिया से प्रभाव दिखाती है। माया वस्तुतः हमारी विभिन्न कल्पनाओं का संयोजित रूप होता है। जैसे अंधकार का नाश प्रकाश से होता है, माया को हम जागरूकता से खत्म कर सकते हैं।

    भागवद् पुराण (जो विष्णु के अवतार कृष्ण की विभिन्न लीलाओं पर आधारित है) में एक कथा दी गई है।

    नारद भगवान विष्णु के महान भक्त हैं। वे सदा नारायण-नारायण का जाप ही करते रहते हैं। एक बार अपनी इस स्थिति को लेकर उनके मन में घमण्ड आ गया। वे सोचने लगे कि शायद वही भगवान विष्णु के महानतम भक्त हैं। भगवान ने उनका घमण्ड दूर करने के लिए उनसे कहा कि वे जाकर एक बर्तन में थोड़ा-सा पानी ले आएं। जैसे ही नारद चले सामने एक मकान दिखाई दिया। उसमें से एक रूपवती कन्या निकली, पानी का बर्तन लिए हुए। नारद उसके रूप में इतना खो गए कि उस कन्या से शादी कर ली और वहीं रहने लगे। कुछ समय बाद उनके बच्चे भी हुए। एक दिन बड़े जोर की आँधी आई और भयंकर बरसात हुई। सब कुछ उस बाढ़ में बह गया। नारद और उनका परिवार भी...... पर नारद अपने परिवार से बिछड़ गए। नारद अब सहायता माँगते हुए और विलाप करते हुए इधर-उधर भटकने लगे, अचानक उन्हें एक आवाज सुनाई पड़ीः ‘‘नारद्! तुम पानी लेकर क्यों नहीं आए? तुम्हें क्या हो गया?’’

    नारद को लगा मानो वह गहरी नींद से जागे हों। उन्होंने देखा तो मुस्कराते हुए विष्णु उनके सामने ही खड़े हैं और वह कह रहे हैं: ‘‘मेरा महानतम भक्त भी माया के प्रभाव से बच नहीं पाया!’’

    जब तक मन क्रियाशील रहेगा, माया से कोई नहीं बच सकता।

    चार पवित्र आदमी

    7.16 हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले आर्त, जिज्ञासु, अथर्थि और ज्ञानी-ऐसे चार प्रकार के भक्त मुझे भजते हैं।

    7.17 इनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित (अनन्य प्रेम भक्ति वाला) ज्ञानी अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्त्वतः जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे प्रिय है।

    7.18 ये सभी उदार है, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है; क्योंकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी भक्त उत्तम गति स्वरूप द्वारा मुझमें ही भली प्रकार स्थित होता है।

    7.19 बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरुष ‘सब कुछ वासुदेव ही है’-इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।

    कृष्ण अब और गहरी बात कहते हैं। इस विषय में प्रवेश के पूर्व मैं उस व्यवस्था को सर झुकाता हूँ जो ऋषियों द्वारा बनाई गई है और जिसने सम्पूर्ण आध्यात्मिक विज्ञान को एक सच्चाई बना दिया है।

    आजकल के इस आधुनिक युग में ऋषियों द्वारा बनाई सामाजिक व्यवस्था की भर्त्सना करना एक फैशन-सा हो गया है। खासतौर से दक्षिण भारत में वैदिक व्यवस्था और स्वामियों की आलोचना करना एक आम शगल बन गया है। यानी यदि आपको यह दिखाना है कि आप एक पढ़े-लिखे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं तो वैदिक व्यवस्था की बुराई कीजिए। आप तुरन्त लोकप्रिय हो जाएंगे।

    हम इस महान वैदिक व्यवस्था को समझते ही नहीं हैं, हम इसके प्रति असम्मान भी दिखाते हैं जो हमारे प्राचीन गुरुओं द्वारा बनाई गई है। यह समझ लें कि आज भारत जो जीवन्त है उसका कारण एकमात्र हमारे ऋषियों द्वारा बनाई यह व्यवस्था ही है।

    कुछ दिन पूर्व मैंने परमहंस योगानन्द जी की आत्मकथा पढ़ी थी। इसमें एक बड़ा सुन्दर दृष्टान्त ‘बुक आफ जेनेसिस’ से दिया गया है जिसमें अब्राहम ईश्वर से प्रार्थना और अनुरोध करता है कि एक खास भूमिखण्ड को नष्ट न होने दें। ईश्वर का उत्तर हैः ‘‘यदि इस

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