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महाभारत के महापात्र: Epic characters of Mahabharatha (Hindi)
महाभारत के महापात्र: Epic characters of Mahabharatha (Hindi)
महाभारत के महापात्र: Epic characters of Mahabharatha (Hindi)
Ebook582 pages5 hours

महाभारत के महापात्र: Epic characters of Mahabharatha (Hindi)

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About this ebook

महाभारत एक इतिहास है। भारतीयों के धर्म, संस्कृति, नागरिकताओं का समग्र दर्शन करानेवाला ज्ञान ज्याति है। वेदों के समान मानेजानेवाला ग्रंथ है। भगवद्गीता भी इसी में समा हुआ है, जो सारे जगत के लिए ज्योति के समान है। महाभारत एक ऐसा महान ग्रंथ है, जो मानव जीवन के नित्य सत्यों का प्रतिपादन करता है। इसमें निरूपित भीष्म, द्रोण, कृष्ण, कर्ण, कुन्ती आदी पात्र जीवन के दर्शन कराते हैं।

Languageहिन्दी
Release dateMay 30, 2019
ISBN9789389028713
महाभारत के महापात्र: Epic characters of Mahabharatha (Hindi)

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    महाभारत के महापात्र - Sri Hari

    महाभारत के महापात्र

    लेखक

    श्रीहरि ओर डाॅ. भारतीरमणाचार

    © Bharatha Samskruthi Prakashana, Bengaluru. All rights reserved.

    Published by:

    Bharatha Samskruthi Prakashana

    C/o. Bharatha Darshana,

    163, Manjunatha Road, 2nd Block,

    Thyagarajanagar, Bangalure 560 028,

    Ph: +91-95914 70345, +91-94480 78231

    bharathasamskruthi.com

    e-Book

    182v1.0.0

    Date: 23 March, 2019

    ISBN: 9789389028713

    Created by: Sriranga Digital Software Technologies Private Limited

    srirangadigital.com

    प्रस्तावना

    श्रीरंग सदुरुवे नमः

    नारायण स्मरण

    वेदव्यासजी से लिखित `श्री मन्महाभारत' भारतीय संस्कृति और धर्म का मणिदर्पण है । यह ग्रंथ सार्वभौम तथा सार्वकालिक तत्त्वों का प्रचार करते हुए वेद के प्रतीक के रूप में पंचमवेद माना गया है । अपने सीधे उपदेशों से, उपाख्यान कथाओं से और सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम तत्त्वों को हृदय तक पहुँचाते हुए प्रभु-सम्मित, मित्रसम्मित और काँतासम्मित नामक तीनों प्रकारों से युक्त यह ग्रंथ एकमात्र उपदेशात्मक ग्रंथ माना जाता है । यह तो सर्वोत्तम इतिहास, पुराण, काव्य और अनेक ग्रंथों का आधार ग्रंथ है । बेंगलोर की एक जानी मानी संस्था `भारत दर्शन' ने 32 भागों में इस अनुपम ग्रंथ महाभारत का कन्नड़ में प्रकाशन किया है जो अतीव कम दाम पर प्राप्त किये जा सकते हैं ।

    इस प्रकाशन से प्रेरणा और स्फूर्ति पाकर `भारत संस्कृति प्रकाशन संस्था' इस अनुपम देन बच्चों के साहित्य के लिए प्रदान कर रही है । उसके इस शुभोद्यम के लिए हमारे अनंत-अनंत प्रणाम ।

    छोटे आयुवाले बच्चों के लिए महाभारत के प्रमुख पात्रों का परिचय कराने का स्तुत्य प्रयत्न यहाँ देखने को मिलता है । साथ-साथ बच्चों का मन तथा गुणों का स्तर ध्यान में रखने हुए संक्षेप में, सरल तथा ललित शैली में विषयों की प्रस्तुति की गयी है । कथावस्तु के केवल प्रमुख भागों को प्रस्तुत करके बच्चों में अभिरुचि पैदा करते हुए महभारत की संपूर्ण कथा का आस्वादन कराने का प्रयत्न किया गया है । इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक छोटी पुस्तिका है । हम आशा करते हैं कि आजकल के किशोर इसमें चित्रित पात्रों के गुणदोषों की विवेचना करके अपने चारित्र्य को शुध्द बनाए रखने का प्रयत्न करें और उत्तम नागरीक बनें ।

    आदर्श पात्रों में भी कुछ अनादर्श गुण देखने को मिलते हैं । इसी प्रकार अनादर्श पात्रों में भी कुछ आदर्शा गुण मिलते हैं । इसे मानव का स्वाभाविक दृष्टिकोन समह्मकर उन पात्रों से प्राप्त होनेवाले केवल उत्तम गुणों का ही हमें अनुकारण करना चाहिए ।

    देखा जाता है कि आयु में बड़े होने पर भी ऎसे अनेक लोग देखने को मिलते हैं जो भारत कथा से अनभिज्ञ हैं या अनेक कारणों से गलत धारणा में आबध्द हैं । अनके लिए भी महाभारत पर आधारित ये पात्र परिचय उपयुक्त होगे ।

    हम यह मनोकामना करते हैं कि भारत संस्कृति प्रकाशान संस्था के द्वारा इस प्रकार के और भी अनेक पुस्तक प्रकाशित हों ।

    अष्टाँग योग विज्ञान मंदिरम, बेंगलोर

    बहुधान्य संवत्सर के श्रवणशुद्ध द्वितीया

    बेंगलोर

    नारायणस्मरणों के साथ

    श्री श्री रंगप्रिय श्रीपाद स्वामीजी

    अर्जुन

    श्रियै नमः

    श्री गुरुभ्यो नमः

    हस्तिनावति कुरुवंशियों की राजधानी थी । महाराजा पाँडु वहाँ राज्य करता था । उसका बड़ा भाई धृतराष्ट्र जन्म से अंधा था । इसलिए पाँडु ही राजा बना । उसके दो रानियाँ थीं । एक थी कुंती जो कुंती भोजराजा की बेटी थी । दूसरी थी माद्री जो मद्रदेश की राजकुमारी थी । पाँडु तो प्रजाओं को अपनी संतान की तरह पालता था ।

    एक बार पाँडु अपनी रानियों के साथ वनविहार के लिए हिमालय की घाटी में स्थित एक जंगल में गया । वहाँ रहते हुए अपना समय खुशी से बिताता था । एक दिन वह जंगल में खुशी से खेलते हुए दो हिरनों को देखा । उसने तीरपर बाण चढ़ाया और हिरन को निशाना बनाकर मार दिया । वे तो सच्चे हिरन नहीं थे । हिरनरूप धरे ऋषी-दंपति थे । अपना सच्चा रूप धरकर ऋषि बोला हे महाराजा! मैं ने तुम्हें किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचायीथी । हम अपने आप खेल रहे थे । फिर भी तुमने बिना कोई कारण के, मुझे मार दिया है । इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूँ । तुम भी अपनी पत्नी के साथ सुख से रहते समय मरोगे । इस प्रकार कहकर वह ऋषि चल बसा । उस ऋषि की पत्नी भी अपने पति के साथ ही मर गयी । ‘पाँडु’ बहुत दुखी हुआ । वह अपने राज्य लौटा ही नहीं । उस वन में ही रहने लगा । लेकिन उसे अपनी निस्संतान होने की चिन्ता होने लगी । उस समय उसकी बड़ी रानी कुंती सांत्वना देते हुए पाँडु से बोली महाराजा! एक विषय मुझे याद आया । जब मैं छोटी थी, तब हमारे महल में दूर्वासमुनि आए थे । उनकी सेवा करने मेरे पिता ने मुझे ही नियुक्त किया था । महर्षि तो क्रोध के स्वभाव के थे । इसलिए मैने बड़ी सावधानी से उनकी सेवा की । हमारे महल से रवाना होने से पहले आशीर्वाद देते हुए वे मुझसे बोले बेटी कुंती! तुमने तो मेरी अच्छी सेवा की है । मैं प्रसन्न हूँ । तुझे मैं एक मंत्र का उपदेश देता हूँ । इस मंत्र का जप करके तुम जिस ‘देव’ का आह्वान करोगी वह देव तुरंत तुम्हारे सामने आएगा । तुम्हारे मनचाहा वर प्रदान करेगा । इस प्रकार कहकर महर्षि ने मुझे मंत्रोपदेश किया । महाराजा! तुम मुझे अनुमति दोगे तो मैं उस मंत्र का जप करुँगी । कुंती के इस प्रकार कहने पर पाँडु बहुत आनंदित हुआ । अपनी अनुमति देकर पहले यमधर्मराज को बुलाने के लिए कहा । कुंती ने ऐसा ही किया । तुरंत यमधर्मराजा आ उपस्थित हुआ । उसके अनुग्रह से कुंती से धर्मराज नामक एक पुत्र का जन्म हुआ । बाद में वायुदेव के वर से भीम पैदा हुआ । उसके बाद पाँडु देवराज इंद्र से ही वर पाने का निश्चय करके कुंती से बोला कुंती! हम देवों के राजा इंद्र को ही बुलाएँगे लेकिन इस बार हम दोनों एक वर्ष तक नियम के अनुसार तप करके, बाद में इंद्र को बुलाएँगे और वर माँगेंगे । उसी प्रकार पाँडु-कुंती दोनों ने एक साल तक नियमानुसार तप किया । पाँडु सबेरे होने से पहले ही उठ जाता, सूर्यास्त तक एक ही पैर पर खड़े होकर घोर तप करता रहा । उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर इंद्र प्रत्यक्ष हुआ और बोला पाँडुराजा! तीनों लोकों में विख्यात् होनेवाले एक पुत्र को अनुग्रह करता हूँ । भले लोगों का हित चिंतक, दुष्टों को सजा देनेवाला तथा उनको अपने वश में रखनेवाला, बंधु-बाँधवों को सदा सुख पहुँचाते रहनेवाला सुपुत्र तुममें जन्म लेगा । अमृतधारा के समानवाली उन बातों को सुनकर पाँडु के आनंद का पारा न रहा । इंद्र को साष्टांग नमस्कार किया । उसके बाद वह कुंती के पास जाकर बोला राजकुमारी! तुम्हारा व्रत फलदायक रहा । ‘इंद्र’ प्रसन्न हुआ है । तुम मंत्र का जप करो ।

    उसके बाद कुंती ने मंत्र-जप करके इंद्र का आह्वान किया । प्रत्यक्ष होकर-प्रकट होकर अपना - सा प्रभावशाली पुत्र को प्रदान किया । उस समय फाल्गुन-मास था । पूर्व फल्गुनी और उत्तर फल्गुनी नंक्षत्रों के संधिकाल के संयोग के समय शिशु का जन्म हुआ । इसलिए उसका नाम ‘फाल्गुन’ ही रखा गया । बच्चे को ‘अर्जुन’ नाम भी रखा गया । उस नाम से ही वह आगे प्रसिद्ध हुआ । उस समय एक आकाशावाणी हुई । उसकी ध्वनि बादल के समान गरज उठी । सबने सुना कुंतीदेवी! इस पुत्ररत्न को पाकर तुम धन्य हो गयी । यह पुराने जमाने के कार्तवीर्य के समान होगा । शिव के समान महापराक्रमी होगा । इंद्र के समान हर कहीं इसकी जीत होगी । वीरों में यह परशुराम के समान होगा । शक्ति में महाविष्णु के समान होगा । महादेव से युद्ध करके उसे प्रसन्न करेगा और उससे ‘पाशुपतास्त्र’ पाएगा । नष्ट होनेवाली कुरुवंश की कीर्ति की रक्षा करनेवाला यही होगा" । ये बातें सुनकर वहाँ उपास्थित सभी खुश हुए । उसके बाद पाँडु की पत्नी माद्री में अश्विनी देवों के वर से नकुल-सहदेव पैदा हुए ।

    इसी प्रकार कुछ वर्ष बीत गये । एक बार पाँडु वन में माद्री के साथ रहने कि वजह से ऋषि के शाप का शिकार बना । अपनी पत्नी के साथ एकांत में रहते समय मर गया । उसी के साथ उसकी पत्नी भी सती व्रत का पालन करके चिता में गिरकर मर गयी । इस से कुंती और पाँडु के बेटे बहुत दुःखी हुए । वहाँ के ऋषि-मुनियोंने उनको समझा-बुझाकर हास्तिनापुर ले आए । पाँडव अपनी माता कुंती के साथ पाँडुराजा के महल मे रहने लगे । इससे धृतराष्ट्र के बेटे दुर्योधन आदि कौरवों को चिन्ता होने लगी । उसमें भी खासकर दुर्योधन को पाँडवों पर नफ़रत और जलन होने लगे । धर्मराज तो कुरुराज पुत्रों में सबसे बड़ा था । इसलिए उसी का राजा बनना न्यायसंगत था । उसके अच्छे गुणों को देखकर सारी प्रजा उसे प्यार करती थी । यही दुर्योधन की चिन्ता का कारण था । पाँडु कुमारों को उपनयनादि संस्कार भी हुए । दुर्योधन ने भीम को मरवा डालने के अनेक प्रयत्न किए । लेकिन कोई सफलता नहीं मिली । ये सब समाचार धृतराष्ट्र के कानों में भी पड़े । उसने सोचा कि स्वेच्छा से राजकुमारों को रहने देना ठीक नहीं । ऐसा सोचकर उनको पढने के लिए गौतम के पास भिजवा दिया । ‘गौतम’ कृपा नाम से प्रसिद्ध थे । इस प्रकार कृपाचार्य के आश्रम में कौरव और पाँडवों का विद्याभ्यास शुरु हुआ ।

    एक बार सब राजकुमार मिलकर शहर के बाहर विशाल मैदान में गिल्ली-डंडा खेल रहे थे । उस समय एक राजकुमार के मारने पर गिल्ली एक पुराने कुएँ में जा गिरी । सभी राजकुमारों के अथक प्रयत्न करने पर भी ‘गिल्ली’ बाहर निकाली जा न सकी । कुआँ तो गहरा था । अंदर का बहुत सा भाग घिस गया था । कुएँ के अंदर उतरना भी मुश्किल था । काफ़ी मिट्टी भी भरी पड़ी थी । अपने प्रयत्नों में असफल हुए सभी राजकुमार एक दूसरे का मुख देखने लगे । तब तक एक ब्राह्मण वहाँ आया । उसने देखा कि गिल्ली को बाहर निकालने के लिए राजकुमार तड़प रहे हैं । उनको देखकर ब्राह्मण हँस पड़ा और बोला कितनी शरम की बात है । आप तो भरत वंश के राजकुमार हैं । क्या एक गिल्ली बाहर नहीं निकाल सके? यही तुमसे सीखी हुई तीरचलाने की विद्या है? केवल यह गिल्ली ही नहीं, अपने हाथ की अंगूठी भी कुएं में गिराकर बाहर निकाल सकता हूँ । क्या मुझे खाना खिलायेंगे ? उसका जवाब देते हुए धर्मराज बोला पूज्यवर! आपने जो कहा, उसे करके दिखायेंगे तो एक दिन का भोजन क्या, आचार्य कृपाजी की अनुमति लेकर आपके जीवनभर खाना खिलाने का प्रबंध करेंगे । उस ब्राह्मण का नाम था द्रोण । वे कृपाचार्य के साले ही लगते थे । द्रोणाचार्य हँस पड़े । अपने हाथ में एक कुश लिया । उसे अभिमंत्रित किया । कुएँ में फेंका । वह गिल्ली को जा लगी । उसमें चुभगयी । दूसरी कुश पहले कुश से चिपट गयी । इस प्रकार कुशों की माला ही बन पड़ी । ऊपरी कुश को खींचने पर गिल्ली हाथ आयी । इसी प्रकार बाण प्रयोग से अंगूठी भी बाहर निकाल दी गयी । यह समाचार राजकुमारों द्वारा भीष्म को मालूम हुआ । भीष्म ने बड़े आदर के साथ द्रोणाचार्यजी को महल में बुलवाया । सारी सुविधाएँ प्रदानकर राजकुमारों को शस्त्राभ्यास सिखाने के लिए नियुक्त किया । इस प्रकार राजकुमारों की शिक्षा शुरु हुई ।

    एक दिन सभी शिष्य गुरुजी के घर आए । उनको नमस्कार करके बैठे । गुरुजी किसी विषय के बारे में बहुत गहरे सोच मे थे । उन्होने अपने शिष्यों से कहा मेरी एक आशा है । क्या आप उसे पूरा करेंगे । तुम लोगोंने धनुर्विद्या सीखी है । केवल तुम लोगों से ही यह काम किया जा सकता है । शस्त्रभ्यास पूरा होने के बाद मैं बताऊँगा । यह बात सुनकर सभी राजकुमार चुप बैठे थे । तब अर्जुन उठखड़ा हुआ और बोला गुरुजी का काम कितना भी कठिन क्यो न हो, मैं कर दूँगा । यह मेरी प्रतिज्ञा है" । यह बात सुनकर द्रोण बहुत खुश हुए । द्रोणाचार्यजी ने राजकुमारों को अनेक देव-संबंधी अस्त्र तथा अन्य अस्त्र-शस्त्रास्त्रों को सिखाया । इनकी कीर्ति सुनकर देश-विदेशों से अनेक राजकुमार द्रोण के यहाँ विद्याभ्यास के लिए आने लगे । अर्जुन तो सदा गुरुजी की सेवा में ही लगा रहता था । उनका उपदेश बहुत जल्दी सीख लेता था । सीखने में सबसे आगे रहता था । आचार्य द्रोण तो सबको समान रूप से धनुर्विद्या सिखाते थे । लेकिन अर्जुन के बाण प्रयोगों की कला, निशाना लगाकर बाण चलाने की चतुराई दूसरों को नही मालूम था । द्रोण ने निश्चय कर लिया था कि अर्जुन की बराबरी करनेवाला उनके शिष्यों में कोई नहीं है ।

    द्रोण राजधानी में ही रहते थे । इसलिए शिष्यों को अपने आचार्य के लिए लकड़ी, भिक्षान्न, होम के लिए विशेष लकड़ी के टुकड़े आदि लाने की आवश्यकता नहीं थी । फिर भी हर-एक राजकुमार को नदी से एक एक कमंडल-भर पानी गुरु के लिए ले आने का नियम था ।

    द्रोण की आज्ञा से अश्वत्थामा के साथ सभी राजकुमार मिलकर पानी लाने जाते थे । लेकिन अन्यों के कमंडलों के भरने के पहले ही अश्वथामा पानी ले आता और गुरुजी के पास पहुँच जाता । उसका कारण अन्य कोई राजकुमार जान न सका । इसके बारे मे किसी ने सोचा भी नहीं ।

    केवल अर्जुन को इसका पता लगा । गुरुजी ने अश्वत्थामा को ऐसा कमंडल दिया था जिसका मुँह काफी बड़ा था । उसमें पानी बहुत जल्दी भर जाता था । लेकिन अन्य राजकुमारों को ऐसे कमंडल दिए गए थे जिनमें बहुत धीरे धीरे पानी भरता था । अन्य राजकुमारों की अपेक्षा अश्वत्थामा कुछ समय पहले आता था । उस कम समय में ही द्रोण अश्वत्थामा को अनेक शस्त्रास्त्रों का रहस्य सिखाते थे । इस रहस्य को जानने पर भी अर्जुन नहीं जलता था । अर्जुन शब्द का अर्थ है शुद्ध काम करनेवाला । उसने भी अश्वत्थामा के साथ ही जाने का निश्चय किया ।

    अर्जुन ने नदी के किनारे बैठकर एक क्षणतक सोचा । तुरंत मन में एक उपाय सूझ पड़ा । वह खुशी से चला गया । दूसरे दिन सबके साथ अर्जुन भी पानी लाने निकला । सब आगे चले । लेकिन अर्जुन पीछे ही रह गया । कमंड़ल को नीचे रखा । वरुण मंत्र का जप किया । अस्त्र का प्रयोग किया । आँखें खोलकर बंद करने तक कमंडल भर गया । अश्वत्थामा के साथ अर्जुन भी भरे कमंडल के साथ द्रोण के समीप जल्दी गया । इस कारण से द्रोण अपने पुत्र को अलग से धनुर्विद्या सिखा न सके, अर्जुन धनुर्विद्या के ग्रहण में अश्वत्थामा से पीछे न रहा । उसकी बराबरी करते हुए आगे बढ़ता गया । गुरुजी की सेवा विशेष रीति से करते रहने का प्रयत्न किया करता था । अस्त्राभ्यास में भी उसकी बड़ी रुचि थी । इन सब गुणों के कारण अर्जुन द्रोण का अत्यंत प्रिय शिष्य बन गया था । द्रोण ने भी अर्जुन की मंत्र शक्ति की साधना और उसकी तीक्ष्ण बुद्धि की प्रशंसा मन ही मन करने लगे । तब से अपने बेटे के समान अर्जुन को भी अमोघ महास्त्रों का उपदेश देने लगे ।

    द्रोण के सभी शिष्यों में से अर्जुन बुद्धि, मन की एकाग्रता, बल, उत्साह, अस्त्रों का अभ्यास, गुरु की कृपा पाना-इन सबमें अगुआ था । द्रोण तो अन्य शिष्यों के जैसे ही अर्जुन को भी अभ्यास कराते थे । लेकिन अपने लगातार अभ्यास के कारण अर्जुन अतिरथ बन गया । उसकी कीर्ति चारों ओर फैल गयी । विद्या सीखने में उसकी अभिरुचि और गुरुभक्ति और किसी शिष्य में नहीं पायी जाती थी । द्रोण के शिष्यकोटि में अर्जुन अतिरथ कहलाने लगा । साठ हजार शत्रुओं से एक साथ लड़ने की सामर्थ्य रखनेवाला अतिरथ कहलाता है ।

    एक दिन द्रोण ने अपने शिष्य-कौरव पाँडव राजकुमारों के लिए एक परीक्षा रखी । कारीगरों से एक पक्षी बनवाया । एक पेड़ पर रखवाया । यह बात शिष्यों को मालूम न थी । सब राजकुमारों को बुलवाया । उनसे कहा है राजकुमारों! आप सब अपने अपने धनुष और बाण लेकर तैयार हो जाइए । पेड़ पर बैठ हुए पक्षी को निशाना करके बाण चलाना चाहिए । जब मैं कहता हूँ कि बाण चलाया जा सकता है तब बाण का प्रयोग करके उस पक्षी का सिर काट लेना चाहिए । उनके शिष्यों ने कई सालों तक धनुर्विद्या का अभ्यास किया था । इसलिए उनको यह काम कष्ट प्रतीत न हुआ । सब तैयार खड़े हुए । गुरुजी ने सबसे पहले राजकुमारों में सब से बड़े धर्मराज को बुलाकर कहा धर्मज! उस पेड़ पर बैठे हुए पक्षी पर निशान लगाओ । जब मैं कहता हू कि अब मार" केवल उस समय चिड़िया का सिर काटना चाहिए । धर्मराज धनुष पर बाण चढाकर तैयार हुआ । द्रोण ने पूछा

    द्रोण - धर्मज! पेड़पर बैठे हुए पक्षी दिखायी पड़ रहा है न?

    धर्मज - हाँ गुरुजी! उसी को निशाना बनाया है ।

    द्रोण - और क्या देख रहे हो? मुझे भी देख रहे हो क्या?

    धर्मज - आपको भी देख रहा हूँ गुरीजी ।

    द्रोण - अपने भाईयों को भी देख रहे हो?

    धर्मज - यहीं खड़े हुए उनको भी देख रहा हूँ गुरूजी ।

    धर्मराज की परीक्षा समाप्त हुई । धर्मराज का उत्तर सुनकर द्रोण अब मार न कहकर बोले बगल में हट खड़े रहो । तू पक्षी को मार नही सकता

    उसके बाद अन्य सभी राजकुमारों को बुलाकर परीक्षा ली । कोई भी परीक्षा में कामयाब न हुआ । धर्मराज की तरह सभी ने द्रोण के प्रश्नों के जवाब दिए । परेशान होकर द्रोण ने पक्षी को मारने किसी से न कहा । उनसे बोले तुममें से किसी को भी पक्षी को मारने की सामर्थ्य नहीं है । सबको धिककारते हुए बोले तुम सब एक तरफ खड़ें ही जाईए ।

    अंत में द्रोण ने अर्जुन को बुलाया । मुस्कुराते हुए बोले अर्जुन! धनुष पकड़ो । तैयार हो जाओ । अब तुम्हें उस पेड़ पर बैठे हुए चिडिया का सिर काटना है । ध्यान लगाकर पक्षी को देखो । मेरा हुक्म होते ही बाण चलाना चाहिए । अर्जुन तैयार खड़ा हुआ ।

    द्रोण - "अर्जुन? पक्षी, पक्षी बैठा हुआ पैड, और मुझे भी देख रहे हो न ।

    अर्जुन - नहीं गुरुजी! आपको भी नही देख रहा हूँ । पेड भी न दीख रहा है । पक्षी का निशाना बनाने के लिए तो आप कह रहे हैं । मैं तो केवल पक्षी को देख रहा हूँ ।

    द्रोण - तुम्हारे बड़े भाई तथा छोटे भाई-उनके वार्तालाप की आवाज सुन रहे हो?

    अर्जुन - नहीं गुरुजी! आप की ध्वनि के अलावा दूसरा कुछ भी नहीं सुन रहा हूँ ।

    द्रोण - अर्जुन! जब मेरे मुँह से मार निकलता है तभी बाण चलाना चाहिए । अगर तुम केवल पक्षी को ही देख रहे हो तो उस पक्षी का वर्णन करके कहो न

    अर्जुन - "गुरुजी! पक्षी के सिर के अलावा मुझे कुछ भी नहीं दिखायी दे रहा है ।

    अर्जुन का धनुर्विद्याभ्यास

    शिष्य का यह जवाब सुनकर गुरुजी बहुत खुश हुए । तुरंत आज्ञा दी मार । गुरुजी का कहना अभी पूरा ही नहीं हुआ था कि इतने में उस चिड़िया का सिर काटा गया और वह नीचे गिर पडा । गुरुजी ने अर्जुन को छाती से लगा लिया । आनंदाश्रु बहाए ।

    कुछ दिन बीते! प्रतिदिन की तरह एक दिन द्रोण अपने शिष्यों के साथ नहाने के लिए गंगानदी चले । स्नान करने गुरुजी नदी में उतरे! तुरंत एक मगर ने आकर उनके पैर को पकड़ लिया । द्रोण तो उस मगर से अपने आपको बचाने का ताकत रखते थे । लेकिन अपने शिष्यों की सतर्कता की परीक्षा करना चाहते थे । जोर से पुकारकर कहा मगर मुझे निगल रहा है । तुरंत इसे मारकर मुझे बचाइए । वे बातें गुरुजी के मुँह से ज्योंही निकलीं त्यों ही अर्जुन के बाण तरकस से निकाले गए । धनुष पर चढ़ाए गये । पाँच बाणों से उसने मगर को मार डाला । बाकी शिष्य तो अर्जुन के बाण चलाने की चालाकी तो देखते ही रहे । किसी ने गुरुजी की रक्षा करने की बात तक न सोची । उस दिशा में किसी ने काम न किया । अर्जुन के बाणों से मगर काटा गया । द्रोण के पैर छोड़कर वह मर गया । मगर से बचकर द्रोण गंगा नदी से ऊपर आए । महारथी अर्जुन से बोले महाबाहु अर्जुन! तुम्हारे कार्य से मैं प्रसन्न हूँ । इनाम के रूप में मैं तुम्हें ब्रह्मशिर नामक एक महास्त्र का प्रयोग रहस्यपूर्वक बताता हूँ । यह अस्त्र प्रयोग किस प्रकार करना और किस प्रकार उसे वापस लेना यह भी बताता हूँ । बेटा! याद रखो! इस अस्त्र का प्रयोग साधारण बलवानो पर न होना चाहिए । यह अस्त्र सारी दुनिया को जला सकता है । इसकी बराबरी करनेवाला दूसरा अस्त्र तीनों लोकों में नहीं हैं । इसलिए इस अस्त्र को बड़ी सावधानी से अपने पास रखो! मैं ने जो बताया उसी प्रकार चलना । अगर कोई महापराक्रमी तुमसे युद्ध करने आवे तो उसका संहार करने इस अस्त्र का प्रयोग करना । अर्जुन ने ऐसा ही हो कहकर गुरुजी के आगे भक्ति के साथ हाथ फैलाया और उस अस्त्र को स्वीकार किया । तब द्रोण फिर बोले धनुर्विद्या में तुम्हारे समान इस दुनिया में कोई नहीं है । तुम तो सब को जीत सकते हो । कोई भी तुम्हें हरा नहीं सकता

    पाँडव-कौरव राजकुमारों को धनुर्विद्या पूर्णरुप से सिखायी गयी । द्रोण कृपाचार्य के साथ धृतराष्ट्र के पास जाकर बोले महाराजा! तुम्हारे लड़कों का शस्त्राभ्यास पूरा हो चुका । तुम्हारी आज्ञा से वे अपना पाँडित्य का प्रदर्शन कर सकते हैं । जवाब देते हुए धृतराष्ट्र ने कहा ब्राह्मणोत्तम! आप ही बताहए कि मेरे पुत्रों का पाँडित्य-प्रदर्शन कब, कहाँ और किस ढ़ंल हो? बाद में विदुर से बोले विदुर! आचार्य द्रोण के कहे अनुसार सारा प्रबंध करो ।"

    विदुर से भेजे गए राज कर्मचारियों की मदद से द्रोणाचार्य ने एक समतल मैदान को चुना । उसका नाप करवाया और भूशुद्धि करवाई । रंग मंडप का निर्माण किया गया । धीरे धीरे प्रदर्शन का दिन भी आ पहुँचा । कृप और भीष्म के साथ आकर धृतराष्ट्र रंगमंडप में बैठा । महल की स्त्रियाँ भी आ बैठीं । प्रजाओं से रंगमंडप खचाकच भर गया । अंत में आचार्य द्रोण अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ आए और रंगमंडप के बीच खड़े हुए । चार-छः ब्रह्मणों से मंत्र पठन करवाया गया । बाद में मंगल वाद्य बजने लगे । प्रदर्शन के लिए आवश्यक तलवार, ढाल, गदा, धनुष बाण आदि राजकर्मचारियों द्वारा मंगवाया गया । मंडप में बड़ा शोरगुल हो रहा था वह एक दम शांत हुआ । सब अपने राजकुमारों की शक्ति सामर्थ्य को देखने कातुरता से बैठे ।

    धर्मराज आदि सभी राजकुमार हाथों में चमड़े के पट्टे बाँधकर, पीठ पर तरकस बाँधे । कटी में कपड़े कसकर बाँध लिया । धनुष पकड़े रंग मंड़प आए । अपने शक्ति का प्रदर्शन करने लगे । राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर अनोखी ढ़ँगों से निशाना बनाते हुए बाण चलाते थे । जब वे बाण साँय शब्द करते हुए अपने निशान तक पहुँचते तो प्रेक्षक तालियाँ बजाते हुए ठीक है अच्छा है कहा करते और राजकुमारों को हौसला बढ़ा देते थे । उसके बाद रथ चलाने का, हाथी और घोड़ो को नियंत्रण में रखने का-इनपर सवार होकर लड़ने के प्रदर्शन हुए । उसके बाद तलवार गदा, आदि से युद्ध करने के कई तरीको को राजकुमारों ने दिखाया । बाद में भीम दुर्योधन के बीच गदायुद्ध का प्रदर्शन हुआ ॥

    प्रदर्शन के समय जो वाद्य घोष हो रहा था, उसे बंद कराने का आदेश आचार्य द्रोण ने दिया । वहाँ उपस्थित सभासदों से ऊँची आवाज में बोले है राजाओं! अर्जुन के आने की राह अब देखते रहिए । यह मुझे अपने बेटे से ज्यादा प्यारा है । यह देवेंद्र के वर प्रसाद से पैदा हुआ है । यह विष्णु के समान बलवान है । धनुर्विद्या में बड़ा पारंगत है । बाद में आचार्य के कहे अनुसार ब्राह्मणों से आशीर्वाद लिए अर्जुन ने सोने का कवच धारण कर लिया । बाण-तरकसों के साथ धनुष पकड़कर रंगमंडप में प्रवेश किया । अर्जुन को देखते ही सभी दर्शक अत्यंत प्रसन्न हुए । पहले की तरह बाजे बजाने लगे । लोग आपस में गुनगुनाने लगे ।

    ओह! यह पाँडवों में तीसरा है । यह तो इंद्र के अनुग्रह से जन्मा है । आकाशवाणी ने ही कहा है कि यही कुरुवंश का रक्षक होगा ।

    आचार्य द्रोण ही कह चुके हैं कि धनुर्विद्या में यह अप्रतिम वीर है । यह सुशील के साथ साथ ज्ञान संपन्न भी है ।

    अपने बेटे के बारे कही ये बातें सुनकर कुंती को बड़ी खुशी हुई । लोगों में बड़ा शोर-शराबा मचगया कि जल्दी अर्जुन की धनुर्विद्या का प्रदर्शन शुरु किया जाय । उसके शुरु होते ही खामोशी छा गयी । सबका अंदाजा था कि अर्जुन अन्य राजकुमारों की अपेक्षा ब.ढिया कौशल दिखाएगा । अर्जुन ने बाण चलाने की अपनी चालाकी दिखायी । बाद में मंत्रास्त्रों का प्रदर्शन शुरुकिया । आग्नेयास्त्र से अग्नि पैदा कर दी । ‘वारुणास्त्र’ से पानी ला दिखाया । वायुव्यास्त्र से भयानक हवा बहने लगी । पर्जन्यास्त्र से बादल छा गये । अर्जुन ने भौमास्त्र से भूमि का प्रवेश किया । पार्वतास्त्र से पर्वतों की सृष्टि की । ‘अंतर्धानास्त्र’ से अदृश्य हो गया । अपने गुरु के प्रिय शिष्य अर्जुन ने एक बार बहुत ऊँचा और एक बार बहुत नाटा, कभी रथ में बैठा हुआ तो कभी रथ वेग से चलाते हुए कभी कभी पृथ्वी पर खड़ा हुआ दीखने लगा । बड़ी सूक्ष्म वस्तुओं को भी मार डालता था । दूर पर बंधा हुआ छोटा डोर भी उसके बाण से काटा जाता था । कभी कभी उससे चलाया गया बाण पलक को हानि न पहुँचाते हुए कोमल श्पर्श करता था । गिर-गिर धूमते हुए लोहे के सुअर के मुँह में एक साथ पाँच बाण चलाए । रस्सी से बाँधकर इधर-उधर घुमाते हुए गाय की सींग की खोखले में इक्कीस बाण एक साथ चलाए । इस प्रकार अर्जुन ने तलवार चलाने और गदा युद्धों मे भी अपना कौशल दिखाया । राजकुमारों की धनुर्विद्या प्रदर्शन समाप्त होनेवाला ही थ । और लोग चलने उठखड़े ही थे कि इतने में अतिरथ नाम मछुए का पालतू पुत्र कर्ण रंगमंडप में आया । द्वंदयुद्ध के लिए अर्जुन को ललकारा । उसने भगवान परशुराम से धनुर्विद्या सीखी थी । सूत-पुत्र होने के नाते आचार्य ने उसे द्वंदयुद्ध के लिये मौका नहीं दिया । दुर्योधन को पाँडवों पर बड़ा जलन था । भीम का अतुलित बल, अर्जुन की धनुर्विद्या-चतुराई, धर्मराज की जनप्रियता आदि देखकर जलता रहता था । उसे बड़ी प्रसन्नता हुई कि अर्जुन से जूझनेवाला लायक आदमी मिल गया । तुरंत बिना बड़े बूढ़ो की अनुमति लिए, कर्ण को अंगराज्य का राजा बना दिया । अपने बंधु-बाँधवों में उसे अपना लिया । कर्ण भी दुर्योधन के साथ रहते हुए पाँडवो से द्वेष करने लगा ।

    द्रोण ने निश्चय कर लिया कि कौरव पाँडव राजकुमारों को धनुर्विद्या समाप्त होने पर गुरु दक्षिणा देने का अवसर आ गया है । अच्छी तरह विद्या प्राप्त करने के बाद गुरु की माँग के अनुसार गुरु दक्षिणा देने की रिवाज़ थी ।

    एक दिन आचार्य द्रोण ने सब राजकुमारों को बुला बिठाया और कहा हे राजकुमारों! आपकी धनुर्विद्या समाप्त हुई है । गुरुदक्षिणा देने का समय आ गया है । मेरे मनपसंद गुरुदक्षिण दे सकोगे? । सभी राजकुमार अपने गुरुवर्य की बातें ध्यानपूर्वक सुनते हुए बैठे थे । फिर द्रोण बोले आप सभी मिलकर पाँचाल देश जाइए । वहाँ के राजा ‘द्रुपद’ को कैद करके ले आइए और मुझे सौंप दीजिए । मेरी गुरुदक्षिणा यही होगी तथास्तु कहते हुए सभी राजकुमार मैं आगे मैं आगे" चिल्लाते अपने अपने रथों पर सवार होकर द्रोण के साथ पाँचाल देश जाने निकले । दुर्योधन भी कर्ण, युयुत्सु, दुःशासन, विकर्ण, जलसंध, सुलोचन आदि अपने परिवार के वीरों के साथ शान से निकला । कुरु राजकुमारों ने पाँचाल देश पहुँचते ही रास्ते में आते हुए सिपाहियों को मार डाला और बड़े उत्साह के साथ राजधानी को घेर लिया ।

    अपने गुप्तचरों

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