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रामायण के महाफात्र: Epic Characters  of Ramayana (Hindi)
रामायण के महाफात्र: Epic Characters  of Ramayana (Hindi)
रामायण के महाफात्र: Epic Characters  of Ramayana (Hindi)
Ebook583 pages3 hours

रामायण के महाफात्र: Epic Characters of Ramayana (Hindi)

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About this ebook

रामायण का काल त्रेतायुग माना जाता है। पितृवाक्य परिपालक श्रीराम, भाई में भक्ति-प्यार-त्याग संप्पन्न लक्ष्मण, असहायक दशरथ, पतिपरायणा सीता, रामभक्त दासानुदास हनुमान, भाई भाइयों के बीच द्वेष के प्रतीक वालि-सुग्रीव, शिवभक्त होने पर भी विषयलंपट रावण, जन्म से राक्षस होनो पर भी हरिभक्त विभीषण - ये सभी पात्र हमारी आँखों के सामने आ खड़े होने - जैसे चित्रित हैं। यही तत्व इन पुस्तकों की विशेषता है।

Languageहिन्दी
Release dateMay 25, 2019
ISBN9789389028782
रामायण के महाफात्र: Epic Characters  of Ramayana (Hindi)

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    रामायण के महाफात्र - Prof. T. N. Prabhakar

    प्रस्तावना

    श्रीरंग सदुरुवे नमः

    नारायण स्मरण

    `भारत संस्कृति प्रकाशन संस्था' बेंगलोग के भारत दर्शन महान संस्था की ज्ञान संतान मानी जाती है । `महाभारत के महापात्र' इस संस्था का प्रथम पुष्प है । हमने इसका स्वागत किया था । अब इसका द्वितीय कुसुम है - `रामायण के महापात्र' । इसका भी स्वागत करते हुए हम आशीर्वाद देते हैं ।

    रामायण और महाभारत ग्रंथों में शैलीभेद पाथा जाता है । इसमें कोई संदेह नहीं की पात्रों के रूप - आकार समय - रचनाकाल आदि में भी काफी अंतर हैं । रामायण तो प्रधान रूप से काव्य है । सात काँडों में 24 हज़ार श्लोकों में ग्रंथित है । प्रधानतया त्रेतायुग के पात्रों के चित्रण से युक्त यह काव्य उसी युग के समकालीन कवि से रचित ग्रंथ रत्न है । लेकिन महाभारत तो प्रधानरूप से इतिहास है । 18 पर्वों में एक लाख श्लोकों का महाग्रंथ है । अधिकतर द्वापरयुग के पात्रों के चित्रण से युक्त है । उसी युग के समकालीन महाकवि से रचित ग्रंथरस्न है । हम यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि ये दोनों भारत के पृथक पृथक भातों की संस्कृतियों को दर्शाते हैं अनेक कवियों से रचित हैं और आर्यों के आक्रमण के अलग अलग काल तथा परिस्तितियों का चित्रण करते हैं । ऐसा होने पर भी ये दोनों वेदों के प्रतीक आर्षग्रंथ है । भारतीय संस्कृति के दर्पण हैं । भारत के राष्ट्रीय ग्रंथ हैं । भारत के सैकड़ों ग्रंथो के आकर ग्रंथ हैं । काव्यानंद के स्त्रोत होने के साथ - साथ धर्म - अर्थ - काम - मोक्ष नामक चारों पुरुषायों के अक्षय निधि हैं । पात्रों के बीच युद्ध का चित्रण करके धर्म विजय की `दुंदुभि' बजानेवाले भव्य सारस्वत हैं । सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक सत्यों का प्रचार करनेवाले विश्वसहित्य में स्थान पाए हुए अमर ग्रंथ हैं ।

    नारायण स्मरण के साथ हम यह आशा करते हैं कि संस्था के प्रथम ग्रंथमाला की शैली में ही रचित यह द्वितीय ग्रंथमाला भी पाठकों के आस्वादन का विषय बने; अवांछित साहित्य के दुर्गंध से रुपित किशोरों के मन को सुरभियुक्त बनाएँ; उनको सुशिक्षण देकर उनमें अच्छे आदर्श की अभिरुचि उत्पन्न कर दे; जनता में सुख शांति भर दे ।

    अष्टाँग योग विजान मंदिरम, बेंगलौर

    बहुधान्य संवत्सर के श्रवणशुद्ध द्वितीया

    बेंगलौर

    नारायणस्मरणों के साथ

    श्री श्री रंगप्रिय श्रीपाद स्वामीजी

    दशरथ

    श्रियै नमः

    तपस्वाध्याय निरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् ।

    नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम ॥

    भारत नामक देश का नाम ही न जाने कितना चेतनादायक है । भा ज्ञान अथवा कांति में रत मग्न रहना । इसीलिए ‘भारत’ नामक यह नाम सार्थक अथवा अर्थपूर्ण है । जिस प्रकार हमारे देश का अन्वर्थ नाम है उसी प्रकार यहाँ के सब व्यवितयों को अन्वर्थ नाम ही रखा जाता है । आजकल पश्चिमी लोगों के हल्के व्यवहारों के नकल करते रहनेवाले कुछ लोग इस प्रकार हमारे देश के उदात्त भावों से दूर हटते जा रहे हैं । राम, लक्ष्मण, कृष्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन, कालिदास, भास, भवभूति आदि सभी नाम अर्थयुक्त ही हैं ।

    अयोध्या वेमिसाल नगर

    सूर्यवंश के ‘अज’ महाराजा और इन्दुमति का पुत्र था ‘दशरथ’ । दसों दिशा ओं में इस योद्धा के रथ के सामने टिके रहनेवाला कोईनहीं था । इसीलिए माता-पिता-गुरु-द्वारा इसका जो दशरथ नामकरण हुआ, वह औचित्यपूर्ण और सार्थक ही रहा । दशसु दिक्षु अप्रतिहतः रथं चालयतीति दशरथः

    दशरथ कोसल देश का महाराजा था । अयोध्या कोसल की राजधानी थी । जो राज्य अन्य किसी से भी जीता नहीं जाता था, उसे अयोध्या नामसे पुकारते थे । उस नगरी का नाम भी अन्वर्थ ही था । यह नगर पूर्व योजित (planned) था । आजकल भारत में पंजाबका चंदीगड़ कुछ हदतक उस प्रकार एक नगर माना जाता है । दशरथ के वंश के पूर्वज साम्राट मनु ने इस नगर का निर्माण किया था । वह महानगर ‘सरयू’ नदी के तट पर था । १५४ कि मी लंबा और ३९ कि.मी. चौड़ा था ।

    नगर के सभी मार्ग प्रतिदिन पानी से सींचे जाते थे । सारे मार्ग पर फूलों के ढ़ेर फैलाये जाते थे । ऐसा मालूम होता था मानों फूलों की सेज ही बिछा दी हो ।

    पुराने जमाने में केवल कुछ हजार व्यक्ति उघे-उघे जय-जय कहकर किसी एक को राजा नहीं चुनते थे । राजा को राजवंश में पैदा होकर वेद-वेदाँग-न्यायशास्त्र अर्थशास्त्र समर शास्त्र (युद्ध की कला) आदि अनेक ज्ञान शाखाओं में पारंगत होना अपेक्षित था । दशरथ में ये सारी विद्याएँ मुर्तिमान थी । दशरथ एक आदर्श क्षत्रिय था । इसके तीन रानियाँ थी - कौसल्या-सुमित्रा और कैकई । दशरथ तो एक राजर्षि था । स्वर्ग को ही शरमानेवाली संपत्ति पाकर भी वह बड़ा संयमी और जितेंद्रिय था । वह अर्थ-काम का सेवन इस प्रकार करता था कि वे धर्म विरुद्ध न हों ।

    राजा का प्रतिबिम्ब - राज्य

    "यथा राजा तथा प्रजा’, यह ऐसा सुभाषित है जो सब देशों के लिए सब कालों में लागू होता है । जिस तरह सब का पालन करनेवाला राजा रहता है, उसकी प्रजा भी उसी तरह रहती है । राजा का अर्थ है वह व्यक्ति जो अपने आँतरिक तथा बाह्य सौंदर्य से प्रकाशमान रहता हो । बाह्य सौंदर्य तो आयु के बढ़ते-बढ़ते घटता जाता है । लेकिन आँतरिक सौंदर्य आयु के बढ़ते बढ़ते और भी बढ़ता जाता है । ६०, ००० वर्षों तक दशरथ शासन चलाता रहा । उसका आँतरिक शील तथा सौंदर्य इतना पकचुका था कि कल्पना भी नहीं की जा सकती ‘राजा प्रकृति रंजनात्’ उक्ति के अनुसार राजा को चाहिए कि वह सदा प्रजाओं को सुख पहुँचाता रहे । दशरथ महाराजा के प्रतिबिम्ब के समान ही अयोध्या की प्रजा थी । वहाँ के लोग सदाचारी थे । उनका हृदय परिशुद्ध था । नास्तिकता - आलसपन, भयभीत होना, धोखेबाजी आदि बुरे गुण उनके पास भी न पटकते थे । वे सब धनी, सुन्दर-दानी-पंडित तथा शूर थे । सर्वत्र अविभाज्य परिवार थे । कई पीढ़ियों से एक साथ मिल जुलकर रहते आ रहे थे । महातेजस्वी दशरथ शत्रुवों का गर्व चकना चूर कर देता था । तारों के बीच चांद के समान प्रकाश मान था । एक आदर्श राजा की तरह राज्य करता था ।

    दशरथ का मंत्रि-मंडल

    राज्य को सुचारुरूप से चलाने के लिए अच्छे मंत्रियों का सहयोग चाहिए । दशरथ के मंत्रि मंडल में धृष्टि, जयंत, विजय, सिद्यर्थ, अर्थसाधक, अशोक, मंत्रपाल, और सुमंत्र, नामक अन्वर्थ मंत्री थे । वे सब सद्गुणसंपन्न राजकार्य दक्ष, सहनशील, हसन्मुखी और दूसरों की समस्याएँ जान लेने में बड़े समर्थ थे । कोसल तो धर्मराज्य था । राजा को सलाह देने के लिए दो प्रधान पुरोहित वहाँ थे । वशिष्ठ और वामदेव नामक शुभ नामों से वे अलंकृत थे, गुप्तचरों के द्वारा मंत्री देश विदेशों के समाचार जान लेते थे । वे मंत्री लोक व्यवहारों के अच्छे ज्ञाता थे । वे पक्षपात रहित होकर अपराधी साबित होने पर अपने बच्चों को भी सजा देते थे । निरपराध शत्रुओं को भी दंड नही देते थे । पहनावे ओढ़ावे में और आचार विचारों में वे सदा परिशुद्ध रहते थे । उनके कथन और कृतियों में (कार्यों में) साम्य रहता था । जो कहते थे उसी को करते थे । ऐसे मंत्रियों को पाना भाग्य की ही बात है । पुरोहित तो वर्तमान और भविष्य में होनेवाली घटनाओं की अच्छे ज्ञाता होते थे ।

    अश्वमेधयाग

    इस प्रकार राजा दशरथ सभी तरह के सौभाग्यों से संपन्न रहे । उन्हे किसी प्रकार की चिन्ता न थी । लेकिन वंश को बढ़ानेवाली संतान के अभाव से वह पीडित थे । उनका मन सदा तड़पता था । दैवशक्ति द्वारा दैवतेजसंपन्न पुत्र को पाने की लालसा से अश्वमेधयाग करने का निश्चय किया । वसिष्ट-वामदेव आदि पुरोहितों को बुलवाकर अपना प्रस्ताव उनके सामने रखा । सभी ने राजा के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी । सरयू नदी के उत्तरी दिशा में ‘याग मंडप’ निर्मित कराने की सलाह दी । यह विचार सुनकर राजा दशरथ आनंद विभोर हो गये । अपने को धन्य माना । उन्होंने मंत्रियों को आज्ञा दी ‘याग के लिए सभी तैयरियाँ हो जाय । शास्त्रलोप होगा तो याग से मनचाहा फल प्राप्त नहीं होता । बुरा फल भी निकल सकता है । इसलिए सभी विचारों में जागरुक रहना आवश्यक है । बाद में राजाने अपनी पत्नियों को याग के बारे में सुनाया । उनसे ‘दीक्षा’ (दीक्षा का अर्थ है किसी धार्मिक अनुष्टान करते समय निश्चित दिनों में कुछ नियमों का पालन करना) ग्रहण करने के लिए कहा अपने पति की बात सुनकर वे भी बहुत खुश हुईं ।

    दशरथ तो बड़े दूरदर्शी थे । अच्छे संगठक थे । बुद्धिमान भी थे । अश्वमेध याग के लिए एक घोडा छोड़ दिया । एक वर्ष के बाद याग को संपन्न बना देने के लिए दशरथ ने वशिष्ठ जी से प्रार्थना की, बाद में वशिष्ठजी ने सुमंत्र को बुलाया । उसे आदेश दिया कि सभी देशों के राजाओं को निमंत्रित करे और ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य शूद्र तथा समाज के हर एक वर्ग के लोगों को भी याग में भाग लेने का मौका दिया जाय ।

    उसी प्रकार सबको निमंत्रित किया गया । इसके कुछ दिनों के बाद अनेक सामंत राजा दशरथ के पास आये । विविध प्रकार के बहुमूल्य वस्तुएँ भेंट में अर्पित की ।

    दशरथ यागादीक्षाग्रहण

    दशरथ ने शुभ नक्षत्र के दिन ऋष्यशृंग की अनुमति ली । याग मंडप में प्रवेश किया । यज्ञदीक्षा ग्रहण कर ली । शास्त्र विधियों के अनुसार याग संपन्न हुआ । सहस्रों की संख्या में पुरोहित आये । अश्वमेधयाग को सुचारु रूप से संपन्न कराने के लिए वाशिष्ठजी ने अपना पूरा सहयोग दिया । मंत्रि प्रधान सुमंत्र एक अच्छे राजानीतिज्ञ और कुशल शासन चलानेवाला था । साथ साथ यज्ञ यागादियों के बारे में भी दशरथ को सलाह देने में समर्थ था । इसीलिए वह दशरथ के रनिवास में आया । एकाँत में राजा से मिलकर बोला ‘महाप्रभु! तुम संतान प्राप्त करने के उद्देश्य से अश्वमेध याग करने का निश्चय करके अपनी पत्नियों के साथ दीक्षाग्रहण कर चुके हो । यह तो बहुत प्रसन्नता का विषय है । विभांडकमुनि का पुत्र ऋष्यशृंग एक महातपस्वी है । अपने विवाह के पहले अंगदेश में पहुँचते ही मूसल धारा वर्षा होती है । फिर रोमपाद, अपनी पुत्री का विवाह ऋष्यशृंग से करता है । यही ऋष्यशृंग आगे दशरथ महाराज के पुत्रप्राप्ति का भी कारण बन जाता है । इस प्रकार सनतकुमार ने ऋषिमुनियों के सम्मुख कहा था । वही कहानी मैं आपको सुना रहा हूँ ।"

    ऋष्यशृंग को निमंत्रण

    सुमंत्र से ऋष्यशृंग की महिमा सुनकर दशरथ ने अपने से किये जानेवाले अश्वमेध यज्ञ में सक्रिय भागलेने के लिए ऋष्यशृंग मुनि को आमंत्रित करने का निश्चय किया । ऋष्यशृंग तो बड़े तपस्वी थे । राजा को विश्वास हो गया कि उस तपस्वी के तपोबल के प्रभाव से ही याग अच्छी तरह संपन्न होगा और उसे पुत्रप्राप्ति होगी । ऐसा सोचकर दशरथ अपनी पत्नियों तथा मंत्रियों के साथ अंगदेश गये । मुनि की सन्निधि में जाकर अपना इरादा प्रकट किया ।

    इससे यह बात प्रकट होती है कि राजा दशरथ अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा के पास किस प्रकार नम्रता के साथ जाना चाहिए । अयोध्या में ऋष्यशृंग का आगमन निश्चित हुआ । दशरथ इस बात का निर्णय नहीं करते कि वह महर्षि अकेले आँएंगे अथवा मंत्रियों के साथ आँएंगे । लेकिन वह स्वयम् भरे हृदय से आवश्यक गौरव के साथ उन्हे अयोध्या ले आते है । दूरदर्शी दशरथ शीघ्रगामी दूतों को बुलाकर आज्ञादेते है कि मैं ऋष्यशृंग मुनि के साथ अयोध्या आ रहा हूँ । उनके स्वागत का अच्छा प्रबंध किया जाए । बाद में उस मुनि के साथ राजा अयोध्या पहुँचे । मुनि का आदर सत्कार किया ।

    कुछ दिनों के बाद महाराजा दशरथ ऋष्यशृंग मुनि के पास जाते है । प्रणाम करके प्रार्थना करते है कि ब्रह्मत्व (ब्रह्मत्व समूचे याग का धर्माधिकारी जो विधि-विधानों का ज्ञाता है । वह ऋग्वेद यजुर्वेद-सामवेद और अथर्वणवेद इस प्रकार चारों वेदों मे पारंगत रहता है । यज्ञ का सारा परिचय उसे मालूम रहता है । अगर पुरोहित से कोई गलती हो तो उस सही करने की सामर्थ्य उसमें रहनी चाहिए ।) का स्थान ग्रहण करके याग को सुसंपन्न कराए ।

    ऋष्यशृंग ॐ तथास्तु कहकर ब्रह्मत्व की जिम्मेदारी स्वीकार कर लेते है ।

    बसंत ऋतु के आरंभ होते ही दशरथ ने पूर्णिमा के दिन साँग्रहणि नामक यज्ञ किया । अश्वमेध याग की सफलता के लिए यह यज्ञ किया गया था । इसका उद्देश्य आसक्त लोगों का एक जगह जमा करना । इसका कारण यह होता है कि समानचिन्तन करने वाले सब लोग एक जगह इकट्ठा होंगे तो कोई भी कठिन काम आसानी से किया जा सकता है । धार्मिक अनुष्ठान और वेदविदों के साथ दशरथ का जो गौरव था उसका अंदाज याग के पहले वसिष्ठजी के साथ उसके बातचीत द्वारा लग जाता है ।

    वेदज्ञो के साथ दशरथ का औदार्य

    दशरथ वशिष्ठजी से कहता है "हे मुनिश्रेष्ठ! यह महायज्ञ शास्त्रों की विधियों के अनुसार संपन्न हो । सावधान रहिए कि यज्ञ में राक्षसों द्वारा किसी प्रकार की बाधा न होने पाये । आप मेरे परम मित्र हैं । आप सदा मेरे अज्ञान को दूर करके ज्ञानरूपी ज्योति जलानेवाले आचार्य हैं । इसलिए इस यज्ञ की सारी जिम्मेवारी आप ही उठाइए । यह मेरी प्रार्थना हैं ।

    यज्ञ यागादियों में अन्नदान और वस्त्रदान प्रमुख अंग माने जाते हैं । दस हजार लोग यज्ञ के दिनों में प्रतिदिन भोजन करते थे । आहार के वितरण में किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाता था । सभी वर्गों के तथा सभी वर्णों के लोग यज्ञप्रसाद का सेवन करते थे । दशरथ के मंत्री बार-बार कहा करते थे जो भूखे आते हैं उनको खाना परोसिए, नये नये कपडे भेंट में दीजिए

    (अन्नं दीयतामा विविधानि वासांसि दीयंताम्)

    अश्वमेधयाग के लिए दशरथ से जो घोड़ा छोड़ा गया था किसि ने उसे बांधने का साहस नहीं किया क्यों कि दशरथ से अधिक शक्तिशाली राजा कोई था ही नहीं । उनका एक चक्राधिपत्य इसका साक्षी था ।

    दक्षिणा के रूप में

    यज्ञ के समय सर्वत्र तृप्ति ही तृप्ति दीख पड़ती थी । यज्ञाँग के रूप में अपना राज्य ही पुरोहितों को दान कर दिया । लेकिन पुरोहितों ने उसे दशरथ को ही लौटा दिया । उसके बदले गायें-सोना आदि दिया जा सकता है उसी प्रकार राजा ने अधिक संख्या में मुक्त हाथ से गोदान ही दिये । अंत में ऋष्यशृंग के पास जाकर प्रार्थना की महात्मन! मेरे लिए वंशोद्वारक पुत्र प्रदान कीजिए । तब ऋष्यशृंग बोले" ठीक है । वंशोद्यरक पुत्रो को प्राप्त करोगे । बाद में राजा के इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऋष्यशृंग ने दशरथ से पुत्रकामेष्टि नामक एक यज्ञ करवाया । जिस यज्ञ में याग करनेवाला (कर्तु) याग कराने वाला (ऋत्विज) यज्ञ सामाग्रियाँ (द्रव्य) यज्ञ का स्थान सभी शुद्ध रहते है । वह यज्ञ सचमुच सफल बन जाता है ।

    दिव्य अनुग्रह का अधिकारी दशरथ

    दशरथ से किया गया यज्ञ समाप्त होने को आया । उस समय अग्नि के मध्य से एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ जो बड़ा तेजस्वी और बलवान था । उसके हाथ में सोने का एक बरतन था जो चांदी के ढक्कन से बंद था । उसमें दिव्य खीर था । वह शांत पुरुष दशरथ से बोला महाराज! मुझे प्रजापति का भेजा हुआ पुरुष समझो यह वाक्य सुनते ही दशरथ हाथ जोड़कर बोले ‘हे पूज्यवर! तुम्हारा स्वागत है । मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ! कृपया आज्ञा दो । दशरथ का स्वभाव ही ऐसा था । चाहे कोई भी उनके पास आये, उसे कभी खाली हाथ नहीं लौटाते थे । विशेषकर यज्ञयागादियों के संपन्न होते समय दिए जानेवाले दान श्रेष्ठ होते हैं । तब उस दिव्यपुरुष ने खीर का बरतन दशरथ के हाथ में देते हुए कहा तुम्हारी रानियाँ इसका सेवन करेंगी तो उनको संतान प्राप्त होगी । दशरथ ने उस पुरुष को प्रणाम किया । उस बरतन को स्वीकार किया । वह दिव्यपुरुष उसी होमाग्नि में अदृश्य हुआ । दशरथ ने उस दिव्य खीर को कौसल्या, सुमित्रा, तथा कैकई तीनों को दिया । उसका सेवन करने के बाद कालक्रम में वे तीनों रानियाँ गर्भवती बनीं । सब आनंदित हुए ।

    श्रीरामादियों का जन्म विश्वामित्र का आगमन

    याग के समाप्त होने के बाद दशरथ ने दीक्षाविसर्जन किया । अपनी पत्नियों के साथ अयोध्या लौट आए । यज्ञ के एक वर्ष के बाद कौसल्या से श्रीराम, सुमित्रा से लक्ष्मण शत्रुघ्न, कैकई से भरत-इस प्रकार चारपुत्र पैदा हुए । अयोध्या भर में लोगों ने संतोष समारोहों को मनाया । दशरथ ने नगरवासियों तथा वंदि मागधों को पुरस्कार बाँटा । १३ वें दिन दशरथ ने वशिष्ठजी के निर्देशानुसार अपने चारों पुत्रों का नामकरण विधिपूर्वक किया । कालक्रम में उनका उपनयन (जनेऊ पहनाने का) संस्कार भी किया गया । बाद में चारों ने वेदाध्यायन किया । धनुर्वेद में भी बड़े शूर कहलाये । अन्य शास्त्रों में भी पारंगत बने ।

    इस प्रकार कुछ वर्ष बीत गये । दशरथ ने अपने चारों पुत्रों के विवाह के बारे में सोचने लगा । एक दिन जब वह इसी चिन्ता में बैठा था, विश्वामित्र महर्षि उससे मिलने आये । द्वारपालों ने यह समाचार राजा को बताया । तुरंत राजा अपने पुरोहितों के साथ विश्वामित्रजी का आदर सत्कार किया । विश्वामित्र ने राजा के राज्य-खजाना आदि के बारे में कुशल प्रश्न किये । साथसाथ वशिष्ठादि मुनियों के तप अनुष्ठान आदि के बारे में भी विचार विनिमय किया ।

    तब आथिथेय दशरथ, विश्वामित्र से बहुत सुन्दर वचन बोले । उन्होंने कहा ‘ओ महर्षिजी! आपके आगमन ने हमें आनंद प्रदान किया है । एक मानव को अमृत प्राप्ति के समान है । ठीक समय पर वर्षां के आने के समान है । अपुत्रवान को योग्य पुत्र प्राप्ति के समान है । खोयी हुई संपत्ति फिर मिलने के समान है । सत्पात्रों को ही दान देने का नियम है । आप तो अपने तपोबल से ब्रह्मर्षि बनकर परोपकार के लिए ही अपना जीवन बिता रहे हैं । इस प्रकार आप सब विषयों में मेरे प्रातः स्मरणीय हैं । सदा स्मरणीय हैं । यह तो आश्चर्य की ही बात है कि गुरुगृह महल तक आया है । आप के पादस्पर्श से यह भूमि तीर्थक्षेत्र बन गयी । आपके आगमन का उद्देश्य कहिए । आपकी आज्ञा सिर-आँखों पर लेता हूँ । आपकी आज्ञा का पूर्णरूप से पालन करूँगा । आप तो मेरे लिए प्रत्यक्षदेव हैं । आपके आगमन से धर्म का संपूर्ण फल मुझे एक साथ प्राप्त सा है । ऐसा मत सोचिए कि यह दान पूछना है । यह दान नहीं पूछना है । किसी प्रकार के संकोच के बिना अपने मनचाहे वस्तु माँगिए । उसे देने के लिए मेरा मन तड़प रहा है । आज्ञा की जिए" ।

    दशरथ बड़ा विनयशील था । विशेषकर तपस्वियों को देखने पर तो अपार गौरव देता था । उसकी बातें सुनकर विश्वामित्रजी आवाक रह गये ।

    उनको अपने आगमन का उद्देश्य बताने का मौका मिल गया । उन्होने कहा महाराजा! मैं एक यज्ञ कर रहा हूँ । उसमें मारीच, सुबाहु नामक बलवान राक्षस विघ्न डाल रहे हैं । उनका वध करना है । उन राक्षसों के साथ युद्ध करने के लिए श्रीराम को भेजो । इससे तुम्हारा यश शाश्वत रूप से चारों ओर फैल जाएगा ।

    ये बातें सुनते ही दशरथ बहुत दुखी हुए । उनके शरीर में कंपन होने लगा । वह प्रज्ञाहीन हुए क्यों कि अपने चार पुत्रों में श्रीराम उनको बहुत प्रिय था । उनका मत था की चाहे मैं सब कुछ त्याग दूँगा, परंतु राम से बिछुड़कर नहीं रह सकता । होश आने पर वह विश्वामित्र से बोले मुनिवर! श्रीराम तो अभी मुग्ध बालक है । वह अभी १६ वर्ष का है । मेरे पास शक्तिशाली अक्षोहिणी सेना है । राम को मत ले चलिए । हम अपनी सेना के साथ आकर उन मायावी राक्षसों को परास्त करेंगे । अगर आप राम को ही ले जाना चाहते है तो सेना के साथ हमें भी ले चलिए । साठ हजार वर्षों के बाद मुझे पुत्रों की प्राप्ति हुई है । बच्चों का वियोग मुझसे सहा नहीं जाता । इसलिए हम स्वयम् आकर राक्षसों का संहार करेंगे । कौन है वे राक्षस? उनका क्या पराक्रम है? कृपा करके बताइए! तब विश्वामित्र बोले पौलस्त्य वंश में जन्मा रावण नामक राक्षस तीनों लोको को बाधा पहुंचा रहा है । अपने ही वंशज मारीच सुबाह को अपने प्रतिनिधि के रूप में भिजवाकर यज्ञ कार्य में विघ्न पहुँचा रहा है । रावण की बातें सुनते ही दशरथ और भी सुस्त हो गया । वह बोला "दुष्ट रावण के साथ युद्ध करने की शक्ति मुझमें, मेरे बेटे राम ने अथवा मेरी सेना में भी नहीं है । आप ही मेरे लिए भगवान है । गुरु है । देवादिदेव भी रावण के सामने नत-मस्तक हैं तो हम मनुष्यों के बारे में क्या कहना! आप आग्रह करते हैं तो मारीच सुबाहु में किसी एक के साथ युद्ध करेंगे ।

    दशरथ की ये बातें सुनकर विश्वामित्र बहुत क्रोधित हुए । उसे चेतावनी देते हुए बोले पहले वादा करके बाद में उसका उल्लंघन करना रघुवंशियों के लिए योग्य नहीं है । (दशरथ के दादा महाराज रघु ने अपनी सारी संपात्ति विश्वाजित् याग में दान करके मिट्टी के बर्तन में अपना जीवन बिताता था । उस समय कौत्य नामक एक विद्यार्थी उसके पास आकर धन की सहायता माँगी तो अपने वचन को बनाए रखने के लिए उसने चौदह करोड़ से भी अधिक सोने की मुहरें कुबेर से लेकर दिया था । इसके बाद वह वंश रघुवंश के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ । अगर तुम अपना इरादा ही सही मानते हो तो मैं निराश होकर ही लौटता हूँ । वचनभ्रष्टहोकर तुम जीवित रहो ।"

    वशिष्टजी का उपदेश दशरथ को

    तब कुल पुरोहित वशिष्ठजी उपदेश देते हुए दशरथ से बोले ‘भूत-भविष्यत-वर्तमान के ज्ञाता विश्वामित्र विद्यानिधि हैं । सकलशास्त्र पारंगत हैं । तुम्हारे पुत्र के श्रेय के लिए ही तम्हारे यहाँ आये हैं । उनका कथन तो दशरथ के लिए शक्तिवर्धक गाय के दूध का समान ही था । इससे दशरथ को समाधान हुआ । उन्होंने श्रीराम को विश्वामित्र के साथ भेज देने का निश्चय किया । वशिष्ठजी का कथन स्वीकार किया । बाद में उन्होंने राम को बुलवाया । लक्ष्मण तो सदा राम के साथ ही रहा करता था । उसी के साथ-साथ पलता था । इस प्रकार वह भी राम के साथ चला आया । महाराजा ने अपने बेटों के सिर को आघ्राण किया । कोई भी वस्तु का दान देते समय किसी भी व्यक्ति को अन्यों की सहायता के लिए भेजते समय, प्रसन्न मन से देना चाहिए । यह विषय दशरथ को अच्छी तरह मालूम था । उसी प्रकार बड़ी प्रसन्नता से दशरथ ने अपने दोनों पुत्रों को विश्वामित्रजी के वश कर लिया । अपनी सत्य संधता बनाए रखा और सबके गौरव का पात्र बना ।

    राम-लक्ष्मण के सहयोग से राक्षसों का वध हुआ । विश्वामित्र जी का याग निर्विघ्न रूप से समाप्त हुआ । राजकुमारों के विषय में वे आनंदित हुए । उन राजकुमारों को शिवधनुष दिखलाने के उद्देश्य से उनकों मिथिला लिवा ले चले । बाद में श्रीराम ने शिवधनुष को तोड़ डाला । राजा जनक के दूत ने अयोध्या जाकर दशरथ को यह समाचार सुनाया । जनक ने दशरथ को मिथिला आने का निमंत्रण दिया । तब दशरथ ने अपने कुल पुरोहित वसिष्ठजी को बुलाया । उनसे कहा कि अगर जनक के आचार व्यवहार हमारे आचार व्यवहारों से मेल खायेंगे तो हम शीघ्र मिथिला चलेंगे । इसके बारे में वशिष्ठजी ने अपनी पूरी सहमति दे दी । दशरथ के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । दशरथ सबके साथ मिथिला पहुँचे जब से विश्वामित्र, राम लक्ष्मण को ले चले थे, अब तक का समाचार सुनकर वह आनंदित हुए । उन्होंने अनुभव किया कि अगर वह राम को विश्वामित्र के साथ न भेजते तो उसकी कीर्ति का फैलना स्वयम् रोक लेता ।

    विनयशील दशरथ

    दशरथ वर पक्षवाले थे । जनक वधू पक्षवाले थे । साधरणतया वर पक्षवालों को अहंकार रहता है । उनके कहे अनुसार ही वधु पक्षवालों को व्यवहार करना पड़ता है । जनक कहते है ‘मेरा यज्ञ कार्य कल तक समाप्त होनेवाला है । उसके बाद विवाह का संपन्न होना अच्छा लगता है । तब उदारहृदयवाले दशरथ बोलते है मैं तो वधु को बहू के रूप में स्वीकार करनेवाला हूँ । तुम तो देनेवाले हो । लेनेवाला सदा देनेवालेके अधीन रहता है । इसलिए धर्मज्ञ तुम जैसा कहते हो वैसा ही हम व्यवहार करेंगे । दशरथ के इन विनयशील बातों को सुनकर जनक अचंभे में पड़ गये । दशरथ का यह कथन तो आजकल के सभी गृहस्थों को विशेषकर वर के माता-पिता को एक महान संदेश है । इस प्रकार का चिन्तन वर के पक्षवालो मे उदित होगा तो वह विवाह व्यवस्थित रुप से संपन्न होगा । श्रीराम के विवाह के साथ लक्ष्मण - भरत-शत्रुघ्न का विवाह भी निश्चित हुआ । इस मौके पर दशरथ ने दूध दुहनेवाले चारलाख गायों को सुवर्ण बरतनों के साथ दान कर दीया ।

    अपने चारों लडकों का विवाह एक ही शहर के एक ही मंडप में एक ही दिन संपन्न हुआ । इससे दशरथ को बड़ा आनंद हुआ । नये दंपतियों के साथ महाराजा दशरथ मिथिला से अयोध्या रवाना हुए । वह तो ३-४ दिनों का रास्ता था । रास्ते में अतुल पराक्रमी परशुराम से भेंट हुई । उसने वैष्णव धनुष को तोड़ने श्रीराम से शर्त लगायी । यह बात सुनकर दशरथ चिन्ता में पड़ गये । उन्हें लगता है कि राम का बचना ही मुश्किल है । लेकिन राम को उस शर्त में सफलता मिलती है । दशरथ सौ गुना आनंदित होते है । उन्होंने अनुभव किया कि उनका और उनके बेटे रामका पुनर्जन्म ही हुआ । बिना कोई विघ्न के सब अयोध्या पहुँचे । ‘नवदंपति’ दशरथ को प्रत्यक्ष देव ही समझते थे । विधेय रहते थे । नवदंपतियों के सद्गुणों से दशरथ भी बहुत खुश थे । वह अनुभव करते थे कि अपने चारों पुत्र अपने ही शरीर के चार बाहुएँ हैं ।

    बाद में भरत के मामा युधाजित भरत-शत्रुघ्न को अपने यहाँ कुछ दिनों तक रखने के लिए लिवा ले गये ।

    उत्तराधिकारी का प्रबंध

    अपने बड़े बेटे का युवराज्याभिषेक करना क्षत्रियों का संप्रदाय है । यहाँ तो श्रीराम ज्येष्ठ पुत्र होने के साथ-साथ गुणों का सागर ही थे । इसे देखकर दशरथ की खुशी का ठिकाना न रह । उनके एक एक गुण का स्मरण करके वह आनंदित होते थे । उन्होंने अपने मन में अपने बूढ़ापन और श्रीराम के व्यक्तित्व के बारे में सोचा । उन्होंने मान लिया था कि प्रजा अपने से अधिक श्रीराम को ही प्यार करती है । इसलिए उन्होने सोचा ‘श्रीराम मेरी अपेक्षा अच्छी तरह शासन करता है । उसे देखना मेरा अहोभाग्य है । वही मेरे लिए स्वर्गसुख है । उस भाग्य का भोग करके मुझे परलोक जाना चाहिए । ऐसा सोचकर उन्होंने इसी विचार पर अपने मंत्रियों के साथ विचार विनिमय किया । अंत में श्रीराम को युवराज बनाने का निश्चय किया । दशरथ का राज्य तो प्रजा-राज्य था । प्रजा के अभिप्राय के लिए पूर्ण गौरव दिया जाता था । इस प्रकार उन्होंने अपने राज्य के अलग-अलग भागों में रहनेवाले योग्य पुरवासी और ग्रामीण प्रदेशों में रहनेवाले योग्य तथा प्रमुख प्रजा को बुलाकर कहा ‘ओ मेरे प्यारे नगरवासी! हमारे पूर्वजों से शासित इस राज्य का पालन हम भी करते आ रहे हैं । प्रजा को अपनी संतान के समान देखते आ रहे हैं । हम चाहते हैं कि इस राज्य का और भी भला हो । इसलिए श्रीराम को युवराज बनाना चाहते हैं । इतना कहने के बाद दशरथ जो बोलते है वह सचमुच मनन करने का है । वह कहते है "अगर हमारी इच्छा आपको भी पसंद है तो आप अपनी स्वीकृति दीजिए । इसके अलावा और कोई आभिप्राय हो तो उसे भी आप प्रकट कर सकते हैं । कारण यह है कि राज्य के बारे में पक्षपात रहित अधिक विवेकी लोगों से विचार विनिमय के बाद जो बात निकलती है वही योग्य मानी जाती है ।

    अपने उत्तराधिकारी के प्रबंध के लिए मंत्रीगण तथा

    राज्य के सामन्तों के साध समालोचना करते हुए ।

    प्रजा का एक मत

    कानों को आनंद देने वाले इन (कर्णानंद) बातों को सुनकर सारी सभा अपना एकमत प्रकट करते हुए उद्गर निकाली कि महाराजा की इच्छा ही हमारी इच्छा है । वहाँ उपस्थित लोग फिर बोले ‘शुभस्य शीघ्रम’ हम इस शुभ समारोह को देखकर अपनी आँखों को सुख पहुँचाना चाहते हैं । इसे सुनकर राजा को सीमातीत आनंद हुआ । कुछ समय तक अपना संतोष प्रकट न किया । अपने आप में छिपा रखा । उन्होने यह जानना चाहा कि प्रजा ने केवल दिखावे के लिए ऐसा कहा है अथवा दिल लगाकर कहा है । उसकी परीक्षा करने के लिए वह फिर बोले ‘मेरी बात सुनते ही आपने कहा है न कि श्रीराम राजा

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