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Dharmik, Aitihasik Sthalon Par Vaastu Ka Prabhav
Dharmik, Aitihasik Sthalon Par Vaastu Ka Prabhav
Dharmik, Aitihasik Sthalon Par Vaastu Ka Prabhav
Ebook965 pages16 hours

Dharmik, Aitihasik Sthalon Par Vaastu Ka Prabhav

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About this ebook

Impact Of Vaastu On Nations, Religious & Historical Places
Shri Kuldeep Saluja, the author, has a special interest in Vaastu & Astrology. He has studied these subjects for 30 years in a scientific manner and many times has challenged the orthodox and traditional beliefs too. He keeps all his advices scientific. He has not only advised in India but in more than 60 countries of the world.
He has published "Pyramid Vaastu-Shirf Dhokha" a very successful book in addition to 284 books on Vaastu & Fengshui. His work has been published by many famous publishing houses of the country. His articles also have been published in many Indian magazines and in many languages.
Friends! This earth is one but some people are happy & omfortable and others are living just miserable life. You might have come across this question sometime in your life. Similarly some cities are famous outstandingly. Why?
There are several prayer houses/religious places belonging to all the religions on the face of earth but only few attract people in big numbers. Why?
The author has tried to explain all the facts in this book that when religious places, palaces, historical places & nations are affected by Vaastu then how flats, houses & industries can remain unaffected by Vaastu effects?
This book may be useful to the students who seek to get knowledge of Vaastu practically.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateApr 15, 2021
ISBN9789352961658
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    Dharmik, Aitihasik Sthalon Par Vaastu Ka Prabhav - Kuldeep Saluja

    है।

    वास्तु में दिशा ज्ञान का महत्व

    वास्तु में दिशा ज्ञान का अत्यधिक महत्व है। सही दिशा के आधार पर ही वास्तुनुकूल भवन निर्माण किया जा सकता है।

    सामान्यतः दिशा ज्ञान के लिये मैगनेटिक कम्पास अर्थात दिशासूचक यंत्र का उपयोग किया जाता है। बिना मैगनेटिक कम्पास के भी दिशा ज्ञान के कुछ पारम्परिक तरीके हैं।

    प्रातःकाल सूर्योदय के समय सूर्य की तरफ मुँह करके खड़े होने पर हमारे सामने पूर्व दिशा, दाएँ हाथ पर दक्षिण दिशा, पीठ की तरफ पश्चिम दिशा व बाएँ हाथ की तरफ उत्तर दिशा होती है।

    सुबह के समय जब सूर्य चमक रहा हो तो ऐसे में एक छड़ी जमीन में गाड़ दें। जमीन पर जहाँ उसकी ऊपरी नोक की छाया पड़े, वहाँ निशान लगा दें। लगभग आधे घण्टे के बाद पुनः नोक की छाया पर निशान लगा दें। इन दोनों निशानों के बीच में एक रेखा खींचें। यह रेखा पूर्व से पश्चिम की ओर दिशा ज्ञान कराती है। ध्यान रहे इसका पहला निशान पश्चिम की ओर तथा दूसरा पूर्व की ओर होगा।

    संध्याकाल के समय चंद्रमा की सहायता से दिशा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यदि चंद्रमा सूर्यास्त से पहले उदय हो चुका हो तो चंद्रमा का चमकने वाला प्रकाशयुक्त भाग सदैव पश्चिम में ही होता है। अर्धरात्रि के बाद चंद्रमा का उदय हुआ हो, उस समय यह चमकने वाला भाग पूर्व की ओर होता है।

    इसी प्रकार रात्रि के समय आकाश में चमकने वाले तारों की सहायता से दिशा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। रात्रि के समय हम आकाश में सप्तऋषि मण्डल द्वारा ध्रुव तारे को पहचान सकते हैं। यह हमेशा उत्तरी ध्रुव में ही दिखाई देता है। इस कारण यह हमें उत्तर दिशा का ज्ञान कराता है।

    मैगनेटिक कम्पास का प्रयोग सर्वप्रथम समुद्री यात्रा के दौरान नौका या जहाज परिवहन के लिये किया गया था। मैगनेटिक कम्पास दिशा ज्ञान के लिये सबसे सरल एवं सटीक उपाय है।

    पृथ्वी भी एक बहुत बड़े चुम्बक की तरह कार्य करती है। चुम्बकीय कम्पास में छोटी-सी धुरी PIVOT पर एक पत्ती लगी होती है, जिसके एक सिरे पर सामान्यतः लाल निशान लगा होता है। इस गोलाकार कम्पास में 0 से 360 डिग्री तक अंक लिखे होते हैं। इस चुम्बकीय पत्ती का लाल सिरा हमेशा उत्तर दिशा की ओर इशारा करता है। (क्योंकि पृथ्वी का नार्थपोल स्थायी है) उत्तर दिशा का ज्ञान होने से बाकी दिशाओं का ज्ञान अपने-आप हो जाता है, क्योंकि कम्पास में सभी दिशाएँ एवं डिग्री अंकित होती है। इसलिए किसी प्रकार की कोई गणना नहीं करना पड़ती।

    कम्पास में दिशाओं को दर्शाने के लिये अंग्रेजी के इन शब्दों का उपयोग किया जाता है।

    E, S, W, N, NE, SE, SW, NW

    इनका अर्थ इस प्रकार है।

    हाँ यह आवश्यक है कि, दिशासूचक यंत्र का उपयोग करते समय कुछ सावधानियाँ भी बरतना चाहिए।

    मैगनेटिक कम्पास को भूखण्ड या भवन के मध्य में रखकर कम्पास की सुई स्थिर हो जाने तक रुके और उसके बाद उसका लाल सिरा कम्पास को धीरे-धीरे घुमाते हुए N निशान पर ले आएं। इसके बाद बाकी दिशाएँ जो कम्पास में अंकित हैं, उनको पढ़ें।

    दिशासूचक के आस-पास कोई चुम्बकीय पदार्थ या चुम्बक नहीं होना चाहिए।

    किसी भवन में दिशा ज्ञात करते समय तीन-चार अलग-अलग जगह जाकर दिशा देखनी चाहिए, क्योंकि आजकल बनने वाले मकानों में (कॉलम एवं बीम) में स्टील एवं लोहे का उपयोग ज्यादा होने से वहाँ कई बार मैगनेटिक फील्ड बन जाता है, जिस कारण यंत्र सही तरीके से काम नहीं करता है।

    ऐसी स्थिति में जहाँ चुम्बकीय सुई बिना किसी रुकावट के अधिक बार रुके, उसे ही सही दिशा मानें।

    आपका घर कौन-सा मुखी है?

    कई बार देखने में आता है कि लोग अपने भवन के वास्तु की चर्चा करते समय यह बताने में कठिनाई महसूस करते हैं कि उनका घर वास्तु नियमों के अनुसार किस दिशा में स्थित अर्थात् कौन-सा मुखी है।

    इसके लिये अपने घर के मुख्यद्वार पर सड़क की ओर मुँह करके खड़े होने पर जो दिशा सामने हो, वही हमारे भवन की दिशा होती है।

    उदाहरण के लिये आप अपने घर के मुख्यद्वार से बाहर सड़क की ओर जाते हैं और इसी दिशा में सामने से सूर्योदय होता है तो समझिए आपका घर पूर्वमुखी है। आपके दाएँ हाथ पर दक्षिण दिशा, बाएँ हाथ पर उत्तर दिशा एवं पीठ की ओर पश्चिम दिशा है।

    यदि आप अपने घर के मुख्यद्वार से बाहर सड़क की ओर जाते हैं और घर के पीछे से सूर्योदय होता है, तो कहा जाएगा कि आपका मकान पश्चिममुखी है।

    वास्तुशास्त्र के अनुसार दिशाएँ व कोण

    जिस भूखंड में दिशाएँ मध्य में न होकर कोने में होती हैं,

    वह विदिशा भूखंड कहलाता है।

    चार दिशाएँ

    चार कोण

    प्लॉट का विभाजन

    प्लॉट का वास्तु अनुसार आठ भागों में विभाजन

    विदिशा प्लॉट का वास्तु अनुसार आठ भागों में विभाजन

    वास्तुशास्त्र में केंद्र को ब्रह्म स्थान कहा जाता है।

    कोण का विभाजन

    आठ दिशाओं को प्रभावित करने वाले नौ ग्रह

    भारतीय वास्तुशास्त्र के अनुसार किसी भी प्लॉट या भवन की आठों दिशाओं को हमारे सौरमंडल में उपस्थित नौ ग्रह प्रभावित करते हैं। प्रत्येक ग्रह किसी एक दिशा का प्रतिनिधित्व करता है, जो इस प्रकार है-

    दिशाओं के देवता एवं ग्रह

    नवग्रह, आठ दिशाएँ एवं उनके

    आधिपत्य वाले क्षेत्र

    फेंगशुई के अनुसार वास्तु का आठ

    भागों में विभाजन

    मुख्य द्वार इस दिशा में कहीं भी हो सकता है।

    फेंगशुई के चमत्कारिक वर्ग पर आधारित पा-कुआ (Pa-Kua) पद्धति के अनुसार किसी भूखंड/भवन/कमरे का आठ भागों में विभाजन किया जाता है। जिसमें मुख्य द्वार की दिशा को सदैव उत्तर दिशा माना जाता है।

    वास्तु में निचाई का प्रभाव

    इस पुस्तक में आपको कई जगह पढ़ने में आएगा कि प्रसिद्धि के लिए उत्तर दिशा नीची होनी चाहिए। पूर्व दिशा में निचाई धन लाभ देती है। ध्यान रहे, उत्तर दिशा एवं पश्चिम दिशा में निचाई होने पर भी धन लाभ होता है, परन्तु यह पूर्व दिशा की तुलना में काफी कम होता है। जिस तरह उत्तर दिशा की निचाई प्रसिद्धि बढ़ाती है, उसी प्रकार मध्य पश्चिम की निचाई धार्मिकता बढ़ाती है। भवन की विभिन्न दिशाओं में निचाई का जो प्रभाव पड़ता है, वह इस प्रकार है-

    वास्तुशास्त्र एक विज्ञान है। अतः वास्तुदोषों का निवारण भी वैज्ञानिक तरीके से ही करना चाहिए। वास्तुदोष होने पर किसी भी प्रकार के टोने-टोटके, पूजा-पाठ, यंत्र-तंत्र-मंत्र, पिरामिड, श्रीयंत्र, कुछ गाड़ना या लगाना सब व्यर्थ होता है। यदि किसी

    धार्मिक स्थल का वास्तु-विन्यास ठीक न हो तो वहाँ भी ज्यादा लोग नहीं जाते, चढ़ावा भी ठीक नहीं आता, जबकि स्वयं ईश्वर वहाँ विराजमान रहते हैं।

    वास्तुदोष सिर्फ और सिर्फ भवन की बनावट में वास्तुनुकूल परिवर्तन करके ही दूर किया जा सकता हैं। वास्तुनुकूल परिवर्तन करने से 100 प्रतिशत सकारात्मक परिणाम निश्चित रूप से प्राप्त होते हैं। इसके अलावा अन्य कोई भी उपाय या वैकल्पिक तरीका सब पैसे और समय बर्बाद करने वाली बातें हैं।

    -लेखक

    प्रसिद्ध धार्मिक स्थल

    साईंबाबा मंदिर, शिर्डी

    विश्वभर में सभी धर्मों के आराध्यों के अनेक उपासना स्थल बने हुए हैं, परन्तु उनमें कुछ ही स्थान लोगों को आकर्षित करते हैं, जहाँ बारहों मास भारी तादाद में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते रहते हैं। जैसे भारत के हर गाँव व शहर में देवी के अनेकों मंदिर बने हुए हैं। जहाँ दर्शनार्थी जाते रहते हैं, किन्तु जम्मू के पास कटरा में माँ वैष्णो देवी के मंदिर के प्रति दर्शनार्थियों की श्रद्धा और आकर्षण कुछ ऐसा हैं कि भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के कोने-कोने से भारी तादाद में दर्शनार्थी दर्शन को आते हैं। इसी प्रकार गणेश जी के भी कई मंदिर हैं, परन्तु मुंबई के सिद्धि विनायक मंदिर का आकर्षण एकदम अलग है। सिक्खों के भी पूरी दुनिया में कई गुरुद्वारे हैं, परन्तु अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के प्रति एक विशेष आकर्षण है। इन सभी स्थानों पर वर्षभर दर्शनार्थियों का ताँता लगा रहता है। जहाँ वे मन्नतें माँगते हैं और पूरी होने पर पुनः दर्शन को आते हैं एवं भारी चढ़ावा चढ़ाते हैं, जबकि इन्हीं आराध्यों के कई ऐसे भी स्थान हैं, जहाँ इतने कम दर्शनार्थी जाते हैं कि वहाँ हमेशा सन्नाटा पसरा रहता है। ऐसे में मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि आखिर ऐसा क्यों?

    किसी भी धार्मिक स्थल को मिलने वाली प्रसिद्धि और भक्तों की उमड़ने वाली भारी भीड़ केवल इस कारण होती है, क्योंकि उस स्थान की भौगोलिक स्थिति और उस पर हुए निर्माण पूर्णतः वास्तु सिद्धान्तों के अनुकूल होते हैं। जो धार्मिक स्थल वास्तुनुकूल होते हैं, वहाँ सकारात्मक ऊर्जा की अधिकता होती है। यही सकारात्मक ऊर्जा श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। इस ऊर्जा के प्रभाव से ही दर्शनार्थी मन्नतें मांगते हैं और ऐसे स्थानों पर माँगी गई मन्नतें पूर्ण भी होती हैं। इसके विपरीत जिस मंदिर में वास्तुनुकूलता नहीं होती, वहाँ नकारात्मक ऊर्जा की अधिकता दर्शनार्थियों को अपने प्रति आकर्षित नहीं करती और उस स्थान पर वास्तुदोष के अनुरूप समस्याएँ भी बनी रहती हैं।

    साहित्य पढ़ने से ज्ञात होता है कि शिर्डी में साईंबाबा का स्थान उनके जीवनकाल से ही प्रसिद्ध रहा है। आज साईंबाबा की प्रसिद्धि का आलम यह है कि भारत के अलग-अलग शहरों में उनके (बड़े आकार के) 3000 से अधिक मंदिर हैं और 200 से अधिक विदेशों में बने हुए हैं। छोटे आकार के मंदिरों की तो कोई गिनती ही नहीं है।

    प्राप्त जानकारी के अनुसार साईंबाबा 1838 से 1918 के बीच इस दुनिया में रहे। उनके नाम, जन्म स्थान और जन्म तारीख के बारे में किसी को कुछ पता नहीं है। वह 16 वर्ष की उम्र में इस स्थान पर आए। फकीरों की तरह रहने वाले बाबा सबको एक निगाह से देखते थे। जिनका दर्शन श्रद्धा और सबूरी अर्थात् विश्वास और सब्र था। उनके भक्तों में हिंदू-मुस्लिम के साथ सभी धर्मों को मानने वाले थे। वह एक मस्जिद में रहते थे और देहावसान के बाद उनकी समाधि मंदिर में बनाई गई। जहाँ दुनियाभर से हजारों की तादाद में दर्शनार्थी रोजाना दर्शनों के लिए आते हैं।

    साईंबाबा की समाधि मंदिर की प्रसिद्धि मंदिर परिसर की वास्तुनुकूल भौगोलिक स्थिति और उस पर किये गए वास्तुनुकूल निर्माण के कारण ही है। लगभग 150 वर्ष पूर्व जिस स्थान पर कुटिया का निर्माण किया गया था, उसकी भौगोलिक स्थिति पूर्णतः वास्तुनुकूल थी, जो आज भी यथावत् है। बाबा की कृपा से पिछले कुछ दशकों से किए जा रहे निर्माण भी सहज भाव से वास्तुनुकूल ही हो रहे हैं, जबकि समाधि परिसर के अन्दर किये जा रहे निर्माण को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ किया गया वास्तुनुकूल निर्माण बिना वास्तु विचारे ही हुआ है।

    शिर्डी में द्वारका माई वह स्थान है, जहाँ साईंबाबा भोजन बनाते थे। वहीं पर धूनी रमाते थे और उसी का प्रसाद लोगों को देते थे। धूनी की भभूत से लोगों के दुःख-दर्द दूर होते थे। द्वारका माई और समाधि मंदिर पास-पास है। ये दोनों स्थान मंदिर परिसर की दक्षिण दिशा में हैं। इस भाग की जमीन ऊँचाई लिए हुए है। परिसर के बाहर दक्षिण दिशा में सड़क है। सड़क के दूसरी ओर दुकानें हैं, जहाँ प्रसाद, बाबा के फोटो एवं साहित्य मिलता है। परिसर की चारों दिशाओं में द्वार हैं, परन्तु परिसर का मुख्यद्वार उत्तर दिशा में है, जहाँ से भक्त कई बड़े कमरों से गुजरते हुए समाधि तक जाते हैं। जमीन का उत्तरी दिशा का यह भाग दक्षिण दिशा की तुलना में काफी निचाई लिए हुए है। परिसर के पश्चिम दिशा वाले भाग में लंेडी गार्डन है व बाहर मनमाड जाने वाली सड़क है। सड़क के दूसरी ओर होटल व दुकानें हैं। पश्चिम दिशा की जमीन समतल है, किन्तु सड़क से मंदिर की ओर पूर्व दिशा में जमीन ढलान लिए हुए है। इस प्रकार परिसर की पश्चिम दिशा ऊँची एवं पूर्व दिशा नीची हो रही है।

    मंदिर परिसर के बाहर दक्षिण दिशा में सड़क और बाजार समतल है और उत्तर दिशा में परिसर के अन्दर और बाहर दोनों तरफ ढलान है। उत्तर दिशा में सड़क के बाद जहाँ लड्डू का प्रसाद मिलता है, वह भाग काफी निचाई लिए हुए है। उसके बाद जमीन फिर समतल हो गई है और यहीं से थोड़ी दूरी पर उत्तर दिशा में एक बड़ा नाला बह रहा है। इस नाले के कारण उत्तर दिशा और अधिक नीची होकर वास्तुनुकूल हो गई है। परिसर की उत्तर दिशा में टॉयलेट-बाथरूम हैं और उनसे जुड़े सैप्टिक टैंक भी यहीं पर है। वास्तु सिद्धान्त है कि उत्तर दिशा नीची हो साथ ही वहाँ पानी हो तो वह स्थान निश्चित ही प्रसिद्धि प्राप्त करता है और पश्चिम दिशा ऊँची और पूर्व दिशा नीची हो तो वह स्थान स्थायित्व के साथ धनलाभ देता है। (जैसे- तिरुपति बालाजी, श्रीरंगनाथ स्वामी मंदिर, श्री रंगपत्तनम्, इत्यादि।) इन्हीं वास्तुनुकूलताओं के कारण यह स्थान श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बन गया और सदैव बना रहेगा।

    मंदिर परिसर में किए जा रहे नये निर्माण भी वास्तुनुकूल हैं। परिसर में मुख्य मंदिर दक्षिण दिशा में बना है। जहाँ एक बड़े हॉल की पश्चिम दिशा में ऊँचे प्लेटफार्म पर साईंबाबा की मूर्ति रखी है। मूर्ति के सामने समाधि है। हॉल का पूर्व दिशा वाला भाग नीचा है, जहाँ खड़े होकर भक्त बाबा का दर्शन करते हैं। उत्तर दिशा स्थित मंदिर का मुख्य प्रवेशद्वार पूर्णतः वास्तुनुकूल है। द्वारिका माई का द्वार भी दक्षिण आग्नेय में वास्तुनुकूल स्थान पर है।

    दर्शन के लिए जाते समय विभिन्न हॉल से होकर गुजरना पड़ता है। इस रास्ते में कुछ भाग तलघर का भी आता है। यह तलघर मुख्य मंदिर की उत्तर दिशा में हैं। यह नवनिर्माण मंदिर की वास्तुनुकूलता को उसी प्रकार बढ़ा रहा है, जिस प्रकार वैष्णोदेवी की नई बनी गुफाएँ। (आज से लगभग 26-27 वर्ष पूर्व वैष्णोदेवी मंदिर में प्रवेश द्वार संकरा होने के कारण दर्शनार्थियों को आने-जाने में काफी समय लगता था और अन्य यात्रियों को बहुत देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी जिस कारण सीमित संख्या में लोग दर्शन कर पाते थे। तब भवन के उत्तर ईशान कोण वाले भाग में (सन् 1977 में) दो नई गुफाएँ बनाई गईं। एक गुफा से लोग दर्शन करने आते हैं और दूसरी से बाहर निकल जाते हैं। गुफाओं के फर्श का ढाल भी उत्तर दिशा की ओर ही है। दोनों गुफाएँ भवन में ऐसे स्थान पर बनी हैं, जिसके कारण इस स्थान की वास्तुनुकूलता बहुत बढ़ गई है और मंदिर की प्रसिद्धि में चार चाँद लग गए हैं, इन गुफाओं के बनने के बाद दर्शनार्थियों की संख्या पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गई है और मंदिर का वैभव भी बहुत बढ़ गया है।)

    समाधि मंदिर की पश्चिम दिशा में एक प्राचीन कुआँ है। पश्चिम दिशा में भूमिगत पानी का स्रोत श्रद्धालुओं में अपने आराध्य देव के प्रति आस्था बढ़ाता है।

    भारतीय वास्तुशास्त्र के अनुसार पूर्व दिशा में ऊँचाई और पश्चिम दिशा में ढलान व पानी का स्रोत होना अच्छा नहीं माना जाता है, परन्तु देखने में आया है कि ज्यादातर वह स्थान जो धार्मिक कारणों से प्रसिद्ध है (चाहे वह किसी भी धर्म से सम्बन्धित हो) उन स्थानों की भौगोलिक स्थिति में काफी समानताएँ देखने को मिलती हैं। ऐसे स्थानों पर पूर्व की तुलना में पश्चिम में ढलान होती है और दक्षिण दिशा हमेशा उत्तर दिशा की तुलना में ऊँची रहती है। उदाहरण के लिए वैष्णोदेवी मंदिर जम्मू, पशुपतिनाथ मंदिर मंदसौर इत्यादि। वह घर जहाँ पश्चिम दिशा में भूमिगत पानी का स्रोत जैसे भूमिगत पानी की टंकी, कुआँ, बोरवेल, इत्यादि होता है। उस भवन में निवास करने वालों में धार्मिकता दूसरों की तुलना में ज्यादा ही होती है। वास्तुनुकूल बने रामेश्वरम् के प्रसिद्ध शिव मंदिर में भी 22 पवित्र कुएं हैं, ज्यादातर कुएं उत्तर दिशा और कुछ ईशान कोण में बने हैं और सबसे बड़े आकार का एक सरोवर पश्चिम दिशा में बना है, किन्तु दक्षिण दिशा में एक भी कुआँ नहीं है। उत्तर, पूर्व दिशा एवं ईशान कोण में स्थित कुएं इसकी प्रसिद्धि बढ़ा रहे हैं, तो पश्चिम दिशा स्थित सात नम्बर का टैंक माधव तीर्थ भक्तों में धार्मिकता बढ़ाने में सहायक हो रहा है। उसी प्रकार यह कुआँ भी भक्तों की आस्था बढ़ा रहा है।

    इन वास्तुनुकूलताओं के कारण शिर्डी के साईंबाबा का समाधि मंदिर और उसका परिसर भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में प्रसिद्ध है और सदैव रहेगा।

    मुख-दर्शन और साईं शंकराचार्य विवाद

    शिर्डी के साईंबाबा समाधि मंदिर के मुख्य हॉल के पूर्व आग्नेय में थोड़ा बढ़ाव है। वास्तुशास्त्र के अनुसार पूर्व आग्नेय का वास्तुदोष किसी भी प्रकार के विवाद का कारण बनता है, (जैसे- पूर्व आग्नेय में किसी भी प्रकार बढ़ाव हो, किसी भी प्रकार की निचाई हो, मार्गप्रहार या द्वार हो) मुख्य हॉल के पूर्व आग्नेय के बढ़ाव के कारण मंदिर ट्रस्टियों के बीच थोड़ा-बहुत विवाद तो हमेशा से ही रहा है। इस बढ़ाव वाले भाग में एक द्वार था, जो हमेशा बन्द रहता था, लेकिन ट्रस्टियों द्वारा कुछ माह पूर्व ही दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए इस द्वार को मुख-दर्शन के लिए खोल दिया। पूर्व आग्नेय के बढ़ाव के वास्तुदोष के साथ-साथ जब से यह द्वार खोला गया, तब से पूर्व आग्नेय का वास्तुदोष इतना ज्यादा प्रभावी हो गया कि द्वार के खुलने के कुछ दिनों बाद ही साईंबाबा को लेकर शंकराचार्य जी ने विवादास्पद बयान देकर पूरे देश में एक नया विवाद छेड़ दिया।

    वास्तु परामर्श- साईं समाधि मंदिर से सम्बन्धित सभी विवादों को समाप्त करने के लिए मंदिर के ट्रस्टियों को चाहिए कि सबसे पहले पूर्व आग्नेय का द्वार बन्द करें और फिर हॉल के पूर्व आग्नेय के बढ़ाव को तोड़कर सीधा करने के साथ-साथ इस द्वार को हटा कर यहाँ दीवार बना दें।

    तिरुपति बालाजी, तिरुमाला

    तिरुमाला का विश्व प्रसिद्ध भगवान तिरुपति श्री वेंकटाचलपति मंदिर शेषांचल पर्वत पर समुद्र तल से 2500 फीट ऊँचाई पर स्थित है। मंदिर के चारों ओर ईशान कोण को छोड़कर पर्वत शृंखलाएं हैं, जो मंदिर परिसर के पास से ही दक्षिण एवं पश्चिम दिशा में ऊँचाई लिए हुए हैं, जबकि उत्तर और पूर्व दिशा के पर्वत कुछ किलोमीटर की दूरी पर है। मंदिर में भगवान तिरुपति बालाजी पूर्वमुखी होकर विराजमान हैं। इस मंदिर में भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व से लोग मुरादें माँगने एवं मुराद पूरी होने पर दर्शन करने एवं भेंट चढ़ाने आते है। यहाँ आस्था, श्रद्धा और भक्ति से लबरेज भक्तों का माथा टेकने के लिए सदैव ताँता लगा रहता है। मंदिर की प्रसिद्धि का अनुमान इसी बात से ही लगाया जा सकता है कि यहाँ विशेष पूजा कराने के लिए भक्तों को सालों-साल इंतजार करना पड़ता है और समृद्धि का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि तिरुपति बालाजी का मंदिर विश्व के सर्वाधिक सम्पन्न धार्मिक स्थानों में दूसरे स्थान पर है। तिरुपति बालाजी मंदिर की प्रसिद्धि एवं समृद्धि में इसके उत्कृष्ट वास्तु का महत्त्वपूर्ण योगदान नकारा नहीं जा सकता। मंदिर की बनावट के साथ-साथ तिरुमाला की भौगोलिक स्थिति भी पूर्णतः वास्तुनुकूल है, जैसे कि इजिप्ट स्थित गीजा के पिरामिड की बनावट एवं भौगोलिक स्थिति। ऐसी वास्तुनुकूलता दुर्लभ ही देखने में आती है। जो इस प्रकार है-

    तिरुपति बालाजी का मंदिर आंध्रप्रदेश के दक्षिण छोर पर बना है। वास्तु सिद्धान्तों के अनुसार किसी भी शहर या राज्य का दक्षिण-पश्चिम दिशा वाला भाग वैभवशाली होता है।

    तिरुपति से तिरुमाला की ओर सड़क मार्ग से आते समय GMC टोल गेट तक (जहाँ से तिरुमाला प्रारम्भ होता है) चढ़ाई है। इस गेट के बाद से सड़क में उत्तर दिशा की ओर ढलान शुरू हो जाती है, जो उत्तर और पूर्व दिशा में बहुत दूरी पर स्थित पर्वत तक चली जाती है। GMC टोल गेट के आगे मंदिर परिसर के प्रारम्भ होने के काफी पहले फ्री बस सेवा का स्टैण्ड है और उसके बाद सीधे हाथ पर कल्याण काट (मुण्डन की जगह) भवन है, जहाँ भक्त अपने केश कटवाकर भगवान को अर्पित करते हैं। यहाँ पर्वत में GMC टोल गेट से लगातार उत्तर और पूर्व दिशा की ओर ढलान है। ढलान पर यह सड़क आगे बढ़ती हुई मंदिर परिसर के सामने से आगे निकल गई है। जो आगे उत्तर की ओर जाने के साथ-साथ ईशान कोण में गहरी ढलान लिए हुए है। यहाँ से यह सड़क TTB कार पार्किंग की ओर भी मुड़ गई है।

    मंदिर परिसर को दक्षिण और पश्चिम दिशा में स्थित पर्वत को समतल करके बनाया गया है। परिसर की दक्षिण दिशा में ऊँचाई है, जहाँ पर भोजनशाला, बैंक स्ट्रीट और अन्य भवन बने हुए हैं। परिसर से यहाँ आने के लिए सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। परिसर की पूर्व और उत्तर दिशा की ओर ढलान है। मंदिर परिसर के ईशान कोण में मानव निर्मित तालाब स्वामी पुष्करणी है, जहाँ भक्तजन स्नान करते हैं। मंदिर परिसर की उत्तर दिशा में भी दूर तक ढलान है। जहाँ से तीन किलोमीटर दूर आकाशगंगा जलप्रपात है। प्रतिदिन पूजा के लिए यहाँ का जल ही उपयोग में लाया जाता है। मंदिर से तीन किलोमीटर की दूरी पर ईशान कोण में वैकुण्ठ तीर्थ, उत्तर में पाँच किलोमीटर की दूरी पर पापनाशनम् झरना है। मंदिर परिसर के अन्दर और बाहर उत्तर दिशा की इन्हीं भौगोलिक वास्तुनुकूलता के कारण ही यह मंदिर प्रसिद्ध है।

    वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊँचाई और उत्तर दिशा में ढलान हो तो, वह स्थान, भवन, शहर प्रसिद्धि पाता है। जैसे जयपुर की पिंक सिटी वाले भाग में दक्षिण से उत्तर की ओर ढलान है, गुड़गाँव में भी दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर ढलान है। ताजमहल के उत्तर दिशा में यमुना नदी बह रही है। उत्तर दिशा की वास्तुनुकूलता ही हर की पौड़ी वाले क्षेत्र को भी विशेष प्रसिद्धि दिलाने में अत्यधिक सहायक हो रही है।

    तिरुमाला की प्रसिद्धि बढ़ा रही उत्तर दिशा की भौगोलिक स्थिति में चार चाँद लगा रहे हैं, दक्षिण दिशा से आते हुए दो मार्ग प्रहार। एक दक्षिण दिशा स्थित GMC टोल गेट से आती मुख्य सड़क बॉयलर हाउस पर मंदिर परिसर के दक्षिण आग्नेय को प्रहार करती हुई पूर्व की ओर मुड़ गई है। दूसरी बैंक स्ट्रीट व भोजनशाला वाली सड़क भी मंदिर परिसर के दक्षिण आग्नेय को मार्ग प्रहार कर रही है।

    दक्षिण आग्नेय के दो मार्ग प्रहारों के अलावा मंदिर परिसर को दो और मार्ग प्रहार हो रहे हैं। एक मार्ग प्रहार आस्थान मण्डपम् के पास परिसर के पूर्व आग्नेय को हो रहा है, जहाँ इस मार्ग पर मंदिर की ओर अंतिम छोर पर नारियल हुण्डी है। भौगोलिक स्थिति के कारण यह मार्ग ऊँचाई लिए हुए है। इसलिए नारियल हुण्डी से मंदिर परिसर में जाने के लिए सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं। इसके बाद मंदिर परिसर की पूर्व दिशा एवं पूर्व ईशान में पहाड़ी का ढलान इतना अधिक हो गया है कि रामबगीचा गेस्ट हाऊस के सामने स्थित मार्ग मंदिर परिसर के लेवल पर ही है। इस मार्ग से परिसर में जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं उतरनी पड़ती।

    मंदिर की पूर्व दिशा में GMC टोल गेट से आने वाली सड़क पूर्व ईशान की ओर मुड़ती हुई काफी ढलान लिए हुए है। सड़क की पश्चिम दिशा में एक तरफ मंदिर परिसर है, तो दूसरी तरफ पूर्व दिशा की ढलान पर राम बगीचा बस स्टैण्ड, शॉपिंग कॉम्पलेक्स बने हैं। यह ढलान पूर्व दिशा में बहुत दूर तक है, जहाँ बहुत बड़े भाग पर कर्मचारियों के लिए मल्टीस्टोरी फ्लैट बने हुए हैं और इन फ्लैट्स से बहुत दूरी पर पहाड़ है, जबकि दूसरी ओर मंदिर परिसर की पश्चिम दिशा में परिसर के पास ही पहाड़ प्रारम्भ हो जाता है।

    वास्तुशास्त्र के अनुसार पश्चिम दिशा में ऊँचाई और पूर्व दिशा में ढलान हो तो वहाँ समृद्धि रहती है। मंदिर परिसर की पूर्व और पश्चिम दिशा की वास्तुनुकूल भौगोलिक स्थिति ने ही तिरुपति बालाजी के मंदिर को इतनी समृद्धि और वैभव दिया है और यहाँ भी उसमें चार चाँद लगा रहा है, राम बगीचा गेस्टहाउस वाला पूर्व ईशान का मार्ग प्रहार।

    पिछले कुछ वर्षों में दर्शन के लिए आने वाले भक्तों की बढ़ती भीड़ को नियंत्रित करने के लिए मंदिर परिसर में कुछ नये निर्माण कार्य किये गए हैं, जिसमें वास्तु सिद्धान्तों की अवहेलना हुई है। इस कारण उपरोक्त विलक्षण वास्तुनुकूलताओं के साथ-साथ मंदिर में कुछ वास्तुदोष भी आ गए हैं, जैसे कि मंदिर आँगन के चारों कोने ढके हुए हैं। दक्षिण दिशा में झूला मण्डप, ईशान कोण में दो तलों का कमरा बना हुआ है। इन चारों कोनों का ढँका हुआ होना वास्तु की दृष्टि से अनुकूल नहीं है। मंदिर परिसर के पूर्व दिशा के दो मार्ग प्रहार में से पूर्व आग्नेय में नारियल हुण्डी वाला मार्ग प्रहार शुभ नहीं है। वास्तुशास्त्र के अनुसार पूर्व आग्नेय का मार्ग प्रहार कलह और विवाद का कारण बनता है, जो वहाँ सामान्यतः होते रहते हैं।

    मंदिर परिसर की दक्षिण दिशा वाले भाग में दक्षिण के साथ मिलकर नैऋत्य कोण में बढ़ाव है। जहाँ वैकुण्ठ क्यू कॉम्पलेक्स है। यह भी एक महत्वपूर्ण वास्तुदोष है। वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण दिशा के वास्तुदोष का कुप्रभाव विशेषकर स्त्रियों पर पड़ता है। निश्चित ही दक्षिण दिशा के इस दोष का प्रभाव तिरुमाला एवं तिरुपति में जो महिलाएँ रहती हैं या दर्शन करने आती हैं उन पर पड़ रहा है, किन्तु अद्भुत अद्वितीय वास्तु शक्ति वाले इस मंदिर में उपरोक्त वास्तुदोष का कोई प्रभाव खुले रूप में नजर नहीं आ पाता है। उसी प्रकार जैसे कि एक ग्लास पानी में चार चम्मच शक्कर डली हो, उसमें यदि चुटकीभर नमक डाल दिया जाए तो वह पानी पीने पर नमक के स्वाद का पता नहीं लगेगा, परन्तु इस घोल को पीने के बाद शक्कर और नमक अपनी-अपनी मात्रा के अनुसार शरीर पर अपना प्रभाव तो डालते ही हैं।

    वास्तु परामर्श- तिरुमाला-तिरुपति देवस्वम बोर्ड को चाहिए कि उपरोक्त वास्तुदोषों को दूर करें और भविष्य में होने वाले नये निर्माण को करवाते समय वास्तु के नियमों के पालन का ध्यान रखें। कहीं ऐसा न हो कि वास्तु का ध्यान न देने से मंदिर के बढ़ते वास्तुदोष इस मंदिर की प्रसिद्धि और वैभव को प्रभावित करने लगें।

    श्रीनाथ जी, नाथद्वारा

    उदयपुर से 50 किलोमीटर दूर उदयपुर-अजमेर सड़क पर अन्यतम वैष्णवतीर्थ नाथद्वारा है। नाथद्वारा का शाब्दिक अर्थ श्रीनाथ जी का द्वार होता है। श्रीकृष्ण यहाँ श्रीनाथ जी के नाम से ख्यात हैं। काले पत्थर की बनी श्रीनाथ जी की मूर्ति की स्थापना 1669 में की गई थी। वैष्णव पंथ का यह मंदिर शिर्डी स्थित साईंबाबा, तिरुपति स्थित बालाजी और मुंबई स्थित सिद्धि विनायक मंदिर जैसे ख्याति प्राप्त धनाढ्य मंदिरों की श्रेणी में आता है, जहाँ अनन्य श्रद्धाभाव के साथ दूर-दूर से भक्तजन दर्शन के लिए आते हैं। यहाँ जन्माष्टमी, होली और दीवाली पर होने वाले विशेष आयोजनों में भक्तों का भारी हुजूम इकट्ठा होता है। इस स्थान की एक और विशेषता यह है कि श्रीनाथ जी का मंदिर और नाथद्वारा कस्बा दोनों की ही खूब ख्याति है। यह ख्याति उसी प्रकार है जैसे बालाजी के साथ तिरुपति की, साईंबाबा के साथ शिर्डी की। यदि कोई नाथद्वारा जाने की बात कहता है तो समझ में आ जाता है कि वह श्रीनाथ जी के दर्शन करने जाने की बात कर रहा है।

    तंग गलियों के बीच स्थित श्रीनाथ जी के इस मंदिर में और नाथद्वारा कस्बे में आखिर ऐसा क्या है कि लोग दूर-दूर से यहाँ आते हैं और श्रीनाथ जी के प्रति इतनी गहरी आस्था और श्रद्धाभाव रखते हैं?

    यह सब हो रहा है केवल वास्तु के कारण। यूँ तो श्रीनाथ जी के मंदिर भारत के लगभग हर शहर और दुनिया में कई जगह हैं, किन्तु श्रीनाथ जी के हर मंदिर में तो ऐसी भीड़ एकत्रित नहीं होती है जैसी नाथद्वारा के मंदिर में? इसका एकमात्र कारण यह है कि जिन

    धर्मिक स्थलों की भौगोलिक स्थिति एवं बनावट वास्तु सिद्धान्तों के अनुकूल हो जाती है केवल वही स्थान विशेष प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं। लोग वहाँ मन्नतें माँगते हैं और पूरी होने पर भारी चढ़ावा चढ़ाते हैं।

    आइए, देखते हैं कि, श्रीनाथ जी और नाथद्वारा दोनों अपनी किन वास्तुनुकूलताओं के कारण प्रसिद्ध हैं-

    उदयपुर से आते समय जहाँ से नाथद्वारा की सीमा प्रारम्भ होती है, वहीं से उत्तर दिशा की ओर तीखा ढलान है। यह ढलान पूरे नाथद्वारा को पार करने के बाद कस्बे के दूसरी ओर बनास नदी तक चला गया है।

    नाथद्वारा की उत्तर दिशा में बहने वाली बनास नदी (480 किलोमीटर लम्बी) राजस्थान की सबसे बड़ी नदी है, जो पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर बह रही है। ऐसी ही वास्तु स्थिति मदुरै शहर की भी है, जहाँ प्रसिद्ध मीनाक्षी मंदिर है। मदुरै शहर की उत्तर दिशा में भी वैगे नदी पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर बह रही है, जो मदुरै शहर की प्रसिद्धि का कारण है।

    पूरा नाथद्वारा दक्षिण और पश्चिम दिशा में ऊँचा है और पूरे शहर की जमीन का ढलान उत्तर और पूर्व दिशा की ओर है।

    श्रीनाथ जी का मंदिर नाथद्वारा के नैऋत्य कोण में स्थित है। मंदिर परिसर का भी दक्षिण एवं पश्चिम भाग ऊँचा है। परिसर में क्रमानुसार पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर तथा दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर तीखा उतार है। इसी कारण वहाँ हॉल व कमरे सीढ़ीनुमा बने है। यही वास्तुनुकूल भौगोलिक स्थिति तिरुपति बालाजी और शिर्डी के साईं मंदिर में भी है। तिरुपति बालाजी में दक्षिण पश्चिम दिशा एवं नैऋत्य कोण में ऊँचाई तथा उत्तर, पूर्व दिशा तथा ईशान कोण में निचाई के साथ ही पुष्करणी तालाब है। यहाँ एक अन्तर जरूर है कि श्रीनाथ जी में पश्चिम दिशा में ऊँचाई है, परन्तु तिरुपति बालाजी में पश्चिम दिशा में मंदिर परिसर से सटकर विशाल पहाड़ है। तिरुपति बालाजी में मंदिर परिसर के अन्दर ईशान कोण में पुष्करणी तालाब है, जबकि श्रीनाथ जी मंदिर परिसर के बाहर थोड़ी दूरी पर ईशान कोण में एक बड़ा सिंहाड तालाब है। जिसके मध्य में विश्वकर्मा जी का छोटा मंदिर भी बना हुआ है।

    मंदिर परिसर के बाहर पूर्व दिशा में श्रीनाथ जी का खर्च भंडार भवन है। जिसके बाहर उत्तर एवं पूर्व दिशा में ढलान है।

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