Ashutosh Maharaj: Mahayogi ka Maharasya (Hindi): Mahayogi ka Maharasya
By Sandeep Deo
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About this ebook
It is an undeniable truth that Ashutosh Maharaj Ji is a secret-revealer, who unveils the divine light of the Supreme Lord within the inner being of his disciples by opening their Third Eye. He initiates his disciples into Brahm Gyan, which has been mentioned in the Vedas and the Upanishads. After all, who is not familiar with the Third Eye of Lord Shiva! Ashutosh Maharaj Ji clearly states that 'first behold God with your own eye (Third Eye), then repose your faith in any Guru.' Today, he has millions of followers all across the world. This is the first book written on Ashutosh Maharaj Ji. This book will reveal to the world as to who is this man who has once again brought into discussion the Vibhutipaad section of the Patanjali Yoga Sutras. The Vibhutipaadsection of the Patanjali Yoga Sutras talks about the different vibhutis (spiritual powers) acquired by a supreme yogi after he exercises his control on nature. One of these powers is the ability to renounce one's body for a long time. This book is an attempt to present the vivid persona of Shri Ashutosh Maharaj ji along with a lucid explanation of the same ancient knowledge, which is soon becoming extinct.
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Ashutosh Maharaj - Sandeep Deo
वचनामृत
आमुख
आध्यात्मिक गुरु श्री आशुतोष महाराज जी को एक तरफ जहां चिकित्सा जगत चिकित्सीय दृष्टिकोण से मृत मानता है, तो दूसरी तरफ उनके शिष्यों का मानना है कि वह समाधि में हैं और जब उनकी इच्छा होगी, वह अपने शरीर में वापस लौट आएंगे! इसलिए पिछले दो साल से उनके शरीर को नूरमहल आश्रम में संरक्षित रखा गया है। आज से करीब दो साल पूर्व 28 जनवरी, 2014 की रात करीब सवा 11 बजे अचानक से आशुतोष महाराज जी ने अपना शरीर छोड़ दिया। जांच के बाद डॉक्टरों ने जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया, वहीं उनके शिष्यों का कहना है कि महाराज जी पूर्व में दिए अपने संकेतों के अनुसार लंबी समाधि में हैं! शिष्यों के अनुसार, महाराज जी ने वर्ष 1994, 2002, 2005, 2006, 2009, 2010, 2012, 2013 में कई शिष्यों को साफ तौर पर तो कई को अप्रत्यक्ष तरीके से कहा कि एक समय ऐसा आएगा जब मैं लंबे समय के लिए अलोप हो जाउफंगा! मानव सभ्यता को बचाने एवं विश्वकल्याण के लिए मैं लंबी समाधि पर चला जाउफंगा! फिर वह समय भी आएगा जब मैं फिर अपने देह में वापस आ जाउफंगा। लेकिन इस जाने व आने के बीच के समय में आप सभी (शिष्यों) को दृढ़ता से रहना है, संघर्ष करना है और मानवता के कल्याण के लिए निरंतर ध्यान साधना जारी रखनी है।
अपने शोध के क्रम में मुझे आशुतोष महाराज जी द्वारा या फिर उनकी प्रेरणा से लिखित करीब-करीब 200 भजन ऐसे मिले, जिसमें साफ तौर पर वह अपनी अनुपस्थिति में शिष्यों को ढांढ़स बंधते प्रतीत हो रहे हैं! खासकर सन् 2002, 2005, 2009, 2010 और 2012 में उनके द्वारा या उनकी प्रेरणा से रचे गए भजन में ‘यूं न तुम मायूस हो... संक्रांति का समय है, चलना संभल-संभल कर....तुम्हें खुला आकाश मैं दूंगा.... मुश्किलों में तेरी ढ़ाल बन चलूंगा... तूफानी मौसम में जो तूफानी चाल दिखाएगा...जैसे विचारों की गूंज साफ सुनी जा सकती हैं! सन् 1983 से सनातन वैदिक ‘ब्रह्मज्ञान’ के जरिए पंजाब जैसे अशांत प्रदेश में शांति स्थापना के लंबे प्रयायों के बाद उनका लक्ष्य ‘विश्वशांति’ का है! वर्तमान में शायद ही कोई धर्म गुरु ऐसा है जो सनातन वैदिक ‘ब्रह्मज्ञान’ के जरिए सृष्टि की एक-एक इकाई- मानव, पशु और पर्यावरण को बदल कर विश्वशांति के लिए प्रयासरत हो!
न कभी किसी टेलीविजन पर आना, न किसी अख़बार में छपना, न बड़ी-बड़ी रैलियां करना, न देश-विदेश में भ्रमण व प्रवचन के जरिए प्रसिध्दि पाना, सनातनी ‘दान’ की परंपरा से अलग हटकर न कभी किसी अन्य गतिविधयों से अपनी संस्था का संचालन करना, न कभी किसी सार्वजनिक जगह पर दिखना, न पंजाब के नूरमहल और दिल्ली के पीतमपुरा व पंजाब खोड़ आश्रम के अलावा कहीं बाहर जाना, और फिर भी दुनिया भर में करोड़ों से अधिक अनुयायियों का गुरु होना! ये ऐसी विशिष्ट बातें हैं जो आशुतोष महाराज को अन्य आध्यात्मिक गुरुओं से अलग करती हैं! सन् 2010 एवं 2012 में ‘दिव्य शांति महोत्सव’ का आयोजन भी उन्होंने किया तो वह भी अपने नूरमहल आश्रम में ही किया!
ऐसे गुरु के शिष्यों ने जब उनके समाधि में जाने की घोषणा की, तो एकाएक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया चीख पड़ा! मेरा ध्यान सबसे अधिक अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने खींचा! अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी व अरब की मीडिया सबसे अधिक हमलावर थी! वहां के एक-एक अखबार व न्यूज चैनल्स की वेबसाइट आशुतोष महाराज की समाधि के बहाने भारतीय संस्कृति पर हमला कर रहे थे! भारतीय धर्म गुरुओं का उपहास उड़ाया जा रहा था! वैदिक ज्ञान में जिस उच्च स्तर की समाधि की बात कही गई है, उस समाधि को अंधविश्वास कह और लिखकर पूरी भारतीय सनातन परंपरा का मजाक बनाया जा रहा था! किसी पत्रकारिता संस्थान से डिग्री/ डिप्लोमा लेकर भारतीय मीडिया में पत्रकार की हैसियत से काम करने वाले भी समाधि पर सवाल दाग रहे थे, भले ही समाधि का शाब्दिक अर्थ भी उन्हें न पता हो! ऐसी रिपोर्टिंग की जा रही थी, जिसमें सनसनी ही सनसनी थी! आस्था और अंधविश्वास के बीच बहुत महीन लकीर है, लेकिन यह कौन तय करेगा कि आस्था क्या है और अंधविश्वास क्या?
कुंवरी मरियम से ईसा मसीह का जन्म एक आस्था है, अल्लाह द्वारा पैगंबर मोहम्मद के कान में कुरान की आयतें कहना आस्था है, हिंदू धर्म का अवतारवाद एक आस्था है- इसीलिए भारतीय संविधन हर समुदाय और व्यक्ति को अपनी-अपनी आस्था के पालन का अधिकार प्रदान करता है! जब तक किसी की आस्था, किसी राज्य व कानून व्यवस्था के लिए मुसीबत एवं किसी अन्य के जीवन, स्वास्थ्य या पर्यावरण के लिए चुनौती न बन जाए तब तक उसे अंधविश्वास की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है! आशुतोष महाराज की समाधि उनके शिष्यों की आस्था से जुड़ा मुद्दा है, और यह तब तक अंधविश्वास की श्रेणी में नहीं आता, जब तक कि इससे भारतीय राज्य, कानून, किसी का जीवन, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण प्रभावित नहीं होता! ‘भारतीय संविधन का अनुच्छेद- 25 व 28 अंतःकरण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है।’ (हमारा संविधनः सुभाष कश्यप)
संविधन का यह अनुच्छेद साफ तौर पर ‘अंतःकरण की अबाध रूप से मानने’ को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखता है। ऐसे में जब आशुतोष महाराज के शिष्य अपने अंतःकरण के अनुरूप ही आचरण कर रहे हैं, तो फिर उनका मजाक बनाने, उन्हें अंधविश्वासी कहने और उनके गुरु की समाधि को ढोंग कहने का अधिकार भारतीय मीडिया को किसने दिया? पश्चिमी मीडिया की बात तब भी समझ में आती है! औपनिवेशिक काल से ही सनातन धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता को पिछड़ा साबित करने का खेल पश्चिम द्वारा खेला जाता रहा है! लेकिन जब भारतीय मीडिया भी उनका अंधनुकरण करने लगता है तो साफ लगता है कि पत्रकारिता की डिग्री/डिप्लोमाधरी पत्रकार अन्य विषयों के ज्ञान से या तो पूरी तरह से अनजान हैं या फिर तथाकथित प्रगतिशील हैं!
इसी देश में 500 साल पूर्व मरने वाले कैथोलिक इसाई ‘सेंट फ्रांसिस जेवियर’ के शव का आज भी हर 10 साल पर गोवा में सार्वजनिक प्रदर्शन लगाया जाता है! उनकी मृत्यु सन् 1552 ईस्वी में हुई थी, लेकिन वेटिकन चर्च का मानना है कि उनका शरीर आज भी खराब नहीं हुआ है! यही कारण है कि वेटिकन चर्च ने उन्हें संत की उपाधि प्रदान की! आज पूरे भारत में उनके नाम से ‘सेंट जेवियर’ नाम से शैक्षणिक संस्थाओं का जाल फैला हुआ है! दूसरी तरफ श्रीलंका के बौध्दों ने ‘फ्रांसिस जेवियर’ के संरक्षित शव पर अपना दावा कर रखा है कि वह उनके एक भिक्षु का शरीर है, जिसे चूना और नमक में उन्होंने संरक्षित किया था और कैथोलिक चर्च ने उसे अपना संत बनाकर दुनिया के सामने पेश कर दिया! श्रीलंका के बौध्दों ने उस संरक्षित शव के डी.एन.ए की मांग कर रखी है, जिसे वेटिकन का चर्च खारिज कर चुका है! पिछले साल दिसंबर 2014 में गोवा में 40 दिनों तक उनके शव की सार्वजनिक प्रदर्शनी लगायी गयी, लेकिन पश्चिमी मीडिया ने कभी इसे अंधविश्वास के रूप में प्रचारित नहीं किया? और न ही पश्चिम की पिछलग्गू भारतीय मीडिया को ही इसमें अंधविश्वास नजर आया? पश्चिमी व भारतीय मीडिया की नजर में ‘सेंट फ्रांसिस जेवियर’ का मसला एक समुदाय की आस्था से जुड़ा है, लेकिन आशुतोष महाराज की समाधि से जुड़े मसले को यही मीडिया पिछले दो सालों से अंधविश्वास ठहराने पर तुला है! मीडिया के इस दोहरे व्यवहार के कारण ही मेरी रुचि आशुतोष महाराज और उनके जरिए भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित समाधि की पध्दति में जगी!
आशुतोष महाराज जी गहन समाधि में हैं या शरीर का त्याग कर चुके हैं, एक जिज्ञासु के नाते मेरे लिए यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि भारतीय ज्ञान परंपरा में ऐसी विद्या है भी या नहीं? और यदि है, तो फिर आशुतोष महाराज जी ने हम सभी को एक अवसर दिया है कि हम उस विद्या के बारे में जानें, उस पर विमर्श करें और उस विद्या से पूरी दुनिया को अवगत कराएं! आदि गुरू शंकराचार्य का उदाहरण हमारे समक्ष है! उन्होंने न केवल इसी तरह लंबे समय तक गहन समाधि ली थी, बल्कि अपनी आत्मा को दूसरे के शरीर में प्रवेश भी कराया था। भारतीय सनातन विद्या में उसे ‘परकाया प्रवेश’ कहा गया है!
बात उन दिनों की है जब ‘शंकर’ शास्त्रार्थ द्वारा दिग्विजय यज्ञ के लिए निकले थे। शंकर तत्कालीन समाज में व्याप्त कर्मकांड जैसी वुफरीतियों को दूर कर पूरे समाज को अद्वैत दर्शन की ओर मोड़ रहे थे। इसी प्रसंग में शंकर उस समय के विद्वानमंडली के सिरमौर मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने पहुंचे। मंडन मिश्र को ही पराजित और उन्हें अपना शिष्य बनाकर शंकर ने अपने दिग्विजय यज्ञ की शुरुआत की थी। मंडन मिश्र मशहूर कर्मकांडी विद्वान और उस समय के विद्वतमंडली के सिरमौर थे।
शंकराचार्य जब मंडन मिश्र से मिलने पहुंचे तो वह अपने पिता का श्राध्दकर्म कर रहे थे। द्वारपाल ने शंकर को घर में प्रवेश से वंचित कर दिया, जिसके बाद शंकराचार्य ने योगबल से अपने शरीर को पृथ्वी के गुरुत्वाकार्षण से मुक्त किया और आकाश मार्ग से मंडन मिश्र के आंगन में उतर गए! योगबल में यह सामथर्य है और शंकर महान् योगी थे!
इस शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र पराजित हुए। मंडन की पराजय उनकी विदूषी पत्नी भारती उर्फ शारदा स्वीकार नहीं कर सकी और उन्होंने शंकर से कहा कि मैं मंडन मिश्र की आंगिनी हूं। जब तक आप मुझे पराजित नहीं करते, तब तक आपकी विजय पूरी नहीं होगी।
शंकर-भारती शास्त्रार्थ बहुत प्रसिध्द है। शंकर व भारती में लगातार 17 दिनों तक शास्त्रार्थ चला। भारती ने जब यह देखा कि शंकर पराजित नहीं हो रहे हैं और यदि वह पराजित नहीं होते हैं तो उनके पति मंडन मिश्र को गृहस्थाश्रम छोड़कर संन्यास ग्रहण करना होगा, शंकर का शिष्य बनना होगा तो उन्होंने शंकर से ‘कामशास्त्रा’ संबंधी प्रश्न पूछ लिया!
भारती जानती थी कि शंकर ने आठ वर्ष की उम्र में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था, इसलिए उन्हें कामशास्त्रा का न तो कोई अनुभव था और न ही ज्ञान। प्रश्न सुनते ही शंकर धर्म संकट में पड़ गए। उन्होंने इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए एक मास की अवधि मांगी, जिसे शारदा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। अब कामशास्त्रा का ज्ञान पाना शंकर के लिए एक समस्या थी। उन्हें संन्यास धर्म का निर्वाह भी करना था और साथ में भारती के काम विषयक प्रश्न का उत्तर भी देना था! बिना अनुभव आखिर काम के विषय में क्या उत्तर दिया जा सकता है? शंकर इसी उधेड़बुन में थे!
इसका उपाय खोजने के लिए वह अपने शिष्यों के साथ योगबल से आकाश में भ्रमण करने लगे। आकाश में भ्रमण करते हुए उन्होंने देखा कि अमरूक नामक राजा का मृतशरीर जंगल में पड़ा है और उसकी रानियां और मंत्री आदि बिलख रहे हैं। राजा अभी युवा ही था और अपने दल-बल के साथ शिकार खेलने आया था। मूर्छा के कारण वह जमीन पर गिर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई। इस दृश्य को देखकर शंकराचार्य के चित्त में आया कि क्यों न इसी राजा के मृत शरीर में मैं प्रवेश कर लूं और एक गृहस्थ की भांति रहते हुए कामशास्त्र का व्यावहारिक ज्ञान अर्जित कर लूं! उन्होंने अपने शिष्य पद्यपाद सहित सभी शिष्यों को इस बारे में बताया।
शंकर ने पहले इसके लिए पास ही ऊंचे स्थान एक सुरक्षित गुफा की खोज की। गुफा के पास ही एक नदी बह रही थी, जिससे वहां का तापमान न्यूनतम रहता था, जो शरीर को सुरक्षित रखने के लिए जरूरी था (आशुतोष महाराज जी के शरीर को भी हिमायन में न्यूनतम तापमान में संरक्षित रखा गया है)। आचार्य ने शिष्यों से कहा कि ‘आपलोग यहीं रहकर मेरे शरीर की रक्षा करें और मैं राजा अमरूक के शरीर में वास कर राजमहल में मौजूद स्त्रिायों के साथ कामशास्त्रा का व्यावहारिक ज्ञान अर्जित कर एक मास में लौट आऊंगा।’ शंकर ने उस गुफा में अपने स्थूल शरीर को छोड़ दिया और केवल ‘लिंग शरीर’ (लिंग शरीर- पांच ज्ञानेंद्रिय, पांच कर्मेंद्रिय, पांच प्राण, मन तथा बुध्दि- इन 17 वस्तुओं के समुदाय को लिंग शरीर कहा गया है। जीव इसी शरीर के द्वारा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करता है)। से युक्त होकर योग बल से राजा के शरीर में प्रवेश कर लिया।
अपना शरीर छोड़ने और राजा के शरीर में प्रवेश करने की प्रक्रिया इस प्रकार थीः योगी शंकर ने अपने शरीर के अंगूठे से आरंभ कर प्राण वायु को ब्रह्म-रंध्र तक खींचकर पहुंचाया और ब्रह्म-रंध्र के भी बाहर निकलकर वे मरे हुए राजा के शरीर में ठीक उसके विपरीत क्रम से प्रवेश कर गए। अर्थात ब्रह्म-रंध्र से प्राणवायु का संचार आरंभ कर धीरे-धीरे उसके नीचे लाकर पैर के अंगूठे तक प्राण को पहुंचा दिया। चकित मंत्रियों व रानियों ने आश्चर्य भरे नेत्रों से देखा कि राजा अमरूक के शव में प्राण का संचार हो गया है। देखते ही देखते राजा उठ खड़ा हुआ।
राजा अमरूक के पुनर्जीवन की बात पूरे राज्य में फैल गई। राजा ने कामकाज संभाल लिया। साथ ही राजा ने राज भवन में मौजूद सुंदर विलासिनी स्त्रियों के साथ रमण करना आरंभ किया। शंकर वज्रोली क्रिया के मर्मज्ञ पंडित थे, जिसकी सहायता से उन्हें काम-कला को सीखने में देर नहीं लगी। इस अवस्था में उन्होंने कामसूत्र के गूढ़ रहस्यों को जान लिया, उसे अनुभव कर लिया और इस शास्त्रा के भी वह पारंगत पंडित बन गए।
उधर जब शंकर एक मास बाद अपने शरीर में वापस नहीं लौटे तो पद्यपाद सहित सभी शिष्यों को चिंता सताने लगी। पद्यपाद वुफछ शिष्यों के साथ नगर में गए और वुफछ शिष्य शंकर के मृत शरीर की रक्षा करने के लिए वहीं ठहर गए। शिष्यों ने राज्य में जाकर देखा तो पाया कि एक योगी राजा के कारण राज्य की व्यवस्था एकदम से रामराज्य के सदृय है। सब खुशहाल हैं। लेकिन दूसरी तरफ शंकर अपने वास्तविक स्वरूप को भूल चुके थे। शिष्यों ने गायक के रूप में राजदरबार में प्रवेश किया और गायन के द्वारा राजा अमरूक के शरीर में मौजूद शंकर को उनकी पूर्व स्थिति का भान कराया। शंकर को अपने असली स्वरूप की स्मृति हुई और वह राजा अमरूक के शरीर को त्याग कर गुफा में रखे गए अपने शरीर में वापस लौट आए।
शंकर अपने शिष्यों के साथ भारती के पास पहुंचे। शारदा के पास इस आश्चर्यजनक ‘परकाया प्रवेश’ की सूचना पहुंच चुकी थी। दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ और शंकर ने भारती द्वारा पूछे गए काम विषयक सभी प्रश्नों का उत्तर सही-सही दे दिया। इसके बाद भारती के पति मंडन मिश्र गृहस्थ आश्रम का त्याग कर शंकर के शिष्य बन गए। शंकराचार्य ने उन्हें संन्यास मार्ग में दीक्षित कर उनका नाम ‘सुरेश्वराचार्य’ रखा।
आधुनिक काल में रामकृष्ण परमहंस भी ऐसे ही एक योगी थे। रोमां रोलां ने ‘रामकृष्ण की जीवनी’ में लिखा है, ‘उनकी समाधि अवस्था में स्टेथोस्कोप द्वारा छाती की परीक्षा व आंखों की परीक्षा में यह जाना गया है कि उस अवस्था में मृत्यु के सब लक्षण उपस्थित रहते हैं।’ भारत में कई योगियों के दो-तीन सौ सालों तक समाधिस्थ रहने के उदाहरण हैं, जिनकी चर्चा अंदर पुस्तक में की गई है। भारत में गहन समाधि, प्राण को शरीर से बाहर निकाल मृत सदृश्य हो जाने, परकाया प्रवेश आदि की यह यौगिक विद्या सदियों से रही है। हिमालय की कंदराओं में आज भी हठयोगी-क्रिया योगी साधनारत हैं, जिनमें कई प्रत्येक 12 साल पर लगने वाले महाकुंभ मेले में आमजन के बीच आते हैं! लेकिन अज्ञानता के कारण हम ऐसे महान् योगियों को नहीं पहचान पाते! यहां यह बताना जरूरी है कि शिष्यों के अनुसार, आशुतोष महाराज जी भी क्रिया योग में निष्णात हैं। ‘हम नहीं जानते, इसलिए नहीं हो सकता’- यह अज्ञानता का ढिंढ़ोरा पीटने के समान है! पतंजलि के ‘योगसूत्र’ का ‘विभूतिपाद’ खंड पूरी तरह से योगबल व साधना से प्राप्त होने वाली विभूतियों की चर्चा करता है।
कायरूपसंयमात् तद्ग्राह्यशक्तिस्तम्भे चक्षुः प्रकाशासम्प्रयोगेखन्तर्द्धानम् ।। 21 ।।
‘पतंजलि योगसूत्र’ के ‘विभूतिपाद’ में उल्लेखित इस श्लोक की व्याख्या करते हुए अद्वैत आश्रम के स्वामी प्रमेशानंद जी लिखते हैं, शरीर के रूप के ऊपर संयम करके, उस रूप को अनुभव करने की शक्ति को रोककर, तब आंख की प्रकाश-शक्ति के साथ उसका संयोग न रहने के कारण, लोगों के सामने से योगी अदृश्य हो सकते हैं।
दरअसल आज स्थिति यह हो गई है कि लोग योग-साधना-ध्यान को केवल ‘हेल्थ टिप्स’ समझते हैं, जिस कारण योग की प्राचीन विद्या के प्रति अनजान हैं और सहसा उन पर विश्वास नहीं कर पाते! भारत के वैदिक ज्ञान को समझना इतना आसान नहीं है! यह तो इस पुस्तक लेखन के क्रम में मैं पूरी तरह से जान गया हूं! पिछले करीब छह महीने से पंजाब, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और नेपाल की अथक यात्रा और आशुतोष महाराज के सैंकड़ों अनुयायियों और उन्हें जानने वालों से मिलने, उनसे बातचीत करने के अलावा उपनिषदों पर आदि शंकराचार्य के भाष्य, विवेक चूड़ामणि, पतंजलि योगसूत्र, गीता, षड्दर्शन, समाधि, योगविद्या, ध्यान-साधना, हिमालय की अलौकिकता, तंत्र-साधना, कुंडलिनी जागरण, रामकृष्ण परमहंस व विवेकानंद का संपूर्ण साहित्य, परमहंस योगानंद की आत्मकथा, स्वामी दयानंद के सत्यार्थप्रकाश के अलावा गोपीनाथ कविराज, पॉल ब्रंटन, विश्वनाथ मुकर्जी, रॉबर्ट ट्रूमैन, ओशो की अनेक पुस्तकों में गोता लगा रहा हूं। एक दिन में नौ-नौ पुस्तकों को पढ़ कर समाप्त करता देख, पत्नी श्वेता ने एक दिन कहा, ‘पढ़ने में आपको सबसे ज्यादा खुशी मिलती है न?’ सच कहूं, तो हां! दुनिया का सबसे बड़ा आनंद पढ़ने में ही है, इसलिए पढ़ना मुझे सदा से अच्छा लगता रहा है। अब परमात्मा ने लिखने की भूमिका भी दे दी है!
इस पुस्तक लेखन के दौरान मैं और मेरे पूरे परिवार ने यह कई बार महसूस किया कि आशुतोष महाराज जी में अलौकिक शक्तियां तो हैं! मेरे जीवन में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जो अलौकिक हैं! आध्यात्मिक अनुभूतियां बिल्कुल निजी होती हैं, इसलिए मैं उनमें से किसी की चर्चा यहां नहीं करना चाहूंगा। वैसे इस पुस्तक लेखन के दौरान ही ये अनुभूतियां हुई हैं, इसलिए एक नजरिए से देखें तो पाठक इसे जानने का अधिकार रखते हैं, लेकिन मेरा आग्रह है कि इसे मेरे और मेरे परिवार तक ही संचित पूंजी के रूप में रहने दें! बाहर आते ही इसका अलौकिक आनंद जाता रहेगा!
सनातन वैदिक ज्ञान ‘ब्रह्मज्ञान’ के जरिए हर ज्ञान लेने वाले व्यक्ति को उसके ही अंदर ईश्वर का साक्षात् दर्शन कराने वाले आशुतोष महाराज जी के शिष्य व उनकी संस्था ‘दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान’ कह रही है कि महाराज जी ने मानवता के कल्याण के लिए स्वेच्छा से और पूर्व में कहकर गहन समाधि ली है और मेरे अन्वेषण में इसकी पुष्टि हुई है! यह पूरी पुस्तक अन्वेषण की ही परिणति है। मेरा मानना है कि भारतीय ज्ञान परंपरा में विश्वास रखते हुए यदि आप इस पुस्तक को पढ़ेंगे तो निश्चित रूप से आप भी खुद को कई बार लौकिक से अलौकिक और अलौकिक से लौकिक धरातल पर चढ़ते-उतरते हुए महसूस करेंगे! सच कहूं तो अब तक के लेखकीय जीवन में मैंने विषय का चयन नहीं किया है, बल्कि विषय ही मुझे चुनता रहा है! यह भी एक ऐसा ही विषय है, जिसके बारे में कभी सोचा नहीं था, लेकिन जिसने प्रकट होने के लिए मेरा चयन कर लिया! मेरा अहोभाग्य है कि ईश्वर मेरे जरिए अपना कर्म कर रहा है! मैं तो बस निमित्त मात्र हूं! खेल तो सब उसी का है!
संदीप देव
जनवरी 2016
आभार
मैं इसे एक पुस्तक नहीं मानता! इसे एक यात्रा मानता हूं, जो पिछले करीब छह महीने से कर रहा हूं! इस यात्रा पर निकलने की हिम्मत नहीं होती, यदि वरिष्ठ पत्रकार और ‘यथावत’ पत्रिका के संपादक श्री रामबहादुर राय जी मेरा मार्गदर्शन नहीं करते! बिना उनके मार्गदर्शन के मेरी कोई भी पुस्तक आज तक पूरी नहीं हुई है। एक दिन उन्होंने पूछा, ‘आजकल आप क्या कर रहे हैं?’ मैंने कहा, ‘सर समाधि में गए आशुतोष महाराज जी पर पुस्तक लिखना चाहता हूं, लेकिन मुझे न इसका ओर पता चल रहा है न छोर!’ उन्होंने कहा- ‘लिख डालिए!’
फिर एक शाम ‘यथावत’ पत्रिका के कार्यालय से कुछ दूरी पर ही एक पार्क में टहलते हुए वह मुझे ले गए। वह हर शाम उस पार्क में टहलने जाते हैं। वहां वो आशुतोष महाराज जी की समाधि के बारे में बातें करते रहे। वो स्वयं महाअवतार बाबा जी की समाधि पर जा चुके हैं और लाहिड़ी महाशय के परिवार से भी घनिष्ठ रहे हैं! उनसे बातचीत में लगा कि वो आध्यात्म की दुनिया में बेहद गहरे उतरे हुए हैं और इस पुस्तक लेखन में मेरी आंखों के सामने की धुंध को एक गुरु बनकर हटा रहे हैं! मुझे आत्मविश्वास देने के लिए उन्होंने कहा, ‘ऐसा कीजिए, आप पहले ‘यथावत’ के लिए आशुतोष महाराज जी की समाधि पर एक स्टोरी लिखिए और वह पत्रिका की लीड स्टोरी बनेगी।’ मैं इस बीच आशुतोष महाराज जी पर शोध करने के लिए बिहार चला गया, क्योंकि महाराज जी बिहार के ही मिथिलांचल के मूल निवासी हैं। एक दिन सर (रामबहादुर राय जी) का पफोन आया, ‘क्या आपने आशुतोष महाराज जी पर कुछ लिखा?’ मैंने कहा- ‘जी सर! आजकल में भेजता हूं।’ उसके बाद मैंने आशुतोष महाराज जी की समाधि पर एक पूरी खबर लिखकर उन्हें भेज दी, जो बाद में ‘समाधि का सच’ नाम से ‘यथावत (1-15 दिसंबर 2015)’ की कवर स्टोरी बनी! और आश्चर्य कि पत्रिका का यह अंक हाथों-हाथ निकल गया!
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आशुतोष महाराज जी पर मैं जून 2015 से ही शोध कर रहा था, लेकिन लिखने की शुरुआत नवंबर में जाकर कर पाया। पढ़ने में चार महीने और लिखने में केवल दो महीने! लगातार भ्रमण और अध्ययन में लगा था, लेकिन लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। यह एक ऐसा विषय है, जिसमें मैं जितना अंदर उतरता, उतना ही उतरता चला जाता। कई बार सुध-बुध खो बैठता! श्री रामबहादुर राय जी ने यदि लिखने का हौसला नहीं दिया होता, तो शायद यह पुस्तक मैं कभी नहीं लिख पाता। आज तक पढ़ता ही रहता! यह पूरी पुस्तक केवल और केवल उनके ही कारण आज पाठकों के हाथों में है।
जब मैं बिहार की यात्रा कर रहा था तो मेरे पिताजी न केवल मन और शरीर से मेरे साथ रहे, बल्कि अपना पूरा संसाधन भी मेरे लिए झोंक दिया। उन्होंने मधुबनी से लेकर नेपाल और बिहार से लेकर दिल्ली तक मेरे साथ सड़क मार्ग से यात्रा की। उनकी उम्र 60 साल के करीब है, लेकिन वह जिस प्रेम व आशीर्वाद के साथ मेरा साथ देते हैं, वैसा साथ शायद ही कोई पिता अपने बेटे का देता हो! अपने समाज के विरुध्द जाकर आज से 16 साल पूर्व मेरे प्रेम विवाह में मेरा साथ देने से लेकर, मेरी पहली नौकरी, फिर अभी तीन साल पूर्व मेरे नौकरी छोड़ने के निर्णय और अब मेरी हर पुस्तक लेखन में वह मेरे पीछे मेरा ‘बल’ बनकर खड़े हैं। कहा जाता है कि यदि पिता आपके साथ हो तो आप दुनिया से टकरा सकते हैं! मैं भी उनके ही कारण हर कदम बिना सोचे समझे बढ़ा देता हूं, जानता हूं कि यदि फिसला तो पिताजी संभाल लेंगे!
जब बिहार से मैं दिल्ली के लिए चला तो पटना में यातायात जाम के कारण मेरी रेलगाड़ी छूट गई। न किसी अन्य रेलगाड़ी में टिकट उपलब्ध् था और न ही विमान में। पिताजी ने कहा- फिर से घर लौटने से अच्छा है कि मैं तुम्हें गाड़ी से ही दिल्ली पहुंचा दूं और यही हुआ! 1200 किलोमीटर जाने और फिर 1200 किलोमीटर आने की यात्रा, उन्हें मेरे कारण करनी पड़ी! मैं अपराध भाव से धंसा जा रहा था और मेरे पिताजी खुश थे कि उन्होंने मुझे सुरक्षित दिल्ली पहुंचा दिया! ईश्वर ऐसा पिता सबको दे! मैं आज जो कुछ भी कर रहा हूं, वह अपने पिताजी और अपनी मां के आशीर्वाद के कारण ही कर पा रहा हूं, वर्ना मैं किसी लायक नहीं हूं।
मेरे