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Aatma Sutra - Aatma Ka Anavaran
Aatma Sutra - Aatma Ka Anavaran
Aatma Sutra - Aatma Ka Anavaran
Ebook436 pages3 hours

Aatma Sutra - Aatma Ka Anavaran

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About this ebook

This book hopes to act as an internal X-ray mirror, reflecting you to YOU.

Through anecdotes, spiritual stories and the teachings of one of the most powerful men who lived in the past few centuries, it hopes to help you put together the jigsaw puzzle of yourself.

You'd be surprised that there is a lot more to you that you did not know...but should!

In the journey through this audiobook, learn to accept, respect and revere yourself.

So, are you ready...to undertake a journey of self-love?

And, are you ready...to discover the worshipped within the worshipper?

 

This book will:

Make you fall in love with yourself

Help you acquire the knowledge of living guilt-free

Help you develop the power of intent

Teach you techniques for expanding your subtle energies/aura

Teach you to nurture the divinity within yourself

Languageहिन्दी
Release dateMay 19, 2022
ISBN9788193895214
Aatma Sutra - Aatma Ka Anavaran

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    Aatma Sutra - Aatma Ka Anavaran - Hingori

    आत्म सूत्रआत्म सूत्र

    अनुवाद : प्रतिभा वाजपेयी

    AATMA SUTRA

    by Hingori

    First Edition

    Published in 2018 by

    Pali Hills Tourist Hotel Pvt. Ltd. (Le Sutra)

    Email: hingori@hingorisutras.com

    Website: hingorisutras.com

    Illustration, Design, Editing by : Team Hingori Sutras

    eBook developed by Nandkumar Suryawanshi

    9820366379.

    All Rights Reserved

    The content of this book may not be reproduced, stored or copied in any form; printed (electronic, photocopied or otherwise) except for excerpts used in review, without the written permission of the publisher.

    Disclaimer

    The views and opinions expressed in the book are the authors’ own and the facts are as reported by them, which have been verified to the extent possible, and the publisher is not in any way liable for the same.

    ISBN : 978-81-933714-7-3

    आत्म सूत्रआत्म सूत्र

    अध्यात्म के प्रतिरूप

    गुरुदेव अध्यात्म के प्रतिरूप थे, परंतु बहुत ही साधारण इंसान थे।

    राजिन्दर चनन का जन्म पंजाब के हरियाणा के होशियारपुर से 17 किमी. दूर एक गांव में हुआ और उनका बचपन एक साधारण बच्चे की तरह ही बीता।

    व्यापारी पिता और माता की छः संतानों में से एक, राजिन्दर का बचपन भी घर में अन्य बच्चों के साथ अत्यन्त सामान्य रूप में व्यतीत हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा डी ए वी स्कूल में सम्पन्न हुई, किंतु स्कूल में उनकी छवि शैतान बच्चे की थी। यह नटखट, शैतान बच्चा अपने मित्रों के साथ मिलकर खेतों में से अक्सर मूली और गाजर चुराकर भाग जाता। उसकी एक अनूठी बात यह थी कि वह हर गुरुवार को दरगाह पर दीप जलाने जाता और अपना काफी सारा समय अपने घर के पास बने मंदिर में बिताता।

    जैसे-जैसे वे बड़े होते गये वह घंटों गायब रहने लगे और उनका ज्यादातर समय संतों के साथ बीतता जो उम्र में उनसे काफी बड़े थे। उन्होंने उनसे आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त करने के पश्चात अनेक सिद्धियां भी हासिल कीं। इसके बावजूद भी वह स्कूल में पास हो गये, जो सभी के लिए आश्चर्यजनक था। उन्होंने दिल्ली शहर की बसों में पेन व नारंगी की गोलियां भी बेची। पिता को व्यवसाय में नुकसान होने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब थी। इसलिए गुरुदेव परिवार को उस स्थिति से उबारने में थोड़ी ही सही, पर आर्थिक सहायता और सहारा देते थे।

    अपनी पढ़ाई पूर्ण करने के लिए वह दिल्ली आये और अपनी एक चाची के साथ रहने लगे। जहाँ वे, रहने के एवज में शारीरिक श्रम का कार्य कर के, अपना योगदान देते थे। वे अपनी पीठ पर 20 किलो गेहूँ का बोरा लादकर उसे पिसवाने के लिए चक्की तक ले जाते थे।

    किस्मत ने उनका साथ दिया और उन्हें दिल्ली में पीयूएसए एग्रीकल्चरल युनिवर्सिटी में ओवरसियर के कोर्स में दाखिला मिल गया। ग्रेजुएशन करने के पश्चात उन्होंने कृषि मंत्रालय में नौकरी प्राप्त की और मृदा पर्यवेक्षक बनें।

    यहां तक उनका जीवन सामान्य रुप से ही बीता। 35 साल की आयु में एक बड़ा परिवर्तन आया, उनकी अंतरात्मा ने कहा कि उन्हें हरिद्वार स्थित हर की पौढ़ी जाना चाहिए और अपनी तमाम सिद्धियां गंगा में स्नान करके उसे समर्पित कर देनी चाहिए। वहां जाकर जब उन्होंने ऐसा किया तब वह जानते थे कि यह उनके आध्यात्मिक जीवन का आरंभ है, किंतु उन्हें यह पता नहीं था कि उसका उत्तरार्द्ध क्या होगा?

    इसके बाद एक दिन उन्हें एहसास हुआ कि उनकी दायीं हथेली पर ओम बना हुआ है और वह उसे स्पष्ट रुप से देख सकते थे। वक्त बीतने के साथ उन्हें त्रिशूल, शिवलिंग और गिलेरी, गणेशजी, नंदी आदि के चिन्ह दिखने लगे। उन्हें कहा गया कि उन्हें लोगों को स्वस्थ करना है और उन्होंने ऐसा ही किया। सामान्य रुप से प्रारंभ करने के बाद एक समय ऐसा आया जब उनसे मिलने के लिए 35000-40000 लोग दिन-भर कतार में खडे़ रहते। तब उन्होंने स्थान (घरेलू मंदिर) की स्थापना का विचार किया जो आज देश के तमाम हिस्सों और अन्यत्र स्थानों पर विस्तृत रुप से विकसित हुए।

    उन्होंने 100 से ज्यादा लोगों को उपचारात्मक शक्ति प्रदान की। वे तमाम लोग अपने घर में ऐसे स्थान का संचालन करने लगे। इस विचारधारा को बल मिला और अन्य कई लोगों ने यह ज्ञान प्राप्त किया। वह एक व्यक्ति से – एक सामान्य वृक्ष से हराभरा उद्यान बन गये। बीस सालों में उन्होंने और उनके आध्यात्मिक शिष्यों के परिवार ने लाखों लोगों की सेवा की। (उन्होंने से मेरी दस साल पुराना गठिया की तकलीफ महज एक मिनिट में दूर कर दी थी।) मैं खुशनसीब हूँ कि उन्होंने मुझे शिष्य के रूप में चुना, ज्ञान दिया और सहायता की। उनके बिना मेरा जीवन का कोई मूल्य नहीं।

    सामान्य लोग जो कि आध्यात्मिकता के विषय में साधारण जानकारी रखते थे, वे उनके संरक्षण में संत बन गये। जो अपने आपको तुच्छ समझते थे उनको उन्होंने महान बना दिया। इन सब लोगों ने अपना मूल्यांकन, वर्तमान को नजर में रख कर किया, लेकिन गुरुदेव ने उनको आंका, उनके भविष्य, वर्तमान और अतीत को नजर में रखते हुए। ये सब अपने आप को महज एक इंसान मानते थे लेकिन गुरुदेव की नजरों में वे उनका और सम्पूर्ण का हिस्सा थे।

    लेखकीय

    मुझे लगता है कि मुझे उम्मीद से कहीं ज्यादा आध्यात्मिक सौभाग्य का आशीर्वाद मिला है; निश्चित रूप से यह मेरी आशा और आकांक्षा से गरे है । मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मुझे जो कुळ प्राप्त हुआ है उसे मैं आप सब के साथ साह्या करूं। अगर आप इनमें से कल बातों को ही स्वीकार कर उनका अभ्यास करते हैं तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इससे अवश्य लाभांवित होंगे और मुझे भी आनंद की अनुभूति होगी।

    आदर, हम सब मिलकर इस क्षण को जिये और उस अनंत आनंद को महसूस करें!

    विषय सूची

    परिचय

    स्वयं को स्वीकारना सीखिये

    स्वयं को स्वीकारने में आने वाली बाधाएं

    अहं ब्रह्मास्मिः हमारे अहं का विस्तार है

    ज्ञान शक्ति है

    भाग्य

    पुरुषार्थ

    शाप और वरदान

    आभामंडल

    चित्तवृत्ति

    गुण- हमारे विचारों की बुनियादी ढांचा

    तामसिक लोग

    राजसिक लोग

    सात्त्विक लोग

    खुद से प्यार करना

    हमें खुद से प्यार क्यों करना चाहिए

    आभामंडल

    हमारे आत्म शरीरों का महत्व

    कर्मश्य और कारण शरीर

    विकास के लिए पाँच जादुई प्रवृत्तियां

    आत्म-विकास के उच्च स्तर

    लाइफ स्कोर कार्ड

    आत्म-पूजा को परखना

    मानसिक अस्तित्व के कई स्तर

    पशुओं द्वारा चमत्कार

    स्वप्न, अवलोकन और आध्यात्मिक अनुभव

    स्व-आराधना-बढ़ने का रास्ता

    स्वयं आराधना के लिए अभ्यास क्रम

    आप, आप नहीं हो सकते

    मैं हूं

    आत्मिक समानता

    पुनर्विचार माया

    सर्वोच्च विचारधारा या उच्चतम विचारधारा

    शब्दकोश

    हिंगोरी सूत्र

    कर्म सूत्र- व्याख्या कार्मिक संहिता

    स्वप्न सूत्र - ... शरीर से बाहर के अनुभव

    आत्म सूत्र

    परिचय

    आध्यात्मिक विषय, उनसे संबंधित प्रसंग, मेरे तथा मेरे कुछ आध्यात्मिक मित्रों द्वारा किये गये अनुभव, इन सभी को एकत्र करके, इस पुस्तक के माध्यम से मैंने आपको अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयत्न किया है। बोलचाल की शैली में लिखी गयी इस पुस्तक का उद्देश्य है कि आप अपने आपसे प्यार करना सीखें, स्वयं को स्वीकार करना सीखें, स्वयं को सम्मान दें और बदलें। यह कार्य उतना मुश्किल भी नहीं।

    इस यात्रा के दौरान मैं विभिन्न पड़ावों से गुजरा, मैं उन सभी के बारे में आपसे बात करना चाहूँगा। संदर्भ के लिए इन दो पन्नों में मैं आपको अपने जीवन के बारे में बता रहा हूँ। आप मेरी बात ध्यान से सुनें।

    आज जन्माष्टमी (भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन) है तो मुझे उन्हीं के सम्मान में कहने दीजिए। इतिहास अथवा पौराणिक शास्त्र में शायद वही एक हैं जिनकी स्व-सम्मान की बातें प्रख्यात हैं। मेरी इच्छा है कि मैं आपमें और स्वयं में परिवर्तन लाऊं– दोनों को, चेतना के उस स्तर तक ले जाऊं, जहाँ कृष्ण स्वयं विराजते थे। यह वह तकनीक है जिसे प्राप्त करने में पूरा जीवन निकल जाता है, चलिए देखते हैं कि प्रारंभ अच्छा हो।

    जब मैं आपके समक्ष इस सत्य का उजागर कर रहा होऊंगा तो भगवान श्रीकृष्ण भी इस बात के साक्षी होंगे क्योंकि उनमें और हमारे में अंतर नहीं है सिवा इसके की हमारी कुछ सीमाएं हैं। भले ही हम ईश्वर के अंश हों किंतु हमारी सीमाएं हमारे शरीर और मन के पिंजरे में कैद हैं, हमें वैसा ही मान लिया जाता है जैसे हम दिखते हैं, पर हकीकत में हम वो नहीं होते।

    मेरी स्व-मूल्यांकन की बात पहेली जैसी लगती है जैसे कि पसंद-नापसंद, स्वीकार-अस्वीकार, स्व-मान का चढ़ाव-उतार। मेरी प्रारंभिक शिक्षा का पूर्वार्ध काफी अच्छी तरह, घर वालों की देख-रेख में हुआ। मुझे बहुत लाड़-प्यार से रखा जाता था, परिवार से ही गोद लिये जाने के कारण कभी-कभी थोड़ी मुश्किल होती थी।  दूसरा हिस्सा बोर्डिग स्कूल में व्यतीत हुआ। मेरा दाखिला स्कूल शुरू होने के छह महीने बाद हुआ था इसलिए मैं कई जगहों पर खुद को अनफिट पाता था, कई विषयों में सामान्य से अच्छा था किंतु ज्यादातर में मैं अच्छा नहीं कर पाता था। स्वाभाविक था कि मैं स्वयं को असफल देखता था– यह कोई गर्व की बात नहीं थी।

    कालेज में स्वयं को सिद्ध करने और लोगों का ध्यान आकर्षित करने का अवसर मिला। मैं ऐसे कपड़े पहनता कि सबका ध्यान आकर्षित हो। मेरे पास चश्मे थे जो मैं साथ ले जाता था। कालेज में मैं चुनाव में खड़ा हुआ और जीता भी। एक मजाकिया को तो वोट मिलने ही थे और वो मजाकिया मैं था।

    उसके बाद मैंने अपनी वाद-विवाद और अभिनय प्रतिभा द्वारा बहुत सारी ट्रॉफियां जीतीं। मैं अजीब उलझन में था – मुझे लगता कि क्या वास्तव में मैं मूर्ख हूँ। पर मेरा भाग्य अच्छा था कि मैं लड़कियों में काफी लोकप्रिय था। शायद मैं अपनी सोच से ज्यादा अच्छा था। अपने आपका मूल्यांकन करना अत्यंत उलझन भरा था और क्या मैं अपना मूल्यांकन सामाजिक सफलता के आधार पर कर रहा था?

    मेरे कालेज के प्रारंभिक दिनों में, मुझे गठिया की तकलीफ हुई। मैं सालों तक रोज एक्युपंक्चर से अपना इलाज करवाता रहा ताकि भविष्य में तकलीफ ज्यादा न बढ़े। और इस असाध्य रोग से, मुझे मेरे भविष्य में होने वाले, आध्यात्मिक मार्गदर्शक गुरुदेव ने मात्र डेढ मिनट में मुक्त कर दिया। उन्होंने मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया।

    वह सीखने का वक्त था। जिससे मैं अभी तक अनभिज्ञ था।

    मेरे विचार से स्वयं को खोजने का अर्थ था कि स्वयं को मनो-विश्लेषित करके समझना। यह एक लंबा सफर था, पैंतीस साल लंबा सफर, जिसमें मैंने प्रयत्न किया कि मैं खुद को नापसंद न करूं, और सीखा कि खुद को ज्यादा प्यार कैसे करूं।

    अपना मूल्यांकन, सीमाओं से मुक्ति और अपनी सही प्रकृति जानने के लिए मेरे साथ इस यात्रा के सहभागी बनिए।

    यदि आप उच्च चेतना का हिस्सा हैं, तो कैसे पता चलें कि आप यह जानते है?

    आप आखिर इसे किस प्रकार से समझ पायेंगे।

    आप वही हैं (तत् त्वम् असि)

    यह पुस्तक 'आप वही हैं’ इस वाक्य को अनौपचारिक रूप से बताती है।

    ‘वही’ का अर्थ है उच्चतम चेतना जिसके हम सभी हिस्सा हैं।

    ‘आप’ का अर्थ है आपका शरीर, आपकी आत्मा और आपकी जीवात्मा या अंतरात्मा।

    ‘हैं’ का अर्थ है भले ही आप न जानते हों, भले ही आपको को ऐसा अनुभव न होता हो, भले आप उसमें मानने की इच्छा न रखते हों किंतु आप उस उच्चतम चेतना का हिस्सा हैं।

    यह अत्यंत जटिल वाक्य है, वैसे मैं मानता हूँ कि यह काफी प्रभावशाली है। इस विचार को इस पुस्तक में इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि आप आसानी से समझ पायें और इसे अपने जीवन में उतारें। मेरा एक सुझाव है कि पुस्तक पढ़ते समय आप अपने हाथ में एक पेन्सिल रखिये और जिस विषय में आपकी रुचि है उसको हाइलाइट करते जाइए। जब आप एक-दो बार पढ़ेंगे, तब जो हिस्सा आपने हाइलाइट किया है उसे पुनः पढ़ें और देखें कि वह आपके लिए कार्य कर रहा है या नहीं।

    जब मेरे आध्यात्मिक सहयोगी राजीव मेरे लिए इस लेखन की समीक्षा कर रहे थे तो उन्होंने मुझसे सवाल किया जिसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। उसका प्रश्न था- ‘किंतु मुझे अपने आप को क्यों प्रेम करना चाहिये?’

    मुझे आशा है कि यह पुस्तक पढ़ कर पर आप में से ज्यादातर लोग वह जान जायेंगे, जो वे अभी तक नहीं जानते थे जैसे- ‘स्वयं’ अनेक तत्त्वों से बना है और आप जो इस पुस्तक को पढ़ रहे है वह उन्हीं में से एक है – खास कर शारीरिक अवतरण में। किंतु ‘स्वयं’ यहीं पर ही नहीं रुकता। इसमें आपसे संबंधित तमाम तत्त्व शामिल है जो आपके साथ व्यक्तिगत रूप से जुड़े हैं और आप के साथ ही खत्म होंगे, खासकर आपका बाह्य आवरण शारीरिक रुप।

    राजीव को मेरा जवाब था कि उसे प्रेम का उच्चतम स्वरूप क्या है यह सीखना होगा और इस स्तर पर आकर वह उसके बाह्य रूप से कुछ ही कदमों के अंतर पर है।

    दुर्भाग्यवश, इस सिद्धांत को कुछ ही वाक्यों लिखना था। मैं दुनिया भर के तत्त्व ज्ञान को 30 पन्नों में पुनः लिख सकता हूँ, किंतु उससे क्या होगा?

    मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि हम सब साथ मिलकर इस पुस्तक के पन्नों और उसके चित्रों द्वारा आगे बढ़ेंगे और जीवन में कुछ परिवर्तन लाने के मार्ग पर आगे बढ़ेंगे। पहली बात, हम वो नहीं जो हम सोचते हैं कि है और दूसरी, हमें अपनी अंतरात्मा में झाँकना चाहिए और आत्म-विश्लेषण करना चाहिए जो हमें हमारी बेहतर छवि दिखा सकता हैं।

    जागृति के लिए संवेदनात्मक पिंजरे को तोड़ने की आवश्यकता है जो उसे भ्रम में उलझायें रखता है।

    यह पुस्तक ‘तत् त्वम् असि’ की अवधारणा को समझाती है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि क्यों हम में से ज्यादातर लोगों को इस वाक्य पर विश्वास करना मुश्किल लगता है। यदि हम इसे जान लेते है, तो हम यह क्यों नहीं मान सकते कि हम इसे अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में अपना सकते हैं।

    इस पुस्तक में प्रारंभ से ही अविश्वास के प्रतिमानों को समझने का प्रयत्न और उन्हें थोड़ा-थोड़ा कर के तोड़ने का प्रयास किया गया है। हम आपको यह उदाहरणों और अनेक किस्सों द्वारा समझाते हुए एक ऐसे मुकाम पर लायेंगे जहाँ आप स्वयं ही अपने अविश्वास को लेकर प्रश्न करेंगे। ऐसे कई दोराहों पर आपको निर्णय करना होगा कि आप अपनी श्रद्धा में विश्वास रखना चाहते है अथवा आप आसान मार्ग अपनाकर शुतुरमुर्ग की भाँति अपना सिर अपने भ्रम की रेत में ही गड़ाये रखना चाहते हैं।

    अलबर्ट आइंस्टीन के मतानुसार– मानव जाति, समग्र ब्रह्मांड, समय और स्थान का एक हिस्सा है। हमने स्वयं अनुभव किया है, हमारे विचार और भावनाएं दूसरों से थोड़ी-बहुत अलग होती हैं। यह एक प्रकार का भ्रम है। यह भ्रम ही हमारे लिए जेल समान है, जो हमारी व्यक्तिगत इच्छाओं को रोकता है और हमारे निकटतम व्यक्तियों के प्रति स्नेह उत्पन्न करता है। हमारा उद्देश्य होना चाहिए कि हम स्वयं को इस बंधन से मुक्त करें और समस्त जीवों और प्राकृतिक सुंदरता को गले लगायें। मानव का सही मूल्यांकन उसके स्वयं से मुक्ति प्राप्त करने के तरीके के आधार पर होता है। यदि मानवता को बचाना है तो हमें इस विषय पर नये ढंग से सोचने की आवश्यकता होगी।

    आत्म सूत्र
    अध्याय-1

    स्वयं को स्वीकारना सीखिये

    स्वयं को स्वीकारने में आने वाली बाधाएँ

    चाहे वह उम्र का तजुर्बा हो या परिस्थितियों का परिणाम अक्सर हम उन परिस्थितियों में खुद को स्वीकार नहीं कर पाते, हरदम कुछ कमी महसूस होती है।

    यद्यपि यह सभी पर लागू नहीं होता, लेकिन मैं अपने जैसे नब्बे से पिचानवे प्रतिशत लोगों की बात कर रहा हूँ। समस्या यह है कि हम सिर्फ अपना ही मूल्यांकन नहीं करते, बल्कि हम इसको उस समाज के आदर्शों के साथ भी जोड़ देते हैं जिसमें हम रहते हैं। और इस प्रक्रिया के दौरान हम अपने आपको कमतर आँकने लगते हैं।

    सामाजिक मानदंडों का मूल्यांकन

    आयु

    जब आप बीस वर्ष से कम आयु के होते हैं, आपमें पर्याप्त परिपक्वता नहीं होती, तीस से पैंतीस साल की उम्र होने पर अपने आपमें अनुभव की कमी होती है और बहुत कुछ सीखना होता है। तीस से पैंतालीस साल की उम्र के बीच का समय आपका सर्वश्रेष्ठ समय होता है, लेकिन आपकी महत्वाकांक्षाएं आपको व्यस्त रखती हैं इसलिए आपको अभी भी जीवन में स्थायित्व लाने के लिए लंबी दूरी तय करनी होती है। पचास-पचपन का होने तक आप सभी अनुभवों से पूर्ण हो जाते हैं, लेकिन आपको उम्रदराज होने का भय सताने लगता है। तकनीक का बहुत विकास हो जाता है और युवा-वर्ग उसमें माहिर है, इसके कारण जीवन के उस पड़ाव में आपको महसूस होता है कि आपमें परिपक्वता, अनुभव और गतिशीलता का एक पूरा संतुलन नहीं है।

    व्यवसाय

    केवल एक प्रतिशत लोग ही अपने कार्य स्थल पर नम्बर एक हो सकते है, तो बाकी लोग खुद को नंबर दो पर ही पायेंगे। जो लोग अच्छे लीडर हैं उन्हें रिपोर्ट करना सदैव एक अच्छा अनुभव होता है, लेकिन कुछ स्वयं ही बहुत अच्छे लीडर होते हैं। यदि आप अपने काम से संतुष्ट हैं, तो आप भाग्यशाली हैं, लेकिन अधिकांश लोग आगे बढ़ने की कामना करते हैं। कारण कई हो सकते हैं, लेकिन असंतोष एक आम कारण है।

    हमें आमतौर पर कार्य स्थल पर नकारात्मक जानकारियाँ बहुत मिलती हैं। या तो हमारे सीनियर हमारे प्रदर्शन से खुश नहीं होते या हमारे मालिक जो चाहते हैं वो हमें करने को मजबूर करते हैं, या हमें हरदम कहा जाता है कि चीजें पर्याप्त रूप से सही नहीं हैं। अगर हम सीनियर हैं, हमें वो उत्पादकता नहीं मिलती जो हमें चाहिए, चीजें वैसी नहीं होती जैसी होनी चाहिए, लोगों में पर्याप्त प्रतिबद्धता नहीं होती। हम अपने कार्यों से संतुष्ट नहीं होते हैं। कई लोगों में से एक ही ऐसा भाग्यशाली होता है जिसको कार्य स्थल पर संतुलन और आत्म-स्वीकृति की भावना होती है।

    भौतिक उपस्थिति

    दस में से एक व्यक्ति सुंदर होता है (यह कोई सांख्यिकीय अनुसंधान नहीं है)।

    एक जोड़ा ज्यादा अच्छा दिखता है, तो अन्य सामान्य। लेकिन आधी से ज्यादा दुनिया अपने रूप-रंग से संतुष्ट नहीं है और वे सुंदर दिखना चाहते हैं। कालेज में दूसरा सबसे - अच्छा दिखने वाला भी और खूबसूरत दिखना चाहता है। अपने चेहरे-मोहरे पर खुद की राय कभी संतोषजनक होती ही नहीं।

    मेरे दादा जी हरदम कहते थे, सीरत को देखो, सूरत को नहीं। इंसान की अंदर की सुंदरता को देखो बाहर की नहीं।

    सामाजिक पृष्ठभूमि

    भारत में सामाजिक पृष्ठभूमि, जाति, समुदाय, धर्म, आदि से फर्क पड़ता है। यदि आप ऊँची जाति के नहीं हैं, तो आपसे समान व्यवहार नहीं किया जाता। यदि आप सामान्य सामाजिक पृष्ठभूमि से आते है, तो आपको महसूस होगा कि आप कम महत्वपूर्ण भगवान की संतान हैं। यदि आप नीची जाति के हैं तो यह शर्मिंदगी की बात है। यदि आप अल्पसंख्यक समुदाय से हैं तो आपको पूर्ण स्वीकृति नहीं मिलती। संक्षेप में, आपकी सामाजिक पृष्ठभूमि एक संतुलित आत्म-राय बनाने में बाधक होती है। यदि आप बहुत पढ़े-लिखे नहीं हैं, तो स्वाभाविक रूप

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