अन्तर्जागरण: नव उपनिषदों के कुछ विशेष प्रकरण
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उपनिषदों को अध्यात्म-विद्या की पराकाष्ठा माना गया है । यह वचन जितना भी मान्य अथवा अमान्य हो, यह निस्सन्देह है कि अध्यात्म-मार्गी के लिए उपनिषद् पथ के दीपक हैं – ये उसे अध्यात्म मार्ग पर प्रेरित करते हैं, उसे इस मार्ग का ज्ञान देते हैं, और जब वह इस मार्ग की कठिनता से हतोत्साह हो जाता है, तो ये उसको पुनः खड़ा करके, उसे आगे को धक्का देते हैं ! ये भक्ति से ओतप्रोत हैं और जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने के द्वार हैं । इनके काव्य से मन प्रफुल्लित हो जाता है और इनकी कथाएं गूढ़ उपदेशों को सरलता से प्रकाशित कर देती हैं ।
प्रमुख ग्यारह उपनिषदों में से ईश और माण्डूक्य को छोड़, इस पुस्तक में आप अन्य सभी उपनिषदों के विषय में ज्ञान प्राप्त करेंगे । जबकि यहां सम्पूर्ण उपनिषदों की शब्दशः व्याख्या तो नहीं है, तथापि यहां छोटे-छोटे लेखों के माध्यम से उनका परिचय और उनके कुछ हृदयग्राही प्रकरणों का विस्तृत विवरण है । उपनिषद् अपनी आलंकारिक भाषा के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसके कारण अनेक बार उनके अर्थ स्पष्ट नहीं दीखते । इस पुस्तक में आप ऐसे अनेकों भागों के छिपे हुए अर्थ सरल भाषा में उद्घाटित पाएगें, जो आज तक काल के कपाल में दबे थे ।
आइए, भारत की सर्वश्रेष्ठ धरोहर के विषय में कुछ और जानें !
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अन्तर्जागरण - Uttara Nerurkar
प्राक्कथन
यह पुस्तक मेरे कुछ उन लेखों का संकलन है जो कि कई वर्षों से मासिक रूप से दयानन्द-सन्देश नामक दिल्ली के आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट की पत्रिका में छपते आ रहे हैं। क्योंकि इन लेखों की संख्या अधिक थी और मैं पुस्तक का आकार बहुत बड़ा नहीं रखना चाहती थी, इसलिए यहां मैंने केवल एक विषयवस्तु ग्रहण की है – उपनिषद्। इसमें कारण है कि उपनिषद् अत्यन्त लोकप्रिय हैं और सब जन उनके बारे में जानना चाहते हैं। दूसरे, मैंने छान्दोग्य, बृहदारण्यक, आदि, कुछ कम पढ़े जाने वाले उपनिषदों पर भी लेखनी चलाई है। उस ज्ञान को मैं आगे बढ़ाना चाहती हूं और उन उपनिषदों को भी लोकप्रिय बनाना चाहती हूं।
मेरा सर्वदा यह प्रयास रहा है कि मैं ऋषियों के वाक्य मूलरूप में पढ़कर समझूं और उनपर लिखे भाष्यों का आश्रय आवश्यकतानुसार ही लूं। मेरा कोई साक्षात् गुरु भी नहीं रहा है, जिससे मैंने जाने-माने सिद्धान्त सीखे हों। जहां एक ओर इस कारण से मुझे किसी भी शास्त्र को समझने के लिए बहुत जूझना पड़ा है, वहीं दूसरी ओर इस स्थिति ने मुझे बहुत वैचारिक स्वतन्त्रता प्रदान की है। मुझे लगता है इसी कारण से मैं बहुत से ऐसे द्वार खोल सकी हूं जो औरों के लिए बन्द थे। इन नए परिपेक्षों को सदा ही मैं अपने लेखों में प्रमाण-सहित निरूपित करती रही हूं। पाठकों ने इन स्वाध्याय के मोतियों को परखा और सराहा है। ये मोती कहीं काल के जाल में लुप्त न हो जाए, इस उद्देश्य से इस पुस्तक का प्रकाशन किया जा रहा है।
यह छोटी-सी पुस्तक पूर्णतया नव उपनिषदों के गहन उपदेश निरूपित तो नहीं कर सकती, तथापि अनेक परिचयात्मक लेख इस पुस्तक में संयोजित हैं, जिससे पाठकों का विषयवस्तु में प्रवेश होगा, उनके मुख्य उपदेश ज्ञात होंगे। और जो व्यक्ति इन शास्त्रों के गहन अध्ययन में रत हैं और कुछ विशेष बातें समझना चाहते हैं, उनके लिए यहां अनेक ऐसे लेख हैं जो गूढ़ विषयों का समाधान देते हैं। इनसे अध्येताओं को अपने अध्ययन में बहुत सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
ग्यारह प्रमुख उपनिषदों में से, ईश और माण्डूक्य को छोड़ (जो कि अत्यन्त ह्रस्व उपनिषद् हैं), यहां अन्य सभी स्थान पा रहे हैं। और जो कम लोकप्रिय छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद् हैं, उनके विषय में आप यहां कुछ अधिक लेख पायेंगे। इससे आपमें इन उपनिषदों की पूर्ण जानकारी प्राप्त करने की आकांक्षा जागृत होगी, ऐसी मेरी इच्छा है। इन लेखों को क्रम से पढ़ने में आप एक अलग ही आनन्द का अनुभव करेंगी !
पाठकों से निवेदन है कि वे अपनी प्रतिक्रिया मुझ तक अवश्य पहुंचाएं, और जो भूल-चूक इस संस्करण में रह गई हों, उनको क्षमा करें।
आभार-प्रदर्शन
बहुत समय से पाठकों ने मेरे लेख आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से छपने वाली दयानन्द-सन्देश और रामलाल कपूर ट्रस्ट की वेदवाणी पत्रिकाओं में पढ़े और सराहे हैं। मेरा प्रथम लेख ‘वेदों में पदों के संयोजन का वैज्ञानिक आधार’ जून २००६ की वेदवाणी पत्रिका में छपा था। फिर अक्टूबर २००७ में मैंने स्व० आचार्य राजवीर शास्त्री जी को एक पत्र लिखा, जो कि उस समय आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट के सम्पादक थे। पता नहीं क्यों आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट के व्यवस्थापक दिनेश कुमार शास्त्री जी ने उसे नवम्बर २००७ के दयानन्द-सन्देश में टंकित कर दिया। उन्होंने उस क्षण से ही मुझे प्रोत्साहित करना प्रारम्भ किया और मेरे लेख यदा-कदा दयानन्दसन्देश में प्राप्त होने लगे। सम्भवतः जनवरी २०१२ में उन्होंने मुझे प्रतिमास लेख भेजने का आदेश दिया। आरम्भ में तो मुझे लगा कि इतना ज्ञान तो मुझमें है नहीं कि मैं इतने नियमित रूप से लिख सकूं, परन्तु वह कारावां जो उस समय प्रारम्भ हुआ, वह आज भी, ईश्वरकृपा से, अविरत चला आ रहा है। इस सब का सूत्रधार मैं दिनेश जी को ही मानती हूं – वे ही मेरे लिए परमात्मा के दूत बनकर आए !
कुछ वर्ष पूर्व, दिनेश जी ने ही प्रथम बार इन लेखों को पुस्तक के रूप में संकलित करने का प्रस्ताव रखा। बात कुछ आई-गई हो गई। वर्षों से पाठक भी हिन्दी में पुस्तक की मांग कर रहे थे। पिछले दिनों, मुम्बई से मेरे छात्र रौनक महेश्वरी ने भी लेखों को संकलित करने की मांग उठाई। संयोगवश, श्री चेतन प्रकाश जी ने हरियाणा से इसी अन्तराल में फोन किया और पुनः ऐसी पुस्तक बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने पुस्तक के लिए ५००० रुपये की राशि भी समर्पित करने की प्रतिज्ञा की। रौनक ने पुस्तक के लिए ६००० रुपये की धनराशि दान दी। मेरे दीर्घकालीन छात्र श्रीविद्या शंकर और रामानुजन् वाल्मीकि ने भी इस ग्रन्थ के संयोजन में योगदान दिया। ज़ैन पब्लिकेशन्स् ने पुस्तक छापने के लिए सम्मति दी। इस प्रकार बहुत लोगों के प्रोत्साहन और कुछ कर्मयोगियों व शुभेच्छेकों के सहयोग से यह पुस्तक अब आपके करकमलों में विराजमान है।
अन्त में मैं अपने पति, सुहास श्रीपाद नेरूर्कर, को उनके निरन्तर सहयोग और प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद देना चाहूंगी।
यदि पाठकवृन्द को यह प्रयास सराहनीय लगा, तो अवश्य ही हम इस पुस्तक के दूसरे, तीसरे भाग भी निकालेंगे, क्योंकि लेख तो अभी बहुत हैं ! कृपया अपना आशीर्वाद बनाए रखें !
श्रीपरमात्मने नमः !
उत्तरा नेरूर्कर,
अप्रैल २०२१ बैंगलूरु
ओम् का माहात्म्य
सभी हिन्दू ‘ओम्’ पद का अत्यधिक सम्मान करते हैं। जहां एक ओर वैदिक पाठों में तो इसका उच्चारण होता ही है, परन्तु अन्य अवैदिक स्तुतियोंभजनों, पूजाओं में भी इसका विशेष स्थान पाया जाता है। यहां तक कि अन्य धर्मों में भी इसका बोलबाला है। ईसाइयों का ‘आमैन्’ और मुसलमानों का ‘आमीन्’ स्पष्ट रूप से ओम् के अपभ्रंश हैं। हर प्रार्थना के बाद इसे जोड़ा जाता है। इनके धर्म-ज्ञाताओं से इन शब्दों के अर्थ पूछे जाएं, या उनके महत्त्व पर प्रकाश डालने को कहा जाए, तो वे कोई भी सन्तोषजनक उत्तर न दे पायेंगे। वस्तुतः, कब ओम् उन देशों में पहुंचा, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है। बौद्ध धर्म तो हिन्दू-धर्म के बहुत निकट है। सो, वहां ओम् जैसा का तैसा पाया जाता है – ओम् मनि पद्मे हुम्
। वैदिक संस्कृति में, जबकि परमात्मा के नाम असंख्य हैं, ओम् का स्थान शिखर पर है। ऐसा क्यों है ? इस प्रश्न पर इस लेख में विचार किया गया है।
पहले हम देखते हैं कि किसने हमें बताया कि ओम् परमात्मा का मुख्य नाम है। एक ओर जहां ब्राह्मण-ग्रन्थों ने उसके माहात्म्य का वर्णन किया है, वहीं प्रायः सभी उपनिषदों ने इसकी स्तुति में कसर नहीं छोड़ी है। कुछ ऐसे ही श्लोक नीचे दिये हैं -
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति
तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत् ते पदँ सङ्ग्रहेण ब्रवीमि – ओमित्येतत्॥ कठोपनिषद् १।२।१५॥
यहां यमराज नचिकेता को परम सत्य बताते हुए कहते हैं कि, जिस प्राप्तव्य को सब वेद बार-बार कहते हैं, जिस के लिए सभी तप बताये गये हैं, जिसकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य जैसे कठिन व्रत का आचरण किया जाता है, वह संक्षेप में ‘ओम्’ – यह पद है।
… प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते॥ मुण्डकोपनिषद् २।२।४॥
उस ब्रह्म को जब लक्ष्य करो, तब प्रणव का धनुष बनाओ, अर्थात् ओंकार का जप करो, और आत्मा को बाण बना कर उस धनुष पर चढ़ जाओ। इस प्रकार अपने लक्ष्य ओम् को बींध दो, प्राप्त कर लो। ओम् के सहारे से ब्रह्म जितनी शीघ्रता से मिलता है, उतना किसी और शब्द से नहीं मिलता। यही बात एक अन्य श्लोक कहता है -
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥ कठोपनिषद् १।२।१७॥
इस ओम् का ही आलम्बन श्रेष्ठ है, सबसे ऊंचा है। जो इस आश्रय को जान गया, वह ब्रह्म के लोक में महत्त्व पाता है, अर्थात् ब्रह्म को पा जाता है, मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि पुनः पुनः आध्यात्मिक शास्त्र हमें बता रहे हैं कि ओम् को अपने मार्ग का दीपक बनाओ, क्योंकि यही सब से शक्तिशाली और प्रभावात्मक आलम्बन है।
फिर भी, यह स्पष्ट नही हुआ कि ओम् में वह कौन सी विशेषता है जिसके कारण सब ऋषि-मुनि हमें यह बता रहे हैं। इसको समझने के लिए थोड़ा और अन्वेषण करते हैं।
ओम् की एक व्युत्पत्ति ‘अव’ धातु से मन् प्रत्यय लगाकर बताई गई है। इस धातु को पाणिनि के धातु-पाठ में इस प्रकार पढ़ा गया है – अव रक्षण-गतिकान्ति-प्रीतितृप्ति-अवगमप्रवेश-श्रवणस्वामी-अर्थयाचन-क्रियाइच्छा-दीप्तिअवाप्ति-आलिङ्गनहिंसा-दानभाग-वृद्धिषु। उपर्युक्त प्रकार से सन्धि-विच्छेद करने से २० अर्थ बनते हैं; ‘स्वामी+अर्थ’ को एक पद मानने से, और ‘दान’ के बदले ‘आदान’ पढ़ने से दो अर्थ और बनते हैं। इस प्रकार यहां कुल २२ अर्थों का योग है। इतने अधिक अर्थ पाणिनि ने किसी और धातु के नहीं लिखे ! इसीसे इस धातु की विशेषता ज्ञात होती है। फिर, ये सभी अर्थ कर्ता या कर्म या दोनों के रूप में परमात्मा में घटाए जा सकते हैं। यथा –
प्रवेश – जो सब में प्रवेश करे अर्थात् सर्वव्यापक (कर्ता)
याचन – जिसे या जिससे सब मांगें (कर्म)
अवाप्ति – जिसको सब प्राप्त है अथवा जो सबको प्राप्त कराने वाला है (कर्ता), और जो सब वस्तुओं में प्राप्त होता है (कर्म)
इसीलिए आर्य समाज के स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लिखा है कि इस नाम में परमात्मा के अन्य सभी नाम समाहित हो जाते हैं। इस विशेषता के कारण ही केवल यही पद परमात्मा का निज नाम होने योग्य है; अन्य किसी का भी यह नाम नहीं हो सकता – तस्य वाचकः प्रणवः (योगदर्शनम् १।२५)। जहां इन्द्र, आदि, शब्द विभिन्न प्रकरणों में जीवात्मा, मेघविद्युत्, आदि के द्योतक हो सकते हैं, वहां ओम् शब्द किसी और का वाचक सम्भव ही नहीं है। अपितु इस शब्द का अपने वाच्य से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इसको परमात्मा की तरह अक्षर = अकाट्य, नाश-रहित ही बताया गया है, जबकि यह २ अक्षरों का बना हुआ है, जैसे –
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म॥ कठोपनिषद् १।२।१६॥
अर्थात् यह ‘ओम्’ अक्षर ही ब्रह्म है। स्वामी दयानन्द ने यहां वाच्य परमात्मा और वाचक ओम् के बीच पिता-पुत्र के जैसा सम्बन्ध बताया है।
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं। भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव। यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव॥ माण्डूक्योपनिषद् १॥
अर्थात् ओम् यह अक्षर (ब्रह्म) है। इस