Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

Pujniye Prabho Hamare - (पूजनीय प्रभो हमारे...)
Pujniye Prabho Hamare - (पूजनीय प्रभो हमारे...)
Pujniye Prabho Hamare - (पूजनीय प्रभो हमारे...)
Ebook433 pages3 hours

Pujniye Prabho Hamare - (पूजनीय प्रभो हमारे...)

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

अभी तक की अपनी 50 पुस्तकों के लेखक डॉ. राकेश कुमार आर्य का जन्म 17 जुलाई, 1967 को ग्राम महावड़, जनपद गौतमबुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश में एक आर्य समाजी परिवार में हुआ। श्री आर्य के पिता का नाम श्री राजेंद्रसिंह आर्य और माता का नाम श्रीमती सत्यवती आर्या है। विधि व्यवसायी होने के साथ-साथ श्री आर्य एक प्रखर वक्ता भी हैं।
श्री आर्य को उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह द्वारा विशेष रूप से 22 जुलाई, 2015 को राजभवन राजस्थान में सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से 12 मार्च, 2019 को केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा उनकी शोध कृति “भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास” को वर्ष 2017 के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
इतिहास संबंधी शोधपूर्ण कार्य पर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय आर्य विद्यापीठ के य व दो बार पद्मश्री विजेता प्रोफेसर (डॉ.) श्यामसिंह शशि और संस्कृत में प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता प्रोफेसर डॉक्टर सत्यव्रत शास्त्री के द्वारा डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि विगत 17 जुलाई, 2019 को उनके 53वें जन्म दिवस के अवसर पर दिल्ली में होटल अमलतास इंटरनेशनल में प्रदान की गई।
श्री आर्य को उनके उत्कृष्ट लेखन कार्य के लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों व सामाजिक संस्थाओं से भी सम्मानित किया गया है। मेरठ के चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय सहित कई विश्वविद्यालयों में उनके लेक्चर विजिटर प्रोफेसर के रूप में आयोजित किए गए हैं। वर्तमान में डॉ. आर्य राष्ट्रवादी समाचार पत्र ‘उगता भारत’ का संपादन कार्य कर रहे हैं। वह राष्ट्रीय प्रेस महासंघ के राष्ट्रीय य, भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति के राष्ट्रीय य और हिंदू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं।
निवास: सी ई 121, अंसल गोल्फ लिंक, तिलपता चौक, ग्रेटर नोएडा, जनपद गौतमबुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश।
चलभाष: 9911169917.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 1, 2020
ISBN9789390088171
Pujniye Prabho Hamare - (पूजनीय प्रभो हमारे...)

Read more from Dr. Rakesh Kumar Arya

Related to Pujniye Prabho Hamare - (पूजनीय प्रभो हमारे...)

Related ebooks

Reviews for Pujniye Prabho Hamare - (पूजनीय प्रभो हमारे...)

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    Pujniye Prabho Hamare - (पूजनीय प्रभो हमारे...) - Dr. Rakesh Kumar Arya

    रहे

    अध्याय 1

    पूजनीय प्रभो!

    हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए

    जब हम किसी भी शुभ अवसर पर या नित्य प्रति दैनिक यज्ञ करते हैं तो उस अवसर पर हम यह प्रार्थना अवश्य बोलते हैं :-

    पूजनीय प्रभो हमारे, भाव उज्ज्वल कीजिये ।

    छोड़ देवें छल कपट को, मानसिक बल दीजिये ।। 1 ।।

    वेद की बोलें ऋचाएं, सत्य को धारण करें ।

    हर्ष में हो मग्न सारे, शोक-सागर से तरें ।। 2 ।।

    अश्वमेधादिक रचायें, यज्ञ पर-उपकार को ।

    धर्मं-मर्यादा चलाकर, लाभ दें संसार को ।। 3 ।।

    नित्य श्रद्धा-भक्ति से, यज्ञादि हम करते रहें ।

    रोग-पीड़ित विश्व के, संताप सब हरते रहें ।। 4 ।।

    भावना मिट जायें मन से, पाप अत्याचार की ।

    कामनाएं पूर्ण होवें, यज्ञ से नर-नारि की ।। 5 ।।

    लाभकारी हो हवन, हर जीवधारी के लिए ।

    वायु जल सर्वत्र हों, शुभ गंध को धारण किये ।। 6 ।।

    स्वार्थ-भाव मिटे हमारा, प्रेम-पथ विस्तार हो ।

    ‘इदं न मम’ का सार्थक, प्रत्येक में व्यवहार हो ।। 7 ।।

    प्रेमरस में मग्न होकर, वंदना हम कर रहे ।

    ‘नाथ’ करुणारूप! करुणा, आपकी सब पर रहे ।। 8 ।।

    उपरोक्त प्रार्थना के शब्द जब किसी ईश्वरभक्त के हृदय से निकले होंगे तो निश्चय ही उस समय उस पर उस परमपिता परमेश्वर की कृपा की अमृतमयी वर्षा हो रही होगी। वह तृप्त हो गया होगा, उसकी वाणी मौन हो गयी होगी, उस समय केवल उसका हृदय ही परमपिता परमेश्वर से संवाद स्थापित कर रहा होगा। इसी को आनंद कहते हैं, और इसी को गूंगे व्यक्ति द्वारा गुड़ खाने की स्थिति कहा जाता है, जिसकी मिठास को केवल वह गूंगा व्यक्ति ही जानता है, अन्य कोई नहीं। वह ईश्वर हमारे लिए पूज्यनीय है ही इसलिए कि उसके सान्निध्य को पाकर हमारा हृदय उसके आनंद की अनुभूति में डूब जाता है।

    उस समय आनंद के अतिरिक्त अन्य कोई विषय न रहने से हमारे जीवन के वे क्षण हमारे लिए अनमोल बन जाते हैं और हम कह उठते हैं-‘हे सकल जगत के उत्पत्तिकर्त्ता परमात्मन! इस अमृत बेला में आपकी कृपा और प्रेरणा से आपको श्रद्धा से नमस्कार करते हुए हम उपासना करते हैं कि हे दीनबंधु! सर्वत्र आपकी पवित्र ज्योति जगमगा रही है। सूर्य, चंद्र, सितारे आपके प्रकाश से इस भूमंडल को प्रकाशित कर रहे हैं। भगवन! आप हमारी सदा रक्षा करते हैं। आप एकरस हैं, आप दया के भंडार हैं, दयालु भी हैं, और न्यायकारी भी हैं। आप सब प्राणिमात्र को उनके कर्मों के अनुसार गति प्रदान करते हैं, हम आपको संसार के कार्य में फंसकर भूल जाते हैं, परंतु आप हमारा, कभी त्याग नहीं करते हो। हम यही प्रार्थना करते हैं कि मन, कर्म, वाणी से किसी को दुःख न दें, हमारे संपूर्ण दुर्गुण एवं व्यसनों और दुखों को आप दूर करें और कल्याणकारक गुण-कर्म और शुभ विचार हमें प्राप्त करायें। हमारी वाणी में मिठास हो, हमारे आचार तथा विचार शुद्ध हों, हमारा सारा परिवार आपका बनकर रहे। आप हम सबको मेधाबुद्धि प्रदान करें, और दीर्घायु तक शुभ मार्ग पर हम चलते रहें, हम सुखी जीवन व्यतीत करें, हमें ऐसा सुंदर, सुव्यवस्थित और संतुलित जीवन व्यवहार और संसार प्रदान करो। हमारे कर्म भी उज्ज्वल और स्वच्छ हों।

    सर्वपालक, सर्वपोषक, सारे जगत के रचने वाले पिता! दुष्ट कर्मों से हमें बचाकर उत्तम बुद्धि और पराक्रम प्रदान कीजिए। हमें केवल आपका सहारा है, आपका आश्रय है, आपका संरक्षण है। हमारी कर्मेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियां शुभ देखें और शुभ मार्ग पर चलें, शुभ सोचें तथा निष्काम भाव से प्राणीमात्र की सेवा करते हुए अंत में आपकी ज्योति को प्राप्त हों, संसार के सारे बंधनों से मुक्त होकर वास्तविक मुक्ति वा मोक्ष के अधिकारी हों।

    परमेश्वर को हृदय सौंप दो

    जब हम परमपिता परमेश्वर की गोद में बैठें तो उससे अपना सीधा और सरल संवाद स्थापित करें। ऐसा अनुभव करें कि जैसे हम अपने पिता की शरण में आकर उससे उसका आश्रय या संरक्षण मांग रहे हैं और मां की गोद जैसी अविचल शांति का अनुभव कर रहे हैं। वहां कोई न हो, केवल मैं और मेरा पिता हो। कोई मध्यस्थ न हो, कोई बिचौलिया न हो। न कोई मूर्ति हो और न कोई अन्य ऐसा माध्यम हो जो मेरे और उनके बीच में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न करे। सीधा हृदय से निकलने वाला संवाद हो, हृदय की बात हो। वेद, ज्ञान हमारे रोम-रोम में तो बसा हो पर वह भी प्यारे पिता और हमारे बीच में कोई दीवार न बन जाए। मेरे आनंद में किसी प्रकार की औपचारिकता का खलल डालने वाला कोई न बन जाए। मैं अपनी मां से सीधे बात करूं। उसमें शब्दों की बनावट या किसी प्रकार की दिखावट या अनावश्यक शब्दाडंबर की सजावट ना हो। क्योंकि वह दयालु मेरे हृदय के सरल शब्दों को बड़े ध्यान से सुनता है, और यह सत्य है कि मैं उससे जो कुछ मांगता हूं वह उसे हर स्थिति में और हर परिस्थिति में पूर्ण करता है। इसीलिए वह पूजनीय है कि वह दयालु है, वह कृपालु है, वह हृदय से निकली हुई हर प्रार्थना को सुनता है, और अपने भक्त की झोली को भरकर ही उसे अपने दर से उठाता है। जो सच्चे हृदय से उस पूजनीय प्रभो का ध्यान करते हैं उनके भावों में उज्ज्वलता का प्राकट्य होने लगता है, उनके शब्दों में सरलता, हृदय में पवित्रता और कर्म में शुचिता का प्रदर्शन स्पष्ट दीखने लगता है।

    मेरा संवाद जब परमपिता परमात्मा से चले तो मैं उसके समक्ष आनंदविभोर हो कह उठूं-

    मधुमन्मे निष्क्रमणं मधुमन्मे परायणम्।

    वाचावदामि मधुमद् भूयासं मधु सदृश।

    (अथर्ववेद 1-34-3)

    अर्थात हे परमात्मन देव! / आपकी कृपा से मेरी कार्यनिवृत्ति माधुर्य से युक्त हो। जब मैं अल्प समय के लिए विराम लूं, तथा मैं अपने कर्तव्यों को पूर्ण कर सकूं तब कोई भी चिंता, व्यथा, पश्चाताप अपूर्ण अभिलाषा मेरे हृदय में शेष न रहें। कोई व्यग्रता या कड़वाहट शेष न रह जाए।

    किसी भी प्रकार की व्यग्रता या कड़वाहट हृदय में यदि शेष रह जाती है तो वह मानसिक शांति को भंग करती है और हमें चैन से नहीं रहने देती है, इसलिए यहां वेद का ऋषि परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करते हुए यही मांग रहा है कि मेरे हृदय में किसी प्रकार की कोई चिंता, व्यथा, पश्चाताप अपूर्ण अभिलाषा, व्यग्रता या कड़वाहट शेष न रह जाए।

    हे भगवन! आपकी कृपा से मेरी कार्य में प्रवृत्ति भी माधुर्य से युक्त हो, मैं बुरे भावों को धारण न करूं। बुरे कार्यों का आचरण न करूं। दुष्ट मनोरथों को लेकर किसी भी कार्य में मैं प्रवृत्त न होऊं। अपने साधनों तथा अपनी योग्यता का सदुपयोग करते हुए निरंतर आपकी दया और कृपा का पात्र बना रहूं। आपकी दया और कृपा का सदा आकांक्षी रहूं और मेरे जो भी कार्य संपन्न हों उन सबकी सफलता का श्रेय सहज भाव से आपकी दया और कृपा को देता रहूं।

    हे प्रभो! मेरी वाणी सत्य और माधुर्य से युक्त हो। आपकी कल्याणकारी वेदवाणी का पठन पाठन, श्रवण, मनन, निदिध्यासन, साक्षात्कार और उपदेश करने की मेरी माधुर्यमय शक्ति व सामर्थ्य उत्तरोत्तर बढ़ती रहे। मेरी स्मृतियां माधुर्य से युक्त हों। संकल्प और विकल्प मधुर हों।

    भावना में भावुकता न हो

    हे दयानिधे! मेरा जीवन शुद्ध पवित्र, उन्नत और पूर्ण स्वस्थ हो। मेरा व्यक्तित्व आकर्षक, स्निग्ध, सौम्य और मधुर हो। मेरे अंतःकरण में राग और द्वेष की भट्टी न जले। काम और क्रोध के बवंडर मेरे अंतस्तल में न उठें। अहंकार और प्रलोभन मुझे पथभ्रष्ट न करें।

    हे भगवन! आपके प्रेमी, आस्तिक पुरुषों और परोपकारी महात्माओं की संगति में रहकर मैं उत्साहपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन कर सकूं, ऐसी शक्ति सामर्थ्य, साधन, यजन और भजन मुझे दीजिए।

    सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए और इसी भाव से ओत-प्रोत रहकर मैं अपने जीवन को सफल बना सकूं। जीवन के परमलक्ष्य को पा सकूं ऐसा अनुपम साहस और उत्साह मेरे हृदय में हर क्षण भरा रहे।

    हे दीनानाथ! मुझे मधुरता प्रदान करो। निर्दोषता प्रदान करो। निर्भयता प्रदान करो। हे देवों के देव! सबके स्वामिन! हे घटघट के वासिन! मुझे मोक्ष प्रदान करो। मधुर बना दो। मधुमय बना दो। हे मेरे प्रियतम! तुझ सा बन जाऊं। हे मधुमय! मैं भी मधुमय बन जाऊं।

    ईश्वर हमारे हृदय से निकली ऐसी प्रार्थनाओं को सुनता है, और इतनी शीघ्रता से सुनता है कि इधर आप कहना आरंभ करो और उधर अपने आचार-विचार, व्यवहार कार्यशैली और जीवन में एक मनोहारी परिवर्तन होता अनुभव करो।

    कितना दयालु है मेरा दाता कि अपने पास कुछ नहीं रखता। सवाया करके हमें ही लौटा देता है। इसीलिए वह यज्ञरूप है। जैसे यज्ञ में हम जो कुछ भी समर्पित करते हैं, उसे यज्ञ अपना बनाकर अपने पास नहीं रखता, अपितु उसे हमारी ओर से संसार के कल्याण हेतु सवाया ही नहीं हजारों गुणा अधिक करके लोक-कल्याण के लिए लौटा देता है। वैसे ही हमारा परमपिता परमात्मा है, जो हमारी प्रार्थनाओं को हमें ही लौटा देता है। वह हमारी प्रार्थनाओं से हमें ही संपन्न करता है, हमें ही प्रसन्न करता है, हमें ही समृद्ध करता है और हमें ही उन्नत करता है। हमारी प्रार्थना की भावना यज्ञमयी हो जाए तो उस यज्ञरूप प्रभु का यही स्वरूप हमारे रोम-रोम में अपना प्रकाश भरने लगता है। हमारा रोम-रोम पुलकित हो उठता है और हम कह उठते हैं-

    ‘‘जिधर देखता हूं

    उधर तू ही तू है,

    कि हर शै में आता

    नजर तू ही तू है।’’

    प्रार्थना में भावना में संयोग अति आवश्यक है। क्योंकि-

    ‘‘भावना में भाव ना हो

    भावना ही क्या रही।

    भावना तो भाव ना-ना

    से सदा होती सही।।’’

    हम भावना से भावुकता को दूर रखें। यदि हमने भावना में भावुकता का सम्मिश्रण कर दिया तो अनर्थ हो जाएगा। सर्वत्र अनिष्ट ही अनिष्ट दिखाई देगा। रावण अपनी बहन शूर्पनखा द्वारा यह बताये जाने पर कि राम ने उसका विवाह प्रस्ताव नहीं माना है और इस प्रकार उसने मेरा तो अपमान किया ही है साथ ही आप जैसे प्रतापी शासक का भी अपमान (अर्थात नाक काट दी है) किया है, भावना में भावुकता का सम्मिश्रण कर गया, जिससे उसका विवेक मर गया। परिणाम क्या आया, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।

    भावना से भावुकता का मिलन होना ही अभावना का जन्म होता है। रावण के साथ जो कुछ हुआ वह उसकी अभावना ही थी। ऐसा साधक या भक्त कहीं जड़ को चेतन मान लेता है तो कहीं चेतन को जड़ मान लेने की भूल कर बैठता है। जड़मूर्ति में चेतन परमेश्वर की भावना करना ऐसी ही भावुकता का परिणाम होता है। यह भावना नहीं अभावना है। जो जैसा है, उसे वैसा ही मानना या जानना ही सच्ची भावना है। ऐसी सच्ची भावना तभी बनती है जब हमारी प्रार्थना निष्कपट, सरल और पवित्र होती है, और जब हमारी प्रार्थना में ‘स्व’ के स्थान पर ‘पर’ कल्याण की कामनाएं बलवती हो उठती हैं।

    भावना राष्ट्रीय हो

    जब व्यक्ति ऐसी कामनाओं और प्रार्थनाओं के वशीभूत होकर कार्य करने लगता है तब वह ‘राष्ट्रीय’ हो जाता है। राष्ट्रीय होने का अभिप्राय किसी प्रकार से राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो जाना नहीं है, अपितु राष्ट्रीय होने का अर्थ है सर्वमंगल कामनाओं से भर जाना और सर्वोत्थान के लिए कार्य करना। अपनी सोच में या अपनी भावना में या अपनी कृति में किसी जाति को, किसी संप्रदाय को या किसी क्षेत्र विशेष को प्राथमिकता न देना ही राष्ट्रीय हो जाना है। यदि राष्ट्रीय स्तर पर किसी की प्रसिद्धि हो जाना ही राष्ट्रीय होने का प्रमाण होती तो ऐसे बहुत से डकैत, अपराधी या आतंकी हो गये हैं या वर्तमान में हैं जिन्हें देश ही नहीं विश्व भी जानता है, पर उन्हें कोई राष्ट्रीय नहीं कहता। यहां तक कि उन्हें कोई सामाजिक भी नहीं कहता। इसके विपरीत उन्हें या तो राष्ट्रद्रोही कहा जाता है या समाजद्रोही कहा जाता है। कारण कि उनकी भावना पवित्र नहीं है, उनकी भावना में नीचता है, निम्नता है, वह यज्ञरूप प्रभो के उपासक नहीं हैं। वह यज्ञरूप प्रभो के याज्ञिक स्वरूप को नहीं ध्याते, नहीं भजते और नहीं जपते।

    हमारे यहां अश्वमेध यज्ञ की परंपरा इसीलिए रही है कि व्यक्ति जब राष्ट्र, जाति और देश के लिए अपने आप से राष्ट्र को महान समझकर राष्ट्रहित में सर्वस्व समर्पण की भावना से भर जाए, ओत-प्रोत हो जाए तब वह अश्वमेध यज्ञ करने का पात्र बनता है। इसी लिए कहा गया है- ‘‘राष्ट्रं वै अश्वमेधः’’ इस प्रकार राष्ट्रीय होने का अभिप्राय है याज्ञिक होना और याज्ञिक होने का अर्थ है-यज्ञरूप प्रभु का उपासक होना। जैसे उस परमपिता-परमेश्वर के सारे भण्डार इस विशाल जगत के लिए हैं, इसके प्राणधारियों के लिए हैं, वैसे ही राष्ट्रीय व्यक्ति के पास या किसी यज्ञ पुरुष के पास जो कुछ भी होता है वह राष्ट्र के लिए होता है। भारत में कितने ही सम्राट हो गये हैं, जिन्होंने अश्वमेध यज्ञ किये और अपना सर्वस्व राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया।

    इस प्रकार हमारे पूर्वजों ने यज्ञ को राष्ट्रीय बनाकर जीवन जिया। यज्ञ के अनुरूप अपनी भावनाएं बनायीं और अपने पास अपना कुछ न समझकर जो कुछ भी था उसे लोककल्याण के लिए समर्पित कर दिया। इसका कारण यही था कि हम यज्ञमय थे और अपना सर्वस्व प्राणिमात्र के लिए होम करने वाले प्रभो के उपासक थे। जैसा हमारा प्रभु था, या दाता था वैसी ही हमारी भावनाएं थीं। यह था हमारे यज्ञ का आधार और यह थी हमारी प्रार्थना की ऊंचाई।

    जब भक्त प्रार्थना की इस ऊंचाई को अनुभव कर लेता है या उसे स्पर्श कर लेता है तब वह कह उठता है :-

    ‘ओ३म् तच्चक्षुर्देवहितम् पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।

    पश्येम् शरदः शतं जीवेम् शरदः शतं

    श्रणुयाम् शरदः शतं प्रब्रवाम् शरदः शतमदीनाः

    स्याम् शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।।’

    (यजु. 36/24)

    यहां भक्त कह रहा है कि हे स्वप्रकाश स्वरूप प्रकाशमान सर्वेश्वर! आप सबके दृष्टा सब को देखने वाले और जानने वाले देवों के परम हितकारक तथा पथ प्रदर्शक हैं। सृष्टि से पूर्व वर्तमान तथा प्रलय के अनंतर भी वर्तमान रहने वाले विज्ञानस्वरूप आप अनादि रूप से सब कालों में विद्यमान हैं। प्राणिमात्र को ऊपर उठाने वाली तथा उनकी उन्नति में सहायक शक्तियों को बीज रूप में आपने स्वकृपा से, सबको प्रदान कर रखा है। हे प्रभु ऐसी कृपा करो कि आपके सहाय व स्वपुरुषार्थ से हम इन शक्तियों का जीवन पर्यन्त सदुपयोग करते रहें।

    आपकी ही कृपा से हम आपके आनंदमय स्वरूप का ध्यान शतायु पर्यंत करते रहें। हमारी देखने, परखने, अनुभव करने तथा ज्ञान वर्धन करने वाली समस्त शक्तियां निरंतर विकसित होती रहें, अपने जीवन को हम सौ वर्षों तक जीवंत अर्थात कार्यकुशल बनाये रखें। कानों से और वाणी से आप ही का वेद ज्ञान हम सौ वर्ष पर्यंत सुनें तथा सुनाते रहें। आपकी ही सामीप्यता हर समय अनुभव करते हुए सौ वर्ष तक अदीनतापूर्वक जीवनयापन हम करते रहें। कभी भी किसी के पराधीन न हों। आपकी कृपा से यदि सौ वर्ष से भी अधिक आयु हमको प्राप्त हो तो भी हम आपकी छत्र छाया में ही स्वाधीनता पूर्वक विचरें। आपके दर्शन में मग्न हमारी आत्मा सदा शांत रहे यही हमारी आपसे बारंबार प्रार्थना है।

    वेद का ऋषि केवल सौ वर्ष तक जीने की इच्छा नहीं कर रहा, अपितु वह साफ कह रहा है कि सौ वर्ष से भी अधिक वर्ष तक हम अपनी इन कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों से सफलतापूर्वक कार्य संपादन करते रहें। जब इंद्रियां व्यसनों में फंस जाती हैं तो मनुष्य के मनुष्यत्व को पटक-पटक कर मारती हैं और उसका सर्वनाश कर डालती हैं। वेद का ऋषि व्यक्ति को ऐसी दुर्दशा से बचाने के लिए यहां पर यह प्रार्थना कर रहा है कि हमारी प्रत्येक ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय में ऐसी शक्ति व सामर्थ्य प्रदान करो जो हमें उन्नत जीवन जीने में सहायता प्रदान करने वाली हो।

    तब इंद्रियां भी वश में हो जाती हैं

    कर्मेंद्रियां और ज्ञानेंद्रियां तभी हमारे नियंत्रण में रह सकती हैं जब भावों में उज्ज्वलता होगी। यदि भावों की उज्ज्वलता समाप्त हो गई तो ज्ञानेंद्रियां और कर्मेंद्रियां स्वयं ही पथभ्रष्ट हो जाएंगी। क्योंकि ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों का संबंध सूक्ष्म रूप से हमारे भावों के सूक्ष्म जगत से है। यदि भावों का सूक्ष्म जगत बिगड़ जाता है तो कर्मेंद्रियां और ज्ञानेंद्रियां अपने आप बिगड़ जाती हैं। क्योंकि यह सब मन के द्वारा संचालित होती हैं और मन भावों से संचालित होता है। यही कारण है कि हमारे ऋषि लोगों ने भावों की उज्ज्वलता को अधिक महत्वपूर्ण माना है। उन्होंने इस विज्ञान को समझा और गहराई से अनुभव किया कि भावों की उज्ज्वलता से ही बाहर का संसार बनता है। इसलिए इस प्रार्थना की प्रथम पंक्ति अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस पर जितना ही अधिक चिंतन मनन किया जाएगा, उतना ही यह हमारे जीवन पर सार्थक और सकारात्मक प्रभाव डालने में सक्षम व सफल होगी।

    अध्याय 2

    छोड़ देवें छल-कपट को

    प्रार्थना की अगली पंक्ति-‘छोड़ देवें छल-कपट को मानसिक बल दीजिए’ है। यह पंक्ति भी बड़ी सारगर्भित है। इसमें भी भक्त अपने शुद्ध, पवित्र अंतर्मन से पुकार रहा है कि मेरे हृदय में कोई कपट कालुष्य ना हो, कोई मलीनता न हो। यह पंक्ति पहली वाली पंक्ति अर्थात ‘पूजनीय प्रभो! हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए’ की पूरक है, और उसकी फलश्रुति भी कही जा सकती है। पूरक तो इसलिए कह सकते हैं कि भावों की उज्ज्वलता तभी मानी जा सकती है जब हमारा हृदय निष्कपट और निश्छल हो, और फलश्रुति इसलिए कही जा सकती है कि भावों की उज्ज्वलता से ही हृदय निष्कपट और निश्छल बनाया जा सकता है।

    इस पंक्ति में एक विशेष बात कह दी गयी है कि हमें हे प्रभो! आप मानसिक बल दीजिए। ये मानसिक बल ऐसे ही नहीं मिलता, इसके लिए एक गंभीर और ठोस साधना करनी पड़ती है, बहुत अधिक संभलकर चलना पड़ता है, और मन के अंधकार को मिटाने के लिए अंतर्मुखी होना पड़ता है। मन को अंधकार का उपासक न बनाकर प्रकाश का पुजारी या उपासक बनाना पड़ता है। मन अंधकार से निकलकर ज्ञान के प्रकाश में जितना ही अधिक गोते लगाने लगता है, पता चलता है कि उतना ही हमारी सोच में परिवर्तन आता जाता है। परिवर्तन भी ऐसा कि आप स्वयं कह उठेंगे-

    सोच बदलो तो सितारे बदल जाएंगे।

    नजर बदलो तो नजारे बदल जाएंगे।

    कश्तियां बदलने की जरूरत नही,

    दिशा बदलो तो किनारे बदल जाएंगे।

    वास्तव में ही हमारी दृष्टि में सृष्टि समाविष्ट है। इसीलिए कहा गया है कि ‘‘जैसी होगी दृष्टि-वैसी होगी सृष्टि।’’ नजर और नजरिए का भी बड़ा अद्भुत मेल है।

    जब परमेश्वर के गुण गाने की हमारी प्रवृत्ति हमारी प्रकृति के साथ हृदय से तारतम्य स्थापित कर लेती है और प्रभु के नाम जाप में आनंदानुभूति लेने लगती है, तब मन की दिशा में सकारात्मक परिवर्तन आ जाता है, तब हमारा मन संसार की ओर नहीं भागता, अपितु वह संसार की ओर से परमेश्वर की ओर गति करने लगता है। ऐसी अवस्था हमारे जीवन के उत्थान की प्रतीक होती है। ऐसी अवस्था में हमारा मन ‘जब संसार वाले’ की ओर भागने लगता है और उसी के गीतों में आनंद लेने लगता है, तब पता चलता है-

    परमेश्वर के गुण गाने से

    खुशियों की दौलत मिलती है।

    मन से छल-कपट मिटाने से

    खुशियों की दौलत मिलती है।।

    जब जिह्वा पर परमेश्वर के गुणों की चर्चा होने लगे और रसना उसी के मधुर गीत गाने लगे, जब हमारे श्वांसों की सरगम में परमेश्वर के गीत भासने लगें तब समझना चाहिए कि हमारे दुर्भाग्य के दुर्दिन हमसे दूर हो रहे हैं और हमारे सौभाग्य का उदय हो रहा है। हमारे भीतर सर्वांशतः व्यापक स्तर पर परिवर्त्तन हो रहा है। हमारे भीतर और बाहर सर्वत्र क्रांति व्याप रही है। परिवर्तन की टंकार का नाद हो रहा है, पुरातन के स्थान पर सनातन अधुनातन बनकर स्थान ग्रहण कर रहा है, जिसे हमारी आत्मा अनुभव कर रही है। जब आत्मा इस नाद का अनुभव करने लगे - तब यह समझना चाहिए कि मानसिक बल अपना रंग दिखाने लगा है, हमने मन की गति को समझ लिया है और उसे नियंत्रित करने में भी हमने सफलता प्राप्त कर ली है।

    क्या कहता है मुंडकोपनिषद का ऋषि

    ‘मुण्डकोपनिषद’ (खण्ड-1 मंत्र-10) में कहा गया है जब विद्वान उपासक योगी पुरुष प्रकृति का आधार छोड़कर अपने विशुद्ध सत्व आत्मदिव्य स्वरूप से निष्केवल = परमशुद्ध परमात्मा के ही आधार में मृत्यु को उल्लंघन करके अमृत=मोक्षसुख को प्राप्त होता है तब जिस-जिस सूर्यादि लोक में पहुंचने का मन से संकल्प अर्थात इच्छा व्यक्त करता है, और जिन सुख भोगों की अभिलाषा करता है, उस-उस लोक और उन सब कामनाओं को प्राप्त होता है। इसलिए योग संबंधी सिद्धियों के चाहने वाले जिज्ञासु पुरुष को उचित है कि ब्रह्मज्ञानी महात्मा की सेवा-सुश्रूषा सत्कार अवश्य करे।

    यह

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1