Vikas Ka Path - (विकास का पथ)
By Swett Marden
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स्वेट मार्डेन की पुस्तकों के अध्ययन से करोड़ों व्यक्तियों ने आत्मशुद्धि, कार्य में निष्ठा के साथ-साथ जीवन में उत्साह व प्रेरणा प्राप्त की है। आप भी इन्हें पढ़िये और अपने मनोरथों को प्राप्त करने का आनंद उठाइये। प्रस्तुत पुस्तक कदम-कदम पर मार्गदर्शन करती हुई आपका जीवन बदल सकती है।
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Vikas Ka Path - (विकास का पथ) - Swett Marden
बाधक
1. जीवन की खुशियां और सुख
प्राय: लोग सोचते हैं कि प्रसन्नता धन से प्राप्त की जा सकती है। अधिक धन होगा तो अधिक भौतिक वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं। अधिक वस्तुओं को प्राप्त कर ज्यादा प्रसन्नता प्राप्त की जा सकती है। परन्तु क्या अधिक धन से मन की सच्ची प्रसन्नता खरीदी जा सकती है?
मानव-ईश्वर की सर्वोत्तम सृष्टि है। जिसे स्रष्टा ने संसार की अपार सम्पदाओं का स्वामी बनाकर सुखी जीवन जीने और प्रसन्न रहने का वरदान दिया है। एक महान रसायन-शात्री की तरह प्रकृति ने वायुमण्डल में ऐसे तत्व मिला दिए हैं जो मानव को स्वास्थ्य, सौन्दर्य और प्रसन्नता सब एक साथ प्रदान कराते हैं। जॉन वानमेकर ने कहा है-सूर्योदय के साथ ही मेरी आत्मा का सूर्य भी उदय हो जाता है।
सूर्योदय संसार में मानव, पशु, पक्षी, जड़, चेतन सभी में नया जीवन भर देता है और वह सूर्य सभी के लिए मुक्त दान है।
फिर भी युगों से मानव सुख की खोज में भटक रहा है। वह न तो सन्तुष्ट है न प्रसन्न।
प्रसन्नता के विषय में कई तरह के विचार प्रचलित हैं। प्राय: लोग सोचते हैं कि प्रसन्नता धन से प्राप्त की जा सकती है। अधिक धन होगा तो अधिक भौतिक वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं। अधिक वस्तुओं को प्राप्त कर ज्यादा प्रसन्नता प्राप्त की जा सकती है। परन्तु क्या अधिक धन से मन की सच्ची प्रसन्नता खरीदी जा सकती है?
मुझे एक ऐसे परिवार की जानकारी है जो अपनी आय में सुख और प्रसन्नता का जीवन जी रहा था। अचानक उस परिवार को बहुत-सा धन मिल गया। एकदम उस परिवार के मन में अधिक सुख-भोग की लालसा जाग उठी। उसके रहन-सहन और व्यावहारिक जीवन में परिवर्तन आ गया। वह परिवार अपने से अधिक सम्पत्र और धनी व्यक्तियों के साथ मेलजोल बढ़ाने लगा। अपने से अधिक धनी व्यक्तियों को देखकर उनके मन में दुःख होता। फलस्वरूप उस परिवार की पहले जैसी खुशियां लुप्त हो गईं, वह असन्तुष्ट और अप्रसन्न रहने लगा। उस परिवार के मन में दूसरों के प्रति ईर्ष्या और द्वेष के भाव पनपने लगे। इस तरह थोड़े ही दिनों में राजसी ठाट-बाट से रहने और व्यवहार करने में जो कुछ भी उनके पास था सब खर्च हो गया। परिवार की लड़कियों को अपने से अधिक धनी परिवारों में विवाह करने के कारण कपड़े वालों, दर्जियों और जौहरियों आदि का देना बाकी रह गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि उस परिवार को अपना पैतृक मकान तक बेचना पड़ा और उनका सुख और चैन खत्म हो गया।
संसार में आधे लोगों की अप्रसन्नता का कारण है-दूसरों से ईर्ष्या और अपने से असन्तोष। हम कभी अपने वर्तमान जीवन से खुश नहीं होते क्योंकि हम जो कुछ हैं उससे सन्तुष्ट नहीं होते और जो नहीं है, उसे प्राप्त करने की लालसा में वर्तमान के आनन्द को भी खो देते हैं। किन्हीं बड़ी-बड़ी कल्पनाओं में अनोखे अवसरों की प्रतीक्षा करते हैं जो अनायास ही हमारे जीवन में खुशियां भर देंगे। साधारण बातों का हमारे जीवन में कोई महत्त्व नहीं होता। यही हमारा अप्रसन्नता का और असन्तुष्टि का सबसे बड़ा कारण है।
डा. फ्रेंक ने कहा है-संसार की सताई आत्माएं ही सदा उसे अपनी इच्छाओं पर झुकाने का प्रयास करती रहती हैं।
हम सभी सुखमय संसार की खोज में अपने वर्तमान सुख भरे संसार को भुला देते हैं और अप्रसन्न रहते हैं। हम अनोखे काल्पनिक संसार के वैभव को प्राप्त करने के लिए स्वप्न देखने लगते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह एक लोककथा के अनुसार एक लड़का देखा करता था।
पहाड़ी के शिखर पर बनी एक टूटी-फूटी झोपड़ी में एक लड़का रहता था। सूर्यास्त के समय वह नित्य ही झोपड़ी के दरवाजे पर बैठकर घाटी के नीचे दूर तक फैले मैदान की ओर देखता रहता। निर्धन होते हुए भी वह अपने मन में धनवान बनने के सपने लिया करता। झोपड़ी के दरवाजे पर बैठा वह एक सुन्दर महल की कल्पना करता जिसकी सुन्दर खिड़कियां दूर से चमकती हों। थोड़े ही दिनों में उसे ऐसा आभास होने लगा कि घाटी के नीचे एक सुन्दर महल है जिसकी सुनहरी खिड़कियां उसे अपनी ओर आकर्षित कर रही हैं। वह अपनी कल्पनाओं में खोया उस अद्भुत जादुई महल के सपने देख रहा था। उसे लगा कि उस महल की सुनहरी खिड़कियां उसे बुला रही हैं। उस लड़के ने घाटी के नीचे उस महल में जाने का निश्चय कर लिया। अगले दिन सूर्योदय से पहले ही वह उस ओर चल पड़ा। उत्साह से भरा हुआ वह लड़का उस ओर धूल भरे रास्ते पर, सूर्य की देने वाली तेज किरणों की परवाह किए बिना उस महल को पाने के लिए और आगे बढ़ता गया।
सूर्यास्त के समय तक वह घाटी के अन्तिम छोर तक जा पहुंचा। अचानक सामने की ओर उसे एक टूटा-फूटा मकान दिखाई दिया। जिसकी खिड़कियां टूटे और गन्दे कांच की थीं। अरे! वह सुन्दर महल कहां गया जिसकी खिड़कियां सुनहरी थीं। प्यास और थकान से चूर उस लड़के के मुंह से आह निकली और वह टूटे-फूटे मकान की ओर पीठ करके जमीन पर गिर पड़ा। कुछ देर रोते रहने के बाद जब उसका मन कुछ संयत हुआ तो उसने आंसू भरी आंखों से घाटी के ऊपर नजर डाली। अस्त होते सूर्य की किरणों में उसकी छोटी-सी झोपड़ी और उसकी खिड़कियां सुनहरी आभा से चमकती दिख रही थीं।
जीवन की खुशियां और सुख हमें प्राय: उसी धरती पर दिखाई देते हैं जहां हम नहीं हैं। हमें भी दूर का सुनहरी भवन बुलाता है और हम उसी अबोध बालक की भांति संसार में मृगतृष्णाओं के पीछे भागने लगते हैं। हम सोचते हैं आज नहीं, लेकिन एक दिन जाकर उस सौन्दर्य-लोक तक पहुंच जायेंगे। परन्तु क्या आज तक कोई उस दूर से चमकने वाले महल तक पहुंच पाया है? हम कल्पना करते हैं कि किसी चमत्कार से अथवा धन से उस जादुई महल को प्राप्त कर लेंगे जिनके हम सपने देखते हैं। इस तरह हम अपने वर्तमान सुख से वंचित रह जाते हैं।
कुछ लोग तो यह भी नहीं जानते हैं कि वे चाहते क्या हैं? वे बस इतना जानते हैं कि वे दुःखी हैं, अप्रसन्न हैं। प्रसन्नता को पाने के लिए वे संसार में भटकते फिरते हैं लेकिन व्यर्थ! ऐसे कितने निराश और असन्तुष्ट लोग हैं जो अपनी अप्रसन्नता का कोई कारण बता सकें।
मैं ऐसे बहुत-से लोगों से मिला हूं जो जीवन से बिल्कुल ही निराश हो चुके हैं। उन्हें वैसा जीवन नहीं मिला जिसकी वे कल्पना करते थे। यौवन के स्वप्नों के साथ आगे बढ़ने पर उन्हें जीवन में और भी निराशा ही मिली, जीवन और भी सूना-सूना लगने लगा। वह चमकती हुई चीज जो दूर से बुला रही थी, पास जाने पर और दूर चमकती दिखाई देने लगी।
कल तक हम जिस चीज को पाने के लिए जी-जान से कठोर संघर्ष कर रहे थे, आज उसी को पाकर हम प्रसन्न नहीं होते। प्राप्त वस्तु से हटकर हम और दूसरी चीज को पाने के लिए संघर्ष करने लगते हैं। हम सोचते हैं अमुक वस्तु पा लेने पर हमें वास्तविक प्रसन्नता प्राप्त होगी। परन्तु उसे प्राप्त करने के बाद दूसरी वस्तुएं हमें अपनी ओर आकर्षित करती हैं और परिणाम वही होता है-निराशा, असन्तुष्टि और अप्रसन्नता। हम सारी आयु निराशा और अप्रसन्नता में बिता देते हैं।
एक विचारक के अनुसार-अप्रसन्नता तो मनुष्य की अपनी ही परछाई की तरह है। हम जितना इसके पीछे भागते हैं उतना ही यह हमसे दूर भागती जाती है।
सच्चाई तो यह है कि प्रसन्नता या सुख इच्छाओं की पूर्ति में नहीं वरन् अपनी आत्मा की सन्तुष्टि में हैं।
संसार के महान कहानीकार टॉलस्टाय ने एक कहानी के माध्यम से इस बात को बड़े सुन्दर ढंग से बताया है। कहानी का नायक एक साधारण किसान है जिसके पास अपनी कोई जमीन नहीं है। वह नौकरी करके बड़ा सुखी जीवन जी रहा था कि उसे ज्ञात हुआ कि उसका मालिक अपनी जमीन बेच रहा है। उसने भी जैसे-तैसे थोड़ी-सी जमीन खरीद ली। लेकिन वह इतने से सन्तुष्ट नहीं हुआ और अधिक जमीन खरीदने की लालसा उसके मन में जाग्रत हो गई। वह सोचता, यदि और अधिक धन होता तो और अधिक जमीन खरीद लेता। वह धन प्राप्त करने के लिए अथक परिश्रम करने लगा। जीवन में और सुख प्राप्त करने की लालसा उसे विनाश के कगार पर ले गई और उसने अपना जीवन नष्ट कर लिया।
भौतिक वस्तुओं से हमें क्षणिक सुख ही मिल सकता है, वास्तविक प्रसन्नता नहीं। जिस तरह गरमी के दिनों में आइसक्रीम, सोडावाटर या ठंडी कॉफी प्यास तो बुझा देती है, मगर जो आनन्द ठंडे पानी से प्यास बुझाने में आता है, वैसा आनन्द आइसक्रीम आदि से नहीं। वास्तविक प्रसन्नता तो आत्मा के आनन्द से मिलती है।
हेनरी हुमैड लिखते हैं कि-संसार के आधे से अधिक लोग प्रसन्नता को सही ढंग से नहीं खोजते। उनके विचार में प्रसन्नता दूसरों द्वारा दी गई सुख-सुविधाओं के उपयोग करने में है। जबकि सच्चाई यह है कि प्रसन्नता दूसरों को देने और उनका उपकार करने में है।
हम मधुमक्खी से सीख ले सकते हैं। मधुमक्खी को शहद बना-बनाया नहीं मिलता। शहद बनाने के लिए वह एक-एक फूल से थोड़ा-थोड़ा मधु इकट्ठा करती है। इसके लिए उसे कठिन श्रम करना पड़ता है। मधुमक्खी की तरह हम भी जीवन के बगीचे से कठिन श्रम करके ही प्रसन्नता का मधु प्राप्त करते हैं।
प्रसन्नता किसी की दासी नहीं है। इसे कोई बांधकर नहीं रख सकता। यह तो जीवन का वह अनमोल खजाना है जिसकी कीमत चुकाने पर ही कोई इसे प्राप्त कर सकता है। हमें थोड़ी-सी खुशी उस समय मिलती है जब हम किसी दूसरे के लिए कोई त्याग करते हैं। किसी दुःखी व्यक्ति के दुःख का भार जब हम कुछ कम कर देते हैं तब भी हमें खुशी होती है। प्रसन्नता एक ऐसी अमूल्य देन है जो हमारे अच्छे विचारों, दूसरों की भलाई के लिए किये गये कामों और निःस्वार्थ सेवा करने से प्राप्त होती है।
अब्राहम लिंकन ने कहा है कि-लोग अपने मन में जितनी प्रसन्नता पाने का निश्चय करते हैं उतनी ही प्रसन्नता उन्हें मिलती है।
विश्व एक गुम्बद जैसा है। हम जैसी आवाज निकालेंगे वैसी ही आवाज उस गुम्बद में लौटकर आयेगी। वह तो एक शीशे के समान है जिसमें अपनी ही छाया दृष्टिगोचर होती है। हम सबको इसका अनुभव होगा कि जब हम खुश होते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि समस्त प्रकृति खुशी से झूम रही, नाच रही है। इसके विपरीत जब हम उदास और दुःखी होते हैं तो लगता है कि प्रकृति भी रो रही है। यदि हम प्रकृति के सौन्दर्य को अपने मन में भर लें तो समूची सृष्टि हमें आनन्द से भर देगी।
युगों से मानव प्रसन्नता की खोज में भटक रहा है पर कितनों ने इसे पाया है? इसका यही कारण है कि हमने अभी तक ईसा के इन महान शब्दों को नहीं समझा है-ईश्वर का राज्य तुम्हारे हृदय में है।
ईसा ने यही कहा था जब हम अपना सम्बन्ध प्रसन्नता के अमर स्रोत ईश्वर से जोड़ लेते हैं, तब हमें प्रसन्नता की स्वत: प्राप्ति हो जाती है। हम अपने चारों ओर बिखरे सृष्टि के सौन्दर्य को जान लेते हैं। आज तक मानव इस भ्रम में रहा है कि धन या वैभव ही समस्त सुखों का द्वार है। बाहर की भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति से ही प्रसन्नता की प्राप्ति हो सकती है, उसने अपने हृदय में उस आनन्द को नहीं खोजा। सुख की खोज में वह सारे संसार में भटकता रहा, उसी तरह जिस तरह सुगन्धि को पाने के लिए मृग अपने अन्दर न देखकर बाहर ही खोजता फिरता है। यदि उस अलौकिक आनन्द को हम अपने हृदय में ढूंढ़ लेते तो हमारे चेहरे पर एक अनोखी आभा चमकने लगती। हम उस प्रसन्नता के खजाने को पा लेते जिसे देखकर कोई भी कह सकता था कि हमारा भाग्य सितारा चमक उठा है।
यह सभी जानते हैं कि मनचाही वस्तु पा लेने पर लोग कितने प्रसन्न होते हैं। निराशा-आशा में बदल जाती है। उदासी और दुःख, उल्लास और आनन्द में परिवर्तित हो जाते हैं। व्यक्ति बिल्कुल दूसरे लोक का प्राणी दिखाई देने लगता है। एकदम मानो किसी जादू के स्पर्श से उसमें नये जीवन का संचार हो जाता है। सच तो यह है कि ईश्वर की सन्तान को हमेशा खुश रहना चाहिए, शोकाकुल नहीं। यही उल्लासमय जीवन हम सभी को जीना चाहिए। हृदय का आनन्द हमारे चेहरे पर झलकना चाहिए और आत्मा का आनन्द हमारी आंखों से प्रकाश बनकर बिखरना चाहिए।
नवीन विचार-दर्शन के अनुसार प्रसन्नता आपकी आत्मा की सम्पत्ति है जिसे आप जब भी चाहें प्राप्त कर सकते हैं। प्रसन्नता कोई बाहर की वस्तु नहीं है। यह तो अपने हृदय में हर समय मौजूद रहती है।
अंधविश्वास मनुष्य के दुःखों का एक प्रमुख कारण है। अंधविश्वासी यह समझते हैं कि प्रसन्नता इस धरती की वस्तु नहीं है। वह तो किसी दूसरे लोक (स्वर्ग) की वस्तु है जो मृत्यु के बाद ही मिल सकती है। धर्म प्रचारकों द्वारा डाले गए ये भ्रम सम्पूर्ण मानवता के लिए अभिशाप सिद्ध हुए हैं। प्राचीन विचारकों ने प्रसन्नता को जीवन के लिए आवश्यक रूप में कभी नहीं देखा जिसके बिना मनुष्य का जीवन नीरस और बेजान हो जाता है। बहुत-से विचारक तो खेल को भी राक्षसी आचरण मानते हैं। वे तो यह भी भूल गए कि खेलने से शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न होता है। खेलना-कूदना जीवन के लिए कितना आवश्यक है। यदि मनुष्य की क्रीड़ा-प्रवृत्ति को बलपूर्वक दबा दिया जाये तो मनुष्य पागल या अपराधी बन सकता है। वे प्रचारक यह नहीं समझ सके। शताब्दियों तक ये पुजारी लोगों को खेलने से रोकते रहे। उनका मानना था कि खेलना सभी बुराइयों की जड़ है।
धर्म प्रचारकों ने ऐसे-ऐसे विचित्र भय और अंधविश्वास मानव