Chinta Chhodo Sukh Se Jiyo - (चिन्ता छोड़ो सुख से जिओ)
By Swett Marden
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स्वेट मार्डेन की पुस्तकों के अध्ययन से करोड़ों व्यक्तियों ने आत्मशुद्धि, कार्य में निष्ठा के साथ-साथ जीवन में उत्साह व प्रेरणा प्राप्त की है। आप भी इन्हें पढ़िये और अपने मनोरथों को प्राप्त करने का आनंद उठाइये। प्रस्तुत पुस्तक कदम-कदम पर मार्गदर्शन करती हुई आपका जीवन बदल सकती है।
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Chinta Chhodo Sukh Se Jiyo - (चिन्ता छोड़ो सुख से जिओ) - Swett Marden
हैं
भूत और भविष्य की चिन्ता
दूरस्थ तथा संदिग्ध कार्यों को छोड़ सन्निकट एवं निश्चित कार्यों को हाथ में लेना ही हमारा मुख्य ध्येय होना चाहिए।
सर विलियम ओसलर नामक युवक ने सन् 1871 के वसन्त में उपरोक्त वाक्य एक पुस्तक में पढ़ा, जिसने उसके भविष्य को अत्यन्त प्रभावित किया। यह युवक मॉन्ट्रियल जनरल हॉस्पिटल में चिकित्सा-शास्त्र का विद्यार्थी था और उसे निर्णायक परीक्षा में सफलता प्राप्त करने की अत्यधिक चिन्ता रहती थी। वह क्या करे? कहां जाए? चिकित्सक वृत्ति कैसे प्राप्त करे? तथा जीविका कैसे कमाये? ऐसी अनेक चिन्ताएं उसे घेरे रहती थीं। टॉमस कार्लाइल के उपरोक्त वाक्य ने उसे इतना प्रभावित किया कि वह अपने समय का एक प्रसिद्ध चिकित्सक बन गया। यहां तक कि उसने विश्व-विख्यात जॉन्स हॉपकिंस स्कूल ऑफ मेडिसिन्स
का संगठन किया तथा ऑक्सफोर्ड के चिकित्सा शास्त्र विभाग में रेजियस प्राध्यापक नियुक्त हुआ। इंग्लैण्ड के सम्राट ने उसे ‘नाट’ की उपाधि प्रदान की और उसकी मृत्यु के पश्चात् एक सहस्र चार सौ छियासठ पृष्ठों के वृहद ग्रन्थों में उसकी जीवनी लिखी।
सर विलियम ओसलर ने एक लोकप्रिय पुस्तक का निर्माण किया तथा चार विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक का कार्य संभाला। उनकी महान् सफलता का रहस्य था उनका आज की परिधि में रहना।
येल के छात्रों को उन्होंने बताया था कि-अतः मेरा आपसे आग्रह है कि आप भी अपने इस मस्तिष्क यन्त्र पर नियन्त्रण रखना सीखिए जिससे कि आप आज की परिधि में रह सकें और आपकी जीवन यात्रा सुरक्षित हो जाए। अपने मस्तिष्क-यन्त्र का बटन दबाकर मृतव्यतीत और अज्ञात भविष्य को लौह कपाटों में जड़ दीजिए। जीवन के प्रत्येक स्तर पर यह प्रयोग कीजिए और आपको विदित होगा कि आज के लिए आप सर्वथा सुरक्षित हैं।
बीती ताहि बिसार दे!
क्योंकि इसी बीती की चिन्ता ने कितनी ही मूढ़ात्माओं को विकराल काल की राह पर धकेल दिया है। विगत और आगत का बोझ एक साथ वर्तमान में ओढ़कर चलने वाला प्रचण्ड पराक्रमी भी लड़खड़ा जाता है। आगत को भी विगत ही की तरह दृढ़ता से भूल जाइए। आपका काल
आज है। यों, कल नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। मानव की मुक्ति वर्तमान से है। भविष्य की चिन्ता करने वाले की शक्ति व्यर्थ में नष्ट होती है। मानसिक क्लेश और स्नायु कष्ट उसके पीछे लग जाते हैं। अतः मेरा आपसे आग्रह है कि आगत और विगत आज की परिधि में रहने के अभ्यस्त हो जाइए।
सर विलियम ओसलर का अभिप्राय यह कदापि नहीं था कि हम भविष्य के लिए सम्यक आयोजन करें ही ना। उनके अनुसार भविष्य के लिए सम्यक आयोजन करने का उपयुक्त उपाय तो यही है कि अपनी समग्र बुद्धि और अदम्य उत्साह के साथ आज का कार्य उत्तम विधि से करने में जुट जाएं।
येल के छात्रों को सर विलियम ओसलर ने सलाह दी कि वे अपनी दिनचर्या ईसा की इस प्रार्थना से आरम्भ करें-
हे प्रभु केवल आज का भोजन जुटा दो!
पाठकों को ध्यान देना चाहिए कि यह प्रार्थना केवल आज के भोजन के लिए है इसमें कल की बासी रोटी की शिकायत नहीं है इसमें नहीं कहा गया है कि हे प्रभु! यदि सूखा पड़ गया तो आगामी पतझड़ में रोटी कहां से नसीब होगी या कहीं रोजी जाती रही तो मेरा उदर-पोषण कैसे होगा?
चूंकि आज की रोटी आपकी अपनी है इसलिए प्रार्थना में केवल आज की रोटी की ही याचना करनी चाहिए, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। वर्षों पूर्व के निर्धन दार्शनिक का कथन था, कल की चिन्ता छोड़ दो, कल अपनी सुध आप ही लेगा। आज की कठिनाइयां ही आज के लिए क्या कम हैं?
लोगों का कहना है कि कल की चिन्ता तो करनी ही पड़ेगी। परिवार की सुरक्षा के लिए बीमा भी कराना ही होगा, वृद्धावस्था के लिए बचत भी करनी होगी।
ठीक है, भविष्य के लिए योजनाएं अवश्य बनाइए पर पहले प्रभु ईसा के वचनों का तात्पर्य समझने की चेष्टा कीजिए! कल की चिन्ता छोड़ दो
-से तात्पर्य है कल पर विचार अवश्य कीजिए, उस पर मनन कीजिए, योजनाएं बनाइए, तैयारियां कीजिए, किन्तु उसके लिए चिंतित मत होइए।
हमारे वर्तमान जीवन की विचित्रता में से एक यह भी है कि अस्पतालों में आधे से अधिक स्थान उन रोगियों के लिए रहते हैं जो स्नायु रोगों से अथवा मानसिक रोगों से पीड़ित रहते हैं और भूत और भविष्य की चिन्ता में पिसकर रह गये हैं। उन रोगियों में से अधिकांश आज भी सुखद एवं उपयोगी जीवन व्यतीत करते; यदि वे ईसा के या सर विलियम ओसलर के उन शब्दों पर ध्यान देते जिनमें कमशः कल की चिन्ता छोड़ो
और आज की परिधि में रहो
की सलाह दी गई है।
इस समय हम भूत और भविष्य के संधि-स्थल पर खड़े हैं। एक ओर विशाल भूत है जो कभी वापस नहीं आएगा और दूसरी ओर भविष्य है जो तेजी से हमारी ओर बढ़ रहा है। वर्तमान की उपेक्षा करके पलमात्र के लिए भी हम उन दोनों युगों में से किसी एक के होकर नहीं जी सकते। ऐसे प्रयास से हमारा शारीरिक एवं मानसिक ह्रास हो जाता है। अतः जिस काल में हमारे लिए रहना संभव हो उसी काल में रहकर हमें संतोष कर लेना चाहिए।
रोमन कवि होरस ने ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व निम्न उद्धृत पद्यांश की रचना की थी लेकिन ऐसा लगता है यह पद्यांश मानो आधुनिक युग की रचना हो; इसी युग की अभिव्यक्ति हो। आप भी पढ़िए और मनन कीजिए-
"सुखी मानव तो वही है
आज को अपना बना ले,
और हो आश्वस्त कह दे,
जी लिया बस आज मैं तो
कल, जो करना हो तू कर ले।
मानव प्रकृति की अत्यन्त सोचनीय प्रवृत्ति है कि वह वस्तुस्थिति से पलायन कर जाता है। अपने गवाक्ष के बाहर इठलाते उन विकसित पुष्पों के सौन्दर्य की उपेक्षा करके वह अन्तरिक्ष के काल्पनिक नन्दनवन में खो जाता है।
आखिर हम ऐसी मूर्खता क्यों करते हैं? इतने दयनीय एवं मूढ़ क्यों बन जाते हैं?
ईसा से पांच सौ वर्ष पूर्व एक ग्रीक दार्शनिक हेराक्लीट्स ने अपने छात्रों को बड़े पते की बात बताई थी कि सब कुछ बदलता है, केवल परिर्वतन का नियम नहीं बदलता।
अपने इस कथन को स्पष्ट करते हुए उसने कहा कि बहती सरिता के पल-पल परिवर्तित जल में एक बार पैर रखकर, उसी जगह पुनः उसी जल में पैर नहीं रखा जा सकता, क्योंकि जब तक तो वह बहने वाला जल बह चुका होता है। सरिता का जल पल-पल परिवर्तित और प्रवाहित होता रहता है। यही नियम मानव जीवन के साथ भी सार्थक सिद्ध होता है। जीवन निरन्तर बदलता रहता है इसलिए
आज ही शाश्वत है। फिर, निरन्तर परिवर्तित, अनिश्चित एवं अनबुझे भविष्य की गुत्थियां सुलझाने में आज के सुख को नष्ट क्यों किया जाए?
प्राचीन रोमन लोगों का भी कथन है कि आज को हाथ से न जाने दो, आज का पूर्ण उपभोग करो।
नोबेल टॉमस का दर्शन भी यही है। वहां उनके ब्राडकास्टिंग स्टूडियो की दीवारों पर जहां प्रायः उनकी दृष्टि पड़ती रहती थी, उन्होंने ये शब्द लिख रखे थे–यह आज ईश्वरीय सृष्टि है। हम इसे भोगेंगे और इसमें प्रसन्न रहेंगे।
जॉन रस्किन अपनी डेस्क पर साधारण पत्थर का एक टुकड़ा रखते थे जिस पर आज
शब्द अंकित था। डेल कारनेगी ने अपने दर्पण पर जिसमें वह रोज सवेरे दाढ़ी बनाते, अपनी छवि देखते हैं, भारत के प्रसिद्ध कवि कालिदास की निम्नलिखित कविता लगा रखी है। इसी कविता को सर ओससर भी अपनी डेस्क पर रखते थे-
ऊषा अभिनन्दन
आज
का स्वागत करो!
यही जीवन है, जीवन का सार है।
मानव अस्तित्व की सभी विविधताएं,
वास्तविकताएं, इसी में निहित हैं।
इसमें विकास का वरदान है,
कर्म का माहात्म्य है और सिद्धि का वैभव है
भूत सपना है और भविष्य कल्पना।
सुखद वर्तमान से ही भूत के सुखद स्वप्न की सृष्टि होती है
और आने वाला कल आशामय बन जाता है।
अतएव आज का स्वागत सादर, जी-जान से करो।
यही उषा के प्रति हमारा अभिनन्दन है।
भूत और भविष्य की चिन्ता छोड़ आज की परिधि में रहकर चिन्ता से छुटकारा पायें और सुख से जीवन बितायें।
चिन्ताजनक स्थितियों से पार पाने की अचूक विधि
यदि आप चिन्ता में डूबे रहें तो कुछ भी नहीं कर पाएंगे। क्योंकि चिन्ता एकाग्रता का ह्रास कर देती है। जब हम चिन्तित रहते हैं तो हमारे विचार सर्वत्र भटकते रहते हैं और हम निर्णय करने की शक्ति से हाथ धो बैठते हैं।
क्या आप शीघ्र चिन्ताजनक परिस्थितियों से पार पाने की कोई कारगर और अचूक विधि जानना चाहेंगे? तथा आप उस विधि का प्रयोग करना चाहेंगे? उत्तर होगा अवश्य, शीघ्र बतायें! तो लीजिए आपके लिए प्रस्तुत है चिन्ता दूर करने का वह उपाय जो अब तक ज्ञात सभी उपायों में श्रेष्ठ है।
यह विधि सामान्य है और कोई भी इसका उपयोग कर सकता है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं जो निम्नलिखित हैं
पहली अवस्था-इस अवस्था में अपनी परिस्थति का निर्भयता और ईमानदारी से विश्लेषण करना चाहिए और इस निर्णय पर पहुंचना चाहिए कि असफलता के कारण कौन-सा अनिष्ट संभव है।
दूसरी अवस्था-अनिष्ट क्या हो सकता है, यह जान लेने के पश्चात् उस अनिष्ट को आवश्यकतानुसार स्वीकार करने का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इसके फलस्वरूप एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होगा और तुरंत ही हल्कापन तथा एक प्रकार की शान्ति का अनुभव होगा जो पहले कई दिनों से नहीं होगा।
तीसरी अवस्था-और तब शान्त भाव से अपने समय और शक्ति को मन में स्वीकृत अनिष्ट को सुधारने में जुटा देना चाहिए।
यदि आप चिन्ता में डूबे रहे तो कुछ भी नहीं कर पायेंगे। क्योंकि चिन्ता एकाग्रता का ह्रास कर देती है। जब हम चिन्तित रहते हैं तो हमारे विचार सर्वत्र भटकते रहते हैं और हम निर्णय करने की शक्ति से हाथ धो बैठते हैं। जो भी हो, हम अपने आपको अनिष्ट स्वीकार करने के लिए विवश कर लेते हैं। तब हम उन ऊटपटांग और बेतुकी कल्पनाओं को दूर कर ऐसी स्थिति पैदा कर लेते हैं जिसमें रहकर अपनी समस्याओं पर पूरी तरह ध्यान केन्द्रित कर सकें।
उपर्युक्त विधि का मनोवैज्ञनिक विश्लेषण कीजिए, जब हम चिंतावश विवेकहीन होकर उलझनों के घने कुहरे में घबराने लगते हैं तो यह सूत्र एक तीव्र झटके के साथ हमें उस कुहरे से बाहर निकाल लाता है। यह हमारे कदमों को दृढ़ता से धरती पर जमा देता है और हमें स्थिति का भान हो आता है। यदि हमारे कदमों के नीचे ठोस धरती न होती तो हम किसी सफलता की आशा कर ही कैसे सकते थे!
व्यावहारिक मनोविज्ञान के जन्मदाता प्रो. विलियम जेम्स का कथन बड़ा सार्थक है जो उन्होंने अपने छात्रों से कहा था-अपनी स्थिति को जैसी है वैसी ही स्वेच्छा से स्वीकार कर लो। क्योंकि होनी को स्वीकार करना दुर्भाग्य के किसी परिणाम पर विजय पाने का पहला कदम है।
चीनी दार्शनिक-लिन युटांग ने अपनी लोकप्रिय पुस्तक The Importance of Living (जीने का महत्त्व) में इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति की थी। उनका विचार था कि अनिष्ट को स्वीकार करने से मन को सच्ची शान्ति प्राप्त होती है। मानव-विज्ञान के अनुसार इसका आशय नवीन शक्ति का संचरण है। एक बार अनिष्ट को स्वीकार कर लेने के पश्चात् खोने के लिए अधिक कुछ नहीं रह जाता इसलिए स्पष्ट है कि इसमें हमें लाभ ही लाभ है।
एक उदाहरण यहीं दिया जा रहा है, आप भी पढ़िये और देखिए कि उपरोक्त चमत्कारिक सूत्र कितना व्यावहारिक है-
न्यूयार्क में तेल का व्यवसाय करने वाले एक व्यक्ति ने अपनी कहानी इस प्रकार सुनाई थी- मैं छला जा रहा था। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि ऐसी बातें हम सिनेमा के पर्दे के अतिरिक्त अन्यत्र भी कहीं देख सकते हैं। मैंने उसकी कल्पना तक नहीं की थी; किन्तु सचमुच ही मैं छला जा रहा था। यह सब कैसे हुआ तो सुनिये-जिस तेल कम्पनी का मैं अधिकारी था, उसका माल पहुंचाने वाले कई ट्रक और ड्राइवर थे। इन दिनों
ओपा" नियमों का बड़ी कठोरता से पालन किया जाता था। और हमारी कम्पनी ग्राहकों को जितनी मात्रा में सप्लाई करती थी उसका राशन हो गया और हमें नियमित ग्राहकों को तेल सप्लाई करनी पड़ती थी। हमारे कुछ ड्राइवर हमारे नियमित ग्राहकों को तेल की निश्चित मात्रा से कम तेल देते थे। मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता था। इस गैरकानूनी सौदे का सुराग मुझे तब मिला जब एक व्यक्ति सरकारी इन्स्पेक्टर के रूप में आया और उसने मुझसे रिश्वत की मांग की। हमारे ड्राइवर का लिखित प्रमाण उसके पास प्रस्तुत था। उसने मुझे धमकी दी कि मेरे रिश्वत न देने पर वह मेरे विरुद्ध प्राप्त उन प्रमाणों को जिला एटार्नी के कार्यालय में पेश कर देगा।
यह तो मैं जानता था कि कम से कम व्यक्तिगत रूप से इस विषय में चिन्तित होने की कोई बात नहीं थी। किन्तु मैं इतना अवश्य जानता था कि फर्म के कर्मचारियों के कार्य के प्रति फर्म ही उत्तरदायी है। इसके अतिरिक्त मुझे यह भी विदित था कि यह मामला अदालत तक गया और उसकी चर्चा अखबारों में चली गई तो इस प्रकार के प्रचार से मेरा व्यवसाय नष्ट हो जाएगा। चौबीस वर्ष पूर्व अपने पिता द्वारा स्थापित इस व्यवसाय पर मुझे बड़ा गर्व था।
इस चिन्ता के कारण मैं बीमार पड़ गया और तीन दिन और तीन रात तक सो नहीं सका। इसी उलझन में चक्कर काटता रहा कि पांच हजार डालर की रिश्वत उस व्यक्ति को दे दूं या उसे कह दूं कि वह जो कुछ करना चाहे, करे। इस दुविधा में मैं चक्कर काटता रहा पर किसी निर्णय पर न पहुंच सका।
तब रविवार की रात्रि को मैंने चिन्ता छोड़ो सुख से जियो
नामक पुस्तक पढ़ी। मैंने पढ़ा-अनिष्ट का सामना करो।
मैंने सोचा, घूस न देने पर यदि वह धूर्त कुछ लिखित प्रमाण जिला एटार्नी को बता दे, तो क्या होगा?
उत्तर स्पष्ट था, व्यवसाय