Sikhen Jeevan Jeene Ki Kala (सीखें जीवन जीने की कला)
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Through all this the human mind turns inward, but all these are the shadow of that 'one', the ultimate 'one', God. That is why the seekers have said, 'Love is God, life is God, suffering is worship, nature is God, etc.'
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Sikhen Jeevan Jeene Ki Kala (सीखें जीवन जीने की कला) - Shashikant Sadaiv
करें
समझें इस जीवन को और खुद को
यह पृथ्वी भी रहस्यपूर्ण है और इंसान भी। जितने रहस्य बाहर पृथ्वी के तल पर घटते हैं शायद उससे भी कई ज्यादा रहस्य इंसान के अंत:स्थल पर घटते हैं और जब यह दोनों मिलते हैं तो यह जीवन और भी रहस्यपूर्ण हो जाता है। कहां, किसमें, क्या और कितना छिपा है इस बात का अंदाजा तक नहीं लगाया जा सकता। जीवन के और खुद के रहस्य को समझना और आपस में दोनों तालमेल बिठाना ही जीवन जीने की कला है और इस रहस्य को जानने के लिए जरूरी है इस जीवन को जीना। इससे जुड़े सवालों का उत्तर खोजना, जैसे-यह जीवन क्यों मिला है? और जैसा मिला है, वैसा क्यों मिला है? जब मरना ही है तो जीवन का क्या लाभ? जब सब कुछ छिन ही जाना है, साथ कुछ नहीं जाना तो फिर यह जीवन इतना कुछ देता ही क्यों है? जब सबसे बिछड़ना ही है तो हम इतनों से क्यों मिलते हैं, क्यों जुड़ते हैं संबंधों से? क्यों बसाते हैं अपना संसार?
इंसान सीधे-सीधे क्यों नहीं मर जाता, इतने उतार चढ़ाव इतने कष्ट क्यों? इंसान सरलता से सफल क्यों नहीं हो जाता, इतनी परीक्षाएं क्यों? कहते हैं सब कुछ पहले से ही तय है कि कौन क्या करेगा, कब करेगा, कितना और कैसा जिएगा? यह सब पहले से ही निर्धारित है। इंसान बस उसको भोगता है, उससे गुजरता है। जब सब कुछ पहले से ही तय है तो फिर कर्म और भाग्य क्यों? गीता कहती है ‘यहां हमारा कुछ नहीं, हम खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे।' यदि यह सत्य है तो इंसान के हाथ इतने भर क्यों जाते है? कहां से जुटा लेता आदमी इतना कुछ? यह सब सोचने जैसा है।
सुनकर, सोचकर लगता है कि यह ‘जीवन' कितना उलझा हुआ है, यह दो-दो बातें करता है। न हमें ठीक से जलने देता है न ही बुझने देता है। हमें बांटकर, कशमकश में छोड़ देता है। सोचने की बात यह है कि यह जीवन उलझा हुआ है या हम उलझे हुए हैं? उलझने हैं या पैदा करते हैं? कमी जीवन में है या इसमें? हमें जीवन समझ में नहीं आता या हम स्वयं को समझ नहीं पाते? यह जन्म जीवन को समझने के लिए मिला है या खुद को समझने के लिए? यह सवाल सोचने जैसे हैं।
कितने लोग हैं जो इस जीवन से खुश हैं? कितने लोग हैं जो स्वयं अपने आप से खुश हैं? किसी को अपने आप से शिकायत है तो किसी को जीवन से। सवाल उठता है कि आदमी को जीवन में आकर दुख मिलता है या फिर वह अपनी वजह से जीवन को दुखी बना लेता है? यदि जीवन में दुख होता तो सबके लिए होता, और हमेशा होता। मगर यही जीवन किसी को सुख भी देता है। जीवन सुख-दुख देता है या फिर आदमी सुख-दुख बना लेता है? यह दोहरा खेल जीवन खेलता है या आदमी? यह सब सोचने जैसा है।
देखा जाए तो जीवन यह खेल नहीं खेल सकता, क्योंकि जीवन कुछ नहीं देता। हां जीवन में, जीवन के पास सब कुछ है। वह देता कुछ नहीं है, उससे इंसान को लेना पड़ता है। यदि देने का या इस खेल का जिम्मा जीवन का होता तो या तो सभी सुखी होते या सभी दुखी होते या फिर जिस एक बात पर एक आदमी दुखी होता है सभी उसी से दुखी होते तथा सब एक ही बात से सुखी होते, मगर ऐसा नहीं होता। तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि यह खेल आदमी खेलता है। आदमी जीवन को सुख-दुख में बांट देता है। यदि यह सही है तो इसका क्या मतलब लिया जाए, कि आदमी होना गलत है? यानी इस जीवन में आना, जन्म लेना गलत है? एक तौर पर यह निष्कर्ष ठीक भी है न आदमी जन्म लेगा, न जीवन से रू-ब-रू होगा न ही सुख-दुख भोगेगा। न होगा बांस न बजेगी बांसुरी।
मगर सच तो यह हम स्वयं को जन्म लेने से नहीं रोक सकते। जैसे मृत्यु आदमी के हाथ में नहीं है वैसे ही जन्म भी आदमी के हाथ में नहीं है। अब क्या करें? कैसे बचें इस जीवन के खेल से? क्या है हमारे हाथ में? एक बात तो तय है आदमी होने से नहीं बचा जा सकता, लेकिन उसको तो ढूंढ़ा जा सकता है जो आदमी में छिपा है और जिम्मेदार है इस खेल का। पर कौन है आदमी में इतना चालाक, चंचल, जो जीवन को दो भागों में बांटने में माहिर है? जो अच्छे भले जीवन को दुख, दर्द, तकलीफ, कष्ट, क्रोध, ईर्ष्या, बदला, भय आदि में बांट देता है?
शायद मन या फिर निश्चित ही मन। क्योंकि जहां मन है वहां कुछ भी या सब कुछ संभव है। संभावना की गुंजाइश है तो हमें जीवन को नहीं मन को समझना है क्योंकि यदि हमने मन को संभाल लिया तो समझो जीवन को संभाल लिया। सभी रास्ते मन के हैं, सभी परिणाम मन के हैं, वरना इस जन्म में, इस जीवन में रत्ती भर कोई कमी या खराबी नहीं। अपने अंदर की कमी को, मन की दोहरी चाल को समझ लेना और साध लेना ही एक कला है, एक मात्र उपाय है। इसलिए इस जीवन को कैसे जिएं कि इस जीवन में आना हमें बोझ या सिरदर्दी नहीं, बल्कि एक उपहार या पुरस्कार लगे। और वह भी इतना अच्छा कि किसी मोक्ष या निर्वाण की जरूरत न पड़े। जीवन जीना ही हमारे लिए मोक्ष हो, जीते जी हमें निर्वाण मिले मरने के बाद नहीं। ऐसे जीना या इस स्थिति एवं स्तर पर जीवन को जीना वास्तव में एक कला है और कोई भी कला बिना साधना के, तप के नहीं सधती। तभी तो अनुभवियों ने कहा यह जीवन एक साधना है। अन्य अर्थ में कह सकते हैं कि यह जीवन जीना एक कला है जिसके लिए जरूरी है इस जीवन को और खुद को समझना।
***
जीवन नजरिए का खेल है
जी वन और कुछ नहीं आधा गिलास पानी भर है। जी हां सुख-दुख से भरा यह जीवन हमारे नजरिए पर टिका है। गिलास एक ही है परंतु किसी के लिए आधा खाली है तो किसी के लिए आधा भरा हुआ है। ऐसे ही यह जीवन है किसी के लिए दुखों का अम्बार है तो किसी के लिए खुशियों का खजाना। कोई अपने इस जन्म को, इस जीवन में आने को सौभाग्य समझता है तो कोई दुर्भाग्य। किसी का जीवन शिकायतों से भरा है तो किसी का धन्यवाद से। किसी को मरने की जल्दी है तो किसी को यह एक जीवन छोटा लगता है। एक ही जीवन है, एक ही अवसर है परंतु फिर भी अलग-अलग सोच है, भिन्न-भिन्न परिणाम हैं। सब कुछ हमारे नजरिए पर टिका है, हमारी समझ से जुड़ा है। इसीलिए एक कहावत भी है ‘जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन वैसी’ जिसकी जैसी भावना होती है उसको वैसे ही परिणाम मिलते हैं।
इसे यूं एक कथा के जरिए समझें। तीन मजदूर एक ही काम में संलग्न थे। इनका काम दिन भर सिर्फ पत्थर तोड़ना ही था। जब एक से पूछा गया कि आप क्या कर रहे हो? तो उसने गुस्से से, शिकायत भरी नजर उठाकर कहा ‘दिख नहीं रहा अपनी किस्मत फोड़ रहा हूं, पसीना बहा रहा हूं और क्या’। दूसरे मजदूर से भी यही सवाल किया गया। उसके उत्तर में गुस्सा नहीं दर्द था, आंखों में शिकायत नहीं नमी थी। कुम्हलाते स्वर में उसने कहा ‘पापी पेट के लिए रोटी जुटा रहा हूं, जिंदा रहने का जुगाड़ कर रहा हूं।’ जब यही प्रश्न तीसरे मजदूर से किया गया तो उसका उत्तर कुछ अलग ही था। न तो उसके लहजे में कोई शिकायत की बू थी न ही कोई दर्द। आंखों में न गुस्सा था न ही कोई नमी। उसके उत्तर में एक संगीत था, एक आभार था। आंखों में तेज और प्रेम था। उसने आनंदित स्वर में कहा ‘मैं पूजा कर रहा हूं, यहां भगवान का मंदिर बनने जा रहा है, मैं उसमें सहयोग दे रहा हूं। मैं भाग्यशाली हूं, आभारी हूं उस परमात्मा का उसने इस नेक कार्य के लिए मुझे चुना। यह शुभ कार्य मेरे हाथों से हुआ। भगवान मेरे हाथों द्वारा बनाए गए मंदिर में विहार करेंगे। प्रभु ने मेरी सेवा को स्वीकारा, मैं धन्य हो गया। मुझे और क्या चाहिए, मुझे कार्य करने में आनंद आ रहा है, मैं आनंदित हूं यह मेरे लिए भतेरा है।
ऐसे ही जीवन है। दृष्टिकोण के कारण ही सब कुछ, सुख-दुख, लाभ-हानि, धन्यवाद-शिकायत आदि में बंट जाता जाता है। सुख-दुख का कोई परिमाप नहीं है सब हमारी सोच पर, हमारे नजरिए पर निर्भर है। किसी के लिए कोई तारीख या वर्ष अच्छा है तो किसी के लिए वही तारीख वही वर्ष अशुभ हो जाता है। यह सब हम उनके परिणाम को देखकर तय करते हैं। और परिणाम कुछ और नहीं, हमारा नजरिया है। किसी को इस बात की चिंता है कि यह वर्ष इतनी जल्दी बीते जा रहा है तो किसी को इस बात की खुशी है कि अच्छा हुआ यह वर्ष बीत गया, अब नया वर्ष आएगा। किसी को इस वर्ष के अंत का इंतजार है तो किसी को नए वर्ष का इंतजार है। कोई तो ऐसे भी हैं जो दुखी हैं और इस वर्ष से, वर्ष की यादों से चिपके बैठे हैं। किसी को गम है कि वह एक वर्ष और बूढ़े हो गए तो किसी को खुशी है कि वह एक वर्ष और भी अनुभवी और प्रौढ़ हो गए हैं। इसलिए सब कुछ आप पर टिका है। आप चाहें तो गिलास को पूरा देखें या आधा सब आप पर निर्भर है।
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आदमी को जीवन में आकर दुख मिलता है या फिर वह अपनी वजह से जीवन को दुखी बना लेता है? यदि जीवन में दुख होता तो सबके लिए होता, और हमेशा होता। मगर यही जीवन किसी को सुख भी देता है। जीवन सुख-दुख देता है या फिर आदमी सुख-दुख बना लेता है? यह दोहरा खेल जीवन खेलता है या आदमी? यह सब सोचने जैसा है।
यह जीवन एक उत्सव है
उत्सव का अर्थ दीवाली के दीयों या होली के रंगों तक ही सीमित नहीं है। उत्सव का संबंध है मन की उमंग से, भीतर के जोश से। मन का आनंदित होना, प्रसन्न रहना ही वास्तविक उत्सव है। जिस दिन मन हल्का और संतुष्ट हो जाता है उस दिन हर पल आनंद देने लगता है और यह जीवन उत्सव बन जाता है। क्या करें कि जीवन बोझ नहीं उत्सव लगे? यह सोचने की बात है।
यह जीवन एक उत्सव है उन लोगों के लिए जो इस जीवन को मनाना जानते हैं। वरना अधिकतर लोग तो कष्ट एवं संताप की शिकायत से ही नहीं उभर पाते। वह थोड़ा बदलते भी हैं तो खास मौकों पर, फिर कोई त्योहार हो या घर में कोई खुशी का अवसर। इनसान खुशी के, मस्ती के मौकों का इंतजार करता है। खुद ऐसे मौके न तो ढूंढ़ता है न ही निर्मित करता है। भला है कि भारत में इतने सारे त्योहार हैं, वरना इनसान तो हंसना-गाना, सजना-संवरना, मौज-मस्ती आदि भी कभी न करे। शायद यही कारण है कि अधिकतर लोग अपनी खुशी या आनंद के लिए दूसरों पर या किसी अवसर पर आश्रित रहते हैं। जब तक फलां मौका या तारीख नहीं आ जाती तब तक उन्हें जीवन दु:ख या सिरदर्दी ही लगता है।
सच तो यह है खुशियां कहीं बाहर से नहीं आती, खोजी जाती हैं। हमें कोई दूसरा खुश नहीं कर सकता। हमें खुशी अपने आसपास तलाशनी होती है लेकिन हमारी खुशी समूह की मोहताज होती है। हम सोचते हैं जब तक सब इकट्ठे नहीं होंगे हम तब तक प्रसन्न नहीं होंगे। इसी सोच के कारण न जाने हम रोजमर्रा में आनंद के कितने ही मौके गंवा देते हैं। यदि हम सकारात्मक ढंग से जरा-सा सोचकर देखें, फिर पाएंगे कि यह जीवन अपने आप में उत्सव है। पशुओं की तरफ देखें, अन्य जड़-चेतन आदि वस्तुओं की ओर देखें और सोचें कि हम कितने भाग्यशाली हैं कि हम इनसान हैं। हम सबसे अलग हैं, हममें कुछ नया करने एवं नया होने की संभावना है। इस बात का भीतर ही भीतर धन्यवाद दें कि हमने सबसे ऊंची एवं श्रेष्ठ मनुष्य योनी में जन्म लिया है।
उन लोगों की तरफ देखें जो इनसान तो हैं लेकिन किसी कारण से शरीर से लाचार या अपंग हैं। तब आप पाएंगे आपके पास बहुत कुछ है। आपको अहसास होगा कि आप किस्मत वाले हैं और औरों की तुलना में अधिक सुखी हैं लेकिन इस सुख को देखने व मनाने से अनजान हैं।
जब कोई रिश्ता या संबंध टूटता है तो दिल के साथ-साथ हम भी टूट जाते हैं और दु:खी होते हैं, लेकिन जब तक हम किसी के साथ संबंधों से संबंधित होते हैं तब तक शिकायतों से भरे रहते हैं। इसलिए आसपास के रिश्तों को, अपने संबंधों के महत्त्व को समझो और गर्व करो कि आप किसी के हो, कोई आपका है और इस खुशी को मनाओ।
स्वास्थ्य के बिगड़ते ही हमें अपने शरीर का ख्याल आता है और याद आता है कि हम कभी मर भी सकते हैं। इस खौफ के घिरने से पहले सोचें और इस शरीर एवं इसके स्वास्थ्य के महत्त्व को समझें। हर पल कुछ नया करने का प्रण करें तथा सशरीर इस उम्र को अपने अंदाज से जीएं ताकि बाद में कोई अफसोस न बचे कि हमने इस जीवन को नहीं जिया। अपने स्वास्थ्य को पहचानें और खुलकर, खिलकर जिएं।
छोटी-छोटी खुशियों को मनाना सीखें, फिर नया मोबाइल हो या नए कपड़े, जन्मदिन हो या सालगिरह किसी पुराने मित्र से पुनः मुलाकात हो या नए शख्स से मित्रता, हर हफ्ते आने वाला इतवार हो या फिर नए साल का पहला दिन, हर पल घटना को उत्साह से लें, निराशा से नहीं। परीक्षा में पास हों या कोई इनाम जीतें, वीजा लग जाए या जॉब मिल जाए, घर में किसी मेहमान का आना हो या किसी के घर जाना, पसंदीदा फिल्म हो या डिस्को थिक जाना, सब कुछ करते हुए जोश एवं आनंद से भरे रहें। हर छोटी-छोटी बात पर खुश होना सीखें, तब आप पाएंगे खुशियां चारों तरफ है, मौके हरपल हैं बस उन्हें खोजने और मनाने की देर है।
***
खुशियां कहीं बाहर से नहीं आती, खोजी जाती हैं। हमें कोई दूसरा खुश नहीं कर सकता। हमें खुशी अपने आसपास तलाशनी होती है, लेकिन हमारी खुशी समूह की मोहताज होती है। हम सोचते हैं जब तक सब इकट्ठे नहीं होंगे हम तब तक प्रसन्न नहीं होंगे। इसी सोच के कारण न जाने हम रोजमर्रा में आनंद के कितने ही मौके गंवा देते हैं।
यह जीवन एक यज्ञ है
यह जीवन अपने आप में एक यज्ञ है और इंसान उस यज्ञ की समिधा है। इस अभियान में, इस महायात्रा में इंसान जितना उतरता जाएगा उतना ही वह परमात्मा के निकट होता जाएगा क्योंकि यह जीवन एक अवसर है, द्वार है स्वयं को आहूत कर रूपांतरित करने का।
क्या यज्ञ करने के लिए होम कुंड का होना जरूरी है? क्या यज्ञ करने के लिए मंत्रोचारण का कंठस्थ होना अनिवार्य है? क्या बिना हवन सामग्री या समिधाओं के यज्ञ संभव नहीं? क्या यज्ञ करने के लिए इंसान का भगवे वस्त्रों में साधु-संत होना आवश्यक है? एक अर्थ में ‘हां' भी और एक अर्थ में ‘ना' भी। यदि यज्ञ को व्यावहारिक परिभाषा की दृष्टि से देखा जाए तो यह सब न केवल जरूरी है बल्कि यही सब तो जरूरी है। इन्हीं सब से यज्ञ संभव व सफल हो पाता है। इतना ही नहीं यदि एक आम आदमी से भी पूछा जाए तो वह भी यही उत्तर देगा। क्योंकि उसका उत्तर उसके अनुभव से नहीं लोगों की गढ़ी हुई परिभाषा से आया है। उसकी नजर में यज्ञ की यही पहचान है और यही परिभाषा।
इंसान बने बनाए सांचों में विचरण करता रहा है। नपे-तुले विचारों में डोलता रहता है। खिंची-खिंचाई लकीरों से जरा भी ऊपर उठकर देखना नहीं चाहता यदि वह ऐसा कर पाए तो उसे यज्ञ का एक ऐसा अर्थ भी हाथ लगेगा जिसमें न हवन कुंड होता है, न अग्नि। न कोई साधु-संत होता है, न हवन सामग्री। स्वाहा तो बहुत कुछ होता है परंतु दिखता कुछ नहीं है, आहुति तो होती है पर किसी सामग्री से नहीं। भस्म तो बहुत कुछ होता है पर न लपटें दिखती हैं और न ही धुआं उठता है।
असली यज्ञ तो वही है जिसमें मन समर्पित होता है। आत्मा संलग्न होती है। जिसमें स्वयं की कमियों को, बुराईयों को पल प्रति पल आहूत किया जाता है। जिसमें भीतर एक अजपा जाप निरंतर चलता रहता है। जिस यज्ञ में स्वयं का त्याग न हो, आत्मा का योगदान न हो, वासनाओं का विसर्जन न हो, अहंकार की बलि न हो ऐसा यज्ञ शरीर की एक क्रिया मात्र है, सिर्फ एक कर्मकांड है।
शास्त्रों में यज्ञ करने के कई प्रयोजन बताए हैं जिसमें से एक है वातावरण की शुद्धि तथा जल रही अग्नि के जरिए भगवान की प्राप्ति। लेकिन बाहर के वातावरण का द्वार इंसान के मन से होकर गुजरता है यदि मन अशुद्ध है तो उससे होने वाला प्रयास भी अशुद्ध होगा। बिना अंतस की सफाई के बाहर स्वच्छता नहीं पैदा हो सकती। और रही बात भगवान के दर्शन की वह भी अंदर ही है बस ध्यान की अग्नि चाहिए, ज्ञान का प्रकाश चाहिए, सधा हुआ एकाग्र मन चाहिए फिर उसी रोशनी में, उसी नूर में भगवान भी दिख जाते हैं।
ऐसा नहीं कि यज्ञ-हवन करना निरर्थक है, वह बेकार हैं या इनसे कोई लाभ नहीं। लेकिन यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो इंसान चलता फिरता स्वयं में होमकुंड है, उसके अंतर्जगत में यज्ञ भी है और यज्ञशाला भी है। अग्नि भी है, देवता भी है। बस वह अग्नि बुझी हुई है।
सच तो यह है न केवल अग्नि बुझी हुई है बल्कि उसे उस हवन सामग्री का भी कुछ पता नहीं जिसकी आहुति देनी है। यदि इंसान अपने भीतर झांकने की कला सीख ले तो उसे यज्ञ की सारी सामग्री भी मिल जाएगी जिसे उसे यज्ञ में स्वाहा करना है। और जैसे-जैसे इंसान उन्हें स्वाहा करता जाएगा वैसे-वैसे वह परमात्मा के निकट होता जाएगा तब उसकी देह खुद-ब-खुद महकने लगेगी, उसके भीतर का वातावरण शुद्ध होने लगेगा। उसका आभा मंडल इतना प्रभावशाली होने लगेगा कि जो भी उसके संपर्क में आएगा उसे एक अद्भुत ऊर्जा स्पंदित करने लगेगी। वह जहां से गुजरेगा वहां वही घटेगा जो एक यज्ञ करने वाले स्थान पर, उसके आसपास के माहौल में घटता है।
असली यज्ञ तो यही है या यूं कहें असली यज्ञ तो वही है जो बिना किसी तिथि-मुहूर्त के सदा चलते रहे, पल-प्रतिपल सांसों के तारतम्य में भगवान का नाम शामिल हो जाए। ऐसी अवस्था ऐसा जीवन, ऐसा तल सही मायने में ‘यज्ञ’ कहलाता है।
वरना ईंट, पत्थरों एवं धातु आदि के हवन कुंड बनाकर पूर्ण विधि अनुसार यज्ञ तो युगों से सदियों से नियमित हो रहे हैं और वातावरण भी शुद्ध हो रहा है पर आदमी कितना शुद्ध हुआ है? उसकी आत्मा कितनी निखरी है? उसने सामग्री तो खूब जलाई है पर खुद को कितना तपाया है? अपने को कितना त्यागा है? यह सोचने की बात है।
***
जिस यज्ञ में स्वयं का त्याग न हो, आत्मा का योगदान न हो, वासनाओं का विसर्जन न हो, अहंकार की बलि न हो, ऐसा यज्ञ शरीर की एक क्रिया मात्र है, सिर्फ एक कर्मकांड है।
जीवन यानी आज और अभी
कल अर्थात् जो अभी नहीं है और जो अभी नहीं है वह भविष्य के हाथों में है, जिसे किसी ने नहीं देखा, तभी तो कहते हैं ‘कल किसने देखा’ सच तो यह है जिसने आज को नहीं देखा वो कल को कैसे देखेगा? सच तो यह है कल को देखने का कोई उपाय नहीं, कल का अपना कोई अस्तित्व नहीं। कल के बारे में सोचा जा सकता है उसे जिया नहीं जा सकता। कल एक भ्रम है, एक उम्मीद है, एक आशा है कि शायद कल सब ठीक हो जाए, जो आज नहीं हुआ वह कल हो जाए, जो आज नहीं मिला वह कल मिल जाए। इस ‘कल’ के इंतजार में रोज का ‘आज’ बीत जाता है और देर बहुत देर होती चली जाती है। सोचो यदि हमें ‘कल’ नहीं मिले तो? यदि कल हम जीवित नहीं रहे तो? जीवन मिला मगर शरीर ने साथ न दिया तो? कल किसने देखा है? सत्य जीवन के इसी क्षण में है। बीता हुआ और आने वाला कल केवल मन का छलावा है, माया है। आज की बात, अभी की बात कल पर क्यों टलती है। यह जरा सोचने जैसा है। कल पर उम्मीद रखना और कल पर टालना दो अलग-अलग बातें हैं। कार्य के परिणाम के लिए कल पर, उम्मीद लगाना या आशा रखना अलग बात है परंतु कर्म को कल पर टालना अलग बात है।
कल ऐसा क्या खास होने वाला है? हो सकता है कल तुम्हारे ग्रह-सितारों की चाल और बिगड़ जाए और तुम्हें कल पता चले कि तुम्हारा बीता हुआ कल ज्यादा अच्छा था तब क्या करोगे? अपने बीते हुए कल को वापस लेकर आओगे? नहीं। यह संभव नहीं कुछ हाथ नहीं लगेगा यदि कुछ हाथ आएगा तो सिर्फ पछतावा, अफसोस, ग्लानि। इसलिए आज को पहचानों और आज में अभी के महत्त्व को समझो।
हर वक्त याद रखो कि तुम कभी भी मर सकते हो और साथ में यह भी ध्यान रखो कि तुम्हारे सामने वाला, जो इंसान है वह भी किसी भी क्षण मर सकता है। तब तुम पाओगे कि तुमसे प्यार ही प्रवाहित होगा, तुम कल में नहीं अभी में ही जीने लगोगे। तब तुम्हें वर्तमान की सार्थकता और भविष्य की निरर्थकता नजर आएगी। अगर मौत हर क्षण तुम्हारे साथ होगी तो तुम कभी भी छोटी-मोटी बातों पर मौजूदा वक्त बरबाद नहीं करना चाहोगे। तुम उस वक्त प्रेम और प्रसन्नता चाहोगे, न कि बेकार की चिक-चिक। मौत का ख्याल तुम्हें उस सहनशीलता से भर देगा जो रोजमर्रा की क्षुद्रता को नजरअन्दाज करके तुम्हें प्रेम करना सिखायेगी। मृत्यु में ही इतनी ताकत है कि वह प्रेम के क्षण को टालते रहने से तुम्हें रोक दे।
इसलिए वर्तमान पल के महत्त्व को समझो और कल पर कुछ मत टालो। जो कुछ भी है वह आज है और अभी है, कल कुछ नहीं। इस बात को, आज और अभी के महत्त्व को इस कथा के जरिए समझें।
एक किसान की गाड़ी में दो घोड़े जुते हुए थे। दोनों पूरे वक्त झगड़ते रहते। तुम तेज क्यों चल रहे हो। तुम इतना धीरे क्यों घिसट रहे हो, तुम मुझे इधर धकेल रहे हो, तुम मुझे उधर खींच रहे हो। हर समय चिक-चिक। अचानक एक दिन उनमें से एक घोड़ा मर गया।
दूसरे घोड़े को अब महसूस हुआ कि अकेलापन क्या होता है। उसे पूरे समय अपने साथी की याद सताने लगी। उसे महसूस हुआ कि वे हर समय झगड़ते रहते थे और कभी जरा देर को भी साथ-साथ खुश नहीं हुए। कभी उसने दूसरे को नहीं जताया था कि वह उसकी कितनी परवाह करता है। अब जब वह नहीं है तो लगता है कि कुछ समय प्रेम से बिताते तो कितना अच्छा होता।
किसान ने नया घोड़ा ले लिया। पुराने घोड़े ने सोचा कि इस नये साथी से कभी झगड़ेगा नहीं। लेकिन नये घोड़े से जान-पहचान का औपचारिक वक्त बीतते-बीतते दोनों में फिर खींचतान और झगड़े बाजी शुरू हो गई। एक दिन अचानक यूं ही झगड़ते-झगड़ते पुराने घोड़े को अपना पुराना साथी याद आ गया। उसे याद आया कि उसके मरने पर उसे कितना दुख हुआ था फिर मैं वैसी ही हरकत दोबारा क्यों करने लगा। उसने आश्चर्य में पड़कर सोचा।
रात को अस्तबल में उसने एक पुराने गधे को सारी बात बताई। गधा अस्तबल के तमाम जानवरों में सबसे बुजुर्ग और बुद्धिमान माना जाता था। घोड़े की पूरी बात सुनकर वह बोला-झगड़ना सबका स्वभाव हो जाता है। झगड़े से बचने का एक ही तरीका है, है तो आसान तरीका, लेकिन असल में बहुत मुश्किल भी है। ‘तुम हर वक्त ये याद रखो कि तुम कभी भी मर सकते हो। साथ ही ये भी कि अगले ही क्षण तुम्हारे सामने जो दूसरा है- मर सकता है।’ फिर देखो तुम्हारे जीवन में कितना होश आता और यही होश कितना प्रेम लाता है।
***
सीखें जीवन जीने की कला
जिं दगी काटना और आनंदपूर्ण जीवन जीना दो अलग-अलग बातें हैं। जीते तो सभी हैं पर सुकून भरा जीवन कितने लोग जीते हैं यह सोचने की बात है। सच तो यह है तनाव रहित जीवन किसी को नहीं मिलता उसे जीवन के कष्टों एवं संघर्षों के बीच से छांटना पड़ता है। दर्द से सुख निथारने की कला का नाम है आनंद। और ऐसे जीवन जीने के लिए जरूरी है जीवन जीने की कला का ज्ञान।
जीवन के संदर्भ में ‘ओशो’ बड़ी प्यारी बात कहते हैं। वह कहते हैं ‘इस जन्म को जीवन मत समझ लेना, यह जन्म तो इस संसार में आने का अवसर मात्र है। जन्म लेने से ही जीवन नहीं मिल जाता, उसके लिए जिंदगी को सही ढंग से जीना पड़ता है।’ बात बिल्कुल सही है लेकिन अधिकतर सभी लोग यही सोचते हैं कि इस जीवन में आना, खाना-पीना, सोना-जागना, बड़ा होना, अपना परिवार बनाना आदि यही ज़िंदगी है और यही जीवन। इसके अलावा जीवन के प्रति न उनका कोई दृष्टिकोण है न ही कोई परिभाषा। इस जीवन से सबकी इतनी ही पहचान है।
सच तो यह है यह जीवन सिर्फ सांस