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Rajrishi
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Rajrishi

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विश्व के महान उपन्यासकार रवीन्द्रनाथ टैगोर का यह उपन्यास एक ऐसे राजा की गाथा है जिन्होंने उस समय प्रचलित बलि प्रथा का विरोध किया। अपने राज्य में बलि प्रथा पर रोक लगाने के बाद उन्हें अपना ही राज्य छोड़ना पड़ा।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateOct 27, 2020
ISBN9789385975103
Rajrishi
Author

Rabindranath Tagore

Rabindranath Tagore (1861-1941) was an Indian poet, composer, philosopher, and painter from Bengal. Born to a prominent Brahmo Samaj family, Tagore was raised mostly by servants following his mother’s untimely death. His father, a leading philosopher and reformer, hosted countless artists and intellectuals at the family mansion in Calcutta, introducing his children to poets, philosophers, and musicians from a young age. Tagore avoided conventional education, instead reading voraciously and studying astronomy, science, Sanskrit, and classical Indian poetry. As a teenager, he began publishing poems and short stories in Bengali and Maithili. Following his father’s wish for him to become a barrister, Tagore read law for a brief period at University College London, where he soon turned to studying the works of Shakespeare and Thomas Browne. In 1883, Tagore returned to India to marry and manage his ancestral estates. During this time, Tagore published his Manasi (1890) poems and met the folk poet Gagan Harkara, with whom he would work to compose popular songs. In 1901, having written countless poems, plays, and short stories, Tagore founded an ashram, but his work as a spiritual leader was tragically disrupted by the deaths of his wife and two of their children, followed by his father’s death in 1905. In 1913, Tagore was awarded the Nobel Prize in Literature, making him the first lyricist and non-European to be awarded the distinction. Over the next several decades, Tagore wrote his influential novel The Home and the World (1916), toured dozens of countries, and advocated on behalf of Dalits and other oppressed peoples.

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    Book preview

    Rajrishi - Rabindranath Tagore

    योगदान।

    राजर्षि

    1

    भुवनेश्वरी मंदिर का पत्थर से बना घाट गोमती नदी से मिला हुआ है। त्रिपुरा के महाराजा गोविन्दमाणिक्य ग्रीष्मऋतु की एक सुबह स्नान करने आये हैं, उनके साथ उनके छोटे भाई नक्षत्रराय भी आये हैं। उसी समय एक छोटी सी लड़की अपने छोटे भाई के साथ घाट पर आयी। राजा की धोती पकड़ कर पूछने लगी, कौन हो तुम?

    राजा मुस्कुराकर बोले, मां, मैं तुम्हारी संतान हूं।

    वह लड़की बोली, मुझे पूजा के लिये फूल तोड़कर दे दो।

    राजा ने कहा, ठीक है, चलो।

    राजा के सिपाही बेचैन हो उठे। उन्होंने कहा महाराज, आप क्यों जाते हैं, हम तोड़ लाते हैं।

    राजा ने कहा, नहीं जब इसने मुझसे कहा है, तो मैं ही तोड़ कर दूंगा।

    राजा ने उस बालिका की ओर देखा। सुबह की विमल उषा जैसा बालिका का चेहरा था। जब वह राजा का हाथ पकड़ कर मंदिर के पास वाले फूलों के बगीचे में घूम रही थी। तब चारों ओर के सफेद बेल फूलों जैसे उसके चेहरे से एक विमल सौरभ का भाव सुबह इस बगीचे में व्याप्त हो रहा था। छोटा भाई अपनी बहन का पल्लू पकड़े साथ-साथ घूम रहा था। वह सिर्फ अपनी दीदी को पहचानता था। राजा से उसकी ज्यादा बातचीत नहीं हुई। राजा ने बालिका से पूछा, तुम्हारा नाम क्या है बेटा?

    बालिका ने उत्तर दिया, हंसी।

    राजा ने उसके भाई से पूछा, तुम्हारा नाम क्या है?

    वह बड़ी-बड़ी आंखों से अपनी बहन को देखने लगा, कोई उत्तर नहीं दिया।

    हंसी ने उसे सहलाकर कहा, बोल ना भाई, मेरा नाम ताता है।

    उस बच्चे ने बड़े ही गंभीर भाव से अपने छोटे-छोटे होंठ खोले और अपनी दीदी की प्रतिध्वनि की तरह कहा, मेरा नाम ताता है। कहकर दीदी का आंचल और जोर से पकड़ लिया।

    हंसी ने राजा को समझाते हुए कहा, यह अभी छोटा है न, इसलिये सब इसे ताता कहते हैं। छोटे से भाई की ओर देखकर बोली, अच्छा, बोल तो, मंदिर।

    वह बच्चा दीदी की ओर देखकर बोला, "लदद।

    हंसी हंसती हुई बोली, ‘ताता मंदिर नहीं बोल पाता। कहता है लदद’

    ‒अच्छा बोल तो कड़ाही।

    वह बच्चा गंभीर भाव से बोला बड़ाही।

    हंसी फिर से हंसकर बोली, "हमारा ताता कड़ाही भी नहीं बोल पाता, कहता है बड़ाही। कहकर उसे बार चूमने लगी।

    अचानक दीदी की इतनी हंसी और प्यार करने का कोई कारण ताता को समझ नहीं आया। वह तो सिर्फ टुकुर-टुकुर देखता रहा। यह सच है कि मंदिर और कड़ाही ताता ठीक से बोल नहीं पाता था। ताता जितनी उम्र में हंसी मंदिर को कभी भी लदद नहीं कहती थी, वह मंदिर को पालु कहती थी, और वह कड़ाही को बड़ाही कहती थी या नहीं यह तो नहीं पता मगर कड़ी को थई कहती थी, इसलिए ताता के विचित्र उच्चारण सुनकर उसे अगर हंसी आती है तो इसमें आश्चर्य क्या है? ताता के विषय में बहुत सी घटनाएं वह राजा को सुनाने लगी। एक बार एक बुड्ढा कंबल ओढ़कर आया था। ताता ने उसे भालू कहा था, ताता में अक्ल ही इतनी कम है। और एकबार पेड़ पर पपीते लगे देख उन्हें पक्षी समझ कर अपने मोटे-मोटे छोटे हाथों से ताली बजाकर उन्हें उड़ाने की कोशिश कर रहा था। ताता हंसी से बहुत छोटा और भोला है, यह बात ताता की दीदी ने बहुत से उदाहरण देकर प्रमाणित कर दी। ताता अपनी बुद्धि के विषय में यह सारी बातें अविचलित चित्त से सुन रहा था, जितनी उसे समझ आया उसमें उसे नाराज होने का कोई कारण नजर नहीं आया। इस तरह उस दिन सुबह फूल तोड़ना समाप्त हुआ। राजा ने जब छोटी लड़की के आंचल में फूल भर दिये तब राजा को लगा जैसे उनकी पूजा समाप्त हुई। इन दोनों में सरल स्नेह का दृश्य देखकर, इस पवित्र हृदय की आस मिटाकर फूल तोड़कर जैसे उन्होंने देवपूजा कर ली हो।

    ***

    2

    अगले दिन से सुबह उठने के पश्चात सूर्य के उदय होने पर भी राजा की प्रभात नहीं होती थी, छोटे-छोटे दोनों भाई-बहन की सूरत देखकर ही उनकी सुबह होती, रोज उनको फूल तोड़कर देने के पश्चात ही वे स्नान करते; दोनों भाई-बहन घाट पर बैठकर उनको स्नान करते हुए देखते। जिस दिन यह भाई-बहन नहीं आते उस दिन राजा की पूजा जैसे अधूरी रह जाती।

    हंसी और ताता के माता-पिता नहीं थे। सिर्फ एक चाचा है। चाचा का नाम केदारेश्वर था। यह दो बच्चे ही उनके जीवन का समस्त सहारा और सुख थे।

    एक साल बीत गया। ताता अब मंदिर ठीक से कह पाता है, मगर अभी भी कड़ाही को बड़ाही कहता है। वह ज्यादा बातें नहीं करता। गोमती नदी के तट पर उस बड़े से पेड़ के नीचे पैर फैलाकर बैठकर उसकी दीदी उसे जो भी कहानी सुनाती, वह डबडबायी आँखों से अवाक् रहकर सुनता। उस कहानी का कोई सिर-पैर नहीं होता, मगर उसे क्या समझ आता यह तो वही जाने। कहानी सुन-कर उस पेड़ के नीचे, उस सूर्य के प्रकाश में, उस खुली हवा में, इस छोटे से बच्चे के छोटे से हृदय में कितनी बातें, कितनी तस्वीर उभरती, यह हम क्या जाने। ताता किसी और बच्चे के साथ नहीं खेलता था, अपनी बहन के साथ छाया की तरह रहता।

    आषाढ़ का महीना था। सुबह से ही घने बादल छाये हुए थे। अभी भी बारिश शुरू नहीं हुई थी, मगर लग रहा था कि बस अभी बरसात होने ही वाली है। बारिश की हल्की बूंदें लिए ठंडी हवा बह रही थी। गोमती नदी के पानी पर और उसके दोनों तटों के पार के जंगल में अंधेरे आसमान की छाया पड़ रही थी। कल रात अमावस थी, कल भुवनेश्वरी की पूजा भी हो चुकी थी।

    रोज की तरह हंसी और ताता का हाथ पकड़कर राजा नहाने आये हैं। सफेद पत्थर पर से कुछ खून बहकर पानी की ओर गया हुआ है। कल रात जो एक सौ एक भैरों की बलि हुई थी यह उन्हीं का खून था।

    हंसी वह खून देखकर अचानक संकोच से दूर हट कर बोली, यह कैसा निशान है पिताजी?

    राजा ने कहा, खून का निशान है बेटी।

    वह बोली, इतना खून क्यों?

    बालिका के इस प्रश्न में इतना दर्द था कि राजा के हृदय में बार-बार यह सवाल उठने लगा इतना खून क्यों? उनका शरीर बार-बार सिहर उठता।

    काफी सालों से प्रत्येक वर्ष इसी तरह खून देखते आये थे। मगर इस छोटी-सी बालिका के प्रश्न को सुनकर उनके मन में भी बार-बार यही उदय होने लगा ‘इतना खून क्यों।’ वे उत्तर देना भूल गए। अनमने से नहाते नहाते इसी प्रश्न के विषय में सोचने लगे।

    हंसी अपना आंचल पानी में भिगोकर सीढ़ियों में बैठकर धीरे-धीरे उस खून के निशान को धोने लगी, उसको ऐसा करते देख छोटा भाई भी अपने छोटे-छोटे हाथों से वही करने लगा, हंसी का आंचल खून से लाल हो गया। राजा जब नहाकर आये तो देखा कि दोनों भाई-बहन ने मिलकर खून साफ कर दिया था।

    उस दिन घर लौटकर हंसी को बुखार हो गया। ताता अपनी दीदी के पास बैठकर अपनी अंगुलियों से उसकी बंद आंखों को खोलने की कोशिश करते हुए पुकार रहा था दीदी। दीदी रह-रहकर चौंक उठती।

    क्या है ताता कहकर उसे अपने पास खींच लेती और फिर उसकी आंखें बंद हो जाती। ताता चुपचाप बैठकर दीदी के चेहरे को देखता रहता, कुछ नहीं कहता। अन्ततः काफी देर बाद धीरे-धीरे अपनी दीदी से लिपटकर धीरे से बोला, ‘दीदी, तुम उठोगी नहीं?’ हंसी चौंककर जागकर उसे छाती से लगाकर बोली ‘क्यों नहीं उठूंगी भाई।’ मगर हंसी उठ नहीं पा रही थी। उसके क्षुद्र हृदय में जैसे अंधेरा और घर की छत पर लगातार बरसात की आवाज आ रही थी आंगन में इमली का पेड़ भी रहा था, रास्ते पर कोई पथिक नहीं था। केदारेश्वर एक वैद्य को साथ लेकर आये। वैद्य ने नाड़ी देखी, हालात अच्छे नहीं थे।

    अगले सुबह राजा जब स्नान करने आये तो उन्होंने देखा कि भाई-बहन उनके इंतजार में नहीं बैठे थे। उन्होंने सोचा शायद बरसात के कारण वह नहीं आये होंगे। स्नान और पूजा के बाद राजा जब पालकी में बैठे तो उन्होंने वाहकों को पालकी केदारेश्वर की कुटिया की ओर ले जाने को कहा। सिपाही चकित रह गये। मगर राजा की आज्ञा के आगे कुछ नहीं कह पाये।

    राजा की पालकी जब कुटिया पर पहुंची तो वहां भगदड़ मच गई। उस भगदड़ में हंसी की बीमारी के विषय में सभी भूल गए। सिर्फ ताता अपनी जगह से नहीं हिला। वह अपनी बेहोश दीदी के पास बैठकर उसके आंचल को अपने मुंह में दबाकर चुप बैठा उसे देखता रहा।

    राजा को कमरे में आता देखकर ताता ने पूछा, क्या हुआ है? परेशान राजा ने कोई उत्तर नहीं दिया। ताता गरदन हिला-हिलाकर फिर से पूछने लगा, दीदी को चोट लगी है क्या?

    चाचा केदारेश्वर ने परेशान होकर जवाब दिया, हां चोट लगी है। ताता उसी पल दीदी के पास जाकर उसका चेहरा उधर करने की कोशिश करने लगा, और उससे लिपटकर पूछने लगा, दीदी, तुम्हें कहां चोट लगी है? उसका अभिप्राय यह था कि वह उस जगह फूंक मारकर वहां सहलाकर उसकी सारी पीड़ा दूर करेगा। मगर जब दीदी ने कोई उत्तर नहीं दिया तो उसे सहन नहीं हुआ, छोटे-छोटे होंठ फूलने लगे, अभिमान से रोने लगा। कल से बैठा है, दीदी बोल क्यों नहीं रही? ताता ने किया क्या है जो दीदी उससे बात नहीं कर रही? राजा के सामने ताता का यह व्यवहार देखकर केदारेश्वर परेशान हो उठे। वह परेशान होकर ताता का हाथ पकड़कर उसे दूसरे कमरे में ले गए। फिर भी दीदी कुछ नहीं बोली।

    राजवैद ने भी चिंता जताई। शाम के समय राजा दो बार हंसी को देखने आये। उस समय बालिका बड़बड़ा रही थी। कह रही थी, ओ माँ, इतना खून क्यों?

    राजा बोले, बेटी, यह खून-खराबा मैं रुकवा दूंगा।

    बालिका बोली, आ भाई, हम दोनों खून धो देते हैं।

    राजा बोला, आ बेटी, मैं भी धोता हूं।

    शाम के बाद हंसी ने थोड़ी देर के लिए आंखें खोली थी। एक बार चारों ओर देखकर न जाने किसे ढूंढा। तब तक ताता दूसरे कमरे में रोते-रोते सो चुका था। उसे न देखकर हंसी ने फिर से आंखें मूंद ली। फिर नहीं खोली। रात के दूसरे प्रहर में राजा की गोद में हंसी की मौत हो गई।

    हंसी को जब हमेशा के लिए कुटिया से ले जाया जा रहा था तब ताता दूसरे कमरे में सोया पड़ा था। उसे अगर पता चलता तो वह भी शायद दीदी के साथ-साथ छोटी छाया की तरह चला जाता।

    ***

    3

    राजसभा सजी हुई है। भुवनेश्वरी देवी के मंदिर के पुरोहित किसी काम से राजा से मिलने आये हैं।

    पुरोहित का नाम रघुपति था। हमारे देश में पुरोहित को चोन्ताई भी कहा जाता है। भुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौदह दिन पश्चात आधी रात को चतुर्दश देवता की पूजा होती है। इस पूजा के समय एक दिन दो रातों तक कोई अपने घर से बाहर नहीं जा सकता, राजा भी नहीं। अगर राजा को बाहर आना हो तो चोन्ताई को दण्ड स्वरूप अर्थ देना पड़ता है। कहा तो यही जाता है कि इस पूजा को रात को मंदिर में नरबलि दी जाती है। इस पूजा में प्रथम जो पशुओं की बलि दी जाती है उसे राजमहल का दान कहा जाता है। इस बलि के लिये पशु लेने आज पुरोहित राजा के पास आये हैं। पूजा में अभी बारह दिन और रहते हैं।

    राजा ने कहा, इस साल से मंदिर में जीव-बलि नहीं होगी। पूरी सभा यह सुनकर अवाक् रह गई। राजा के छोटे भाई नक्षत्रराय के तो सिर के बाल खड़े हो गए।

    पुरोहित रघुपति ने कहा मैं यह कैसा स्वप्न देख रहा हूं।

    राजा बोले, नहीं पुरोहित जी, स्वप्न तो अबतक हम देख रहे थे, आज मुझे होश आया है। मां ने एक बालिका का रूप धरकर मुझे दर्शन दिये थे। वे कहकर गई हैं, करुणामयी जननी होकर वे अपने ही जीवों का रक्त नहीं देख सकती।

    रघुपति बोले, तो अबतक मां जीवों का रक्त कैसे पान करती रही?

    राजा बोले, नहीं, उन्होंने खून नहीं चाहा, तुम लोग जब रक्तपात करते थे तो वे मुंह फेर लेती थी।

    रघुपति बोले, महाराज, आप राजकार्य बहुत अच्छा जानते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। मगर पूजा के विषय में आप कुछ नहीं जानते। देवी को अगर जरा सी भी नाराजगी होती इस बात पर तो मुझे पहले ही पता चल जाता।

    नक्षत्रराय बुद्धिमानों की तरह सिर हिलाकर बोला, हां, यह बात ठीक है, देवी को अगर थोड़ी भी नाराजगी होती तो पुरोहित जी को पहले पता चल जाता।

    राजा बोले, जिसका हृदय कठोर हो गया हो उसे देवी की बातें नहीं सुनाई देती।

    नक्षत्रराय ने पुरोहित की ओर देखा‒भाव कुछ ऐसा था कि इस बात का उत्तर देना जरूरी है।

    रघुपति गुस्से में लाल होकर बोले, महाराज, आप नास्तिकों की तरह बोल रहे हैं।

    गोविन्दमाणिक्य ने गुस्से से लाल, पुरोहित की ओर देखकर कहा "पुरोहित जी, राजसभा में बैठकर आप बेकार

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