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21 Shreshtha Kahaniyan (21 श्रेष्ठ कहानियां)
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21 Shreshtha Kahaniyan (21 श्रेष्ठ कहानियां)

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सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला' का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में माघ शुक्ल ११, संवत् १९५५, तदनुसार २१ फरवरी, सन् १८९९ में हुआ था। वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा १९३० में प्रारंभ हुई। निराला की शक्ति यह है कि वे चमत्कार के भरोसे अकर्मण्य नहीं बैठ जाते और संघर्ष की वास्तविक चुनौती से आँखें नहीं चुराते। कहीं-कहीं रहस्यवाद के फेर में निराला वास्तविक जीवन-अनुभवों के विपरीत चलते हैं। हर ओर प्रकाश फैला है, जीवन आलोकमय महासागर में डूब गया है, इत्यादि ऐसी ही बातें हैं। लेकिन यह रहस्यवाद निराला के भावबोध में स्थायी नहीं रहता, वह क्षणभंगुर ही साबित होता है। अनेक बार निराला शब्दों, ध्वनियों आदि को लेकर खिलवाड़ करते हैं। इन खिलवाड़ों को कला की संज्ञा देना कठिन काम है। लेकिन सामान्यत वे इन खिलवाड़ों के माध्यम से बड़े चमत्कारपूर्ण कलात्मक प्रयोग करते हैं। इन प्रयोगों की विशेषता यह है कि ये विषय या भाव को अधिक प्रभावशाली रूप में व्यक्त करने में सहायक होते हैं। निराला के प्रयोगों में एक विशेष प्रकार के साहस और सजगता के दर्शन होते हैं। यह साहस और सजगता ही निराला को अपने युग के कवियों में अलग और विशिष्ट बनाती है। उनकी 21 श्रेष्ठ कहानियों का संकलन आपके हाथ में है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateMar 24, 2023
ISBN9789355991027
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    21 Shreshtha Kahaniyan (21 श्रेष्ठ कहानियां) - Suryakant Tripathi 'Nirala'

    1

    प्रेमपूर्ण तरंग

    बाबू प्रेमपूर्ण मेरे अभिन्न हृदय मित्र हैं। मेरे बी.ए. क्लास के छात्रों में आप ही सबसे वयोज्येष्ठ हैं। आपकी बुद्धि की नापतौल इस वाक्य से पाठक स्वयं कर लें कि, जब मैं कालेज में भर्ती हुआ, तभी से आप कालेज की चौथे साल की पढ़ाई रट रहे हैं-गोया मेरे देखते-देखते बी. ए. की परीक्षा में तीन बार फेल हो चुके। किन्तु फिर भी आप प्रतिभा से प्रवंचित नहीं हैं। यदि किसी को उनकी प्रखरता की परीक्षा लेनी हो तो उनसे वाद-विवाद और चाहे वितण्डावाद तक करके देख ले। उनके वाग्वाणों के अव्यर्थ सन्धान से प्रोफेसरों के भी हाथ से पुस्तक छूट पड़ती है,-मारे भय के या मारे क्रोध के,-यह बतावें तो वही बता सकते हैं। प्रेमपूर्ण को ऐसे और भी अनेक गुणों से आप पूर्ण पाइयेगा। इन्हीं कारणों से हम लोगों ने आप ही के सिर पर लीडरी का सेहरा बांधा है। किसी भी पराक्रमी तर्क-शिरोमणि की क्या मजाल जो हमारे प्रेमपूर्ण जैसे वासिद्ध धुरन्धर विद्या-लवणार्णव के रहते छात्रालय के सरस्वती के सपतों को नीचा दिखावे। अगर कोई बरी लत उनमें है तो वह है रोमेंस की तलाश। जब देखिए, आप रोमेंस के भूखे ही रहे ! फेल होने का यह भी एक मुख्य कारण है। बिना ‘रोमैंटिक’ नावेल की कुछ पंक्तियों की आवृत्ति किये रात को आपकी आँख नहीं लगती। संक्षेप में, आप कई विचित्र भावों के आधार, नहीं पूर्णाधार हैं। सबसे उल्लेखनीय कौतुक तो यह है कि प्राचीन काल के नामों की तरह ज्योतिर्विदों ने आपका नाम गुणानुसार ही रखा है। बिहारी सतसई के हरएक दोहे को अपने छात्र-जीवन में ही सार्थकता की चरम सीमा तक पहुँचा दिया है। कदाचित आप हिन्दी लिखना जानते होते तो बिहारी सतसई तथा अपर शृंगारी कवियों की कृति पर सजीव भाष्य लिख देते। फिर तो आपकी अनुदार मूर्ति से हिन्दी साहित्य का पिण्ड छुड़ाने के लिए लोग हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति के आसन पर आपको प्रतिष्ठित करके सविनय कहते ही,-खुलकर न सही, मन-ही-मन सही, कि प्रभो, अब ‘दूरमपसर’, साहित्य का सत्यानास खूब किया आपने, बस अब कृपा कीजिए!

    हम लोग प्रेमपूर्ण की प्रेम-कथा सुनते-सुनते ऊब गये थे। बंकिम बाबू ने अपने उपन्यासों में किसी नायक को एक से अधिक नायिका नहीं दी, हाँ, कहीं-कहीं अशुद्ध प्रेम को विशुद्ध या विशुद्ध को अशुद्ध करने के विचार से उन्होंने एक नायक के पीछे दो-दो नायिकाओं को प्रेम के कँटीले मार्ग पर चलाया है। (कदाचित एक नायिका के पीछे दो-दो नायकों को भी भिड़ाया है; हम इसकी कसम नहीं खाते। अस्तु।) यही हाल शेक्सपीयर का भी है। परन्तु यहाँ तो एकमात्र नायक प्रेमपूर्ण के पीछे एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, अगणित नायिकाएँ ! प्रेमपूर्ण के पास प्रतिदिन एक नयी नायिका की चिट्ठी आती है। ताज्जब तो यह कि इनकी सभी नायिकाएँ पढ़ी-लिखी होती हैं। किसी के पत्र में लिखा है, आपको देखकर जी व्याकल है; किसी के पत्र में है रात को नींद नहीं आती-करवटें बदलते-बदलते रात पार हो गयी; किसी के पत्र में है, बिन देखे नहिं चैन। प्रेमपूर्ण से जब पूछिए, कहाँ चले यार मेरे? तब यही एक उत्तर सुनिए कि, इससे मिलने जा रहा है, उससे मिलना है,-पत्र आया है। प्रमाणस्वरूप पत्र खोलकर दिखा देते। वे कोई ऐसे-वैसे प्रेमी नहीं हैं कि मैंह छिपाते, दिल के बड़े पाक-साफ हैं। उनका अधिकांश समय इस प्रकार प्रेमिकाओं से मिलने में ही व्यतीत होता है। उनके फेल होने का यह एक गौरवपूर्ण कारण है।

    आज सुबह को मैं ‘माधुरी’ में प्रकाशित द्विवेदीजी का एक लेख पढ़ रहा था कि प्रेमपूर्ण हाथ में चिट्ठी लिये आ पहुँचे। झुककर लेख का शीर्षक देखते ही कहा, उः, क्या पढ़ते हो ! इस नीरस लेख में क्या रखा है। ज़रा इधर देखो यह पत्र; पढ़ो तो, वह सरस शैली है कि पढ़ते ही मुग्ध हो जाओगे। फौरन मेरी समझ में आ गया कि यह वही नित्य की क्रिया है। मैंने अँझलाकर कहा, जब तक मैं इस लेख को समाप्त न कर लूँगा, तब तक तुम्हारी चिट्ठी नहीं पढ़ सकता; यह विद्वान का लेख छोड़ दूँ और तुम्हारे पत्र में किसके कलेजे में कटार भोंका’ देखें, क्यों न?

    लेख समाप्त करके प्रेमपूर्ण की चिट्ठी पढ़ने लगा। लिखा था -

    जब से आपको देखा तब से जी बेहाल है। यही आशा लगी है कि आप कब मिलेंगे। लिखने को तो बहुत जी चाहता है, परन्तु ज्यादा लिलूंगी तो आप भी क्या समझेंगे। लज्जावश हृदय के भाव प्रकट न कर सकी, और प्रकट करना असम्भव भी है; आप सहृदय हैं, समझने में देर न होगी कि मैं किस हालत में हूँ। रथयात्रा के दिन बड़ा-बाजार में मिलिए। अवश्य मिलिए, नहीं तो मैं जान पर खेल जाऊँगी। तरस-तरसकर मरने से एकदम कूच कर जाना कहीं अच्छा है। सोमवार, आषाढ़ बदी एकादशी,

    मैं आपकी

    तरंग

    1979

    29, डीयर लेन, कलकत्ता।

    पत्र को मैंने ध्यान से पढ़ा। मेरी दृष्टि अन्त की चार पंक्तियों में अटकी। देखकर प्रेमपूर्ण बोले, यह सब इस देव-दुर्लभ सौन्दर्य की करामात है बच्च, समझे?

    मैंने पूछा-और संग का असर बड़े-बड़े पर पड़ जाता है-कि, क्योंजी, तुमने कहीं वशीकरण तो नहीं सिद्ध कर लिया ! क्या बात है जो तुम्हारे पीछे स्त्रियाँ इस तरह हाथ धोकर पड़ जाती हैं? कुछ हमें भी सिखाओ,-तुम्हारा बड़ा जस मानूँगा, सच कहता हूँ।

    प्रेमपूर्ण-क्या सिखावें ! तुम्हारे चेहरे पर कहीं लावण्य का नाम भी तो हो? तुम्हें तो देखते ही ‘शुष्कं काष्ठं तिष्ठत्यग्रे’ की याद आ जाती है। अगर मेरी तरह इस असार संसार में स्वच्छन्द विहार करना चाहो तो भरते जाओरोमेंस के भाव; जब सिद्ध हो जाओगे तब तुम्हारा हृदय ही प्रेम का केन्द्र बन जायगा। फिर तो चुम्बक पत्थर लोहे को-वह कहीं भी हो-आप खींच लेगा।

    मैं-ठीक है, तो सिद्ध कब तक हो सकूँगा?

    प्रेमपूर्ण-इसकी कोई मीयाद नहीं। मिहनत जितनी ही करोगे मजा भी उतना ही चखोगे।

    आज रथयात्रा का दिन है। काटन स्ट्रीट की कौन कहे, सेन्ट्रल एविन्यू में भी गाड़ियों का तांता ही ताँता देख पड़ता है। फुटपाथ न होते तो आदमियों का चलना मुश्किल था। कितने ही लोग तो केवल इसी सभीते के कारण भीड़ की जांच-पड़ताल और अखबारों के लिए समाचार-संग्रह करना छोड़ सरकार की भरमुंह तारीफ करने लगे। अनेकों ने अनेकों को यह कहते सुना, ‘सर्कार दयालु दानी देता है दया से दान।’ इस उच्छ्वासमयी कविता को सुनते ही किसी समालोचक महोदय से न रहा गया; वे बोल उठे-‘सर्कार’ की जगह यदि ‘सर्कर’ होता तो छन्द शुद्ध उतरता, -‘सार’ शब्द कानों को कोंचता है।

    इधर प्रेमपूर्ण का और ही हाल था। पास तो उनके छदाम न था, लेकिन रोबदाब देखिए तो लखपती की भी शान को मात करते थे। वह ट्रॅगल्कट फैशनेबुल् बालों की बहार! वह इलाहाबादी सिर पर लखनवी ठाटबाट से बनारसी टोपी! आधुनिक सभ्यता के अदब से वह बैसाखी मुस्कुराहट! नुकीली नाक पर वह चश्मा! हरे-हरे! हाथ में रिस्टवाच, पैरों में दिल्ली का कामदार जोड़ा! कहाँ तक लिखें, गोया आपके चेहरे पर प्राच्य और पाश्चात्य भाव एक-दूसरे से सप्रेम आलिंगन कर रहे थे। पीछे चोटी और आगे इंगलिश फैशन! उधर कानों के दोनों बगल के बाल नदारद और इधर मूछे हवा में हिलोरें ले रही थीं।

    बेचारे ने तमाम मेला छान डाला पर कहीं कोई नहीं। किसी की मोटर निकलती,-बग्घी आती, तो आपके प्रेम-पिपासु नेत्र स्वागत के लिए बढ़ जाते। किसी महिला की मोटर किले के मैदान की ओर जाती तो आपकी मुरझायी हुई आशा की कली पर वासन्ती मलय का एक मधुर झोंका-सा लग जाता। हृदय में ध्वनि गूंज उठती-वह आयी! उच्छ्वास का झोंका खाकर खिला हुआ प्रेमकुसुम प्रेमिका की सेवा में स्वीकृत होने के लिए जाता, परन्तु बदले में मिलती थी-घृणा, तिरस्कार और प्रत्याख्यान। इस तरह बेअदबी का नतीजा हाथोंहाथ मिल जाता था। परन्तु आदत तो बुरी बला होती है। दूसरे आशा इतने सहज ही क्यों छुटने लगी? एक न हुई तो दूसरी अवश्य होगी, बस इसी विश्वास से एक दूसरी मोटर पर नजर डालते। वहाँ से भी चोट खाकर वापस आना पड़ता। यदि कलि-महाराज समय के सम्राट् न होते तो उस दिन आप पर जैसी मूसलाधार अग्निवर्षा हुई, उसे देखकर तो यही अनुमान होता है कि आप भस्म हुए बिना हरगिजन बचते। आपके बाप-दादों के बड़े भाग्य थेजो सहीसलामत घर पहुँच गये। घर पहँचते ही प्रेमपूर्ण मुझसे सारी विपत्तियों का बयान करने लगे। इतने में डाकिया चिट्ठी लेकर आया। एक पत्र प्रेमपूर्ण का भी था। लिफाफे के हस्ताक्षरों पर नजर पड़ते ही उनके चेहरे पर दूनी रोशनी आ गयी। मैंने पूछा, क्यों भई, क्या है जो मन-ही-मन खुश हो रहे हो? वे वही रोमेंस की हँसी हँसकर बोले, उसी का पत्र है, क्या लिखा है, सुनो।

    हमारे प्यारे,

    मेरे भाग्य ही खोटे थे जो रथयात्रा के दिन मैं आपसे नहीं मिल सकी। क्षमा कीजियेगा। आपकी सेवा में मैंने जो पत्र भेजा था उसमें यह लिखना भूल गयी थी कि अमक स्थान पर आपसे मैं मिलूँगी। यह मुझे तब मालूम हुआ जब मैंने आपके पत्र की दूसरी कापी देखी जो मेरे पास ही थी। अब आप मुझसे अलफ्रेड थिएटर में, फर्स्ट क्लास में, कल अवश्य मिलिए।

    सोमवार, आषाढ़ सुदी तीज, 1979;

    29 डीयर लेन, कलकत्ता।

    आप ही की

    तरंग

    शाम हो गयी थी। प्रेमपूर्ण बातचीत करना भूल गये। मझसे कहा, अब देर न करनी चाहिए। आज पत्नी-प्रताप’ का खेल होगा | बड़ी भीड़ होती है। जल्दी न जायंगे तो टिकट नहीं मिल सकता। आज भेंट अवश्य हो जायगी, क्यों न?

    इन इतने प्रश्नों का एक ही उत्तर था। सो मैंने ‘न’ में ‘हाँ’ मिलाकर बेमेल का मेल पूरा कर दिया।

    रात के दो बजचके हैं। दर्वाजे की खड़खड़ाहट से मेरी नींद उचट गयी। जब किसी की सख की नींद में बाधा पड़ती है तब विघ्नकारी चाहे परममित्र ही हो, परन्तु इस हरकत से नवाबी की याद आती और दुश्मन का सिर काट लेने को जी चाहता है। नामर्द जमाने से तंग आकर, किसी बेगनाह को कोसते हए, उठा और दर्वाजे के पास जाकर पकारा, कौन है?

    अरे यार, मैं हूँ प्रेमपूर्ण। आवाज बेजान थी। बस इतनी भूमिका से प्रेमपूर्ण के वियोगान्त नाटक का बहुत कुछ पता मिल गया। आखिर दर्वाजा बन्द करके मैं उन्हें अपने कमरे में ले गया। फिर तो इस विशुद्ध प्रेम के कौतूहल के आगे ‘नैनन को छोड़ नींद बैरन बिदा भई’; और लगा मैं पूछने कि, आज अपनी ‘तरंग’ में कितने गोते लगाये?-बहे-डूबे या सदेह बच आये? प्रेमपूर्ण के सचिन्त मौन से यह सूचित हो रहा था कि उनकी ‘तरंग’ ही नहीं आयी। फिर कौन गोते लगाता? विरक्ति के भय से मुझे ज्यादा छेड़छाड़ करने का साहस नहीं हुआ। न जाने वे अपनी उदास आशा को किन वाक्यों से और कब तक समझाते रहे।

    सुबह होते ही प्रेमपूर्ण का एक पत्र और आया। पत्र किसने लिखा, इसकी बिना ढूँढ़-तलाश किये ही मेरे मुँह से निकल गया, हो तो यार चुम्बक पत्थर, पर, लो खींच, या कि खिंच आओ, लो बुलाया कि खुद जाओ।’ मेरी कवित्व कला में दूसरों के लिए भले ही सरसता की मात्रा न हो और वे आँखों से पढ़कर कानों से उसे बाहर निकाल दें, पर प्रेमपूर्ण तो उसे सुनते ही खिल उठे। मुझे रोमेंस की नजर से देखते हुए उन्होंने लिफाफे का बन्द खोला। रात-भर की परेशानी और सुबह की खुमारी एक ही सिकण्ड में गायब! प्रेम का भी अजब हाल होता है! पत्र पर प्रेमपूर्ण की प्रीति की जो दृष्टि पड़ी उसका बयान, मैं तो तुच्छ हूँ, मेरे विचार में, चतुरानन तो क्या-हजार मुँहवाले शेषजी भी, न कर सकेंगे। पत्र में लिखा था-

    प्रिय,

    कल मेरे साथ मेरे बड़े भाई भी थिएटर देखने गये थे। लाचार होकर मुझे जनाना सीट में रहना पड़ा। यही कारण है कि आपसे मैं नहीं मिल सकी। क्षमा कीजियेगा। कल जगन्नाथघाट में मिलिए। मैं गंगा नहाने जाऊँगी। वहाँ मुझे कौन रोक सकता है? दर्शन अवश्य होंगे। वहीं यह हृदयहार उपहारस्वरूप अर्पित होगा। श्री गंगाजी से बढ़कर साक्षी और कौन है? इति शम्।

    बध, आषाढ़ सुदी 5,

    1979;

    29, डीयर लेन, कलकत्ता।

    आपकी अनुराग-भरी

    तरंग

    बस फिर क्या था! प्रेमपूर्ण के रोम-रोम से आनन्द छलक पड़ा। घाट की तैयारी होने लगी। आज उन्होंने मेरी कोई सलाह नहीं ली। चुपचाप उठकर चले गये।

    लौटे तो चेहरे पर उदासी की काली घटा उमड़ रही थी। कुछ पूछने से पहले ही मालूम हो गया कि इस बार भी वार खाली गया। इस एक हफ्ते के अन्दर प्रेमपूर्ण का प्रेमकलस वियोग की विकट ज्वाला से सूखकर ठनक रहा था। शरीर सूखकर काँटा तो नहीं हुआ, पर आधा जरूर रह गया था। मौसिमे बरसात थी, वरना इस वियोगी की आह क्या न कर डालती, यह कोई महाकवि शंकरजी से पूछ ले।

    डाकिया फिरचिट्टी लेकर हाजिर हआ। इस बार प्रेमपूर्ण का हौसला इतना पस्त हो गया था कि जान पड़ा मानो पत्र के लिए हाथ बढ़ाते हुए उन्हें शक्ति से बाहर काम लेना पड़ा। पत्र में लिखा था-

    मूर्खचन्द,

    जाहनवीजी की असंख्य तरंगें देखने पर भी तुम्हें ‘तरंग’ की याद नहीं आयी तो न सही; पर क्या वहाँ तुम्हें चुल्लू-भर पानी भी नहीं मिला?

    आषाढ़ सुदी 6, बृहस्पति, 1979;

    29, डीयर लेन, कलकत्ता।

    मैं हूँ-

    ‘एक तरंग’

    मैंने कहा, एक उपाय अब और करके देखो। 29, डीयर लेन, में कौन रहता है, इसका भी पता लेना चाहिए।

    मेरी बात मानकर बेचारे प्रेमपूर्ण 29, डीयर लेन तक गये। वह प्रेमिकागार के बदले छात्रागार निकला जिसमें उन्हीं के सहपाठी छात्र रहते थे। सब-के-सब उन्हें देखते ही हँस पड़े।

    [‘मारवाड़ी-सुधार’,मासिक, कलकत्ता, वैशाख, संवत् 1980 वि. (मई, 1923)। असंकलित।]

    2

    क्या देखा

    प्रेस की बगल में थाना है जहाँ शान्ति के ठेकेदार रहते हैं। हिन्दू-मुसलमानों की एकता के दृश्य कोई आँखें खोलकर देखना चाहे तो जब चाहे, हमारे पच्छिमवाले झरोखे से झाँककर देख ले। यह अनन्य प्रेम हम सुबह-शाम हमेशा देखा करते हैं। तारीफ तो यह कि वह प्रेम केवल मनुष्यों में नहीं, वहाँ के पशु-पक्षियों में भी है। हिन्दुओं के पालतू कुत्ते और मुसलमानों की मुर्गियाँ भी प्रेम करती हैं। उनका द्वेषभाव बिल्कुल दूर हो गया है। वहीं पीपल के पेड़ के नीचे एक छोटे-से चबूतरे पर भगवान भूतनाथ जी स्थापित हैं। चार चावल चढ़ाकर चक्रवर्ती बनने के अभिलाषी शिवजी के अनन्य भक्त हिन्दुओं में से हरएक चार-चार चवालिस तो जरूर चढ़ाता है, और श्रद्धेय शिवजी को अपने पंजों में फाँसकर-जैसे नीचेवाले पर ऊपरवाला साथ हफ्ते के सवारी कसता है, मुर्गियाँ शिवजी पर चढ़ाये चावल चुगा करती हैं और मारे आनन्द के सिर उठाकर ककई कैं’ की हर्षध्वनि से हिन्दुओं को चक्रवर्ती (चक्की में पिसनेवाला) बना देने के लिए खुदा से दुआ माँगती हैं।

    मुझे रात को नींद नहीं आयी। सुबह को बिस्तर पर से उठकर चारपाई की बगल में मेज के सहारे बैठा हुआ आपबीती नयी घटना पर बड़े गौर से विचार कर रहा था। वह घटना बड़ी लम्बी-चौड़ी थी, और श्रृंगार से वीभत्स तक प्रायः सभी रस उसमें आ गये थे। सोचने लगा-

    उसका प्रेम सच्चा है या झूठा? उसने कहीं प्रेम की नकल तो नहीं की? परन्तु क्यों फिर उसने अपने पीछे मर मिटनेवाले-पसीने की जगह खून की नदियाँ बहानेवाले बड़े-बड़े करोड़पतियों को उस दिन टके-सा जवाब दे दिया? वे बेचारे अपना-सा मुँह लेकर लौट गये। अगर वह वेश्या है तो वह उसी की क्यों न हुई जिसके पास धन है? परन्तु-यह किसी दुश्मन की कारस्तानी भी हो सकती है कि मुझे फंसाने के लिए उसने सधकर यह जाल रचा हो? लेकिन उसकी भरी हई आवाज में बनावट नहीं थी-त्रियाचरित्र का स्वर नहीं बज रहा था। कुछ हो, मैंने जिस शान पर स्त्री का मुंह देखने से इन्कार कर दिया। उसे अन्त तक जरूर निभाऊँगा। बुरा हो इस साहित्य-सौन्दर्य का जिसके फेर में पड़कर कवि सुन्दरलालजी के साथ मुझे वेश्यालय जाना पड़ा और सौन्दर्योपासना की प्रथम पूजा मैंने एक वेश्या के चरणों पर अर्पित की!

    इतने में ‘कुकड़ूं कूं’ के कर्कश नाद ने कान ऐंठ-से दिये। चौंक पड़ा, विचार का सिलसिला टूट गया।

    दस बजते-बजते सुन्दरलालजी की भेजी हुई एक चिट्ठी मिली। चिट्ठी उनका नौकर मेज पर रख गया था। मालूम हुआ किचिट्ठी मेरी नहीं, उनकी है; कारण से मेरे पास भेजी गयी है। पत्र की इबारत इस तरह है-

    13, न्यू स्ट्रीट, कलकत्ता

    3. 9. ’23

    प्रिय सुन्दरजी,

    आज शाम को आप अपने मित्र को लेकर जरूर आइए; आपके मित्र वही जो उस दिन, बुध को, आये थे। जियादा और क्या लिखू-

    आपकी

    हीरा

    बस इतने ही से, पत्र के बाहरी समाचार के सिवा उसका अन्दरूनी मतलब समझ में नहीं आया। सिर पर सन्देह का भूत सवार था ही, लगा विचार की सीधी-टेढ़ी गलियाँ झाँकने। मैंने लाख प्रयत्न किये, पर इस बागी से मेरी एक न चली; और चलती भी कैसे? सवार तो वही था न? मैं तो उस वक्त किराये का टट्ट ही बन रहा था। अगर सौन्दर्योपासना की शरण लेता और उस देवी की भेंट-घड़ीभर का मुजरा सुनना कबूल करता तो पहरों की उधेड़-बुन में पड़ा अब तक हैरान न होता; पर इज्जत का खयाल अंगद की तरह पैर जमाये रास्तारोके हुए था। हठी मन बार-बार कह उठता था-‘असम्भव क्यों है? सौन्दर्योपासना और ब्रह्मचर्य-पालन दोनों एक साथ क्यों नहीं निभ सकते?’ विरोधाभास कहता था-‘तो फिर चलो, सुनो मोजरा, डरते क्यों हो?-अनबूड़े बूड़े तिरे जे बूड़े सब अंग।’ दुश्मनों की शिकायत का खयाल और महिलाओं की मर्यादा रखने की आदत पीछे हटाते थे तो साहित्य, संगीत, कला-कौशल, रूप-लावण्य, अंगों की चारुता और मनोभावों की विशदता, सौन्दर्य का सारा परिवार लालच में फंसाकर लगाम ढीली कर देता था और बढ़ने का इशारा करता था। इस मौके पर रामायण की अच्छी-अच्छी जितनी चौपाइयाँ याद थीं, घोख डालीं, पर असर उनका कुछ न हुआ। संस्कार महाराज मन के चर्खे पर सूत-जैसा कात रहे थे, गुनगुनाहट की तरफ ध्यान नहीं दिया। अन्त को यही सूझा कि चलकर सुन्दरलालजी का सहारा माँग, हाथ लगा देंगे बेड़ा पार हो जायगा, नहीं तो डोंगी करवट है ही।

    नंगे सिर क्वार की कड़ी धूप बरदाश्त करते हुए किसी तरह मैंने मील-भर रास्ता तै कर डाला। सुन्दरलालजी पुस्तकालय में बैठे हुए कुछ लिख रहे थे। मुझे देखते ही कलम रख दिया और मुस्कराते हुए कहा, इतनी जल्दबाजी? अभी तो पूरे छः घण्टे और इन्तजार करना है।

    बात क्या है सुन्दरलालजी, मेरी कुछ समझ में नहीं आता, मैं एक साँस में कह गया, इससे मेरी ऐसी कोई जान-पहचान नहीं, क्यों वह इतना मेरे पीछे पड़ रही है। मुझे बचाइए।

    "अजी, वह बाघ है जो खा

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