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Ghar Aur Bhahar (घर और बहार)
Ghar Aur Bhahar (घर और बहार)
Ghar Aur Bhahar (घर और बहार)
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Ghar Aur Bhahar (घर और बहार)

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About this ebook

Rabindranath Tagore is a song, a colour, and a never-ending saga. He is not a writer in any particular language, but, has kept the common man in different situations. He strongly believed and followed the phrase "The whole world is a family".
His Creativity emerged from his soul. Even though he wrote two of India's national songs. he has never been the traditional nationalist. A poet's poet, he is a maker of not only modern Indian literature, but also modern Indian mind and civilization. His world-wide acclaim as a social, political, religious and aesthetic thinker makes him a living presence. He has written many novels, poems and short stories. Our book is also one of his amazing writings.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateJul 30, 2020
ISBN9789352965267
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    Ghar Aur Bhahar (घर और बहार) - Ravindranath Tagore

    पण्डित

    घर और बाहर

    विमला की आत्मकथा

    ओ मां! आज मुझे याद आ रहा है तुम्हारे माथे का सिंदूर, तुम्हारी चौड़े लाल पाड़ की साड़ी और तुम्हारी शांत, स्निग्ध, गंभीर आंखें। जो कुछ मैंने देखा, वह मेरे हृदय के आकाश में भोर बेला की लालिमा की भांति छा गया। हमारी जीवन की यात्रा उसी स्वर्ण संबल के साथ आरंभ हुई। और उसके बाद? पथ में काले बादल डकैतों की तरह घिर आए। उन्होंने हमारे प्रकाश संबल का एक कण भी नहीं छोड़ा परन्तु जीवन के ब्रह्ममुहूर्त में जो उमा सती का दान मिला था, वह कुसमय में छिना अवश्य किन्तु वह क्या नष्ट हो सकता था?

    हमारे देश में सुंदर उसी को कहते हैं जो गौर वर्ण हो किन्तु जो आकाश हमें प्रकाश देता है वह स्वयं नील वर्ण है। मेरी मां श्यामल वर्ण थीं, उनमें पुण्य की दीप्ति थी। उनका रूप, रूप के गर्व को लज्जित करता था।

    सब यही कहते हैं कि मैं एकदम मां की तरह दिखती हूं। इसी बात पर बचपन में मैं दर्पण पर क्रोधित हो उठी थी। जैसे उसी ने मेरे सर्वांग के प्रति अन्याय किया हो। मेरी देह का रंग मानो मेरा न हो, वह जैसे किसी और की चीज हो, आरंभ से अंत तक गलत।

    सुंदरी तो नहीं थी किन्तु मां की भांति सतीत्व का यश पाने की प्रार्थना देवता से किया करती थी। विवाह तय होते समय मेरे ससुराल से आए ज्योतिषी जी ने मेरा हाथ देख कर कहा था, यह कन्या सुलक्षणा है, यह सती लक्ष्मी होगी। सुनकर सभी स्त्रियां कहने लगीं‒

    हां, क्यों नहीं, विमला अपनी मां की तरह तो दिखती है।

    राजा के यहां मेरा विवाह हुआ। बादशाह के समय से उनका यह सम्मान चला आ रहा था। बालपन में राजकुमार की रूपकथा सुनी थी जिससे हृदय-पटल पर एक छवि अंकित हो गई थी। राजा के पुत्र की देह चमेली की पंखुरियों से बनी होगी, युगों-युगों से जो कुमारिकाएं शिवपूजन करती आई हैं उन्हीं की एकाग्र मनोकामनाओं की भांति उनका मुख रचा गया होगा। क्या नयन होंगे, कैसी सुंदर नाक होगी। भीगती हुई नसों की रेखाएं भंवरे के दो पंखों की भांति काली व कोमल होंगी।

    स्वामी (पति) के साक्षात् दर्शन हुए तो पाया कि उस कल्पना से कोई मेल नहीं है, उनका रंग भी मेरी तरह ही है। अपने रूप के अभाव का संकोच कुछ कम हुआ किंतु छाती से एक गहरी हूक निकली। अपने रूप के लिए भले ही मारे लज्जा से मर जाती, किंतु हृदय में बसे राजकुमार की छवि तो निहार लेती।

    मैं समझती हूं कि नेत्रों के पहरे से दूर भीतर ही भीतर खिलने वाला सौंदर्य अच्छा होता है। तब वह भक्ति रूपी स्वर्ग में जा विराजता है। तब उसे किसी शृंगार की आवश्यकता नहीं रह जाती। मैंने बालपन में देखा है कि भक्ति के सौंदर्य में सब कुछ ही मनोहारी हो उठता है। मां जब सफेद पत्थर की तश्तरी में छिले फलों के टुकड़ों से जलपान संजोती, केवड़े की सुगंध में रचे कपड़े में पान की बीड़े सहेजती, पिताजी भोजन करते तो ताड़ के पंखे से मक्खियां हटाती, तब उस लक्ष्मी स्वरूपा मां का स्नेह व हृदय के अमृतरस की धारा अपरूप सौंदर्य के सागर में जा मिलती थी, यह मैं बालपन से ही समझती आई हूं।

    भक्ति का वह सुर क्या मेरे हृदय में न था? अवश्य था। उसमें न तो तर्क था, न भले-बुरे का विवेक, वह एक सुर मात्र था। समस्त जीवन को यदि जीवन विधाता के मंदिर प्रांगण में एक स्तुतिगान के रूप में बज उठने की सार्थकता होती तो, प्रभात के सुर ने अपना काम आरंभ कर दिया था।

    आज भी याद है जब मैं सुबह-सुबह पति के चरणों की धूलि सिर से लगाती थी तो ऐसा लगता था मानो मेरा सुहाग सिंदूर शुक्र तारे की भांति झिलमिला उठा हो। एक दिन सहसा आंख खुल जाने पर वह हंसकर बोले-अरे विमला! क्या कर रही हो? तब ऐसी लाज आई कि पूछो मत, वह घटना मैं भूली नहीं हूं। उन्होंने शायद सोचा था कि मैं छिप कर पुण्य कमाना चाहती हूं। किंतु न, वह मेरा पुण्य न था, वह मेरा नारी हृदय था, जिसका प्रेम स्वयं ही पूजा करना चाहता था।

    हमारा ससुर परिवार अनेक नियम-कायदों से बंधा था। वहां कितनी ही परंपराएं मुगल व पठानों की थीं तथा कितने ही विधान, मनु व पराशर के युग से थे। मेरे स्वामी एकदम निराले थे। अपने वंश में केवल उन्होंने ही विधिवत अध्ययन किया व एम. ए. पास किया। उनसे बड़े दो भाई अल्पायु में चल बसे, उनकी कोई संतान भी न थी। मेरे स्वामी मदिरा नहीं पीते, उनके चरित्र में कोई चंचलता भी नहीं है। इस कुल में यह गुण ही मानो दोष की श्रेणी में आता था। वे लोग मानते थे कि इतनी पवित्रता गरीबों को ही शोभा देती है। कालिमा तारों में नहीं चंद्रमा में ही अधिक होती है।

    सास-ससुर की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी थी, अतः ददिया सास ही घर की मालकिन थीं। मेरे पति उनकी आंखों के तारे थे, अतः वह परिवार के नियम कानूनों की अवहेलना का साहस रखते थे। जब उन्होंने मिस गिल्बी को मेरी शिक्षिका व संगिनी नियुक्त किया तो सभी को विष वमन का अवसर मिल गया किंतु उनका हठ बना रहा। उन दिनों उन्होंने ‘बी. ए.’ पास कर ‘एम. ए.’ में प्रवेश लिया था। पढ़ाई-लिखाई के कारण वह कलकत्ता में ही रहते थे। वह प्रायः मुझे पत्र लिखते। पत्र की भाषा बेहद सादी व संक्षिप्त होती किंतु मुझे ऐसा प्रतीत होता कि पत्र पर उभरे गोल-सुघड़ अक्षर मुझे एकटक निहार रहे हैं।

    एक चंदन के संदूक में मैं उन पत्रों को सहेजती व रोज बाग से फूल लाकर उन पर चढ़ाती। उन दिनों मेरी परीकथाओं का वह राजकुमार अरुणलोक में चन्द्रमा की भांति खो गया था। तब वास्तविक राजपुत्र मेरे हृदयसिंहासन पर आ विराजे थे। मैं राजपुत्र की रानी थी किंतु मेरा सच्चा सुख उनके चरणों में ही था।

    मैंने कुछ पढ़ाई-लिखाई की है इसलिए आज की भाषा से परिचित हूं। अपनी ही बातें मुझे कविता जैसी लगती हैं। इस काल से अनजान होती तो मैं उन दिनों उत्पन्न भावों को गव्य मान बैठती, समझती कि कन्या रूप में जन्म पाया है, जैसे यह मेरी गढ़ी कहानी नहीं है वैसे ही स्त्रियों को प्रेम की भक्ति का जामा पहना देती है, यह भी साधारण-सी बात है। इसमें कोई काव्य का गुण है, यह एक क्षण भी न सोचती।

    किशोरावस्था से युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते मैं एक नए ही युग में आ पहुंची हूं। जो विश्वास की भांति सहज व साधारण था वह काव्य कला की भांति हो गया? किसी सधवा की पति-भक्ति व विधवा के ब्रह्मचर्य में कैसा कवित्व भरा हो, यह बात प्रतिदिन कही व सुनी जाती है। इसी से जान लें कि सत्य व सुंदर अब एक नहीं रहे। क्या सुंदर की गुहार लगा कर सत्य की वापसी संभव है?

    ऐसा नहीं कि प्रत्येक स्त्री का मन एक ही सांचे में ढला होता है, पर मैं इतना जानती हूं कि मेरे मन में मां की तरह भक्ति करने की तीव्र प्यास थी। वही मेरा सहज मनोभाव था किंतु बाहर आते-जाते वह असहज हो उठा है।

    मेरा भाग्य ही ऐसा था कि स्वामी मुझे इस भक्ति का अवसर ही नहीं देना चाहते थे। यही उनकी महानता थी। तीर्थ के धनलोलुप पंडित पूजन के लिए कितना जोर डालते हैं क्योंकि वह पूजनीय नहीं होते। संसार में कायर पुरुष ही स्त्री से पूजा करवाना अपना अधिकार समझते हैं। इससे पुजारी व पूज्य दोनों ही अपमानित होते हैं।

    किन्तु मेरा इतना आदर क्यों? शृंगार सामग्री, नूतन वस्त्र, दास-दासी द्वारा नित उनके प्रेम का परिचय मिलता। इन सबको एक ओर धकेल कर मैं चरणसेवा का अवसर कैसे पाती? स्वयं पाने की अपेक्षा मेरे लिए देना अधिक आवश्यक था। स्वभाव से ही बैरागी प्रेम तो पथ के दोनों ओर उगे फूलों की भांति होता है। वह सजे-संवरे कक्ष में मिट्टी के टब में अपना सौंदर्य व ऐश्वर्य प्रकट नहीं कर पाता।

    अंतःपुर की सभी प्रथाओं को ठुकरा देना मेरे पति के वश के बाहर था। इसलिए दिन-दोपहर उनसे भेंट होना संभव न था। मुझे आने का नियत समय ज्ञात था, अतः हमारा मिलन यूं ही नहीं हो जाता था। वह कविता की भांति छंदमय था। दैनिक कार्यों से निबट कर, स्नान करके, यत्नपूर्वक बाल संवार कर, सुंदर वस्त्र धारण कर व माथे पर सिंदूर सजा कर मैं अपनी देह व मन को संसार से एक ओर हटा कर उस व्यक्ति को समर्पित कर देती। वह समय अल्प होने पर भी अपनी अल्पता के बाद असीम था। उस सुख की होड़ किससे होगी?

    मेरे पति प्रायः कहते कि स्त्री-पुरुष के अधिकार समान हैं इसीलिए उनमें प्रेम का संबंध है। इस विषय में मैंने कभी तर्क तो नहीं किया किंतु मेरा मानना था कि भक्ति में मानव की समानता से कोई बाधा नहीं आती। भक्ति मनुष्य को समानता के स्तर पर लाती है। प्रेम की थाली में भक्ति की पूजा आरती के समान है। प्रेम करने वाले दोनों जन पर वह प्रकाश समान भाव से ही आलोकित होता है। आज मैं निश्चित रूप से कह सकती हूं कि स्त्रियों का प्रेम पूजा करके ही पूजनीय होता है। यदि नहीं हो पाता तो ऐसे प्रेम पर धिक्कार है। प्रेम का दीपक जलने पर केवल शिखा ही ऊपर उठती है। जला हुआ तेल तो नीचे ही रह जाता है।

    प्रियतम! आपने मेरी पूजा स्वीकार नहीं की, यदि कर लेते तो अच्छा ही होता। तुमने मुझे सजा-संवार कर प्रेम दिया, सिखा-पढ़ा कर प्रेम दिया, जो मैंने चाहा वह देकर प्रेम दिया, जो नहीं चाहा वह भी देकर प्रेम दिया-मुझे प्रेम करते समय तुम्हारी पलक तक नहीं झपकती-मेरी देह को तुमने स्वर्ग सौभाग्य माना है। इसी कारण मैं गर्वित हो उठी, मुझे ऐसा लगा मानो तुम मेरे ही ऐश्वर्य के लोभ के द्वार पर आ खड़े हुए। तब मैं रानी के सिंहासन पर बैठ कर मान करने लगती हूं। मेरे अधिकार, मेरी इच्छाएं बढ़ती ही चली जाती हैं, क्या कभी उनकी तृप्ति नहीं होगी?

    क्या पुरुष को वश में करने में ही स्त्री का सच्चा सुख है? यदि भक्ति के बीच इस गर्व को नहीं त्याग पाती तो उसकी रक्षा कैसे होगी? शंकर एक भिक्षुक की भांति अन्नपूर्णा के द्वार पर आए थे किंतु उनके रौद्र तेज को सहन करना अन्नपूर्णा के वश में न था, यदि उन्होंने शिव के लिए घोर तप न किया होता।

    आज भी याद आता है कि मेरा सौभाग्य अनेक लोगों के लिए ईर्ष्या का विषय था। ईर्ष्या स्वाभाविक भी थी-मैंने भी तो सब कुछ बैठे-बिठाये मुफ्त में ही पा लिया था। परंतु क्या मुफ्तखोरी हमेशा चल पाती है? कभी न कभी तो दाम चुकाने ही पड़ते हैं, नहीं तो विधाता सह नहीं पाता। इस सुख-सौभाग्य का ऋण भी तो चुकाना पड़ता है। ईश्वर सब कुछ देता है परंतु हमें मिलता तो गुणों के अनुसार ही है। कभी-कभी दुर्भाग्य ऐसा भी होता है कि पाई हुई चीज भी हाथ-पल्ले से निकल जाती है।

    मेरे सौभाग्य पर अनेक कन्याओं के पिता गहरी सांसें भरते थे। क्या मेरे रूप व गुण इस योग्य थे कि मैं इस घर की बहू बन पाई? यही जिज्ञासा व चर्चा सबके बीच थी। मेरी सास व ददिया सास बेहद सुंदर थीं। मेरी दोनों विधवा जेठानियों की भांति रूपवती स्त्रियां भी कम ही देखने में आती हैं किंतु जब वे दोनों अल्पायु में ही विधवा हो गईं तो मेरी ददिया सास ने प्रण किया कि वह अपने पोते के लिए अधिक रुपसी की खोज नहीं करेंगी। उनका यही प्रण मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ वरना मेरी औकात ही क्या थी?

    हमारे भोग-विलास से भरपूर घर में बहुत कम स्त्रियां ही यथार्थ सम्मान पा सकीं। शराब के प्यालों की झाग व घुंघरुओं की झनकार में उनका जीवन स्वाहा हो चला था, किंतु तब भी वे बड़े खानदान की बहू होने का अभिमान संजोए बैठी थीं। मेरे पति न तो शराब ही छूते थे न स्त्री देह के लोभ में मारे-मारे फिरते थे तो क्या यह मेरा गुण था? पुरुषों के उन्मत्त हृदय को वश में रखने का कोई मंत्र भी मेरे पास न था। यह केवल मेरा सौभाग्य ही था और कुछ नहीं। घर की अन्य स्त्रियों का भाग्य लिखते समय जाने कैसे अक्षरों की बनावट टेढ़ी हो गई। संध्या बीतते-बीतते उत्सव समाप्त हो चला, केवल यौवन रूपी बाती ही सारी रात जलती रही। चारों ओर केवल ज्वाला ही शेष रही।

    मेरे स्वामी का पौरुष दोनों भाभियों के लिए अवज्ञा का विषय था। संसार रूपी नाव क्या एक ही आंचल की पाल से खींची जा सकती है? उन्हें जान पड़ता था कि मैंने स्वामी से सुहाग की चोरी की है। मेरी हर बात में उन्हें छलना व बनावटीपन दिख जाता। पति मुझे नवीनतम फैशन के वस्त्रों से सजाया करते। ढेर से रंग-बिरंगे वस्त्रों के आयोजन से वह जल-भुन जातीं और ताना देतीं-देखो तनिक भी लाज नहीं है, देह को दुकान की तरह सजा रखा है।

    मेरे पति सब कुछ जानते थे किंतु स्त्रियों के लिए उनका हृदय करुणा से भरा रहता। वह मुझसे कहते-क्रोध मत करो, मुझे याद है मैंने एक बार कहा था-स्त्रियों का मन छोटा व टेढ़ा होता है। उन्होंने उत्तर दिया-जिस तरह चीन की स्त्रियों के पांव छोटे व टेढ़े होते हैं उसी तरह हमारे समाज ने स्त्रियों के मन को चारों ओर से दबा कर टेढ़ा व छोटा कर दिया है। भाग्य उनके जीवन के साथ जुआ और चोरी ही करता है। उनका पूरा अस्तित्व दान पर ही निर्भर है, क्या उनका अपना कोई अधिकार नहीं?

    दोनों जेठानियां मनमांगी वस्तु पातीं किंतु जब वे इसके बदले जरा भी कृतज्ञता न दर्शातीं तो मुझे बड़ी तकलीफ होती। बड़ी जेठानी का स्वभाव सात्विक था। पूजा-पाठ, जप-तप में ही उनका दिन बीतता किंतु वह भी अपने वकील भाई द्वारा मुकदमा दायर करने की धमकी देतीं-पति के वचन का पालन करना था, अतः मैं उन्हें कुछ न कहती। मेरे मन में कभी-कभी विचार आता कि भलेपन की भी एक सीमा होती है, सीमा पार होने से तो पौरुष पर ही आघात होता है। मेरे पति कहते, कानून व समाज उनकी भाभियों के पक्ष में नहीं है। एक दिन जिन वस्तुओं को वे पति के अधिकार बल पर अपना मान कर निश्चिंत थीं, वही अब दूसरे से मांग कर लेनी पड़ती हैं। इस पर भी कृतज्ञता की मांग भी मार खाने के बाद बख्शीश देने की भांति होगा। सच कहूं? अनेक अवसर ऐसे आए जब मैंने सोचा कि कुछ कठोरता मेरे पति में भी होनी चाहिए।

    मंझली जेठानी का स्वभाव कुछ भिन्न था। उनकी उम्र कम थी तथा वह सात्विक होने का ढोंग भी नहीं रचती थीं। उनकी बातचीत, चाल-ढाल व हास-परिहास में रस का विकार था। उनकी युवती दासियां भी चाल-चलन के लिहाज से बहुत अच्छी न थीं। परंतु इस पर आपत्ति कौन करता? घर का रिवाज ही कुछ ऐसा था। मेरे पति कुमार्गी न थे। शायद मेरा यही सौभाग्य वह सह नहीं पाती थीं तथा मेरे पति की राह में तरह-तरह

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