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Pyar, Kitni Baar! (प्यार, कितनी बार!)
Pyar, Kitni Baar! (प्यार, कितनी बार!)
Pyar, Kitni Baar! (प्यार, कितनी बार!)
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Pyar, Kitni Baar! (प्यार, कितनी बार!)

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About this ebook

उसकी प्रार्थना ईश्वर के द्वारा तत्काल स्वीकार कर ली गयी। रात के खाने तक उसे पता चल गया कि आये हुए सज्जन चाचा के बहुत अच्छे मित्र हैं। उनकी पुत्री का नाम रागिनी है और उसने लखनऊ विश्वविद्यालय में बी. ए. में प्रवेश लिया है। अभी हॉस्टल मिलने में कुछ दिन लगेंगे तब तक वह यहीं रहेगी। माता- पिता अपनी पुत्री को यहाँ छोड़ने आए हैं।
रात में जब वह बिस्तर पर लेटा तो स्वयं को एक नयी सुखद अनुभूति से लिपटा हुआ पाया। सोचने लगा कि अगर दस दिन भी यहाँ रही तो अच्छी खासी जान पहचान हो जायेगी। उसके बाद भी विश्विद्यालय कितनी दूर है ही । छुट्टी और त्योहारों पर भी वह यहाँ आया ही करेगी। मुलाकात की हर संभावना स्वतः उसकी आँखों के सम्मुख एक - एक कर प्रकट होने लगी। यह तो प्रतिभा से भी अधिक सुंदर हैं! इसके केश कितने घने और लम्बे हैं। प्रतिभा के बाल तो कंधे तक कटे हुए थे। इसके नैन-नक्श कितने तीखे हैं और यह प्रतिभा से ऊँची भी है। हाँ प्रतिभा इससे अधिक गोरी थी, लेकिन यह उससे कहीं अधिक सुन्दर है। बिलकुल सिने जैसी दिखती है।
अब आशीष को विधाता की सारी चाल समझ में आने लगी। क्यों किसी लड़की ने आज तक उससे प्रेम नहीं किया? क्यों प्रतिभा उसे नहीं मिली? क्यों उसका मन तैयारी में नहीं लगा और उसका कहीं चयन नहीं हुआ ? क्यों उसे बनारस छोड़कर लखनऊ आना पड़ा? सारे प्रश्नों का बस एक ही उत्तर था - रागिनी।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateMar 24, 2023
ISBN9789356845671
Pyar, Kitni Baar! (प्यार, कितनी बार!)

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    Pyar, Kitni Baar! (प्यार, कितनी बार!) - Pratap Narayan Singh

    एक

    (1)

    अरे बाप रे, लगता है कैंट से पैदल ही चले आ रहे हो। मेरे चेहरे से टपकते हुए पसीने और भीगे शर्ट को देखकर सुधीर ने परिहास किया। वह दरवाजा खोलकर चौखट के बीच में खड़ा हो गया था। शरीर पर बनियान और पजामा था।

    अरे यार…तुम ऐसी जगह पर रह ही रहे हो। गर्मी के कारण मेरे स्वर में थोड़ा सा चिड़चिड़ापन आ गया था, अब अपना यह कोल्हू दरवाजे के बीच से हटाओ, गर्मी से जान निकल रही है…चलो जल्दी से अंदर… उसने हटने का प्रयत्न किया फिर भी मैं लगभग उसे ठेलते हुए अंदर घुसा। जल्दी से जल्दी पंखे के नीचे पहुँचना चाहता था। सुधीर शुरू से ही भारी भरकम शरीर वाला था।

    नदेसर पोस्ट ऑफिस पर ही रिक्शा से उतर गया था…चल-चल कर बुरा हाल हो गया। धूप सुई की तरह चुभ रही है।

    वहाँ से तो पाँच मिनट का ही पैदल रास्ता है। सुधीर दरवाजा बंद करके मेरे पीछे हो लिया।

    अन्दर कमरे का विन्यास वही था जो सामान्यतया छात्रों के कमरे का होता है। सिकुड़ी हुई चादर, कई जगहों पर गद्दे का नंगा बदन, बिस्तर के ऊपर कुछ बिखरे हुए कपड़े और समाचार पत्र, साथ में एक-दो किताबें भी। कुर्सी की पीठ पर गमछा और हत्थे पर चड्ढी व बनियान। मेज पर किताबें गजी हुईं। फर्श पर यहाँ-वहाँ मोजे फेंके हुए, कहीं-कहीं प्याज और लहसुन के छिलके भी दिखाई दे रहे थे। अंतिम बार पोछा कब लगा था, पता नहीं। छत और दीवारों के कोनों से जाले लटक रहे थे। खिड़की की जाली धूल से भरी हुई थी।

    मैंने ‘वैद्यजी की गली’ पूछा तो किसी ने दूसरी ओर बता दिया। कहते हुए मैं धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। मेरे ठीक ऊपर टँगा पंखा किसी बूढ़े की तरह लाठी टेकता हुआ चल रहा था। फिर भी छाये में आ जाने से राहत तो मिली। वैसे कोई चीज कितना कार्य कर रही है उससे अधिक उसके होने और कार्य करने की कल्पना प्रभावशाली होती है। मुझे याद है एक बार बड़की माई हम सबके साथ सिनेमा देखने गईं। एक दृश्य में वर्षा होने लगी। उन्होंने वहीं पर दंगा शुरू कर दिया कि मुझे बाहर निकालो ठण्ड लग रही है। किसी का समझाना काम नहीं आया, अंततः उन्हें बाहर निकालकर ही घर के लोगों ने सिनेमा का शेष भाग देखा।

    सावन शुरू हो गया था। इस बार बारिश बहुत देर से आरम्भ हुई। अभी एक दो बार ही छींटे पड़े थे। जिससे वातावरण में उमस भर गयी थी। दोपहर की धूप शरीर को छिल दे रही थी।

    ओह समझा, उसने पुरुषोत्तम वैद्य के यहाँ का पता बता दिया होगा। मैंने तो तुम्हें लिखा था ‘वैद्य की पुरानी गली’। यह गड़बड़ यहाँ प्रायः हो जाती है। सुधीर के चेहरे पर थोड़ा अफसोस था, फिर तो तुम्हें बहुत चलना पड़ा होगा। बिखरा हुआ समाचार पत्र हटाकर वह बिस्तर पर बैठ गया।

    जो लिखा था वह घर छूट गया। बस उन्तालीस नंबर, वैद्य की गली और नदेसर पोस्ट ऑफिस, इतना याद था। सोचा एक बार प्रयास करके देख लूँ। कहते हुए मैंने कमरे में चारों ओर निगाह दौड़ाई।

    बाकी सब कुछ तो छात्रों के कमरे के अनुरूप था, मात्र बिस्तर को छोड़कर। क्योंकि वह एक आधुनिक डबल बेड था। एक छात्र के कमरे में उस तरह के डबल बेड का होना ठीक वैसा ही था जैसे किसी ब्राह्मण की थाली में आमिष भोजन। सबसे पहले खटकने वाली चीज पर ही दृष्टि जाती है।

    मकान मालिक का पहले से पड़ा हुआ था। उनके पास इसे कहीं और रखने की जगह नहीं थी। सुधीर ने मेरी दृष्टि को भाँपते हुए स्पष्टीकरण दिया। मेरे होठों पर मुस्कान उभर आई।

    अकेले ही रहते हो? तब तक कूकर की सीटी की आवाज आई। सुधीर लगभग दौड़कर अंदर गया और स्टोव बंद करके कुछ ही क्षणों में वापस लौट आया। एक छोटा-सा रसोईघर कमरे से सटा हुआ था। उसकी बगल में एक और छोटा-सा कमरा दिखाई दे रहा था, जिसका पाँच फुट का बेरंग दरवाजा चीख-चीख कर अपने बाथरूम होने की घोषणा कर रहा था। पानी गिरने की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया।

    कोई और भी रहता है?

    हाँ?

    कौन?

    कूकर की सीटी बंद हुई है, अभी बाहर निकलेगा…फिर खुद ही देख लेना। सुधीर के होंठों पर अर्थपूर्ण मुस्कान थी, जिसका अर्थ था कि अंदर वाले व्यक्ति से मैं परिचित हूँ।

    क्या मैं उसे जानता हूँ?

    सुधीर ने मुस्करा भर दिया। तभी बाथरूम का दरवाजा खुला। एक लड़का कमर में तौलिया लपेटे, कंधे पर निचोड़ा हुआ बनियान और चड्ढी रखे हुए बाहर निकला।

    अरे! आशीष! मैंने खुशी से कहा। लेकिन उठने की हिम्मत नहीं हुई।

    आ गए अविनाश! उसकी आँखों में प्रसन्नता थी, रुको मैं चड्ढी - गंजी डाल कर आता हूँ। बगल में पतली सी गैलरी थी। जिस पर एक पाइप लगा था। आशीष उस पर कपड़े फैलाने लगा।

    पहले मिल लेते…चड्ढी – गंजी कहाँ भागे जा रही है। सुधीर ने हँसते हुए कहा। आशीष मुस्कराते हुए गैलरी में पाइप की ओर बढ़ गया।

    आशीष तो लखनऊ चले गए थे न? मैंने पूछा।

    हाँ, लेकिन एक-डेढ़ महीने में ही लौट आये थे। इनका मन वहाँ नहीं लगा… न तो लखनऊ में और न ही विज्ञान में। लौटकर विद्यापीठ में बी.ए. में एडमिशन ले लिया।

    तीन साल बाद मैं सुधीर और आशीष से मिल रहा था। मैं डिप्लोमा पूरा करके प्रयागराज से लौटा था। सुधीर बनारस के हरिश्चंद्र डिग्री कॉलेज से बी.एससी. कर रहा था। अब पूरा ही होने वाला था। बारहवीं तक हम तीनों सहपाठी रहे थे। बनारस और प्रयागराज के बीच एक कस्बे में हमारी बारहवीं तक की पढ़ाई हुई थी। हम तीनों के ही पिता वहाँ नौकरी करते थे।

    हालाँकि डिप्लोमा, बी.एससी. और बी.ए. में प्रवेश लेने से पहले हम तीनों ने भी इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के महायज्ञ में अपने एक वर्ष की आहुति दी थी। तब विज्ञान विषय से बारहवीं पास करने वाले छात्रों के लिए कम से कम एक वर्ष इंजीनियरिंग की तैयारी करना एक आवश्यक रीति हुआ करती थी, जिसका उल्लंघन बिरला ही कोई करता था। चाहे किसी ने द्वितीय श्रेणी में ही बारहवीं क्यों न पास की हो, उसके लिए तैयारी करना परमावश्यक था। कोई-कोई साहसी छात्र उस यज्ञ में अपने तीन-तीन वर्ष तक स्वाहा कर देते थे। तैयारी की रीति निभाए बिना पढ़ाई उसी तरह अमान्य थी जैसे फेरे के बिना विवाह।

    उस समय उत्तर प्रदेश में आज की तरह इंजीनियरिंग कॉलेजों का जाल नहीं बिछा था। बहुत सीमित विकल्प हुआ करते थे- आईआईटी, रुड़की और मोतीलाल, बस इतना ही। जिनके घर वालों के पास अधिक पैसा होता था वे बंग्लोर यानी कि आज के बेंगलुरु निकल लेते थे और डोनेशन देकर किसी निजी इंस्टिट्यूट में प्रवेश ले लेते थे। लेकिन यह हम जैसों के लिए संभव नहीं था।

    वैसे हमने तैयारी के नाम पर दिन भर क्रिकेट, रात भर विडियो पर अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की फ़िल्में और शाम को दशाश्वमेध से अस्सी तक की सैर की थी। शहर के अठारह सिनेमा घरों में से कोई छूटता नहीं था। टिकट बेचने और चेक करने वाले भी हमें पहचानने लगे थे।

    इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे पास उड़ाने के लिए बहुत पैसे थे। घर से सीमित माह खर्च मिलता था। लेकिन दूध जैसे बेकार पेय से अधिक महत्वपूर्ण सिनेमा देखना होता था। कापी-किताब के खर्च को माता-पिता आवश्यक समझते ही थे। लेकिन हमें कॉपी की आवश्यकता तो तब पड़ती न, जब हम लिखते। और एक ही विषय की तीन-तीन किताबें एक ही कमरे में रहकर क्या करतीं, पैसे का अपव्यव ही होता। एक किताब ही कोई पढ़ने वाला नहीं था। उस पैसे से वीडियो आ जाता। हमने कम आय वाले घरों की कुशल गृहिणियों की भाँति पैसों का प्रबंधन करना बहुत अच्छे से सीख लिया था। हमारे पास पकौड़े के लिए भी पैसे बच जाते थे।

    क्रिकेट, सिनेमा, विडियो जैसे आवश्यक कामों के बीच कभी-कभार हम एक-आध घंटे के लिए कोचिंग भी चले जाते। कोचिंग की अच्छी बात यह थी कि वहाँ नाम कटने और उपस्थिति दर्ज कराने का कोई झंझट ही नहीं था, क्योंकि वे लोग दो बार में ही पूरे साल की फीस ले लेते थे। उसके बाद तुम आओ या मत आओ उनकी बला से। वैसे भी हम लोग उन लड़कों की सूची में तो थे नहीं जिनकी फोटो अखबार में छपने की संभावना हो।

    हम रहते तो बेनियाबाग में थे, किन्तु हमारा कोचिंग-इंस्टिट्यूट वहाँ से लगभग चार-पाँच किलोमीटर दूर दुर्गाकुंड में स्थित था। इसका कारण यह था कि आरम्भ में हम रामकटोरा की कोचिंग में प्रवेश लेना चाहते थे और उसके अनुसार हमने वहाँ से एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर बेनियाबाग में मकान किराये पर ले लिया। किन्तु आने के बाद पता चला कि दुर्गाकुंड की कोचिंग अधिक अच्छी है। अतः हमने राम कटोरा की जगह वहाँ प्रवेश ले लिया। निवास स्थान बेनियाबाग में ही रहने दिया।

    हम अपनी कोचिंग से निकलकर सीधे अस्सी पर पहुँचते। रसेदार पकौड़े वाला प्रतीक्षारत रहता। खाने के बाद वहाँ से गप्पें मारते हुए गंगा के किनारे-किनारे साइकिल से दशाश्वमेध तक आते। कुछ देर वहाँ बैठकर चाय पीते हुए आने-जाने वाले लोगों का अपने अनुसार कुण्डली बनाते- वह अपने विवाह की कामना लेकर आयी होगी तो वह पास होने की; वह पक्का अपनी सास को मरने की मन्नत माँगने आई होगी तो उसे संतान की आस यहाँ खींच लाई होगी।

    दशाश्वमेध एक गुलदस्ता की तरह लगता था या एक बगीचा कह लीजिए। तरह तरह के लोग और परिधान होते थे। कोई सूट में, कोई साड़ी में, कोई लहँगा में तो कोई किसी और ही तरह के वस्त्र में। कोई पूरा ढँका हुआ तो कोई आधा। सात समंदर पार वाले तो केवल कपड़े का नाम ही करते थे। वैसे भी उनके लिए यहाँ की गर्मी बहुत अधिक होती है। उनकी जीवन शैली भी हमारे चर्चा का एक बिंदु होता और हम प्रायः अपनी अंतर्भूत इच्छा व्यक्त करते कि काश उनकी तरह हमारे यहाँ भी बेरोजगारी भत्ता मिलता तो हम लोग पढ़ाई-लिखाई के झंझट से निकलकर नेपाल या भूटान पहुँच जाते और इन्हीं की तरह मस्ती से जीवन जीते।

    हम लोग सम्मानित परिवार के सभ्य और सुशील लड़के थे। किन्तु थे तो किशोर ही। तरुण मन भौंरे की तरह होता है। सभ्य और असभ्य भौंरों में अंतर बस इतना ही होता है कि सभ्य भौंरे फूल के पास जाकर उसे कोई कष्ट नहीं देते और असभ्य भौंरे फूलों के आसपास मँडराने लगते हैं। किन्तु, आकर्षित तो दोनों ही होते हैं।

    ऐसा नहीं था कि घाट पर केवल पुष्प ही रहते थे। बिना काँटे के फूल संभव ही नहीं हैं। लेकिन काँटों की चर्चा में क्यों समय गँवाना। हमारे लिए वे नजरअंदाज करने वाली वस्तु थे, जब तक कि कभी-कभार आपस में उलझ न जाते। जब उलझते तो फिर बिना पैसे का तमाशा देखने को मिल जाता।

    चाय और गलचौरा के बाद वहाँ से ऊपर चढ़कर हम बेनियाबाग स्थित अपने कमरे के लिये चल देते। कुल मिलाकर हम लोगों के द्वारा जीवन के सभी मर्यादित आनंद सतत वर्ष भर भरपूर ढंग से लिए गए। फलस्वरूप परीक्षाफल हमें पहले से ही पता था। उसके बाद भी हमने परीक्षाकक्ष में ढाई-तीन घंटे तक चुपचाप बैठने की यातना सहकर अपने पापों की प्रायश्चित की।

    (2)

    बाथरूम से आशीष को नहाकर निकलते देख मेरा भी मन नहाने का करने लगा। शर्ट और बनियान दोनों पसीने भीग गए थे, लेकिन मैंने नहाने की इच्छा को दबा दिया। ऐसा कम ही होता था कि जब स्वतः नहाने का मन कर जाए। हॉस्टल में रविवार के दिन ही स्नान करता। वैसे भी थोड़े पानी में नहाना मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं था। हाँ नदी हो और तैरने को मिल जाए तो फिर बात और थी।

    हम तीनों के बीच जो सम्बंध था वह कदाचित दूसरों को थोड़ा अस्वाभाविक लगे। लेकिन हम वैसे ही थे। जैसे कि हम चाहे जितने दिनों बाद मिलें, कभी हाथ नहीं मिलाते और न ही किसी भी तरह का अभिवादन करते। बस एक दूसरे के चेहरे की प्रसन्नता ही अभिवादन हुआ करती थी। ऐसा लगता कि अभी सुबह ही अलग होकर शाम को मिल रहे हों। इसके अतिरिक्त हम किसी भी बात के लिये कभी एक दूसरे को न तो धन्यवाद देते और न ही क्षमा माँगते। अँग्रेजी के "थैंक यू’ और ‘सॉरी’ को अभी तक हमने अपने से दूर रखा हुआ था।

    बड़े दिन बाद आए, मजा आ गया तुम्हें देखकर। आशीष ने गंजी पहनते हुए कहा। तौलिया हटाकर चड्ढी पहले ही पहन चुका था। वैसे तो उसके ऊपर कुछ और पहनना अनावश्यक ही था, लेकिन फिर भी आशीष ने लुंगी बाँध ली। तीन साल पहले गर्मियों में हम कमरे के अंदर पूरा समय मात्र चड्ढी में ही निकाल देते थे। उसके कई लाभ थे। पहला तो यह कि गर्मी से बचाव, दूसरा, कपड़े कम धोने पड़ते थे, तीसरा पसीना कम होने के कारण नहाने की रोज आवश्यकता नहीं पड़ती थी।

    एक बार बीच में आया था, लेकिन तब तक तुम लोगों ने मकान बदल लिया था। मैंने बताया।

    यह भी थोड़ी अस्वाभाविक बात थी कि एक-दूसरे से मात्र एक सौ छब्बीस किलोमीटर दूर रहते हुए भी तीन सालों तक हमारी मुलाकात नहीं हो पायी। मैं प्रयागराज से बनारस बहुत कम आता था। महीने में एक दिन पापा के यहाँ उस कस्बे में आता जहाँ वे नौकरी करते थे और माह-खर्च लेकर वापस चला जाता। वह जगह बनारस से लगभग पैंतीस किलोमीटर दूर प्रयागराज की ओर थी। आगे की कहानी में उसकी कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी इसलिए उसके नाम को रहने देते हैं।

    मैं अपनी छुट्टियाँ तक हॉस्टल में ही बिता देता था। उस समय मोबाइल फोन था नहीं और सामान्य फोन रखना सबके बस की बात नहीं थी। वास्तव में सबको आवश्यकता भी नहीं थी। दोस्त-यार जब तक साथ रहे तब तक ठीक, एक बार कहीं और गये तो उनके नए मित्र बन गए। पुराने मित्र स्मृति-सम्पुट में चले जाते थे, जो कभी-कभी इमली के खट्टे स्वाद की तरह स्मृतियों की जीभ को चटका देते।

    वह उम्र भी ऐसी होती है, जब कि कुछ भी स्थायी नहीं होता। न तो हमारा शरीर, न मन और न ही वातावरण ही। सब तेजी से परिवर्तित होते रहते हैं। किशोर वय बढ़ते हुए पौधों की तरह होता है। रोज पुरानी पत्तियाँ झड़ती हैं और नई कोंपलें निकल आती हैं। क्षण भर में कोई चीज प्राणों से अधिक प्यारी लगने लगती है तो दूसरे ही पल निरर्थक हो जाती है। किशोरावस्था भावनाओं के चटख रंग वाले सपने की तरह चलता है। जिसमें दो हाथों में पूरा आसमान समेट लेने की चाह होती है।

    पापा बता रहे थे कि, यहीं तुम्हारा घर बनने वाला है। सुधीर ने कहा। मैंने अपने पापा से सुधीर का पता मँगवाया था। उन्होंने सुधीर के पापा से लेकर मुझे दिया था।

    हाँ, पापा ने भोजूबीर में थोड़ी-सी जमीन ली है। घर का काम शुरु करना है।

    फिर तो मुलाकात होती रहेगी।

    हाँ, बिलकुल।

    चलो पेट पूजा करते हैं। तब तक आशीष ने खाने के लिए प्लेटें लगा दी थीं।

    हम खाना खाने लगे। भात और दाल बना था। दिन में भात-दाल-अचार और रात में रोटी-सब्जी, यह हमारा पुराना मेन्यू¹ था।

    "कैम्पस² से तुम्हारा सेलेक्शन³ कहीं नहीं हुआ?" आशीष ने पूछा।

    यार, मैंने डिप्लोमा पास कर लिया, वह भी सत्तर प्रतिशत के साथ, क्या इतना कम है जो कैम्पस से नौकरी भी दिलवाओगे!

    मतलब कि वहाँ भी यहीं वाला हाल रहा… सुधीर ने कौर निगलते हुए कहा।

    तुम लोगों का बदल गया है क्या? हम तीनों ही हँस पड़े।

    यार हम लोग आगे करेंगे क्या, बिना नौकरी के गुजारा तो होगा नहीं। इस पढ़ाई पर नौकरी तो मिलने वाली नहीं है। आशीष ने गम्भीर होकर कहा।

    एक काम करते हैं… मैंने आशीष की गम्भीरता को निरंतरता देते हुए कहा, आस्ट्रेलिया चलते हैं। सुना है कि वहाँ की जनसंख्या बहुत कम है और भेड़ पालन का व्यवसाय खूब चलता है। सौ भेड़ें खरीदेंगे और उन्हें पालेंगे। साथ ही समुद्र से मछली भी पकड़ेंगे।

    जितना खा सकेंगे खाएँगे, बाकी का बाजार में बेच कर आटा, तेल और मसाले लायेंगे… सुधीर की बात के बाद मेरी छद्म गंभीरता कायम नहीं रह पाई और जोर से हँसी छूट गयी। सुधीर कौर निगल चुका था फिर भी उसके ठहाके के साथ कुछ भात के टुकड़े मेरे पैर पर आकर गिरे।

    अरे यार तुम भी न …. मेरे मुँह से बरबस निकला।

    तुम दोनों गंभीर कब होओगे? आशीष अभी भी गंभीर था, हम लोग बाईस के हो चुके हैं। घर वालों के ऊपर कब तक रहेंगे?

    जब तक कि वे हाथ खड़े न कर दें… सुधीर ने कहा।

    "नहीं यार, आशीष की बात ठीक है। हँसी-मजाक अपनी जगह, लेकिन हमें कुछ तो करना होगा। देखो, मैंने जो डिप्लोमा किया है उसके भरोसे तो कोई नौकरी मिलेगी नहीं। इसलिए सोचा है कि ए.एम.आई.ई.⁴ कर लेता हूँ। कभी तो हमें ढंग से पढ़ाई करनी ही पड़ेगी। उसके लिए मैंने कोचिंग करने की भी सोची है।"

    हाँ, हमारा भी ग्रेजुएशन हो जाए तो हम सरकारी नौकरियों की जमकर तैयारी करेंगे… सुधीर भी अब गंभीर हो गया था, आशीष, तुम चिंता मत करो यार, हम लोग कुछ न कुछ कर ही लेंगे। कोई न कोई नौकरी तो मिल ही जाएगी। और कुछ नहीं तो क्लर्क तो बन ही जाएँगे।

    पढ़ने और कुछ करने की योजना हम पहली बार नहीं बना रहे थे। चार वर्ष पूर्व इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करते समय रोज रात को हम अगले दिन से पढ़ने की पूरी योजना बनाते। कई बार तो देर तक जागकर हमने टाइम-टेबल भी बनाया। टाइम-टेबल बनाते समय बहस और झगड़े भी हुए। मैं गणित को अधिक समय देता तो सुधीर भौतिकी को और आशीष रसायन को। अंततः एकमत न होने पर टाइम-टेबल फट भी जाता।

    बहरहाल, आज हम फिर गम्भीर चर्चा में संलग्न थे। कुछ देर बाद मैंने कहा- अच्छा इस बात को अब छोड़ो और यह बताओ कि प्रतिभा का क्या हाल है? प्रतिभा का नाम सुनकर आशीष थोड़ा गंभीर हो गया। जैसे कि वह उस बारे में बात नहीं करना चाहता हो। प्रतिभा वह लड़की थी जिससे आशीष को मेरे संज्ञान में अंतिम बार प्रेम हुआ था, एकतरफा प्रेम।

    आशीष हर बात को गंभीरता से लेता था। यदि किसी लड़की ने उसकी ओर देख भी लिया तो उसे भी। वह हम तीनों में सबसे अधिक शर्मिला था, लेकिन उसकी भावनाएँ बहुत प्रबल थीं। विशेषतया किसी विपरीतलिंगी के प्रति। लड़की और प्रेम के सपने देखना भी उसके लिए ही उचित था। मैं और सुधीर तो यह मान चुके थे कि किसी भी लड़की को हमसे प्रेम नहीं हो सकता। क्योंकि सुधीर आवश्यकता से अधिक मोटा और छोटा था, मैं जरुरत से ज्यादा लम्बा और पतला। हम दोनों का औसत निकाला जाए तो आशीष निकलता था।

    "अरे अब प्रतिभा कहाँ, भाई तो आगे बढ़ लिए, उसके बाद दो और आ लीं। पहले मोनिका, फिर उर्मिला। लेकिन उन्हें लेकर भी इनके साथ ट्रैजेडी⁵ हो गई।" सुधीर ने गंभीर होकर बताया। हालाँकि वह गंभीरता केवल मुख और वाणी की ही थी। आँखें मेरी ओर दृष्टिगत थीं और उनमें तैरती हँसी को मैं समझ सकता था।

    अब हमारे पास बस यही बात करने को रह गया है… आशीष तय नहीं कर पा रहा था कि सुधीर ने वह बात वास्तव में उसके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए की या मजाक बनाने के लिए।

    काहे, अब अविनाश से भी लाज लग रही है क्या?

    "क्या हुआ था…बताओ? मैंने पूछा।

    छोड़ो यार उस बात को.. आशीष ने अनमने ढंग से कहा।

    मैं जानता था कि आशीष अभी नहीं बताएगा। दोपहर में ऐसी बातें होती भी नहीं हैं। उसके लिए रात चाहिए… छत चाहिए… सन्नाटा चाहिए।

    आज तो दशाश्वमेध चलना बनता है। सुधीर ने मेरे आने के उपलक्ष्य में प्रस्ताव रखा।

    हाँ यार…बहुत दिन हो गए… मैंने समर्थन करते हुए कहा, इस समय तो मानस मंदिर भी सज गया होगा।

    फिर चलो पहले मानस मंदिर चलते हैं, वहाँ से अस्सी, फिर दशाश्वमेध… आशीष ने योजना लम्बी कर दी।

    भाई के लिए अवसर भी बढ़ जाएगा… सुधीर ने आशीष की ओर संकेत करते हुए हँसकर कहा।

    ‘तुलसी मानस मंदिर’ संकटमोचन सड़क पर स्थित है। सावन के महीने में उसे अनेक प्रकार की झाँकियों से सजा दिया जाता है। आधुनिक यंत्रों की सहायता से चालित सैकड़ों मूर्तियों को, जो कि पौराणिक आख्यानों को प्रदर्शित करती हैं, कॉरीडोर में एक के बाद एक रखा जाता है, जिससे झाँकियों की एक लम्बी श्रृंखला बन जाती है। श्रद्धालुगण एक ओर से प्रवेश करके उन्हें देखते हुए दूसरी ओर निकलते जाते हैं। मुख्य द्वार पर तुलसीदास द्वारा अपने रामचरित मानस का पाठ करते हुए और हनुमान जी द्वारा अपना वक्ष फाड़कर उसमें सीता-राम की मूर्ति दिखाए जाने की यंत्र चालित झाँकी रहती है। जिसमें तुलसीदास मानस के पन्ने पलटते हुए दिखाई देते हैं और साथ में ही पाठ की जाने वाली चौपाइयाँ लाउडस्पीकर पर गूँजती हैं। सब यन्त्र के माध्यम से चलता रहता है।

    चूँकि ये झाँकियाँ सावन में मात्र एक महीने के लिए ही रहती हैं, इसलिए उस समय मंदिर में भीड़ बहुत होती है। सम्पूर्ण परिसर की साज - सज्जा इतनी मोहक होती है कि हर आयु वर्ग के लिए वह आकर्षण का केंद्र बन जाता है। आशीष को ऐसे स्थान बहुत पसंद थे। क्योंकि स्वाभाविक रूप से वहाँ लड़कियाँ भी बहुतायत में आती थीं। वह भले ही किसी से बात न कर पाये लेकिन उनका चारों ओर होना भी उसे बहुत सुखद लगता।

    1. मेन्यू - Menu - पकवानों की सूची।

    2. कैम्पस- Campus- इसका अर्थ परिसर होता है। किन्तु यहाँ इसका प्रयोग कॉलेज परिसर में नौकरी हेतु विद्यार्थियों के चयन के लिए आई कंपनियों के द्वारा आयोजित चयन प्रक्रिया के अर्थ में किया गया है।

    3. सेलेक्शन - Selection- चयन।

    4. ए.एम.आई.ई.-A.M.I.E. - (Associate Member of Institution of Engineers) अभियंता संस्थान से सम्बद्ध सदस्य, इसे इंजीनियरिंग की डिग्री की मान्यता प्राप्त होती है।

    5. ट्रैजेडी - Tragedy- त्रासदी, दुःखद घटना

    दो

    (1)

    साइकिल दो थी और सवार तीन। यह गणित ठीक नहीं था। इसलिए हमने निर्णय लिया कि मानस मंदिर हम ऑटोरिक्शा से जाएँगे। मेरे पास ठीक-ठाक पैसे थे।

    आशीष जितनी गंभीरता और विश्वास से मेरे साथ बातें साझा करता उतनी गंभीरता से सुधीर के साथ नहीं। क्योंकि सुधीर उसके रोमांटिक मूड का हमेशा सत्यानाश कर देता था।

    इस सम्बंध में सबसे पहली घटना मुझे याद है जब बनारस आने के बाद पहली बार हम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्थित विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में बैठे हुए बातें कर रहे थे। सायंकाल का समय था और मंदिर परिसर लोगों से भरा हुआ था। श्रद्धालु गण निरंतर आ-जा रहे थे। कुछ लोग वहाँ के घास से ढँके प्रांगण में यत्र-तत्र बैठे हुए थे। कहीं-कहीं लड़कियों के झुंड भी दिखाई दे रहे थे। किनारे पर बनी क्यारियों और प्रांगण के बीच में खड़े वृक्षों पर फूल भी खूब खिले हुए थे।

    यार, अब हमारी एक मित्र तो होनी चाहिए। अचानक आशीष ने गहरी साँस भरते हुए कहा।

    "क्या हम तीन

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