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पुनर्जन्म: Fiction, #1
पुनर्जन्म: Fiction, #1
पुनर्जन्म: Fiction, #1
Ebook250 pages2 hours

पुनर्जन्म: Fiction, #1

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About this ebook

यह कथा संग्रह तमाम विषयों को मार्मिक रूप में पेश करती है। कई एसी कहानियां हैं जो कीचड़ से लिपटी बस्तियों में कहीं फंस गई हैं, लेखक ने उन्ही खोई कहानियों के रोते चेहरे को पढ़ने वालों से रूबरू कराया है। पुस्तक में कुछ किस्से ऐसे भी हैं जिन्हें पढ़ने के बाद वास्तविकता का डर मन में बैठ जाता है, और मिथ्या ही हकीकत लगने लगती है।

लेखक ने अपने परिवार के कुछ चटपटे और कुछ संघर्ष करते क्षण को भी कहानियों का रूप दिया है। पुस्तक उन सामाजिक मुद्दों से भरी पड़ी है, जिनपर आंखें रो पड़ती है।

Languageहिन्दी
Release dateMay 6, 2022
ISBN9789391078782
पुनर्जन्म: Fiction, #1

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    पुनर्जन्म - Sushant Kumar

    पुनर्जन्म

    लेखिका:   सुशांत कुमार

    प्रकाशक:  Authors Tree Publishing

    Authors Tree Publishing House

    W/13, Near Housing Board Colony

    Bilaspur, Chhattisgarh 495001

    Published By Authors Tree Publishing 2022

    Copyright © Sushant Kumar 2022

    All Rights Reserved.

    ISBN: 978-93-91078-78-2

    प्रथम संस्करण: 2022

    भाषा: हिंदी

    सर्वाधिकार: सुशांत कुमार

    मूल्य:Rs. 225/-

    यह पुस्तक इस शर्त पर विक्रय की जा रही है कि लेखक या प्रकाशक की लिखित पूर्वानुमति के बिना इसका व्यावसायिक अथवा अन्य किसी भी रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता। इसे पुनःप्रकाशित कर बेचा या किराए पर नहीं दिया जा सकता तथा जिल्द बंद या खुले किसी भी अन्य रूप में पाठकों के मध्य इसका परिचालन नहीं किया जा सकता। ये सभी शर्तें पुस्तक के खरीदार पर भी लागू होंगी। इस संदर्भ में सभी प्रकाशनाधिकार सुरक्षित हैं।

    इस पुस्तक का आंशिक रूप में पुनः प्रकाशन या पुनःप्रकाशनार्थ अपने रिकॉर्ड में सुरक्षित रखने, इसे पुनः प्रस्तुत करने की पद्धति अपनाने, इसका अनूदित रूप तैयार करने अथवा इलैक्ट्रॉनिक, मैकेनिकल, फोटो कॉपी और रिकॉर्डिंग आदि किसी भी पद्धति से इसका उपयोग करने हेतु समस्त प्रकाशनाधिकार रखने वाले अधिकारी तथा पुस्तक के लेखक या प्रकाशक की पूर्वानुमति लेना अनिवार्य है।

    पुनर्जन्म

    सुशांत कुमार

    प्रस्तावना

    यह कथा संग्रह तमाम विषयों को मार्मिक रूप में पेश करती है। कई एसी कहानियां हैं जो कीचड़ से लिपटी बस्तियों में कहीं फंस गई हैं, लेखक ने उन्ही खोई कहानियों के रोते चेहरे को पढ़ने वालों से रूबरू कराया है। पुस्तक में कुछ किस्से ऐसे भी हैं जिन्हें पढ़ने के बाद वास्तविकता का डर मन में बैठ जाता है, और मिथ्या ही हकीकत लगने लगती है।

    लेखक ने अपने परिवार के कुछ चटपटे और कुछ संघर्ष करते क्षण को भी कहानियों का रूप दिया है। पुस्तक उन सामाजिक मुद्दों से भरी पड़ी है, जिनपर आंखें रो पड़ती है।

    लेखक के बारे में

    इस कहानी के लेखक सुशांत कुमार अभी अपनी पढ़ाई जवाहर नवोदय विद्यालय, मिर्जापुर में ग्यारहवीं कक्षा में कर रहे हैं । इससे पहले नवोदय विद्यालय कौशाम्बी तथा एक साल के लिए नवोदय विद्यालय मैसूर कर्नाटक में भी रह चुके हैं।

    लेखक ने अपनी पहली कहानी 11 वर्ष की उम्र में हॉलीवुड से प्रेरित होकर लिखी थी और पहली कविता इससे भी पहले ।

    पुस्तक छः कहानियां इनकी पहली पुस्तक व रानी इनकी दूसरी पुस्तक है जिसमे इन्होंने 13 घंटे से भी कम समय में 101 कविताएं लिखी थीं।

    घर में परिवारिक समस्या के चलते कई बार कठिनाइयों का सामना करना पड़ा पर यहीं से इस पुस्तक ने जन्म लिया।

    लेखक को पेंटिंग बनाने, कविता, गज़ल लिखने में भी कुशलता प्राप्त है । इनको विदेशी वैज्ञानी फिल्मों में बहुत रुचि है ।

    लेखक का सपना विश्व यात्रा कर दुनिया के कोने-कोने से उठाए मुद्दों को लिखना है।

    अनुक्रमणिका

    खण्ड 1

    इरा

    पापा जरा इरा को खाना दे देना तो! अमन ने अपने पापा को कमरे के अंदर से ही चिल्ला कर कहा। बाहर से हरीश बाबू ने जूते में अपना दूसरा पैर डालते हुए जवाब दिया

    हां बस यही काम तो है मेरे पास, मैं जा रहा हूं, तुम लाए हो! तुम्ही खिलाओ यह कहकर  हरीश बाबू  वहां से चले गये । हरीश बाबू सरकारी दफ्तर में काम करते हैं , जीवन बस एक टेबल के पीछे बैठे - बैठे ही कट रहा है । जीवन का लक्ष्य कुछ और था पर जब इस नौकरी में  पैतालिस हजार मिल ही रहे हैं तो और बाकी इच्छाएँ गाँधी के कागज के तले दब जाती हैं , वैसे भी जिंदगी में एक आदमी चाहता है कि उसका छोटा सा परिवार और पर्याप्त क्षेत्र में घर हो । यह सब तो हरीश के पास था ही , शायद इससे भी थोड़ा ज्यादा ही था । उनकी पत्नी भी उन्हीं के साथ उसी दफ्तर में काम करती थीं । उनकी बीवी , दो बच्चों के अलावा एक और सदस्य उनके परिवार में शामिल थी , इरा !

    इरा को अमन ने एक आदमी के पास से गोद लिया था ।  वैसे भी इरा उस आदमी के किसी काम कि न होने वाली थी । उस आदमी ने इरा को इसलिए अपने पास रखा था कि जब वह मां बने तो वह इरा के बच्चों को बेच सके और उन रुपयों से अपनी आत्मा को तृप्त कर सके । मगर चूँकि इरा किसी खास नस्ल की थी नहीं तो लोग कभी उसे खरीदने भी नहीं आते थे , जिससे इस दुकानदार को उसे अमन को देने मे भी कोई समस्या नहीं थी ।  और इस तरह वह इरा को घर ले आया । इरा के शरीर में तब ही कहीं-कहीं बाल झड़ चुके थे वहां से खून भी निकल रहा था , बाकी बाल भी झड़ने की कगार पर थे । इरा ज्यादा जी न पाए वह ऐसी हालत में घर आई थी । लेकिन यही कि ' जाको राखे साइयाँ मार सके न कोए ' ।  उसे  जीना था तो उसे  हरीश बाबू के घर का रास्ता मिल ही गया । अब तो वह काफी सुधर चुकी थी , शरीर में तंदुरुस्ती और सुनहरे बालों से घनी हो चुकी थी । आदमी पहचान कर ही भौंकती थी । अगर कोई उससे अच्छा व्यवहार करे तो वह पहले उस पर कूदती फिर उसे चाटने का प्रयास करती। उसके इसी व्यवहार और जीने की इच्छा से उस कुतिया का नाम पड़ा , इरा।

    हरीश जी को आज डेढ़ साल और हो गए अपनी नौकरी में नौकर रहे । वह दफ्तर जाते दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते और शाम को वापस आते ।  इरा को भी हरीश बाबू के घर में रहे डेढ़ साल हो गए , कोई कह नहीं सकता था कि वह कभी बीमार भी थी । अब यह उसका भी परिवार था अमन , श्रीमती हरीश उसको भरपूर प्यार देते , परन्तु हरीश जी को अभी भी इरा से लगाव न था । बस वह दिखावा करते , कि जैसे इरा नाम की कोई प्राणी घर में है  ही नहीं । हां मगर इन ढाई सालों मे एक साथ रहते हुए उनमें  एक बदलाव यह जरूर आया था, कि हरीश बाबू अब उसे खाना खिला देते बाहर घुमाने ले जाते है। वह उसके साथ कभी कभी खेलते भी थे मगर इस बात का ध्यान रखते हुए की कोई उन्हे देख न ले, अपने दिखावे की सीमा उन्होंने अभी भी उनपर खींच रखी थी। जहां हरीश बाबू , इरा से दूर ही रहना पसंद करते थे  , अब उसे आदेश भी देने लगे थे ।  इरा भी उनकी बात मानती थी, उनके कहने पर वह उठती, बैठती और ज्यादा खुश होने पर लोट भी जाती थी। हरीश बाबू इरा के साथ ज्यादा समय नही बिताते थे। उनका रिश्ता मानो तने और जड़ जैसा था , एक दूसरे के लिए थे तो सही , पर जताते नही थे।

    रविवार के दिन जब हरीश बाबू अखबार लेने घर से बाहर निकले तो देखा इरा अखबार को मुंह में दबाए उससे खेल रही थी। उन्होंने अखबार उसके मुंह से छीन लिया और सोफे पर बैठ गए । हरीश बाबू अखबार की मोटी गहरी पंक्ति पढ़ रहे थे लिखा था

    नहीं हुई गुंडागर्दी कभी  इस सरकार के युग में - जनता तभी उनकी नज़र उसी पन्ने के सबसे नीचे के भाग पर गई जहां छोटी सी जगह पर , आसानी से न दिखे उतने में लिखा था छात्रों ने फंसे परीक्षाओं के परिणाम की मांग की तो छात्रावास में घुस कर पुलिस वालों ने किया विरोध शान्त हरीश बाबू मुस्कुरा दिए । इतने मे उन्होंने गौर किया कि अखबार में हर जगह सुनहरे बाल बिखरे हुए थे, वह इरा के बाल थे। इरा के बाल एक बार फिर झड़ रहे थे, उसके बाल सोफे से लेकर पायदान हर जगह पर थे । उन्होंने समझा यह बस साधारण सी बात है कि फिर उनकी नजर इरा के शरीर पर पड़ी। उसके शरीर से जगह-जगह पर बाल एकदम से निकल चुके थे ,  किलनियां भी लग चुकी थीं जिससे उस जगह खून भी निकल रहा था। यह देख कर उनका मन ख़राब हो गया। अब चूंकि उन्हें यह गंदगी लगने लगी थी ,तो उन्हें इरा के शरीर से घृणा पैदा हो गई। अब हरीश बाबू उससे दूर ही रहने लगे उसे धिक्कारने लगे , उसे अब खुद खाना भी नही देते , न घुमाने ले जाते थे।

    इसके बाद से यह बीमारी छिपी न रही सबको इसके बारे में पता चल गया ।

    अमन ने जल्द ही भांप लिया की इरा सचमुच गंभीर रूप से बीमार है पर वह अपने पिता जी से यह बात नही बताना चाहता था वह जानता था। उनको वैसे भी इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा अतः उसने खुद से ही इसका इलाज ढूंढने का विचार बनाया। श्रीमती हरीश जी को यह बीमारी थोड़े दिनों बाद दिखी जब उन्होंने पाया की इरा अब पहले जैसी नहीं रही , न वह पहले जैसे ज्यादा खेलती कूदती थी, न पहले जैसे घर की चीजों को उथल पुथल करती थी, घर से बाहर निकलने का उसका मन ही नहीं करता वह बस घर में ही पड़े पड़े पूरा दिन बिताया करती थी, जिससे कोई भी खुश नहीं था , तो एक दिन  श्रीमती हरीश ने इसका ज़िक्र हरीश बाबू से किया।

    " आपने देखा इरा कई दिनों से खांस रही है ? श्रीमती हरीश  ने हरीश बाबू से बिस्तर सही करते हुए पूछा, हरीश बाबू वहीं अपनी रात की चाय पी रहे थे।

    हां , तो ? उन्होंने एक बार में लंबी चुस्की मारी

    हा तो? उसे अस्पताल ले जाइए श्रीमती हरीश ने थोड़ा दबाव बनाया I

    "  मेरे पास बस यही एक काम है क्या? अब क्या कुत्तों को भी अस्पताल ले जाना पड़ेगा ?  हरीश जी थोड़े चिड़चिड़े भाव से अपनी गर्दन श्रीमती हरीश जी की ओर हल्की सी घुमाते हुए जवाब दिए

    हां तो इसमें नई बात क्या है, जब अमन बीमार पड़ता है तो उसे ले जाते हैं न अस्पताल तो इरा को भी ले जाइए..... फिर श्रीमती हरीश जी ने थोड़ा रुक कर कहा..... और हां उसका एक नाम भी है,  इस तरह उसे कुत्ता मत कहो " श्रीमती जी का इरा के लिए प्यार जाग गया।

    अरे भाग्यवान! हद ही करती हो , कुत्ते को कुत्ता कहने में क्या गलत है? कुत्ते को कुत्ता न कहूं तो और क्या कहूं

    इरा ! श्रीमती हरीश जी ने चादर को तेजी पटकते हुए कहा

    अब तुम भी इस छोटी सी बात पर भड़क रही हो हरीश जी अब श्रीमती जी को मनाने में लग गए । परन्तु श्रीमती हरीश जी ने उनकी एक भी न सुनी अंत में आखिर हरीश बाबू ने हार मान ही ली ।

    हां ठीक है! ले जाऊंगा अस्पताल तुम्हारी इरा को बस! कल रविवार है,  कल ले जाऊंगा उसे अस्पताल बस अब तुम शांत हो जाओ।  सोचा था रविवार है आराम करूंगा पर हमें आराम कहां चलो अस्पताल।  इसको खांसी ही तो है ठीक हो जाएगी। भई बांकी कुत्तों को भी तो खांसी होती है पर ठीक भी तो  हो जाती है । मगर मेरी कौन सुनता है इस घर में! ऐसा लगता है खांसी न हो कोई कैंसर हो, छै न जाने क्या-क्या करना पड़ रहा है हरीश बाबू ने चाय आधे में ही रख कर, अपने में ही बड़बड़ाते हुए अपने बिस्तर पर चले गए।

    अगली सुबह हरीश बाबू जल्दी ही तैयार हो गए। अमन भी वहीं था, उसने इरा को भी जल्दी-जल्दी नहला कर तैयार कर दिया। हरीश बाबू अपना स्कूटर निकल कर बाहर खड़े थे और जल्दी करने को बोल रहे थे।

    जल्दी करो नहीं तो वहां पर लाइन में खड़े होना पड़ेगा मुझे अमन दौड़ कर बाहर आया इरा भी उसी के पीछे पीछे पूछ हिलाते हुए बाहर आ गई । वह बार बार अमन के पैर चाट रही थी।

    "दूर रखो उसे बीमार है वो,और पट्टा कहां है इसका?

    पट्टे की क्या ज़रूरत , इरा कहीं नहीं जाने वाली अमन ने इरा की पीठ सहलाते हुए कहा । और फिर इतना कह कर अमन ने इरा को स्कूटर पर सवार कर दिया । फिर हरीश बाबू अपनी स्कूटर पर इरा को बैठाए जानवरों के अस्पताल की ओर निकल पड़े। हरीश बाबू अक्सर इतवार के रोज़ अपने दोस्तों के यहां घूमने जाया करते थे , पर इरा की वजह से आज वह वहां नहीं जा सके जिस वजह से सुबह से उनका मुंह लटका हुआ था। हेलमेट लगाए अर्ध शतक मार चुके हरीश बाबू अपनी तोंद को ढीला छोड़े सीधा सड़क पर देख रहे थे

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