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Do Bailon Ki Atmakatha
Do Bailon Ki Atmakatha
Do Bailon Ki Atmakatha
Ebook280 pages2 hours

Do Bailon Ki Atmakatha

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About this ebook

Production of grain is a natural process for in which nature has direct relationship according to time factor. In today's era farming is full of disparities, which has high risk. Above all, capitalism has not left agriculture untouched, even here also capitalism has started affecting in badly. The difference between profit and investment is now very meagre. As a result the villagers are escaping. Gabru’s problem is not his personal problem, its solution he has to solve himself, it is omniscient. After Gabru’s departure, his two bulls has to face many problems. The problem of both farmers and oxen seems to be a process running like a parallel line, the characterization of Manik and Neelam is yet to be done.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateApr 15, 2021
ISBN9789390287789
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    Do Bailon Ki Atmakatha - Vinod Vimal Baliya

    बलिया

    -1-

    कहते हैं न समय गतिशील होता है। वह तो अपने नियति के अनुरूप निरन्तरता से क्रियाशील होता है। धीरे-धीरे पीढ़ियां कब बदल गईं, आभास ही नहीं रहा कि आज हम मुंशी जी तीसरी-चौथी पीढ़ी में गतिशील हैं। अब वे नहीं रहे, फिर भी उनके दो बैलों हीरा और मोती को कौन भूल पाया? झूरी भी हमेशा कहानी के पात्र के रूप में इस गतिशीलता के साथ याद किया जाता रहेगा। समय के साथ परिवर्तन होता ही रहता है। आज बैलों के गले में बजती घंटी की आवाज मानो कल्पनाशील ध्वनि-सी हो चुकी है। जिस मुंशी जी ने झूरी और उसके दो बैलों के आपसी लगाव को परिधि में बाँध कर साहित्य के घराट में से भारत के किसान व बैलों के आपसी सामंजस्य से स्थापित होने वाले मानवीय मूल्यों को परिमार्जित करते हुए भारत के कृषि प्रधानता को पीस कर निकाला था, वह शायद उनके तीसरी पीढ़ी ने गतिशील समय के अनुरूपता को स्वीकारते हुए अब मानो हीरा-मोती को दो बैलों की कथा मात्र तक ही सीमित करने पर आमादा है, हीरा-मोती के गले में बजती घंटी के मधुर ध्वनि के गीत का स्थान अब गतिशील समय ने आज के वातावरण में तेज ध्वनि फैलाते हुए कृषि यांत्रिकी ने ले लिया है।

    अब न तो झूरी का कोई रिश्तेदार ही बचा जो हीरा-मोती को बैलगाड़ी में जोत कर वर्तमान पीढ़ी को उन पर किए गए जुल्मों की कहानी को गढ़ सके। बैलगाड़ी भी अब नव पीढ़ी के लिए मानो इतिहास की पुस्तक में पढ़ाई जाने वाली हड़प्पा संस्कृति और सभ्यता की तरह ही प्रतीत हो रही है। वर्तमान पूंजीवाद के परिवेश में जहाँ हर पहलू को अर्थ से जोड़ कर देखा जाने लगा है। जिसके कारण आज परंपराओं को अक्सर अपने अस्तित्व से लड़ते हुए देखा जा सकता है।

    आज न तो कोई झूरी बचा न ही वो बैलों का समूह ही बचा जो बैल होते हुए भी आज के समाज को आत्मीयता का पाठ पढ़ा सके। झूरी के परंपरागत खेती-किसानी के स्थान पर वर्तमान पीढ़ी के किसान जो कि झूरी की तीसरी पीढ़ी से है, वे भी अब खेती-किसानी की जटिलताओं और अस्थिर मौसम के मार से आजिज आकर कृषि कार्य के स्थान पर श्रमिक के रूप में ही अपने आप को स्थापित करना बेहतर समझ रहे हैं।

    हीरा-मोती के दिन अब बहुर चुके थे, अब तो झूरी काछी के साथ-साथ उनकी मालकिन भी उनका बहुत ख्याल रखती थी। गतिशील समय अपने निरन्तरता को चलायमान रखते हुए कब बदलता गया कुछ पता ही नहीं चल पाया। अब तो झूरी काछी भी अपने चौथेपन को हो चला था। हीरा और मोती का साथ छूटने के बाद तो वह अब और भी मनहूस सा हो चुका था, और उदास-सा रहने लगा था। आखिर बैलों के साथ उसका चोली-दामन का साथ जो था। बिना बैलों का किसान तो वैसे भी अनाथ-सा हो जाता है, क्योंकि उसके घर-गृहस्थी का मुख्य धारा तो एक जोड़ी बैल ही होते हैं।

    कार्तिक का महीना आने वाला था खेती किसानी सिर पर सवार होने को थी। ऐसे में झूरी को अब एक जोड़ी बैलों की जरूरत महसूस हो रही थी। अब उसने मन बना लिया था कि कार्तिक के मेले से वह एक जोड़ी बैल मोल लेगा।

    जमा पूंजी लेकर सुबह-सुबह ही झूरी मेले में एक जोड़ी बैलों की खरीददारी के लिए घर से निकल पड़ा।

    मेले में तरह-तरह के पशुओं का जमावड़ा लगा था। कहीं गायों का झुण्ड, तो कहीं पर भेड़-बकरियों का झुण्ड अपने ध्वनियों के बीच गले में बंधे घण्टियों की मधुर संगीतों से धूल धूसरित वातावरण में एक कृषि प्रधान पूर्ण देशकाल के गीत गा रहे थे। बीच-बीच में आने वाले ग्राहक मेले में उन खचाखच जानवरों से भरे भीड़ में से अपनी-अपनी पारखी नजरों से अपने लिए पशुओं की खरीद का मोल-भाव कर रहे थे।

    कोई नुकीली छड़ी से बैल को गोद कर उसकी फुर्ती का अंदाजा लगा रहा था। तो कहीं कोई विक्रेता लिखनी बाबू को आवाज लगा रहा था। अरे लिखनी बाबू जरा इधर तो आना।

    ‘आता हूँ बाबू अभी इधर निपटा कर।’

    झूरी की पारखी आंखें भी अपनी मंजिल ढूंढ़ने में व्यस्त थीं कि कहीं हीरा-मोती के मेल की कोई जोड़ी मिल जाए, जिनसे उसके जीवन में फिर से नई उड़ान लग जाए।

    तभी पीछे से किसी ने आवाज लगा दी।

    ‘बाबू साहेब तभी से क्या ढूंढ़े जा रहे हो? हमें भी तो बताओ। ‘शायद कुछ हम ही मदद कर दें।’ और हमको भी सेवा का मौका मिल जाए।

    झूरी ने अपनी इच्छा जताई तो फेरहा तीखी मुस्कान फैलाते हुए बोला।

    ‘बाबूजी बड़े अनुभवी लगते हो? मेरे साथ चलो शायद आपका काम बन जाए।’

    झूरी अब उस फेरहा के साथ हो लिया था। कुछ ही दूर चलने पर दो नाटे दिखाई दिए। कद-काठी में समान धवले से, दोनों की आंखों में विचित्र सी झलक देख झूरी काछी मन ही मन प्रसन्न हो उठा, मानो उसे हीरा-मोती के समान ही आज से पंद्रह साल पहले वाली जोड़ी, जिसे उसकी जौहरी सी पारखी नजरों ने पहली ही नजर में चुन लिया था, मिल गए हो।

    झूरी नजदीक पहुँच कर अब प्यार से दोनों नाटों के पीठ पर बारी-बारी से हाथ फेरते हुए उनके डील-डौल शरीर को सहला रहा था, मानो झूरी अब उनमें ही घुल-मिल सा गया हो।

    जिस प्रकार रत्नों की शुद्धता को एक पेशेवर जौहरी ही पहचान पाता है। एक माँ जिस प्रकार अपने शिशु के मनोभाव को पढ़ कर उसके भूखे होने का अहसास कर लेती है। वैद्य नब्ज़ पकड़ कर रोगी के शरीर की स्थिति का आकलन कर लेता है। उसी प्रकार झूरी की अनुभवी आंखें भी अब पहली नजर में ही इन दोनों डेढ़ साल के बछड़ों के गुण-दोष का आकलन बखूबी कर चुकी थी।

    मोलभाव शुरू हुआ- ‘क्या मांग है इन दोनों नाटों का।’ झूरी ने फेरहा के तरफ मुड़ कर बोला।

    पूरा एक तो बनता है मेले में जोड़ नहीं है इनका। जौनपुरिया जोड़ी है। पूरा खरा सोना।

    कुछ ऊपर-नीचे भी या पूरा का पूरा ही। झूरी ने भी अपना पैंतरा बदलते हुए फेरहा को ताड़ना चाहा।

    नहीं भाई, इनका जोड़ नहीं है पूरे मेले में।

    अभी एक जने से इनके एक कम मिल रहे थे। चोखा माल हो फिर ऊपर-नीचे किस बात का? इनके तो पूरे एक ही बनते हैं।

    मोल भाव का दौर अपने चरम पर पहुँच चुका था। इसी बीच दो जने और आ धमके। वे शायद दलाल थे और झूरी को पहले से ही जानते भी थे। सो राम-सलामत के बाद वे भी मोल-भाव के बीच अपनी बात रखते हुए बोले- महंगू चाचा ये झूरी काछी है। बैलों के मामले में इनका कोई शानी नहीं है। इनके हाथ में जा कर ये बछड़े भी तुमको आशीर्वाद ही देंगे। निपटा लो मामला कुछ ऊपर-नीचे करके, ठीक रहेगा।

    मैंने कब मना किया। लेकिन कुछ कहें तो सही। - फेरहा ने भी पैंतरा बदलते हुए कहा।

    ढाई कम यानी सात सौ पचास रुपये में जोड़ी का मामला तय हो गया। लिखा-पढ़ी के बाद झूरी काछी अपने नवआगंतुकों को साथ लेकर मेले से घर की तरफ चल दिया।

    दोनों नाटों को पाकर झूरी काछी मन-ही-मन झूम रहा था, मानो झूरी के सपनों को एक नई उड़ान मिल गई हो।

    समय बीतता गया। झूरी काछी और दोनों नाटों के बीच दिन-ब-दिन आत्मीयता का सम्बन्ध स्थापित होता गया।

    दो-चार गांवों में इस जोड़ी का कोई शानी नहीं था। दोनों नाटे जिस प्रकार झूरी के ऊपर जान छिड़कते थे उसी प्रकार झूरी भी इनके लिए अपना सब कुछ लुटाने को सदा ही तैयार रहता था।

    झूरी ने अपने बेटे गबरू के सुझाव पर इन दोनों नाटों का नाम नीलम और माणिक रख लिया। अब तो इन दोनों नाटों का जान भी झूरी में ही बसता था। झूरी का बेटा भी अब तक सोलहवाँ सावन देख चुका था, जो अब झूरी के कामों में हाथ बटाना शुरू कर चुका था।

    समय अपनी गतिशीलता से अग्रगामी था। कुछ दिनों बाद झूरी भी बीमार रहने लगा। शायद अब भगवान को झूरी और नीलम-माणिक का साथ ठीक नहीं लग रहा था। एक दिन झूरी भी अपने धाम को हो गया। अब तो मानो नीलम और माणिक के जीवन में एक चक्रवात सा ही आ गया जो इनके जीवन में एक नया पाठ लिखने पर आमादा था।

    झूरी काछी का बेटा गबरू झूरी की तरह नहीं था। इसका वजह साफ था। वह तो नए दौर का नवयुवक था। उसे अपने कम मेहनत में अच्छी कमाई की परिपाटी की समझ जरूर थी। कम से कम दसवीं दर्जे की पढ़ाई भी उसने जैसे-तैसे ही सही पूरी कर ली थी और उसे भी बदलते दौर के साथ नवीन तकनीकी की समझ थी। वह मानता था कि वर्तमान समय में उन्नत संसाधनों का प्रयोग कर अपने पिता झूरी से बेहतर व कारगर खेती कर सकता है।

    शायद यही वो मुख्य कारण था जिसके कारण वह झूरी की तरह एकाग्र परंपरावादी सोच पर आधारित खेती-किसानी करने तक सीमित न रहकर हमेशा ही कुछ नया करने की सोच रखता था। वह समय की अनुरूपता को बखूबी समझ सकने की योग्यता भी रखता था।

    यही मुख्य कारण था जिससे गबरू अब नीलम-माणिक के लिए उतना समय नहीं दे पाता था जितना कि झूरी बैलों को देता था।

    कभी-कभी तो नीलम-माणिक को समय से सूखा भूसा भी नसीब होगा या नहीं ऐसी स्थिति का भी सामना करना पड़ रहा था जो शायद झूरी और उसके बेटे के बीच पीढ़ी के बीच पैदा होने वाले सोच का ही परिणाम है।

    समय के अपने अलग अंदाज भी होते हैं। अब तक तो औद्योगिक क्रांति ने देश के दशा और दिशा को एक नया आयाम देना शुरू कर दिया है। तभी तो शायद धरातल पर अब पीढ़ियों के बीच सोच का अन्तर भी जमीनी हकीकत दिखाना शुरू कर दिया है।

    इसी साल तो दिलावर सिंह के यहाँ नया ट्रैक्टर भी खरीद कर आया है जो कौतूहल से साथ-साथ समय के अनुरूप परिवर्तनशीलता को दर्शाता है। झूरी का जाना कोई असामान्य सी घटना नहीं है। यहीं से पीढ़ियों के बीच पैदा होने वाला अन्तर भी शुरू हो चुका है। झूरी का जाना और इधर दिलावर सिंह के घर कृषि कार्य यन्त्र ट्रैक्टर का आना एक पीढ़ी के बीच के परिवर्तन का अन्तर मात्र न हो कर एक नवीन सामाजिक और मानसिक पृष्ठभूमि का स्थापित होना भी है।

    चलायमान समय ने अपने महत्त्व को दिखाना शुरू कर दिया है। इससे झूरी का बेटा गबरू भी कहाँ अछूता रह सकता है। यही तो वह तथ्य है जो भावी समय में नीलम व माणिक के जीवन शैली में भी अभूतपूर्व परिवर्तन लाने के प्रति समय को प्रेरित कर रहा है।

    दिलावर सिंह की सोच भी कृषि कार्य के लिए प्रयोग होने वाले बैलों के स्थान पर ट्रैक्टर खरीद कर लाने में भी पीढ़ी के बीच पैदा होने वाली सामयिक सोच ही है जो शायद आगे एक अलग ही सामाजिक, आर्थिक और वैयक्तिक सोच पैदा कर झूरी की परंपरावादी परिपाटी को परिवर्तित करने के लिए समाज को प्रेरित करना शुरू कर दिया है।

    -2-

    शाम को जब गबरू खेत से थका-हारा घर पहुँचा तो वह माणिक और नीलम को नांद पर बांध कर अभी उनके लिए सानी-पानी कर ही रहा था कि घर के भीतर से उसकी पत्नी मालती भागती हुई आयी और गबरू को आवाज लगाई।

    सुनते हैं जी। आज भी केशरी के पेट में बहुत तेज दर्द शुरू हो गया था। वह दर्द के मारे अभी भी रो रहा है। अब तो मुझसे उसका कष्ट नहीं देखा जाता। किसी डॉक्टर से ही दिखा देते। क्या पता कहीं मर्ज और ना बढ़ जाए और हमें पछताने के अलावा कुछ न मिले।

    गबरू- वो तो ठीक है। लेकिन करूँ क्या? जेब में एक फूटी कौड़ी भी तो नहीं है। गबरू झल्ला कर बोला।

    मालती- आपकी बात ठीक है लेकिन आपके गुस्सा होने से समस्या तो कम नहीं होगी।

    अभी गबरू और मालती के बीच बहस चल ही रहा था कि बगल के रास्ते से गुजर रहे दिलावर सिंह बीच में बोल पड़े।

    अरे! गबरू, काहे बहुरिया को डांट रहा है।

    डांट नहीं रहा हूँ दिलावर चाचा अपने भाग्य को कोस रहा हूँ कि सुबह से शाम तक हम किसान खेतों में जी तोड़ मेहनत करते हैं फिर भी हमारे नसीब में अपनी छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी रुपये नहीं होते।

    दिलावर सिंह- बात तो तेरी सोलह आने सच है। फिर भी समस्या तो बता भाई। आखिर हुआ क्या जो इतना परेशान है?

    गबरू- क्या बताऊँ चाचा बेटवा के पेट में काफी दिनों से दर्द रहता है? गांव-जवार के कई ओझा-गुनी को भी दिखाया पर उसके सेहत पर तनिक भी असर नहीं हुआ। दो-चार दिन ठीक रहता है और फिर वहीं हाल।

    दिलावर सिंह- गबरू इन ओझा-गुनियों के झांसे में कभी नहीं आना चाहिए। ये केवल ढकोसला-बाजी ही करते हैं। किसी डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते बेटवा को। समय अब बदल रहा है। समय को पहचान कर ही चलना ठीक होगा।

    गबरू- कैसे दिखाऊ चाचा डॉक्टर को? रुपये-पैसे से हाथ पहले ही तंग है। बाबूजी के जाने के बाद तो मेरा नसीब भी शायद मेरे से रूठ ही गया है। रोज कुछ न कुछ नया झमेला लगा ही रहता है। समझ में नहीं आता कि करूँ क्या?

    दिलावर सिंह गबरू को समझाते हुए बोले-

    बेटा गबरू जीवन की गाड़ी हमेशा उतार-चढ़ाव पर ही चलती रहती है। परेशान होने से समस्या का समाधान नहीं होता है। अगर समस्या है तो उसका समाधान भी बना है। इसलिए विपत्ति में सोच-समझ कर काम करने से कुछ न कुछ समाधान मिल ही जाता है।

    गबरू- क्या समाधान है चाचा? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। अब तो मैं तंग-सा हो गया हूँ, इन रोज-रोज के झमेलों से।

    दिलावर सिंह- बेटा गबरू! ठंडे दिमाग से काम लो। सरकारी अस्पताल में आज-कल बहुत सुविधाएं मिल रही हैं। सुना हूँ कि नई सरकार ने सब सुविधाएं फ्री कर दिया है। जब से नई सरकार आई है, तब से काफी सहूलियत मिल रही है। केवल पाँच रुपये की सरकारी पर्ची लेकर तुम आसानी से अपने बच्चे का

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