Chalo Fir Kabhi Sahi (चलो फिर कभी सही)
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About this ebook
'हम पर दुःख का परबत टूटा,
तब हम ने दो-चार कहे,
उस पे भला क्या बीती होगी
जिस ने शेर हज़ार कहे।
कवि-सम्मेलनों तथा मुशायरों में उद्धृत किए जाते हैं। राही जी की गज़लों में आप को सारे रंग देखने को मिल जाते हैं-चाहे वे रिवायती हों, चाहे ताज़ातरीन। उन की ग़ज़लों में आधुनिक रंग बिलकुल नुमायां है जहां गज़ल आम आदमी के दु:ख-दर्द से जुड़ जाती है, उर्दू हिन्दी ग़ज़ल का अन्तर मिट जाता है। 'चलो फिर कभी सही' संग्रह में भी विविध रंगों की छटा है। अनेक शेरों में वर्तमान समय की धड़कनें विद्यमान हैं-
दम घुटा जाता बुजुर्गों का कि रिश्ते खो गए,
नौजवां खुश हैं उन्हें बाज़ार अच्छे मिल गए।.
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Book preview
Chalo Fir Kabhi Sahi (चलो फिर कभी सही) - Balswaroop Raahi
चलो फिर कभी सही
eISBN: 978-93-5486-739-2
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2021
Chalo Fir Kabhi Sahi
By - Balswaroop Raahi
‘चलो फिर कभी सही’ समर्पित है उन्हें
जिन्होंने मेरी दुश्वारियों में मेरा साथ दिया।
‒ बालस्वरूप राही
कम नहीं है किसी से हिन्दी ग़ज़ल
हम पर दुख का परबत टूटा तब हमने दो-चार कहे
उस पे भला क्या बीती होगी जिसने शेर हज़ार कहे
अब किसके आगे हम अपना दुखड़ा रोएं छोड़ो यार
एक बात को आख़िर कोई बोलो कितनी बार कहे
मेरी यह ग़ज़ल ‘धर्मयुग’ में छपी थी। उन दिनों ‘धर्मयुग’ के सम्पादक थे बहुमुखी साहित्यकार धर्मवीर भारती। उन्हें मेरी यह ग़ज़ल इतनी पसंद आई कि उन्होंने अपने घर आने पर रामावतार त्यागी, रमानाथ अवस्थी, देवराज ‘दिनेश’ जैसे दिग्गज कवियों को उत्साह से पढ़कर सुनाई। इस ग़ज़ल में मैंने कह तो दिया कि अपने दुख को कोई आख़िर कितनी बार कहे, परन्तु मन कर रहा है कि आपको भी अपना दुखड़ा सुना ही दूं।
मेरी ग़ज़लें दर्द से लबरेज़ हैं। जीवन में दुख तो सब भोगते हैं, उनमें से ज़्यादातर स्वयं-अर्जित होते हैं। तकलीफ़ की बात तो यह है कि मैंने जीवन में जो कष्ट उठाए वे मेरी कमाई नहीं थे, जीवन ने मुझ पर थोपे। बचपन में मैं कुछ कुछ तुतलाता था। ज़रा बड़ा हुआ तो सेहत ने अंगूठा दिखा दिया। खेल-कूद में पिछड़ गया। फिर भी जब मैदान में उतरता था टीम का कप्तान बनता था। अपनी क्रिकेट टीम का कप्तान होते हुए भी प्रायः थोड़े-बहुत रनों पर आउट हो जाता था। परन्तु सबसे छोटी सन्तान होने के कारण मुझे मां-बाप का अपार प्यार मिला। मैं सात भाइयों में सबसे छोटा था।
मेरे बड़े भाई उर्दू की शेरो-शायरी के शौक़ीन थे। उस ज़माने में बैतबाज़ी (अन्त्याक्षरी) ख़ूब चलती थी। मैं भी बैठकर शौक़ से सुनता था। सुनते सुनते कहने का शौक़ होने लगा और शेर कहने लगा। यह तिमार पुर, दिल्ली की बात है।
जब भारत स्वाधीन हुआ, मेरे बालमन में प्रश्न उठा कि मैंने देश के लिए क्या किया? उन दिनों राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का बोल- बाला था। मैंने सातवीं कक्षा में उर्दू छोड़कर हिन्दी ले ली। आठवीं-नौवीं कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते मैंने हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में कविताई शुरू कर दी। तब मैं दिल्ली कैंट के सरकारी हायर सैकंडरी स्कूल में पढ़ता था। मेरे पिता श्री देवी दयाल भटनागर की दिल्ली कैंट के सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल के पद पर नियुक्ति हो गई थी और हम दिल्ली कैंट चले आए थे। मैं अपनी कविताएं हिन्दी अध्यापक श्री अर्जुन देव शास्त्री को दिखाता था और उर्दू शायरी उर्दू के अध्यापक श्री सूरज प्रकाश ‘सागर’ जी को दिखाता। क्योंकि मैं प्रिंसिपल का बेटा था इसलिए उर्दू अध्यापक मुँह पर तो कुछ न कह पाते किन्तु उनका रुख़ बेरुख़ी का रहता। वह इस बात से घोर रूप से खिन्न थे कि मैं हिन्दी का विद्यार्थी होते हुए भी उर्दू में ग़ज़ल क्यों कहता हूँ! नौबत यहां तक पहुँची कि एक दिन मैं कक्षा में गया तो वहां ब्लैक बोर्ड पर लिखा था‒
शायरी चारा समझ राही गधा चरने लगा
उर्दू ज़बां आती नहीं और शायरी करने लगा
तो एक उर्दूदां की सरपरस्ती में पहला इनाम तो मुझे यही मिला। इसके बाद की दास्तां तो और भी तकलीफ़देह है। उन दिनों ‘सरिता’ बहुत ही लोकप्रिय पत्रिका मानी जाती थी। वहां मैं अपनी कविताएं प्रकाशनार्थ भेजता तो कविता इस टिप्पणी के साथ लौट आती‒‘सम्पादक के अभिवादन व खेद सहित’। इस खेद से मेरे दिल में छेद हो जाता था। अरे, कविता लौटा ही रहे हो तो अभिवादन कैसा? हताश होकर उन्हें और एक कविता भेजी तो यह लिख दिया‒‘आप मेरी कविताएं लौटाते रहिए। मैं कविताएं भेजता रहूंगा। देखते हैं जीत किसकी होती है?’ सौभाग्यवश मेरी जीत हो गई और वह कविता प्रकाशनार्थ स्वीकृत हो गई। मैं ‘सरिता’ में अपनी कविताओं के साथ ग़ज़लें भी छपवाने लगा। एक बार का हादसा सुनिए। मेरी एक ग़ज़ल स्वीकृत तो हो गई लेकिन ‘सरिता’ के सम्पादकीय विभाग के एक प्रमुख अधिकारी श्री चन्द्रमा प्रसाद खरे ने मुझसे यह कहा कि यह ग़ज़ल तो