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Aag Aur Paani (आग और पानी)
Aag Aur Paani (आग और पानी)
Aag Aur Paani (आग और पानी)
Ebook783 pages6 hours

Aag Aur Paani (आग और पानी)

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About this ebook

'चाणक्य' को लोग कौटिल्य और विष्णुगुप्त के नाम से भी जानते है। भारत के इतिहास में अपने मार्गदर्शन से मौर्य राजवंश को खड़ा किया और आगे चलकर बिदुंसार एवं सम्राट अशोक के भी गुरु बनें। इनकी रचना अर्थशास्त्र और चाणक्य नीति आज भी प्रासांगिक है।
चाणक्य ने भारत की आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और सामाजिक व्यवस्था को सुनियोजित बनाए रखने की एक उत्कृष्ट बौद्धिक परंपरा को जन्म दिया। अपनी कूटनीतियों से शत्रुओं का दमन किया और अपनी प्रतिभा से संस्कृत साहित्य को महत्त्वपूर्ण बनाया। उन्होंने त्याग और बुद्धिमत्ता से भारत का गौरव बढ़ाया और आजीवन चरित्र, स्वाभिमान और कर्तव्यनिष्ठा को प्रमुखता दी। ऐसे पुरुषशिरोमणि 'चाणक्य' की जीवनी है- आग और पानी। 'आग और पानी' सिर्फ जीवनी ही नहीं है बल्कि एक जीवंत दस्तावेज है जो चाणक्य को करीब से जानने-समझने में मदद करेगी। वे बुद्धि से तीक्ष्ण, इरादे का पक्का, प्रतिभा के धनी, दूरदर्शी व युग-निर्माता थे, उनके जीवन का एक उद्देश्य था- बुद्धिर्यस्य बलं तस्य।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateMar 24, 2023
ISBN9789356844827
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    Aag Aur Paani (आग और पानी) - Raghuvir Sharan 'Mitra'

    आग और पानी

    रघुवीर शरण ‘मित्र’

    eISBN: 978-93-5684-482-7

    © प्रकाशकाधीन

    प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.

    X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II

    नई दिल्ली- 110020

    फोन : 011-40712200

    ई-मेल : ebooks@dpb.in

    वेबसाइट : www.diamondbook.in

    संस्करण : 2023

    Aag Aur Pani

    By - Raghuveer Sharan Mitra

    1

    सफेद बाल, विशाल मस्तक, बड़ी-बड़ी आँखें, स्कन्ध से वक्ष एवं नाभि तक लहराते हुए यज्ञोपवीत की गरिमा और देह पर ढाई गज वस्त्र धारण किये हुए वह दरिद्रता और गौरव के प्रमाण - सा राजपथ पर आया।

    माथे पर चिन्ता के चित्र थे, पैरों में विश्वास की तेजी थी, विचारों में तर्क छिड़ा हुआ था और पुतलियों में हलचल हो रही थी। वह चल रहा था, पर ऐसे जैसे कोई भावुक धुन में चला जा रहा हो, जैसे कोई मृत्यु से होड़ लगाता हुआ बढ़ रहा हो, जैसे सूर्य का प्रकाश मेघों को चीरता हुआ जलजातों के लिए गतिमान हो।

    आँखों के पानी और हृदय के दाह में सिन्धु की मर्यादा और प्रलय का वेग होता है। जीवन जब अत्याचारों से मेघ बनकर बरसता है तो उसमें बिजली की तड़प भी होती है। राजमहलों की रंगीनियों से दहकता हुआ पथिक राजपथ पार कर उस चौड़ी और सुन्दर सड़क पर आया जिस पर राजमन्त्रियों के इन्द्रमहल आकाश से होड़ लगा रहे थे। सड़क के दोनों किनारों पर तराशी हुई हरियाली और फूलों की तृषामृतत्व आभा थी, जिनसे फूटती हुई सुगन्ध कभी-कभी पथिक के विचारों का तर्क भंग कर देती थी।

    गुलाब, गेंदे, चम्पा और चमेली से मिले हुए ये ही हैं वे मणिमण्डित रत्नों राजमहल जिनमें राजकोष फुंका पड़ा है। संगमरमर से चिने हुए, से जड़े हुए, मोतियों की झालरों से झिलमिलाते हुए, स्वर्ण चित्रित और सलमे - सितारों के पर्दों से अवगुण्ठित इन्हीं महलों में मनुष्य का भाग्य बन्दी है।

    राह घटती जा रही थी और पथिक बढ़ता जा रहा था। सोचते-सोचते राही ने एक महल के द्वार में प्रवेश किया। द्वारपाल ने आगन्तुक को रोकते हुए कहा- श्री श्री एक सौ आठ महागुणी महामात्य किसी विशेष कार्य में व्यस्त हैं। उनकी आज्ञा है, इस समय हमारे पास किसी को भी न आने दिया जाये।

    आगन्तुक ने नम्रता से द्वारपाल की ओर देखते हुए कहा- तुम नये द्वारपाल जान पड़ते हो। श्री श्री एक सौ आठ महागुणी महामात्य से कहो कि चणक द्वार पर खड़ा है। वह इसी समय आपके दर्शन करना चाहता है।

    द्वारपाल ने सिर हिलाते हुए कहा- कोई भी सन्देश उन तक ले जा सकूँ।

    मुझे आज्ञा नहीं है लेकिन मुझे उनसे इसी समय मिलना है, बहुत आवश्यक! उनके ही कार्य के लिए आया हूँ। तुम डरो मत, वे तुम पर नाराज नहीं होंगे। जाकर कह दो कि चणक आया है।

    द्वारपाल ने जब देखा कि यह भयंकर बूढ़ा भूत की तरह चिपट ही गया है और महामात्य से बिना भेंट किये नहीं टलेगा तो वह नाक फुलाता हुआ महल में गया। महागुणी महामात्य महल की छत पर टहल रहे थे। चौक में द्वारपाल को देखते ही क्रोध से बोले- क्या है द्वारपाल?

    द्वारपाल सिर झुकाकर अभिवादन करता हुआ बोला - द्वार पर एक विचित्र बूढ़ा खड़ा है। वह इसी समय आपके दर्शन के लिए हठ कर रहा है। उसने अपना नाम चणक बताया है।

    सुनते ही महामात्य नीचे उतर आये। वे तेजी से द्वार की ओर लपके। दूर ही से आगन्तुक की ओर श्रद्धा से देखते हुए उन्होंने नमस्कार किया और फिर आदर सहित अतिथि को महल में ले चले।

    भूलभुलैया - जैसे कितने ही द्वार पार कर, कमरे से कमरे में प्रवेश करते हुए महामात्य आगन्तुक को एक गुप्त गर्भ में ले आये। इस गर्भगृह की सज्जा भी अनूठी थी। नीली छत, नीली दीवारें और चौकियों पर नीले ही मखमल के गद्दे बिछे हुए थे। नीले शीशों के किवाड़, नीले शीशों की चिमनियों से झरता हुआ नीला प्रकाश एवं स्थान-स्थान पर जड़े हुए नीलमों की दमक से वह गुप्त गर्भ भी कौंध रहा था। किन्तु कौंध लोहे की दीवारों में इस प्रकार बंधी थी कि क्या सामर्थ्य जो एक किरण भी बाहर निकल जाये।

    कोई नया व्यक्ति होता तो निश्चित ही गर्भगृह को देखता रह जाता। भला महलों का सौन्दर्य किसकी आँखें नहीं चौंधिया देता! यह वह इन्द्रजाल है जो आँखें निर्निमेष कर देता है, जो बिना जंजीरों के पैर जकड़ डालता है। लेकिन चणक के लिए चाह त्याग की वेदी पर चढ़ चुकी थी। निर्धनता की गोद में खेलने और खिलाने का अभ्यासी क्या कभी धन के चमत्कारों में खो सकता है।

    त्याग और सत्य के शरीर चणक एक चौकी पर बैठ गये। महामात्य भी उनके बराबर में विराजे। बैठते ही चणक बोले- महागुणी महामात्य को आश्चर्य होगा कि चणक दीवाली की इस अर्धरात्रि में महामात्य शकटार के महल में क्यों!

    महामात्य शकटार ने गम्भीर किन्तु तेजस्वी मुद्रा में उत्तर दिया- मैं त्यागी ब्राह्मण चणक से परिचित हूँ। उसे अपने लिए कुछ चाह नहीं है। हाँ, उसे महामात्य शकटार की चिन्ता अवश्य रहती है।

    क्योंकि शकटार को राष्ट्र की चिन्ता रहती है, इसलिये मुझे शकटार की चिन्ता है। मगधाधिपति महानन्द की विलासिता और धर्मान्धता से राष्ट्र भयंकर कुचक्रों में फँस चुका है। किसी भी समय विस्फोट हो सकता है। चणक ने चिन्तातुर वाणी में कहा।

    चिन्ता न करो चणक! शकटार की आँखें बन्द नहीं हैं। कुचक्रियों का कोई भी जाल शकटार की आँखों से छिपा नहीं है। मगध राज्य के कण-कण पर उसकी दृष्टि है। महाराज नन्द की हर पगध्वनि शकटार के कान सुनते रहते हैं। शकटार शत्रु और मित्र को भली-भाँति पहचानता है।

    चणक- यदि पहचानते हो तो ततैयों के छत्ते से निकले क्यों नहीं? अब तक शत्रुओं का नाश क्यों नहीं किया? आस्तीन में साँप घुसे हुए हैं और तुमने उन्हें अभी तक नहीं कुचला! देखते नहीं, देश को चारों ओर से विदेशी घूर रहे हैं. राजकोष लुटाया जा रहा है। महाराज को ढोंगियों ने घेर रखा है। मद और मानिनियों में मदान्ध मगधाधिपति मनचाही कर रहा है। मन्त्रिगण आँखें मूँदे बैठे हैं। नन्द में चूर है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ने उसे मूर्ख बना रखा है। महल में मधुर नागिनें राज्य डसने के लिए फण फैलाये नृत्य कर रही हैं। आश्चर्य है, महामात्य यह सब कैसे सहन कर रहे हैं! या कहीं मन्त्री राजा बनना चाहते हैं?

    शकटार- मुझे और अपनी वाणी को कलंकित न करो चणक! शकटार लोभी नहीं है।

    चणक- यदि स्वयं राज्य के लोभी नहीं हो तो अपनी शिथिलता से किसी अन्य को अपना देश सौंप दोगे और तब दासता तुम्हारी बुद्धि पर तरस खायेगी। इसलिये समय रहते कंचन में बन्दी बुद्धि के दरवाजे खोल लो।

    शकटार- बुद्धि भी कंचन की कोठरी में बन्दी नहीं है, यह अवश्य है कि वह अवसर की प्रतीक्षा कर रही है।

    चणक- अवसर निकला जा रहा है महामात्य! यदि भारत का मगध राज्य किसी एक भी उँगली से दब गया तो सम्पूर्ण राष्ट्र पर विदेशी छा जायेंगे।

    शकटार- किन्तु यह शकटार की मृत्यु के बाद होगा। जब तक राक्षस और कात्यायन जैसे दूरदर्शी अमात्य मगध राज्य में हैं तब तक मगध किसी की उँगली के नीचे नहीं दब सकता।

    चणक- मुझे केवल शकटार की बुद्धि पर भरोसा है, कात्यायन और राक्षस अभी वन की आग बुझाने में दुर्बल दिखते हैं।

    शकटार- यह भ्रम है चतुर ब्राह्मण! उनकी आँखें मुझसे पहले ही खुल चुकी हैं।

    चणक- किन्तु वे खुली आँखों से सो रहे हैं।

    शकटार- सो नहीं रहे, उन्होंने महाराज नन्द को समझाने का यत्न किया।

    चणक- और यही उन्होंने भारी अपराध कर डाला। राजा नन्द को समझाने का परिणाम निकलेगा कि वह अपनी इच्छा के विरुद्ध सोचने वालों को पहचान लेगा।

    शकटार- सीधी उँगलियों से घी निकालना क्या अपराध है?

    चणक- अपराध ही नहीं, असफल प्रयत्न भी। यह ओस चाट कर प्यास बुझाने की कल्पना है।

    शकटार- तो मैं उँगलियाँ टेढ़ी करने को तैयार हूँ।

    चणक- किन्तु उँगली के नाखून को भी यह मालूम न हो कि उँगली टेढ़ी हुई है।

    शकटार- योगाभ्यास के इस गर्भ-गृह से कोई बात बाहर नहीं जाती।

    चणक- नन्द के हाथों में मगध का राज्य सुरक्षित नहीं है। आर्यावर्त का गौरव कच्चे धागे में लटक रहा है। छोटे-छोटे राज्य मगध पर आँखें गड़ाये बैठे हैं।

    शकटार- जब तक मौर्य सेनापति और नीतिज्ञ मन्त्रियों की शक्ति सुरक्षित है, तब तक मगध का बाल बाँका नहीं हो सकता, आर्यावर्त के गौरव पर आँच नहीं आ सकती। तुम इतने भयभीत क्यों हो रहे हो सखे!

    चणक- मेरा भय निर्मूल नहीं है। महाबलाधिकृत मौर्य की भुजाओं पर मुझे भरोसा है, किन्तु क्या वे हाथ महाराज नन्द की कुत्सित स्वर्ण जंजीरों में जकड़े हुए नहीं हैं? जब तक मगध का राज्य नन्द के हाथों में है, तब तक राष्ट्र की सुरक्षा कच्चे धागे में ही लटकती रहेगी।

    शकटार- तो फिर?

    चणक- फिर क्या, नन्द को यमराज के राज्य में भेज दिया जाये और किसी को यह मालूम न हो कि नन्द मरे नहीं, मरवाये गये हैं।

    शकटार- ने स्तब्ध होकर चणक की ओर देखा और फिर चणक के कथन की गहराई में गोते लगाते हुए बोले- क्या कोई ऐसा उपाय हो सकता है जिससे साँप मरे, न लाठी टूटे?

    चणक- हाँ, हो सकता है, लेकिन तब जबकि लक्ष्य से पहले पैरों की गति की आहट किसी के कानों तक न पहुँचे। नन्द को मारना चाहते हैं, यह रहस्य मेरे और तुम्हारे अतिरिक्त तीसरे को न मालूम हो।

    शकटार- तो फिर यह किस प्रकार करना होगा?

    चणक- तुम किसी भी तरह महाराज नन्द के सर्वाधिक विश्वासपात्र बन जाओ और कात्यायन को मन्त्री पद से प्रथम तो अलग कराओ, पर इस तरह कि नन्द यह समझता रहे कि शकटार मेरा शुभचिन्तक है और कात्यायन यह समझता रहे कि महामात्य शकटार की मुझ पर अपार कृपा है। सावधान! कात्यायन को मन्त्री पद से अलग करवा कर पुनः मन्त्री बनाना है। तदनन्तर मौर्य सेनापति सूर्यगुप्त को राज्य का लालच देकर अपनी ओर कर लो!

    शकटार- लेकिन जब तक अमात्य राक्षस महाराज नन्द के कवच हैं तब तक यह कैसे सम्भव हो सकता है! महाराज का राक्षस पर अटूट विश्वास है, और राक्षस भी महाराज की रक्षा में सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। उस नवयुवक की भुजाओं में महाबल है, प्रतिभा में सरस्वती विराजती है और हृदय में महाराज नन्द का वास है।

    चणक- कट्टर से कट्टर मनुष्य में कुछ अमिट दुर्बलताएँ भी होती हैं। तुम्हें उन दुर्बलताओं के सहारे ही षड्यन्त्र रचने होंगे। महाराज के महल में किसी ऐसी सुन्दरी का प्रवेश कराओ कि महल में उससे सुन्दर कोई दूसरी न हो। उस सुन्दरी के स्पन्दनों में इतना अधिक आकर्षण हो कि पत्थर भी उसे देखकर पानी-पानी हो जाये। बस, यह चिंगारी पर्याप्त होगी।

    शकटार- अत्यन्त सुन्दरी, निश्चित वह अद्वितीय सुन्दरी है! सौन्दर्य की साक्षात् प्रतिमा! आपकी कामना सफल होगी चणक! मैं किसी न किसी कुचक्र से कल तक नायन जाति की बेला कुमारी मुरा का महल में प्रवेश करा दूँगा।

    चणक- तो अब मुझे जाने की आज्ञा दो महामन्त्री! बेटी कहाँ है? बहुत दिन हो गये उसे देखे हुए।

    शकटार- अपने कक्ष में बैठी कविता लिख रही होगी। चलिये, उधर ही चलते हैं।

    कहते हुए आगे-आगे शकटार और पीछे-पीछे चणक गर्भगृह से निकल महल के प्रत्यक्ष कक्षों में आये। इनमें से एक कक्ष के द्वार में प्रवेश करते हुए शकटार ने कहा - "सुवासिनी! देख, बाबा चणक आये हैं।

    सुवासिनी देखते ही हर्ष से उठ खड़ी हुई। नमस्कार बाबा! कहते चणक को एक आसन पर विराजने का संकेत किया।

    चणक ने आशीर्वाद का हाथ सुवासिनी के सिर पर रखते हुए कहा- क्या कर रही थी हमारी बिटिया! सुना है, कविता लिख रही थी। हमें भी तो सुनाओ बेटी! क्या कविता लिखी है तुमने?

    सुवासिनी के मुख पर लज्जा और हर्ष की किरण झिलमिला उठी। उसने संकोच भरे बाल-सुलभ स्वर में कहा - पिताजी तो ऐसे ही कहते रहते हैं बाबा जी! भला मैं कविता लिखनी क्या जानूँ?

    चणक- क्या कोई ऐसी कला भी हो सकती है जिसे हमारी चतुर बेटी सुवासिनी नहीं जान सकती?

    सुवासिनी ने बाबा की ओर भाव से देखते हुए कहा- आपका आशीर्वाद हुआ तो समस्त कलाओं में निपुण हो जाऊँगी। पर अभी तो मैं बहुत छोटी हूँ। जी चाहता है मुझसे पढ़ने-लिखने को कोई न कहे, सारा दिन खेलती रहूँ।

    शकटार- तू। जितनी छोटी है, उतनी ही खोटी। पर अब तू छोटी भी कहाँ! अब की कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को पूरे चौदह वर्ष की हो जायेगी।

    सुवासिनी- देख लो बाबा! पिताजी हर समय मुझे डाटते हैं, कहते हैं, खेल मत, पढ़! मैंने इस अल्पायु में ही इतिहास, काव्य और दर्शन हृदयंगम कर लिये हैं, किन्तु फिर भी पिता जी मुझे खोटी बताते हैं।

    चणक- यह तो पिता का प्यार है बेटी! अच्छा बता तू कौन-कौन से खेल खेलती है?

    सुवासिनी- अब तो बहुत दिनों से खेलना बन्द कर रखा है। भला खेलूँ भी कैसे, कौटिल्य को तो आप कभी भेजते ही नहीं। जब वह आता था तो हम दोनों खेला करते थे। बाबा जी! उन दिनों हमने नाटक भी खेला और शतरंज तो खूब ही खेलती थी। लेकिन कौटिल्य से जीती एक दिन भी नहीं। वह मोहरें कुछ ऐसे चलाता था कि मुझे तो मात ही खानी पड़ती। और न जाने क्यों मुझे कौटिल्य की जीत से इतनी प्रसन्नता होती थी जितनी कि चौपड़ के खेल में उससे जीत कर भी कभी नहीं हुई। आप उसे हमारे यहाँ क्यों नहीं भेजते?

    चणक- मैंने तो उसे यहाँ आने को कभी मना नहीं किया। वह है ही बड़ा कुटिल। मुझसे कहता था, ‘मैं सुवासिनी के घर नहीं जाऊँगा, उससे मेरी लड़ाई हो गई।’

    सुवासिनी- क्या कौटिल्य नहीं आयेगा? वह मुझसे नाराज हो गया? मैंने तो खेल - खेल में प्यार से उसे चिढ़ा दिया था। सचमुच बाबा जी! मेरा भाव कौटिल्य की हँसी उड़ाने का बिल्कुल नहीं था।

    चणक- वह बड़ा क्रोधी है, बेटी! जब उसे क्रोध आता है और किसी दूसरे पर उसका कुछ वश नहीं चलता तो वह अपने बड़े-बड़े बाल उखाड़ डालता है और फिर रक्त में उँगली भिगो-भिगो कर रेत में चित्र बनाने लगता है।

    सुवासिनी- नहीं, नहीं, बाबा जी! कौटिल्य जितना कठोर है उससे अधिक कोमल और सुन्दर है। औरों (दूसरों) को वह स्वाभिमानी कठोर दीखता है पर वस्तुतः वह मृदुता से भी मृदुल है। वह सौन्दर्य और तेज का शीतकालीन सूर्य है। क्या फूल उसके रूप के आगे लज्जित नहीं हो जाते! क्या शास्त्र उसके गुणों से अपने को लघु नहीं मानने लगते! कौटिल्य तो प्रतिभा का अद्भुत प्रकाश है। कभी-कभी लगता है कि कहीं वह वही तो नहीं है जो गोकुल की गलियों में खेला था।

    चणक- क्या बेटी कविता सुना रही है?

    सुवासिनी- नहीं, बाबा जी! सत्य की प्रशंसा कर रही हूँ। उसे भेज देना बाबा जी! कहना, ‘सुवासिनी बहुत याद कर रही है।’

    चणक- अच्छा, रानी बेटी! मैं उसे भेज दूँगा और नहीं आयेगा तो जबरदस्ती भेजूँगा। अब अपने बूढ़े बाबा को जाने दे।

    कहते हुए चणक और शकटार कक्ष से बाहर निकले। सुवासिनी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, शकटार से कुछ बातें करते हुए चणक महल से बाहर आये और फिर अद्भुत मुद्रा से देखते हुए उन्होंने कहा- अब मैं चला सखे! कौटिल्य की ओर से मुझे हर समय चिन्ता बनी रहती है। वह महाक्रोधी और अत्यन्त स्वाभिमानी है। वह इतना उत्पाती है कि साँप को चुटकी से कुचल कर मार डालता है, बिच्छू को धागे में बाँध कर खेलता फिरता है।

    शकटार- अभी बालक है, बड़ा होकर संभल जायेगा।

    चणक- सोच रहा हूँ अगले वर्ष उसे शिक्षा के लिए तक्षशिला भेज दूँ। सम्भव है वहाँ वह कुछ उत्पात छोड़ दे और पढ़-लिख ले।

    शकटार- यह तो आप निश्चित ही कर डालिये। कौटिल्य का तक्षशिला विश्वविद्यालय में प्रवेश करा दीजिये; नये वर्ष में यह शुभ कार्य कर ही डालिये। तब तक वह स्थानीय गुरुकुल में पढ़ ही रहा है।

    चणक- कौटिल्य कुटिल है, किन्तु बड़ी-बड़ी पुस्तकें वह खेल ही खेल में खेल की तरह पढ़ भी डालता है।

    शकटार- क्यों नहीं, आखिर तो आचार्य चणक का पुत्र है। पिता के गुण कुछ न कुछ में होने ही चाहियें।

    किसी के गुण तभी सार्थक हैं जब देश के काम आयें। ईश्वर करे वह बड़ा होकर मेरी आकांक्षाओं को मूर्त रूप दे पाये। कहकर चणक ने चलने का चरण उठाते हुए शकटार के कंठ में प्रेम से हाथ डाला और फिर यह कहते हुए चल दिये, साँप मरे, न लाठी टूटे।

    साँप मरे, न लाठी टूटे सोचते हुए शकटार महल में वापिस आये। सोचते ही सोचते वह एक बड़े पलंग पर लेट गये। सुवासिनी उसी कक्ष में एक विश्रामासन पर लेटी - सी कुछ गुनगुना रही थी। शकटार ने मधुर किन्तु चिन्ता भरी वाणी में कहा- सुवासिनी! हम कुछ सोच रहे हैं, तुम गुनगुनाना बन्द कर दो।

    सुवासिनी एकदम चुप हो गई, पर कुछ पलों बाद वह बोली- क्या सोच रहे हो पिता जी! आप हर समय सोचते ही रहते हैं। अधिक सोचने से फिर आपके सिर में दर्द हो जायेगा। सोचना छोड़िये और सो जाइये।’

    मैं तो सो जाऊँगा, तू सो जा बेटी! मेरी चिन्ता न कर। अमात्य की नींद तो राज्य की गुत्थियाँ सुलझाने में खोयी रहती है। पर तुझे इन बातों से क्या! तू तो अभी बच्ची है। राजनीति की उलझनें भूख-प्यास और नींद मिटा डालती हैं। कच्चे धागे में लटकती हुई राजनीति की तलवार पता नहीं कब किसकी गर्दन पर पड़े।

    लेकिन जब तक आप चिन्ता में रहते हैं मुझे नींद नहीं आती, पिता जी! लाइये, आपका सिर दबा दूँ, आपको नींद आ जायेगी। कहती हुई सुवासिनी उठी और पिता का सिर दबाने लगी। शकटार ने आशीर्वाद का हाथ सुवासिनी की पीठ पर रखा और विचारते हुए कहने लगे- जीवन और जगत् बड़ा ही अद्भुत होता है, सुवासिनी! मनुष्य न जाने किस डोरे में बंधा हुआ नाचता है। आज जो राजा है वह कल भिखारी भी हो सकता है। आज जिसके पास सारे सुख हैं कल उसी के पास सारे दुःख भी हो सकते हैं, इसलिये यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि महलों का और मिट्टी का अस्तित्व एक है। मिट्टी एक दिन दुर्ग की शिखा पर गौरव से उन्नत होती है और एक दिन पैरों के नीचे रुँदती है। महल कभी आकाश से बातें करते हैं और कभी धूल से ढक जाते हैं।

    यह दर्शन इस समय क्यों पढ़ने लगे पिताजी! आखिर आप क्या कल्पनाएँ कर रहे हैं? राजनीतिज्ञ को संन्यासियों की भाषा नहीं बोलनी चाहिये, सुवासिनी ने गम्भीर होकर कहा।

    कुछ नहीं, बेटी! ऐसे ही सोचने लगा। अच्छा, अब मैं सोता हूँ। जा, तू भी सो जा! और देख, सवेरे तुझे पाँच बजे उठना है, क्योंकि तुझे मैं बेला के घर भेजूँगा; किसी गाड़ी में नहीं, पैदल ही। मैं बेला और उसकी पुत्री मुरा से सवेरे ही मिलना चाहता हूँ। पर किसी को यह मालूम न होने पाये कि बेला और मुरा से आज की तिथि में इस प्रकार महामात्य शकटार ने कुछ बातें की हैं।

    यह तो साधारण सी बात है। मैं प्रातः भ्रमण के समय उन्हें अपने साथ लिवा लाऊँगी। कहती हुई सुवासिनी पलंग पर आकर सो गई। थोड़ी ही देर में वह खर्राटे भरने लगी। पर शकटार की आँखों में अभी तक नींद नहीं थी। वे सोच रहे थे - भविष्य के प्रश्न। राजनीति के ताने-बाने उन्हें उलझाये हुए थे।

    मगध की भूमि खोखली हो चुकी है। महाराज नन्द विलासी हैं। तरह-तरह के धर्मों से भेदभाव के बवण्डर उठे हुए हैं। युद्ध में शत्रु की कमर लपेटने वाली भुजाएँ कामिनियों के आलिंगन में मूर्च्छित होती जा रही हैं; और उधर से छोटे-छोटे राज्यों की आँखें धीरे-धीरे बढ़ने वाले बादलों की तरह मगध राज्य की ओर बढ़ी आ रही हैं। पर शकटार की आँखें इन आक्रान्ताओं से असावधान नहीं हैं। शकटार सजग है। उसने नन्द राज्य की एक पीढ़ी ही नहीं, और भी पीढ़ियाँ देखी हैं। इस बार इस बीज को समूल नष्ट करना है।

    इसी उधेड़बुन में उलझे हुए महामात्य शकटार कुछ सो गये उनकी आँख लगे अभी घण्टा भर भी नहीं हुआ था कि उनके कानों में गुप्त संकेत की घण्टी बजी। शकटार तुरन्त ही सावधान होकर उठ बैठे और संकेत - ध्वनि सुनने लगे। सांकेतिक भाषा पहचानते हुए महामात्य ने श्रवण-घण्टी द्वारा कहा - कौन? अंगरक्षक अवन्त! क्या कहा, कल प्रातः आपको महाबलाधिकृत का पद संभालना है और मगध की ओर बढ़ने वाली राजपूताने की शक्तियों को कुचलना है।

    हाँ, यह महाराज और अमात्य राक्षस ने गुप्त मन्त्रणालय में अभी परामर्श करके निर्णय किया है।

    क्या उस समय और भी कोई वहाँ था?

    नहीं, महाराज ने मुझे भी दूसरे कक्ष में रहने की आज्ञा दे दी थी, पर मैंने किसी तरह किवाड़ों से कान लगाकर बातें सुन लीं।

    तो क्या आजकल महाराज का अमात्य राक्षस पर सबसे अधिक विश्वास होता जा रहा है?

    ‘मैं समझता हूँ कि महाराज का राक्षस के अतिरिक्त किसी पर भी विश्वास नहीं है। बहुत शीघ्र ही वह दिन आने वाला है जब आपको पदच्युत कर राक्षस महामात्य के आसन पर आसीन किये जायेंगे। यही नहीं, राक्षस तो आपके लिए इससे भी अधिक कोई अशुभ कामना करते हों तो असम्भव नहीं है।’

    ‘अच्छा तो देखो, महाराज किसी भी प्रकार यह न समझने पायें कि अंगरक्षक अवन्त शकटार का गुप्तचर है।’

    ‘विश्वास रखिये, महामात्य! अवन्त आवश्यकता पड़ने पर आपके लिए प्राण तक दे देगा।’

    ‘मुझे तुमसे ऐसी ही आशा है। और देखो, कोई विशेष रहस्य हो तो मुझ तक तुरन्त पहुँचाने में यत्नशील रहना! राक्षस के इस घोर कुचक्र को कुचलने का बीड़ा तुम्हें ही उठाना है।’

    कहते हुए महामात्य शकटार ने चिन्ता की लम्बी श्वास ली और सोच में डूबे हुए पलंग से उठ खड़े हुए। ‘राक्षस! तुम महामात्य शकटार का नाश करना चाहते हो, किन्तु तुम्हारा यह स्वप्न कभी पूरा नहीं होगा। कैसी विडम्बना है! राज्यलिप्सा मनुष्य को कितना कृतघ्न बना डालती है! ‘सोचते-सोचते शकटार ने अपनी बेटी सुवासिनी को आवाज दी। सुवासिनी नींद से अचानक उठी और चौंककर बोली- क्या है, पिता जी!’

    शकटार ने रुक-रुक कर धीरे से कहना शुरू किया- ‘मेरा हृदय बैठा जा रहा है बेटी! इसी समय सबको सूचित कर दो कि महामात्य शकटार अकस्मात् मरणासन्न हो गये। तुरन्त ही राजवैद्य को बुला भेजो और जितनी जल्दी हो सके सेवकों द्वारा रात ही रात में यह खबर तेजी से सब तक फैल जानी चाहिये कि शकटार बहुत बीमार हैं। महाराज नन्द से लेकर राजधानी का बच्चा-बच्चा यह जान जाये कि शकटार मृत्यु शैय्या पर हैं। न जाने मेरा मन क्यों घबरा रहा है! मुझे लग रहा है जैसे मैं बचूँगा नहीं।’

    सुनते ही सुवासिनी चीख पड़ी, ‘माँ, बहिन, भैया, सेवकों! शीघ्र देखो तो पिता जी को क्या हो गया!’

    कहती-कहती सुवासिनी रोती - पीटती इधर-उधर चीखने लगी और बात की बात में महामात्य शकटार का कक्ष उनके परिवार और राजसेवकों से भर गया

    श्वासों के इन्द्रजाल की विडम्बना को कौन समझ सकता है! कोई किसी को जीने देना नहीं चाहता। जी वही जी सकता है जिसमें शक्ति है, जो रहस्यों के व्यूह में विजय के गीत गाता है। किसी को छलो मत, पर किसी से छले भी न जाओ।

    2

    रात कितनी सुहावनी और खतरनाक होती है। दीपक जलते हैं, पतंगे फुंकते हैं और प्यास क्रीड़ा करती है। तम से दीपक और दीपक से तम ज्योतिर्मय होता है, किन्तु यह भी एक अद्भुत रहस्य है कि एक-दूसरे का पूरक भी है और भक्षक भी। तृप्ति अतृप्ति की परिचारिका है। हवायें चलती हैं, दीपक टिमटिमाते हैं, तारे जागते हैं। न जाने नीरवता के कितने रहस्य प्रकट हैं और कितने प्रच्छन्न। रात्रि की गोपनीयता अत्यन्त गहरी होती है।

    बात की बात में महामात्य शकटार की रुग्णता से झंकृत रात्रि की चहल-पहल करुणा और चिन्ता में बदल गई। दिशाओं का मौन मुखरित तुहिन में परिवर्तित होने लगा। सड़कों और गलियों में शोक की लहरें दौड़ गई। प्रत्येक की वाणी पर महामात्य शकटार की चिन्ताजनक दशा बोल उठी।

    परमगुणी शकटायन की दशा अकस्मात् चिन्ताजनक हो गई है। उनकी पुतलियाँ ऊपर चढ़ रही हैं, हृदय की गति धीमी होती जा रही है, तुतली सी भाषा में वे ‘महाराज, सुवासिनी, वैजयन्ती और राक्षस, राक्षस!’ रट रहे हैं।

    प्रातः चार बजे होंगे जब प्यास और तृप्ति में सोते हुए महाराज नन्द को माधवी ने झंझोड़ कर जगाते हुए कहा- ‘कितनी ही देर से आवश्यक सूचना के संकेत आ रहे हैं। उठिए, देखिए तो क्या बात है।’

    अँगड़ाई भरी बाँह माधवी के वक्ष पर डालते हुए अतृप्त महाराज मुहँ बनाते हुए उठे और शयन कक्ष के द्वार पर पहुँचे। द्वार पर अंगरक्षक अवन्त खड़े थे। उन्होंने व्यग्रता से महाराज नन्द का अभिवादन करते हुए कहा - अभी-अभी सूचना मिली है कि महामात्य शकटार अकस्मात् मरणासन्न हो गये हैं। राजवैद्य उपचार के लिए उनके निवास पर पहुँचने वाले हैं।’

    आँखें मलते हुए महाराज बोले- ‘तो इसके लिए इस समय हमें जगाने की क्या आवश्यकता थी! अमात्य राक्षस तक यह सन्देश पहुँचाना पर्याप्त था।’

    ‘यदि आज्ञा हो तो अमात्य राक्षस तक महामात्य शकटार की अकस्मात् बीमारी का सन्देश पहुँचवा दूँ?’ अंगरक्षक अवन्त ने हाथ जोड़ते हुए कहा-

    ‘हाँ, हम सवेरे महामात्य शकटार को देखने जायेंगे।’ कहते हुए नन्द पुनः उस पलंग पर आकर लेट गये जिस पर बिजली सी दमकती हुई माधवी यौवन की मदिरा से गुलाब सी महक रही थी। महाराज के नयन कुछ पलों तक तो महामात्य के रोग का काल्पनिक चित्र देखते रहे और फिर माधवी के मधु में खो गये।

    उधर जैसे ही अंगरक्षक अवन्त ने अमात्य राक्षस को महामात्य की बीमारी का सन्देश देने के लिए राजसेवक से कहा वैसे ही देखा कि अमात्य राक्षस की गाड़ी राजभवन के द्वार पर आकर रुकी और अमात्य उसमें से उतर शीघ्रता से शयन कक्ष की ओर बढ़े चले आ रहे हैं। उन्हें देखते ही दीवारें तक सैनिक अनुशासन सी स्तब्ध हो गई। राजकीय अभिवादन कर प्रत्येक प्रहरी तन कर सीधा खड़ा हो गया। अंगरक्षक अवन्त ने सम्मान से सिर झुकाया और फिर नीचे ही नीचे गौर से अमात्य राक्षस को स्पन्दन सरल भाव से देखता रहा।

    तीक्ष्ण दृष्टि से सब कुछ देखते हुए राक्षस महाराज नन्द के शयन कक्ष के निकट आये। आते ही उन्होंने सबल शब्दों में कहा- ‘क्यों अवन्त! क्या महाराज अभी तक सो रहे हैं?’

    ‘हाँ, कृपालु! वे बहुत थक कर सोये हुए हैं। मुझे आज्ञा है कि कोई भी आये पर जगाना नहीं।’

    ‘और शायद तुमने उन्हें अभी तक जगाया भी नहीं होगा!’ राक्षस ने तेज आँखों से अंगरक्षक अवन्त को देखते हुए कहा।

    नहीं, नीतिनिपुण! अभी-अभी महामात्य शकटार के सहसा भयंकर रोग से पीड़ित होने की सूचना मिली थी। मैंने वह सूचना देने के लिए महाराज को जगाया था। जागने पर वे क्रुद्ध हुए। उन्होंने कहा- ‘अमात्य राक्षस को महामात्य के रोग की सूचना दे दो, अब हमें मत जगाना।’ ‘महाराज को तुरन्त जगाओ!’ राक्षस ने उँगली से माथा ठोकते हुए कहा। ‘जैसी आज्ञा।’ कहते हुए अंगरक्षक अवन्त शयन कक्ष के द्वार पर पहुँच थप थप करने लगा।

    महानन्द झुंझलाते हुए जागे और द्वार पर आये। सामने राक्षस को देख उनकी सारी झुंझल घनसार हो गई। वे सस्नेह राक्षस की ओर देखते हुए बोले- ‘इतनी रात गये सहसा आगमन! अवश्य कोई गहरी बात होगी।’

    ‘हाँ, आपने सुना महामात्य शटकार अकस्मात् रोगी हो गये। शाम तक तो वे स्वस्थ थे।’ राक्षस कुछ सोचते हुए कहने लगे।

    महाराज- ‘हाँ, यह चिन्ता की बात अवश्य है।’

    राक्षस- ‘चिन्ता की बात नहीं, भेद की बात जान पड़ती है महाराज! चलो, महामात्य को देखने चलें।’

    ‘चलो!’ कहते हुए महाराज अमात्य राक्षस के साथ महामात्य शकटार के निवास की ओर चल पड़े। शीघ्रता में महाराज राजसी गाड़ी में न जाकर राक्षस की गाड़ी में ही चल पड़े। इधर महाराज ने राक्षस के साथ प्रस्थान किया और उधर अवन्त द्वारा शकटार को सूचना मिली कि महाराज आ रहे हैं।

    महाराज और राक्षस गाड़ी में चलते हुए धीरे-धीरे बातें करने लगे। राक्षस ने दीर्घ श्वास खींचते हुए कहा- ‘आप मानें या न मानें, निश्चित ही महल में कोई ऐसा व्यक्ति है जो हर बात की सूचना महामात्य को देता रहता है, और हो न हो यह भेदिया आपका अंगरक्षक अवन्त ही है। मुझे सन्देह है कि शकटार इतने भयंकर रोग से सहसा पीड़ित हो गये। अवश्य ही उन्हें यह सूचना मिल गई कि प्रात: उन्हें राजपूताने की विजय के लिए गमन करना है।’

    ‘विश्वास नहीं होता, राक्षस! अवन्त महल में हमारा सबसे अधिक हितैषी और विश्वासपात्र है।’

    ‘परिणाम जब सामने आ जायेगा तो आपको विश्वास हो जायेगा महाराज!’ राक्षस ने विचित्र मुद्रा में कहा।

    महाराज- क्या क्रुद्ध हो गये राक्षस!

    राक्षस- मैं अपने आराध्य अधिपति से न कभी नाराज होता हूँ और न कभी उनके अहित की कल्पना करता हूँ। साथ ही मुझे यह भी विश्वास है कि जब तक मेरी बुद्धि मेरे साथ है और मेरी भुजाओं में बल है तब तक महाराज पर आँच नहीं आ सकती।

    महाराज- मैं तो अधिनायक तुम्हारे दम से हूँ, सखे! तुम जैसा सहायक जिस राज्य को मिल जाये उस पर क्या कभी संकट आ सकते हैं।

    बातों ही बातों में महामात्य शकटार का निवास आ गया। महाराज और राक्षस ने महामात्य के महल में शीघ्रता से प्रवेश किया। देखते ही देखते दोनों उस स्थान पर पहुँचे जहाँ महामात्य शकटार रुग्णावस्था में अर्धमूच्छित से पड़े थे। उनके सिरहाने बैठी वैजयन्ती गुलाब जल का भीगा हुआ वस्त्र पति के माथे पर रख रही थी। पैरों की ओर सुवासिनी एक आसन पर आसीन थी। उसके पास ही मुरा बैठी सन्तरे का रस निकाल रही थी।

    आते ही राक्षस ने एक गहरी दृष्टि महामात्य शकटार के चेहरे पर डाली और फिर फेनोज्ज्वल गद्देदार शैया पर बैठ गये। महाराज पहले ही एक मणिमण्डित आसन पर विराज चुके थे। बैठते ही महाराज ने एक हल्की सी भावना से शकटार की ओर देखा और फिर सुवासिनी तथा मुरा की तरफ देखते ही रह गये।

    राक्षस की आँखें भी सुवासिनी की ओर गई। वे कुछ पल के लिए सुवासिनी के मुख से चिपक गईं। कठिनता से सावधान हो राक्षस सोचने लगा ‘कितनी नवीनता है इसमें!’ और फिर सचेत हो प्रश्न कर उठे - ‘कैसे एकदम महामात्य की ऐसी दशा हो गई? शाम तक तो ठीक थे!’

    ‘सोचते-सोचते पिताजी अकस्मात् चक्कर खाकर गिर पड़े। तब से मौन हैं, अभी तक कुछ नहीं बोले।’ सुवासिनी ने गर्दन झुकाये ही उत्तर दिया।

    राक्षस- राजवैद्य आ चुके हैं क्या?

    सुवासिनी- नहीं, आते ही होंगे। मैंने अभी थोड़ी ही देर पहले इन्हें अमृतरस दिया है, तब से तनिक पलकें खुली हैं।

    राक्षस- तो शनै: शनै: महामात्य ठीक होते जा रहे हैं न?

    इससे सुवासिनी कुछ चिढ़ गई। वह कुछ बुरा मानती हुई सी बोली - ऐसा भयंकर रोग क्या पल दो पल में ही ठीक हो सकता है!

    उत्तर से राक्षस सहम गये और कुछ लड़खड़ाते हुए कहने लगे- नहीं मैं शुभेच्छा से ऐसा कह रहा हूँ।

    सुवासिनी- तो आपने यह कैसे समझ लिया कि मैं दुर्भावना से ऐसा समझ रही हूँ?

    महाराज नन्द इस वाद-विवाद से कुछ मुस्कराये और फिर सुवासिनी की प्रशंसा करते हुए बोले- बहुत चतुर जान पड़ती हो।

    सुवासिनी- आपके आशीर्वाद से कुछ अधिक बोलती हूँ। और यह कौन है? महाराज ने मुरा की ओर संकेत करते पूछा।

    सुवासिनी- मेरी एक सहेली है।

    महाराज- भली जान पड़ती है।

    सुवासिनी- पहली नजर में सब भले ही प्रतीत होते हैं, लेकिन यह बड़ी टेढ़ी है, महाराज! यह ऐसा खिलौना नहीं है जिससे बालक खेला करते हैं।

    महाराज- खिलौने से तो सभी खेल लेते हैं, पर सॉपिन से खेलना जरा टेढ़ी खीर है।

    सुवासिनी- सपेरा यदि बनावटी नहीं है तो सॉपिन कितनी भी जहरीली क्यों न हो, वह उससे खेल सकता है।

    राक्षस- राजा के लिए राजनीति सबसे बड़ी साँपिन है। महाराज तो रोज ही राजनीति की विषैली साँपिनों से खेलते हैं।

    सुवासिनी- किन्तु जो जिससे खेलता है वह किसी दिन उसी से डसा जाता है।

    राक्षस- तुम्हें उत्तर देना खूब आता है, सुवासिनी! लेकिन यह समय वाद-विवाद के लिए नहीं। देखो तो महामात्य शकटार अब किस अवस्था में हैं?

    सुवासिनी- मैं आपसे अधिक नहीं पहचान सकती।

    राक्षस- राजवैद्य नहीं आये?

    सुवासिनी- एक सौ दस वर्ष की अवस्था है उनकी और फिर हर समय की पुकार ने उन्हें और भी दुर्बल बना दिया है। आते ही होंगे।

    राक्षस- जान पड़ता है तुम्हें महामात्य से अधिक राजवैद्य के स्वास्थ्य की चिन्ता है।

    सुवासिनी- आपको भ्रम हुआ, मुझे हर उपयोगी जीवन के स्वास्थ्य की चिन्ता रहती है।

    राजवैद्य पधार रहे हैं। एक सेवक ने कहा।

    राजवैद्य के आते ही निस्तब्धता छा गई। साक्षात् धन्वन्तरि ने प्रथम तो गम्भीर दृष्टि से एक बार एड़ी से चोटी तक महामात्य को देखा और फिर हर आवश्यक अंग को अपनी उँगलियों से जाँचते हुए बोले - चिन्ता की कोई बात नहीं। शरीर के किसी अंग में कोई विशेष विकार प्रतीत नहीं होता। जान पड़ता है किसी मानसिक प्रभाव से अकस्मात् ऐसा हो गया है। इन्हें पूर्ण विश्राम करना चाहिये। औषधि दिये देता हूँ, पर इनके लिए आवश्यक यह है कि किसी भी प्रकार की थकान इन्हें न हो।

    दवा देकर राजवैद्य चले गये। अमात्य राक्षस ने महाराज की ओर अत्यंत गम्भीर होकर देखा। गम्भीर मुद्रा में ही वे बोले - एक ही वस्तु कभी - कभी भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देने लगती है।

    महाराज के कुछ कहने से पूर्व ही सुवासिनी एकदम बोली- भावना और भ्रम से दृष्टि भ्रम में पड़ जाती है।

    राक्षस- "मैं महाराज से कह रहा था।

    सुवासिनी- मैं अभी अल्हड़ हूँ और अल्हड़ में संयम नहीं होता।

    महाराज नन्द ने हल्की सी मुस्कराहट के साथ कहा- सूर्योदय होने वाला है अमात्य! राजपूताने की ओर सेना के प्रस्थान की व्यवस्था करनी है।

    राक्षस जैसे नहीं चाहते थे कि महाराज यह बात यहाँ कहें, अतः वे बात को महत्त्व न देते हुए बोले - महाराज को न जाने कितनी व्यवस्थाएँ करनी होती हैं! चलिये, चलें!

    महाराज राक्षस के कहने से चलने को खड़े तो हो गये लेकिन उनका हृदय चलने को नहीं था। मुरा के अनुपम रूप ने उनके पैरों में शृंखलाएँ डाल दी थीं। रूप का बन्धन किसे नहीं बाँधता, राक्षस यह भली-भाँति जानते थे।

    महाराज और अमात्य शकटार के निवास से निकल मुख्य द्वार पर आये। राक्षस पैनी दृष्टि से कण-कण और पल-पल को परख रहे थे। उनका हर कदम धरती को तोलता हुआ सा उठता था। हर व्यक्ति को वे ऐसे देखते जैसे उसका सारा अन्तर चित्र आँखों में खींच लेंगे। फाटक पर वे एकदम रुके, द्वारपाल की ओर क्रूर दृष्टि से देखा। अंगारे सी आँखे देखते ही द्वारपाल जीवित मृतक सा खड़ा रह गया। वह श्वास भी ले इससे पूर्व राक्षस ने कड़क कर कहा- क्या तुम उसका घर जानते हो जो महामात्य से मिलने आया था?

    काँपती हुई वाणी में द्वारपाल बोला- मेरे सामने कोई नहीं आया महाराज! मैं तो अभी दो घण्टे से पहरे पर हूँ, मुझसे पहले द्वारपाल देवीदत्त था।

    राक्षस- कहाँ है देवीदत्त?

    द्वारपाल- वह सामने से दक्षिण की ओर जो सेवक घर बने हुए हैं, उनमें चतुर्थांक निवास में रहता है।

    कुछ भी उत्तर दिये बिना ही राक्षस महाराज के साथ चतुर्थांक सेवक के घर पर जाध मके। देवीदत्त द्वारपाल को अपने समक्ष उपस्थित करते हुए राक्षस ने कहा - ‘द्वारपाल! क्या तुम उसका घर जानते हो जो महामात्य से मिलने आया था? उसकी इसी समय आवश्यकता है। महामात्य रोग से अचेतन हैं, वे बोल नहीं सकते।’

    डरता हुआ द्वारपाल देवीदत्त बोला- मैं उसका घर तो नहीं जानता, वह इधर दक्षिण दिशा की ओर गया था।

    राक्षस- भला क्या रूप था उसका?

    द्वारपाल- लम्बा कद था, बहुत बूढ़ा था, एकदम सूखा सा था, वस्त्र बहुत कम पहने हुए था, केवल थोड़ा सा वस्त्र कटि पर लपेटे था।

    राक्षस- उसके सभी बाल सफेद थे न?

    द्वारपाल- हाँ, महाराज!

    और कुछ कहे सुने बिना ही राक्षस तेजी से महाराज के साथ गाड़ी में सवार हो गये। गाड़ी चल पड़ी। राह में राक्षस ने कहा- महाराज! वह बूढ़ा ब्राह्मण चणक तुरन्त बन्दी बनाया जाना चाहिये। विष का बीज वही है। निश्चित ही चणक शकटार से मिलकर कोई गहरा कुचक्र रचने जा रहा है। इससे पहले कि भयंकर विस्फोट हो इन साँपों को कुचल डालने में ही हित है। विष फैलने से पहले इनके दाँत यदि नहीं तोड़े तो जहर फैलने के बाद कोई उपचार नहीं चलेगा। महाराज - मगर तुम उस सीधे ब्राह्मण चणक से इतने चिन्तित ‘क्यों हो? वह फूस

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