Jaishankar Prasad Kavita Sangrah : Kaanan Kusum - (जय शंकर प्रसाद कविता संग्रह: कानन कुसुम)
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Jaishankar Prasad Kavita Sangrah - Jaishankar Prasad
जय शंकर प्रसाद
(कविता संग्रह)
कानन कुसुम
eISBN: 978-93-9008-878-2
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
Jaishankar Prasad Kavita Sangrah : Kaanan Kusum
By - Jaishankar Prasad
कविवर जयशंकर प्रसाद का काव्य साहित्य प्रारम्भिक रचनाओं से ‘कामायनी' के शिखर तक. अपने समय की साहित्यिक उपलब्ध रहा है तो भावी पीढ़ी के लिए अनुकरण का सात और गम्भीर रचना की प्रेरणा। उनकी मुख्य रचनाओं में ‘झरना', ‘आंसू', ‘लहर' और ‘कामायनी' तो अधिक चर्चित रही ही हैं प्रारम्भिक रचनाएं भी उस काल के काव्य-शैशव और उसके सौष्ठव की अभिव्यक्ति करती हैं।
‘झरना में भाव और प्रकृति एक-दूसरे से संश्लिष्ट होकर भाव संसार की रचना करत है तो 'आंसू' में प्रकृति का एक-एक बिम्ब मनुष्य की पीड़ा उभारता है। ‘लहर' में प्रकृति राग-विराग के चित्रों के साथ मनुष्य के चिंतन पक्ष से साक्षात्कार कराती है, और ‘कामायनी' तो भारतीय मनीषा की विचारधारा की अद्भुत रचना है।
‘कामायनी' के मनु श्रद्धा और इड़ा तथा मानव, मानव जीवन के विकास के सोपान है तथा उसकी अंतरधर्मिता के प्रतीक भी।
आधुनिक साहित्य में कवि जयशंकर प्रसाद अभी तक अद्वितीय है और निकट भविष्य में इस तरह की रचनाधर्मिता की आशा भी उन्हीं की परम्परा में हो सकती है ।
प्रसाद जी के काव्यों में परम्परा और नवीन भावबोध का अभिनव सम्मिश्रण है।
कानन कुसुम
(संवत् 1966 से 1974 तक की स्फुट कवितायें)
प्रभो!
विमल इन्दु की विशाल किरणें
प्रकाश तेरा बता रही हैं
अनादि तेरी अनन्त माया
जगत् को लीला दिखा रही हैं
प्रसार तेरी दया का कितना
देखना हो तो देख सागर
तेरी प्रशंसा का राग प्यारे
तरंगमालायें गा रही हैं
तुम्हारा स्मित हो जिसे निरखना
वो देख सकता है चंद्रिका को
तुम्हारे हंसने की धुन में नदियां
निनाद करती ही जा रही हैं
विशाल मन्दिर की यामिनी में
जिसे निरखना हो दीपमाला
तो तारिकाओं की ज्योति उसका
पता अनूठा बता रही हैं
प्रभो! प्रेममय प्रकाश तुम हो
प्रकृति-पद्मिनी के अंशुमाली
असीम उपवन के तुम हो माली
धरा बराबर जता रही है
जो तेरी होवे दया दयानिधि
तो पूर्ण होते सकल मनोरथ
सभी ये कहते पुकार करके
यही तो आशा दिला रही है
वन्दना
जयति प्रेम-निधि! जिसकी करुणा नौका पार लगाती है
जयति महासंगीत! विश्व-वीणा जिसकी ध्वनि गाती है
कादम्बिनी कृपा की जिसकी सुधा-नीर बरसाती है
भव-कानन की धरा हरित हो जिससे शोभा पाती है
निर्विकार लीलामय! तेरी शक्ति न जानी जाती है
ओतप्रोत हो तो भी सबकी वाणी गुण-गुण गाती है
गद्गद्-हृदय-निःसृता यह भी वाणी दौड़ी जाती है
प्रभु! तेरे चरणों में पुलकित होकर प्रणति जताती है
नमस्कार
जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है
जिस मंदिर में रंक नरेश समान रहा है
जिसके हैं आराम प्रकृति-कानन ही सारे
जिस मंदिर के दीप इन्दु, दिनकर औ’ तारे
उस मंदिर के नाथ को, निरुपम निरमय स्वस्थ को
नमस्कार मेरा सदा पूरे विश्व-गृहस्थ को
मंदिर
जब मानते हैं व्यापी जलभूमि में अनिल में
तारा-शशांक में भी आकाश में अनल में
फिर क्यों हठ है प्यारे! मन्दिर में वह नहीं है
वह शब्द जो ‘नहीं’ है, उसके लिए नहीं है
जिस भूमि पर हजारों हैं सीस को नवाते
परिपूर्ण भक्ति से वे उसको वहीं बताते
कहकर सहस्र मुख से है वही बताता
फिर मूढ़ चित्त को है यह क्यों नहीं सुहाता
अपनी ही आत्मा को सब कुछ जो जानते हो
परमात्मा में उसमें नहीं भेद