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हृदय की देह पर
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हृदय की देह पर
Ebook161 pages41 minutes

हृदय की देह पर

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मैंने 13 वर्ष की अवस्था से हृदय की अभिव्यक्ति को कागज पर उतरना शुरु कर दिया था। हृदय में उगे भाव कभी पद्य बन कर बहते तो कभी गद्य बन कर अपनी कहानी कहते। जब कभी अतीत हावी होता तो कलम से साथ साथ आँखें भी टपकती और पन्नें चितते जाते। यह क्या विधा थी नही जानती थी किन्तु दुबारा पढ़ने पर कुछ अलग सा महसूस होता तो अलग उठा कर रख देती। इस प्रकार बिना कोई शास्त्र पढ़े अपनी विधाएं स्वयं बनाती गयी और सतत लिखती रही।
मैंने 13 वर्ष की अवस्था से हृदय की अभिव्यक्ति को कागज पर उतरना शुरु कर दिया था। हृदय में उगे भाव कभी पद्य बन कर बहते तो कभी गद्य बन कर अपनी कहानी कहते। जब कभी अतीत हावी होता तो कलम से साथ साथ आँखें भी टपकती और पन्नें चितते जाते। यह क्या विधा थी नही जानती थी किन्तु दुबारा पढ़ने पर कुछ अलग सा महसूस होता तो अलग उठा कर रख देती। इस प्रकार बिना कोई शास्त्र पढ़े अपनी विधाएं स्वयं बनाती गयी और सतत लिखती रही।

Languageहिन्दी
Release dateFeb 6, 2019
ISBN9780463760949
हृदय की देह पर
Author

वर्जिन साहित्यपीठ

सम्पादक के पद पर कार्यरत

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    हृदय की देह पर - वर्जिन साहित्यपीठ

    हृदय की देह पर

    सुशीला जोशी

    वर्जिन साहित्यपीठ

    प्रकाशक

    वर्जिन साहित्यपीठ

    78ए, अजय पार्क, गली नंबर 7, नया बाजार,

    नजफगढ़, नयी दिल्ली 110043

    9868429241 / sonylalit@gmail.com

    सर्वाधिकार सुरक्षित

    प्रथम संस्करण – फरवरी 2019

    कॉपीराइट © 2018

    वर्जिन साहित्यपीठ

    कॉपीराइट

    इस प्रकाशन में दी गई सामग्री कॉपीराइट के अधीन है। इस प्रकाशन के किसी भी भाग का, किसी भी रूप में, किसी भी माध्यम से - कागज या इलेक्ट्रॉनिक - पुनरोत्पादन, संग्रहण या वितरण तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक वर्जिन साहित्यपीठ द्वारा अधिकृत नहीं किया जाता। सामग्री के संदर्भ में किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में जिम्मेदारी लेखक की रहेगी।

    सुशीला जोशी

    9719260777

    जन्म तिथि: 5 सितम्बर 1941

    शिक्षा: एम ए (हिंदी एवं अंग्रेजी), बीएड

    संगीत प्रभाकर: गायन, सितार, तबला, कथक (प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद)

    प्रकाशन: 6 पुस्तकें, 39 साझा संकलन; विमर्श, गीत गागर, रंगोली, वाणी, सरस्वती पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित

    सम्मान: अन्य तथा अर्णव कलश एसोसिएशन द्वारा प्रदत्त

    12 पुरस्कारों के साथ उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य संस्थान लखनऊ द्वारा 2009 में अज्ञेय पुरस्कार

    मेरी अपनी बात

    मैंने 13 वर्ष की अवस्था से हृदय की अभिव्यक्ति को कागज पर उतरना शुरु कर दिया था। हृदय में उगे भाव कभी पद्य बन कर बहते तो कभी गद्य बन कर अपनी कहानी कहते। जब कभी अतीत हावी होता तो कलम से साथ साथ आँखें भी टपकती और पन्नें चितते जाते। यह क्या विधा थी नही जानती थी किन्तु दुबारा पढ़ने पर कुछ अलग सा महसूस होता तो अलग उठा कर रख देती। इस प्रकार बिना कोई शास्त्र पढ़े अपनी विधाएं स्वयं बनाती गयी और सतत लिखती रही।

    तुकांत कविताएं शुरू से लिखती थी लेकिन उनका विधान, विभाग, लय, धुन, ताल सब मेरी कविता जन्य होती थी। हर कविता की अलग धुन दिमाग में उपजती और मैं उसे पूरे दिन हफ़्तों तक गुनगुनाती रहती। जिसे सुनाती खूब वाहवाही बटोरती। अतः लेखन की ओर से निश्चिंत रहती थी।

    समय बदला। नेट का युग शुरू हुआ। कई साहित्यिक समूहों से जुड़ी। अपनी कविताएं भेजी जिन में से कुछ को गीतों की संज्ञा मिली और कुछ को कविताओं की। तब गीत और कविता का फर्क समझ आया।

    गीतों और कविताओं को समूहों में भेज कर पाठकों की प्रतिक्रिया स्वरूप जो प्रसाद मिला उससे पता चला कि मेरा लेखन दोषपूर्ण है क्योंकि उनमें छंन्द के नियमों का अभाव है। मात्रा दोष है। मात्राएं क्या होती है? इनकी गणना कैसे होती है? मात्रपतन क्या होता है? गीत निर्वहन में कौन कौन से तत्वों का ध्यान रखना पड़ता है? इन सभी प्रश्नों से मैं अनभिज्ञ थी। क्योंकि मैंने काव्य की परिभाषा - वाक्य रसात्मकम कव्यम पढ़ी थी। साथ ही यह भी सोचती थी कि प्रथम कवि के मुँह से जो वाक्य फूटे थे उनकी मात्रा गणना उंसने नही की होगी। कविता तो हृदय का ओज है जो अपनी लय, ताल, छंद, धुन और गति स्वयं साथ ले कर आती है। वही किसी गीत कविता की वास्तविक छंन्द या मापनी है।

    कविता होगी, भाषा होगी तभी तो व्याकरण होगा। भाषा में व्याकरण की खोज होती है न कि व्याकरण के नियमों पर शब्द सजा कर भाषा लिखी जाती है। ठीक इसी प्रकार किसी छंन्द या मापनी पर शब्द सजा कर गीत या कविता

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