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बड़ी उम्र की स्त्रियों का प्रेम
बड़ी उम्र की स्त्रियों का प्रेम
बड़ी उम्र की स्त्रियों का प्रेम
Ebook167 pages1 hour

बड़ी उम्र की स्त्रियों का प्रेम

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About this ebook

घरेलू स्त्रियाँ

होतीं है उनकी उपस्थिति,
अनिवार्य..........किन्तु,

होता है जैसे ज्योमेट्री बॉक्स
में उपस्थित सैट स्क्वायर।

होता है जैसे वर्णमाला,
में उपस्थित ङ, ञ।

होती है जैसे ट्रैफिक बत्ती के
खंभे में उपस्थित वो पीली बत्ती।

होती है जैसे मसालेदार सब्जी
में उपस्थिति तेजपत्ते की।

होता है जैसे पैतालीस बाद की
स्त्रियों के शरीर में गर्भाशय।
घरेलू स्त्रियाँ

होतीं है उनकी उपस्थिति,
अनिवार्य..........किन्तु,

होता है जैसे ज्योमेट्री बॉक्स
में उपस्थित सैट स्क्वायर।

होता है जैसे वर्णमाला,
में उपस्थित ङ, ञ।

होती है जैसे ट्रैफिक बत्ती के
खंभे में उपस्थित वो पीली बत्ती।

होती है जैसे मसालेदार सब्जी
में उपस्थिति तेजपत्ते की।

होता है जैसे पैतालीस बाद की
स्त्रियों के शरीर में गर्भाशय।
घरेलू स्त्रियाँ

होतीं है उनकी उपस्थिति,
अनिवार्य..........किन्तु,

होता है जैसे ज्योमेट्री बॉक्स
में उपस्थित सैट स्क्वायर।

होता है जैसे वर्णमाला,
में उपस्थित ङ, ञ।

होती है जैसे ट्रैफिक बत्ती के
खंभे में उपस्थित वो पीली बत्ती।

होती है जैसे मसालेदार सब्जी
में उपस्थिति तेजपत्ते की।

होता है जैसे पैतालीस बाद की
स्त्रियों के शरीर में गर्भाशय।

Languageहिन्दी
Release dateJul 9, 2018
ISBN9780463836958
बड़ी उम्र की स्त्रियों का प्रेम
Author

वर्जिन साहित्यपीठ

सम्पादक के पद पर कार्यरत

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    बड़ी उम्र की स्त्रियों का प्रेम - वर्जिन साहित्यपीठ

    बड़ी उम्र की

    स्त्रियों का प्रेम

    ममता दीक्षित शुक्ला

    वर्जिन साहित्यपीठ

    प्रकाशक

    वर्जिन साहित्यपीठ

    78ए, अजय पार्क, गली नंबर 7, नया बाजार,

    नजफगढ़, नयी दिल्ली 110043

    9868429241 / sonylalit@gmail.com

    सर्वाधिकार सुरक्षित

    प्रथम संस्करण - जून 2018

    कॉपीराइट © 2018

    वर्जिन साहित्यपीठ

    कॉपीराइट

    इस प्रकाशन में दी गई सामग्री कॉपीराइट के अधीन है। इस प्रकाशन के किसी भी भाग का, किसी भी रूप में, किसी भी माध्यम से - कागज या इलेक्ट्रॉनिक - पुनरुत्पादन, संग्रहण या वितरण तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक वर्जिन साहित्यपीठ द्वारा अधिकृत नहीं किया जाता। सामग्री के संदर्भ में किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में जिम्मेदारी लेखक की रहेगी।

    समर्पण

    स्वर्गीय श्री सुरेंद्र नाथ दीक्षित

    स्वर्गीय श्रीमती प्रभा दीक्षित

    स्वर्गीय गुलाब देवी शुक्ला

    पति श्री संजीव शुक्ला

    रविशा शुक्ला

    जय शुक्ला

    आभार

    ललित मिश्र,

    जिन्होंने हमेशा सार्थक लेखन के लिये प्रेरित किया।

    अनिता मिश्रा एवं सौरभ शर्मा

    जिन्होंने हमेशा लेखन के लिये प्रोत्साहित किया।

    घरेलू स्त्रियाँ

    होतीं है उनकी उपस्थिति,

    अनिवार्य..........किन्तु,

    होता है जैसे ज्योमेट्री बॉक्स

    में उपस्थित सैट स्क्वायर।

    होता है जैसे वर्णमाला,

    में उपस्थित ङ, ञ।

    होती है जैसे ट्रैफिक बत्ती के

    खंभे में उपस्थित वो पीली बत्ती।

    होती है जैसे मसालेदार सब्जी

    में उपस्थिति तेजपत्ते की।

    होता है जैसे पैतालीस बाद की

    स्त्रियों के शरीर में गर्भाशय।

    झोंके रहती है स्वयं को

    पकाने, बुहारने- झाड़ने,

    समेटने-सहेजने सजाने,

    धोने-तह करने में, कि,

    दे पाए उन्हें जवाब

    प्रत्यक्ष, परोक्ष जो पूछ बैठते है,

    करती क्या हो पूरे दिन?

    तीर सा चुभता ये सवाल।

    इसपर भी जो पूछ दे

    कोई, परिचय तो,

    खिसियानी सी हँसी, हँस

    हाउस वाइफ, होम मेकर,

    होंमइकनॉमिस्ट, होमइंजीनियर,

    नित नए नामों के ओट में,

    मिटाती हैं अपनी झेंप।

    तलाशती हैं अपने ही घर में,

    खुद का अपना एक कोना

    क्योकि ये कहाँ कमाती हैं?

    सुनो, तुम तो वर्किंग कहलाती हो,

    अपने घर की नींव का एक स्तंभ।

    तो, दे पाती हो न,

    अपनी आय का,

    कुछ हिस्सा अपने

    वृद्ध माँ-पिता को ??

    बड़ी उम्र की स्त्रियों का प्रेम

    हाँ, बड़ी उम्र की स्त्रियों को,

    भी हो जाता है अकसर प्रेम।

    जो होता है एकदम परिपक्व।

    जानते हुए कि छली,

    जाएंगी, ठगी जाएंगी,

    सहर्ष मोल लेती है।

    सच तो ये है जीना चाहती है,

    अपनी बिसराई, भूली जिंदगी,

    जो दफना आई दायित्व की,

    चट्टान के नीचे, गहरे कहीं।

    सिर्फ देना ही नहीं वो,

    पाना भी चाहती है वो स्नेह।

    उनकी उम्र से बड़ी होती है,

    उनकी परछाईं की उम्र,

    जो मुड़ झिड़कती है,

    "हद में रहो, हो जाएगा

    चरित्र दागदार।"

    नहीं व्यक्त करतीं है वो अपनें,

    अंदर उमड़ती भावनाएं।

    छेड़ना चाहती हैं,

    चिढ़ाना चाहती हैं

    खिलखिलाना और शरमाना

    चाहती हैं खुल के।

    नहीं लुभाता उन्हें,

    दैहिक आकर्षण

    नहीं बनना चाहती,

    वो बिछौना किसी का।

    होती है बस चाह, मन से

    मन के मिल जाने की।

    खोजती है वो ऐसा कोई,

    जो दे तवज्जो उन्हें,

    मुखर हो, बिखर जाए,

    जिसके समक्ष बिना किसी,

    लाज शर्म लिहाज पर्दे के।

    बांटना चाहती हैं

    बचपन, जवानी और

    चल रही कहानी ।

    रोक लेती है उन्हें,

    रिश्तों की मर्यादा,

    पकड़ हाथ खींच ले जातीं है

    वापस, लक्ष्मण रेखा,

    ओहदों की।

    खींच लेतीं है खुद के इर्द गिर्द

    लक्ष्मण रेखा खुद ही।

    छुपा लेती है खुद को,

    कहानी, किस्सों,

    लेखों, संस्मरणों के

    भीतर ही कहीं।

    हाँ, बड़ी उम्र की स्त्रियों

    को भी हो जाता है

    अक्सर प्रेम।

    सुख की परिभाषा

    सुख क्या है?

    कब मिलती है खुशी तुम्हें,

    जानना चाहती हूं तुमसे,

    हाँ, होती है परिभाषा,

    अलग अलग सुख, और खुशी की।

    कुछ विचित्र और विक्षिप्त

    आदतें है सुख पाने की।

    बचपन मे अक्सर गिरने से,

    चोट लग जाया करती थी,

    हमेशा से घुटने चोटिल घायल

    ही रहते है, उनसे रिसता लहू

    उठता दर्द, बड़ा आनंद देता था।

    जब कभी वो घाव सूख जाता और

    काली खोपट जम जाती,

    तो दर्द बंद हो जाता, बस यही

    तो पसंद नही था वो

    टीस जो नही उठती थी,

    नाखून से कुरेद कुरेद फिर,

    हरा कर देती उस घाव को,

    रिसने लगता फिर से खून,

    दर्द तब जा के चैन आता।

    बत्ती चली जाती जो कभी तो

    खुश हो जाती, झट मोमबत्ती ले

    आती, उजाले के लिये नही,

    पिघल गिरती मोम की बूंदें

    अपनी हथेली के पीछेे

    टपकाने के लिये,

    वो जलन बड़ा सुकून जो देती थी।

    मोती सी चमकती बूंदों से अलग अलग,

    आकृति बनाने में बड़ा मजा आता था।

    आज भी कहाँ बदला है कुछ,

    बस तरीके और ढंग बदला है।

    ढूंढ ही लाती हूँ कही न कही से,

    किसी का चीखता कराहता घाव,

    चुभाती हूँ खुद को विषबुझे कांटे,

    चढ़ने लगता है जब पूरे शरीर में

    नीली पड़ने लगती हूं जब,

    डूब जाती हूँ गले तक, और फिर

    खीच उसे बाहर निकाल

    लाती हूँ अपने साथ।

    ऐब और लत साथ साथ ही चलती

    है तमाम उम्र, मशान तक।

    ऐसा नही कि कोशिश नही की,

    बाँधी थी मेड़ ऊँची ऊँची अपने

    आस पास कि रोक लूँ

    बहने से खुद को,

    कँटीली झाड़ियां भी तो लगाई थी

    उस मेड़ के चारों ओर।

    और बाँध लिया था मोटी मोटी

    सांकरो से खुद को कस के।

    जरा सा मिट्टी का ढेला जो ढहा,

    तो बिछा दिया था खुद के स्वाभिमान,

    आत्मसम्मान, आत्मा को सैलाब के विरुद्ध,

    जैसे अवंति गुरु आज्ञापालन के लिए

    बिछा रहा था स्वयं

    बांध बन उस बाढ़ में।

    भीतर स्थित बुद्धि रूपी

    गुरु की आज्ञा मानी तो थी,

    कहाँ बस में, कर पाया है

    कोई आग को, कौन बांध पाया है,

    वायु के वेग प्रचंड को।

    हाँ, फिर लाँघ, बन्धन सीमाएं,

    तथाकथित समाज की,

    खुद को खरोचते, चीरते फाड़ते

    उलझते लिपट गई उसी दर्द, टीस से

    आदतन खुश हूं फफोले देख ।

    दहकता और दमकता है चेहरा।

    अपने इस कराह और

    रिसते लहू से।

    यही सुख है मेरा और तुम्हारा?

    अब सौ बटा सौ

    अब और नही आधा पौना

    तीन चौथियाई, या दो तिहाई।

    अब तो बस सौ बटा सौ।

    जीती हूँ एकदम पूरा।

    हँसती हूँ, जोर जोर से,

    ठहाके लगा लगा के,

    नही छुपाती अब आँसू,

    आ जाते है जोआँखों मे

    पढ़ते या देखते फ़िल्म, सीरियल

    छोड़ दिया, तकना चोरी से,

    कि ये या वो क्या सोचेगा?

    रो लेती हूँ अब खूब खुल के।

    नही करती अब मलाल

    अपने मोटापे और चौड़ी कमर का

    कभी शोर्ट्स, स्कर्ट, वनपीस

    तो कभी पहन साड़ी

    खूब इठलाती, इतराती हूं।

    न झेंपती हूँ अब,

    गिरने से दुपट्टा,

    या सरकने से पल्ला,

    नही परवाह है अब

    किसी

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