Laal Lakeer
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About this ebook
Bheeme, a school teacher from a nondescript village in Bastar, is fighting for the empowerment of ordinary tribal women through education and employment. The Maoist rebels as well as the police consider her their enemy, since she won't give in to a system that resorts to violence to establish its supremacy. In a rather surprising denouement, she decides to fight the election to take the system head on. Laal Lakeer is a heart-wrenching love story set in the war-torn backdrop of Bastar in Central India where Indian forces and police are locked in a fierce battle with Maoist rebels.
Hridayesh Joshi
Hridayesh Joshi is senior editor (National Affairs) with NDTV India. He has consistently covered the armed conflict between the Maoists and the Indian state. In 2012, Hridayesh was given the prestigious Ramnath Goenka Award for reporting from war zones of central India. His first book, Tum Chup Kyun Rahe Kedar, is his reportage on the Uttarakhand tragedy.
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Book preview
Laal Lakeer - Hridayesh Joshi
26 जून 1998
1
ढम... ढम... ढम... ढम
रेला... रेला... रेला... रेला...
ढम... ढम... ढम ढम...
दक्षिण बस्तर में दूर किसी गाँव से आती यह आवाज़ गोंडी गीत संगीत की पहचान थी। ढोल नगाड़ों के बजने की आवाज़ किसी आयोजन का संकेत।
बस्तर के गाँवों में ऐसे आयोजन अक्सर सूरज ढलने के बाद शुरू होते और देर रात तक चलते जिसमें गोंड आदिवासी सब कुछ भूलकर गीत संगीत में खो जाते, लेकिन जून की तपती धूप में सुबह सवेरे होने वाला यह आयोजन कुछ अलग था। इसीलिए आदिवासियों की मौजमस्ती का वह रंग आज कुछ फीका लग रहा था। न वह उत्साह था, न वह लापरवाही और न वह मस्ती जो गोंडी गीत संगीत के ऐसे कार्यक्रमों में घुली होती है।
अरनपुर से करीब पन्द्रह किलोमीटर दूर ऊँचापाड़ा गाँव में एक अजीब सी हलचल थी। हवा में जैसे एक कौतूहल घुला था। गोंड आदिवासी यहाँ एक खुली जगह में घेरा बना कर बैठे थे। लोगों के आने का सिलसिला सुबह सात बजे से ही शुरू हो चुका था। पिछले दो घण्टे में कोई ढाई हज़ार लोग ऊँचापाड़ा में इकट्ठा हो चुके थे।
लड़कियों और लड़कों का एक समूह करीब आधे घण्टे से एक आदिवासी गीत की धुन पर थिरक रहा था। उनके पास ही ज़मीन पर बैठा एक बूढ़ा एक नगाड़े को पीट रहा था जबकि अधेड़ उम्र का एक दूसरा आदमी नाचते गाते लड़के-लड़कियों के बीच झूमते हुए ढोल बजा रहा था। गोंडी गीत संगीत की मस्ती से अधिक उस पर महुआ का नशा छाया था। वह इस जनसमूह के उन बहुत थोड़े लोगों में था जो आज के आयोजन में आदिवासी अल्हड़पन और मस्तमौला अन्दाज़ में शामिल थे वरना बाकी तकरीबन सभी चेहरों से मौज मस्ती के वह भाव गायब थे जो अक्सर ऐसे आयोजनों के दौरान दिखते।
एक ऊँची पहाड़ी पर बसे होने की वजह से शायद इस गाँव का नाम ऊँचापाड़ा पड़ा होगा। दन्तेवाड़ा से करीब सौ किलोमीटर दूर बसा ऊँचापाड़ा दक्षिण बस्तर का एक बहुत अन्दरूनी गाँव है। इसके सबसे करीब बसी जानी पहचानी जगह है अरनपुर, जो दन्तेवाड़ा से करीब पैंसठ किलोमीटर की दूरी पर है। अरनपुर के एक ओर है समेली गाँव है और दूसरी ओर जगरगुंडा। यहाँ तक पहुँचने के दो मुख्य रास्ते हैं - पहला दन्तेवाड़ा से पालनार और नकुलनार होते हुए समेली के रास्ते या फिर दूसरी ओर बसे गाँव दोरनापाल से होते हुए जहाँ रास्ते में चिन्तागुफा, चिन्तलनार और जगरगुंडा जैसी जगहों को पार करना पड़ता है।
पिछले कई सालों तक ये सारे गाँव दक्षिण बस्तर में आदिवासी कला और संस्कृति के घर बने रहे। दोरनापाल, जगरगुंडा और अरनपुर में तो बड़े बड़े बाज़ार लगा करते थे, जहाँ लोग दूर दूर से आया करते। पिछले कुछ वक्त से भले ही इन बाज़ारों में रुपए-पैसे का चलन शुरू हो गया हो, लेकिन अधिकतर आदिवासी अब भी सामान की अदला बदली ही किया करते। कोई महुआ के बदले कपड़े ले जाता। कोई मुर्गियों को देकर अनाज खरीदता। कोई जंगल उत्पादों के बदले बर्तन या फिर तेल, मसाले और ज़रूरत का दूसरा सामान। हिन्दुस्तान के इस एक बहुत बड़े हिस्से में अब तक न तो रुपये पैसे की चमक-दमक पहुँची थी न ही शहरी छल-कपट की छाया।
देश को आज़ाद हुए भले पचास साल हो गये हों, लेकिन बस्तर के इन गाँवों में सरकार नदारद थी। दिल्ली, मुम्बई, भोपाल और जमशेदपुर जैसे शहरों में रहने वालों के लिए मध्य भारत के इस बहुत बड़े हिस्से का जैसे कोई वजूद ही नहीं था।
नेताओं ने यहाँ आने की जेहमत कभी नहीं उठाई।
सरकार ने इसकी ज़रूरत ही नहीं समझी !
यहाँ इस खालीपन को भरने का काम माओवादियों ने किया। पहले 1960 और 1970 के दशक में पश्चिम बंगाल में उग्र वामपन्थी विचारधारा से प्रभावित नक्सलबाड़ी आन्दोलन तेज़ी से पनपा। इस आन्दोलन को चलाने वाली पार्टी सीपीआई (एमएल) थी जो 1967 में सीपीआई (एम) से टूटकर बनी थी। नक्सलबाड़ी आन्दोलन को दबा दिया गया लेकिन देश के कई हिस्सों में चरमपन्थी वाम सोच जड़ें जमा चुकी थी। उग्र वामपन्थी पार्टी के भीतर भी वैचारिक टकराव था और इसीलिये सीपीआई (एमएल) के कई टुकड़े हो गये। इनमें से प्रमुख रहे – सीपीआई (एमएल-पीयू), माओवादी कम्युनिस्ट सेण्टर यानी एमसीसी और पीपुल्स वॉर ग्रुप यानी पीडब्लूजी जिसे माओवादियों की बोलचाल में अक्सर पीपुल्स वॉर कहा जाता है। पहले दो संगठन (पीयू और एमसीसी) उत्तर भारत में सक्रिय रहे जबकि पीपुल्स वॉर मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश में पार्टी की गतिविधियाँ चलाता रहा। बस्तर में भी आज पीपुल्स वॉर के ही माओवादी थे।
आंध्र प्रदेश की सीमा से लगे होने के कारण पीपुल्स वॉर के कॉमरेड दण्डकारण्य को अपना हेडक्वार्टर बनाने की सोचने लगे। बस्तर के यह घने जंगल माओवादियों की गुरिल्ला रणनीति के लिए बिल्कुल माकूल थे। 1980 के दशक की शुरुआत में छोटे- छोटे गुटों में माओवादी बस्तर में दाख़िल हुए और गाँव वालों के साथ मीटिंग शुरू कीं। यह वह दौर था जब बस्तर में जंगलात के लोगों और पुलिसवालों की ही मनमानी चलती। आदिवासियों को उनके बंधुवा मज़दूरों की तरह रहना पड़ता। ख़ासतौर से फॉरेस्ट गार्ड तो वनवासियों के लिए सबसे डरावना नाम था। उनके शोषण के लिए यही सबसे अधिक ज़िम्मेदार थे। न तो जंगल में पैदा होने वाली किसी चीज़ पर गाँव वालों का हक़ होता न ही उनकी मज़दूरी उन्हें दी जाती। आदिवासियों के भीतर हताशा और कमज़ोरी का भाव बहुत गहरा था।
ऐसे में माओवादियों ने दक्षिण बस्तर को अपनी प्रयोगशाला बनाना शुरू किया। घने जंगलों से पटी इस ज़मीन को लिबरेटेड ज़ोन बनाने का प्रयोग हिन्दुस्तान के इतिहास में नया अध्याय लिखने जा रहा था।
सुबह 10.30 बजे
ऊँचापाड़ा में आज एक जन अदालत होनी थी। माओवादियों की जन अदालत।
यह जन अदालत उस जनताना सरकार का एक हिस्सा थी जो माओवादियों ने पिछले कुछ सालों में दक्षिण बस्तर के कुछ हिस्सों में कायम की थी। इसी जन अदालत में आरोपियों पर मुकदमे चलते और नक्सली इंसाफ़ किया करते।
ऊँचापाड़ा में अब नाच गाने का कार्यक्रम अपने अन्तिम दौर में था। आसपास के दो दर्जन गाँवों के करीब चार हज़ार लोग इस गाँव में इकट्ठा हो चुके थे। भीड़ में हथियारबन्द माओवादियों की मौजूदगी साफ़ दिखती। गोंडी भाषा में छोटे भाई को तम्मुर कहा जाता है और बड़े भाई को दादा। मध्य भारत के इस इलाके में माओवादियों के सभी नेता दादा कहलाते।
नाच गाना थमा तो पार्टी के एक सदस्य ने हथियारों को दिखाना शुरू किया। पहले आदिवासियों के पारम्परिक हथियार जैसे तीर-कमान, कुल्हाड़ी और भालों का प्रदर्शन हुआ। इसके बाद पिछले कुछ सालों में पुलिस और सुरक्षा बलों से लूटे गये हथियार दिखाए गये, जिनमें सामान्य बन्दूकों के अलावा आधुनिक ए.के. 47 और पुरानी पड़ चुकी इन्सास राइफल शामिल थीं। नाच गाने के बाद हथियारों का प्रदर्शन जन अदालत से पहले अक्सर किया जाता। जब ये हथियार दिखाए जा रहे थे तभी एक माओवादी कमाण्डर बोलने के लिए खड़ा हुआ।
उसके खड़े होने के साथ ही एक काडर ने नारा लगाना शुरू किया।
‘कॉमरेड बीरम राव को लाल सलाम।’
बाकी लोगों की आवाज़ आयी – ‘लाल सलाम... लाल सलाम...’
नारे थमे तो बीरम राव ने बोलना शुरू किया। उसके कंधे पर एक ए. के. 47 टंगी थी और कमर पर कारतूसों की बेल्ट के साथ एक पिस्तौल भी बँधी थी।
‘जोहा...आ...र...,’ बीरम राव ने ज़ोर से कहा।
जवाब में गाँव वालों की आवाज़ आयी, ‘जोहार... जोहार।’
‘साथियों, पिछले कुछ वक्त से उद्योगपतियों के पैसे से चलने वाली सरकार और बुर्जुआ शासक दल का अत्याचार लगातार बढ़ रहा है। मज़दूरों का दमन हो रहा है। खेती करने वाले किसानों के ख़िलाफ़ नीतियाँ बन रही हैं। खान में काम करने वाले मज़दूरों से जानवरों की तरह काम लिया जा रहा है। सारा पैसा मालिकों के पास जा रहा है। दिन रात कमरतोड़ मेहनत करने वाले किसान-मज़दूर और उसके परिवार को कुछ नहीं मिल रहा है। सरकार गरीबों का ख़ून चूस रही है और पुलिस हम पर गोली चलाती है।’
किसी भी जन अदालत से पहले माओवादी कमाण्डर इस तरह का लम्बा भाषण देते। उसमें यही बातें दोहराई जाती कि गरीब की ज़मीन लुट रही है और अमीर हर रोज़ मालामाल हो रहा है। सरकारी दमन और शोषण के शिकार आदिवासियों को ये बातें अच्छी लगती जिन्होंने यहाँ कभी सरकार या अपने नेता को नहीं देखा।
‘हमारी पार्टी और सारे कॉमरेड आज शासक वर्ग के इसी अत्याचार के ख़िलाफ़ खड़े हैं और लड़ रहे हैं। देश की जनता भी धीरे धीरे शासकों के ख़िलाफ़ खड़ी हो रही है और पार्टी से जुड़ती जा रही है। इसी का नतीजा है यह जनताना सरकार। साथियों... जल्द ही यह जनताना सरकार देश भर में फैलेगी, क्रान्ति होगी और हम लोग दिल्ली के लालकिले में लाल झण्डा फहराएंगे। संसद कहे जाने वाले उस सूअरों के बाड़े को हम ख़त्म कर देंगे और पूरे देश में सही मायनों में जनता की सरकार बनेगी।’
बीरम राव के इस ऐलान के साथ ही फिर नारे लगने लगे। ‘कॉमरेड बीरम राव को लाल सलाम।’
‘लाल सलाम... लाल सलाम...’ काडर ने नारा लगाना शुरू किया।
वैसे चरमपन्थी वामपन्थियों ने सत्तर के दशक में ही नक्सलबाड़ी आन्दोलन के वक्त ‘लाल किले पर लाल निशान’ का नारा दिया था लेकिन अभी तक वह क्रान्ति आयी नहीं थी। देश के शहरी इलाकों में माओवादी विचारधारा के समर्थक बहुत सीमित थे और पार्टी को जितना भी समर्थन था, वह वैचारिक स्तर तक ही सीमित था। इसके बावजूद माओवादी ख़ुद को ये दिलासा देते रहे कि जनता क्रान्ति के लिए तैयार हो रही है।
इस बदलाव में भले ही वक्त लगे, देरसबेर क्रान्ति ज़रूर होगी।
बीरम राव अक्सर अपने काडर को समझाता कि माओवादियों की पीएलजीए (पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी) एक दिन पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) की शक्ल लेगी और हिन्दुस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनेगी।
माओवादियों की कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार।
बीरम राव ने अब अपने कंधे पर टंगी ए. के. 47 को उतार कर नीचे रख दिया। वह फिर बोलने लगा।
‘जहाँ एक ओर पार्टी के कॉमरेड पूरे देश में जनताना सरकार बनाने और मज़दूरों के लाल झण्डे को हर जगह फहराने के लिए लड़ रहे हैं वहीं हमारे बीच के ही कुछ गद्दार शासक वर्ग से जुड़ गये हैं। ऐसे लोग मालिकों का जूता उठाने और तलुए चाटने पर भरोसा करते हैं। यही लोग हमारी क्रान्ति के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा हैं। हमारे बीच रहकर ये लोग हमें ख़त्म करने के लिए काम कर रहे हैं। जनविरोधी सरकार की पुलिस के लिए मुख़बिरी कर रहे हैं और आज हम एक ऐसे ही मामले की निबटारे के लिए यहाँ इकट्ठा हुए हैं।’
बीरम राव के ऐसा कहते ही सब लोगों ने अपने बीच एक कौतूहल का वातावरण महसूस किया। एक सनसनी सी हर ओर फैल गयी।
‘साथियो आज इस जन अदालत में छुट्टेपाल गाँव के हेड़िया कुंजाम के बारे में पार्टी फ़ैसला करेगी। आप सब जन यह जानते हैं कि यहाँ जनताना सरकार है। जनता का राज चलता है यहाँ। ये पूंजीपतियों की सरकार नहीं है। किसी बुर्जुआ पार्टी का राज नहीं होते इधर। धीरे धीरे यही जनताना सरकार पूरे देश में फैलेगी। यहाँ जनता के कहने से फ़ैसला होता है। पार्टी का फ़ैसला जनता से पूछकर होता और आज जनता ही ये तय करेगी कि हेड़िया कुंजाम के साथ क्या होने चाहिए।’
नक्सलियों की जनअदालत में खड़ा हेड़िया कुंजाम यह सब सुन रहा था। उसका चेहरा भावशून्य था। मौत उसके सिर पर मंडरा रही थी लेकिन उसे देखकर यह नहीं लग रहा था कि उसे इस बात की कोई फिक्र थी कि उसका क्या होगा !
‘सब इस बात को जानते हैं कि पिछली 18 अप्रैल को काली पहाड़ी पर क्या हुआ। बड़ी संख्या में फोर्स सिविल ड्रेस में आया और उसने एम्बुश लगाया। हमारा दो सबसे भरोसेमन्द कॉमरेड अप्पल राजू और करतम गंगा को पुलिस धोखे से पकड़े। दोनों कॉमरेड इस इलाके में जनताना सरकार को मज़बूत कर रहे थे। गरीब जनता के लिए काम कर रहे थे। फिर भी बुर्जुआ शासक के लिए काम कर रही पुलिस ने हमारे दो कॉमरेडों को पकड़ा और दोनों जेल में हैं।’
बीरम राव जब यह सब बोल रहा था तो हेड़िया कुंजाम को भीड़ में अरनपुर का ही शंकर कोडोपी दिखा। हेड़िया ने देखा कि कोडोपी धीरे से उठकर बीरम राव के पास ही आकर ज़मीन पर बैठ चुका है। शंकर कोडोपी संगम सदस्य था - माओवादियों की सुरक्षा परत के सबसे बाहर का हिस्सा। संगम सदस्यों का काम पूरे इलाके में मुख़बिरी करना और किसी भी नये इंसान या गतिविधि को देखकर इसकी जानकारी तुरन्त इलाके के कमाण्डरों को देना होता। इस सभा में शंकर कोडोपी की मौजूदगी कोई असामान्य बात नहीं थी।
बीरम राव ने आगे बोलना शुरू किया।
‘साथियो, कॉमरेड राजू और गंगा को गोलियाँ भी लगी हैं। वो बुरी तरह भी घायल हुए। इन दोनों को पुलिस नहीं पकड़ सकता था लेकिन उनके कालीपहाड़ी के पास होने की जानकारी पुलिस को पहले ही दी गयी। कुछ लोगों को इस बात का पता था कि हमारे कॉमरेड काली पहाड़ी पर तेन्दूपत्ता के कुछ ठेकेदारों से लेवी वसूलने जाते हैं। इस बारे में पुलिस को जानकारी किसने दिया? क्या पुलिस बिना जानकारी मिले इतनी बड़ी योजना बन सकते थे? क्या बिना जानकारी के पुलिस वाले इतना बड़ा जाल बिछा सकते थे?’
हर ओर सन्नाटा छा गया। बीरम राव काफी देर तक हेड़िया को घूरता रहा। हेड़िया ने बीरम राव से आँखें मिलाईं और बिना डरे उसकी ओर देखता रहा।
हेड़िया कुंजाम अरनपुर और जगरगुंडा के बीच छुट्टेपाल गाँव में एक प्राइमरी स्कूल में टीचर था। वह माओवादियों की सोच और तानाशाही के ख़िलाफ़ था। बन्दूक या हिंसा से उसे नफ़रत थी। इसीलिये लम्बे वक्त से वह नक्सलियों की आँखों की किरकिरी बना रहा।
क्या माओवादियों ने इस बड़ी पुलिस कार्रवाई में उसका नाम घसीट कर उसे रास्ते से हटाने का तरीका ढूँढ लिया है? ये बात हेड़िया के दिमाग में आयी लेकिन उसने इस विचार को ख़ुद पर हावी नहीं होने दिया। किसी के पास इस बात का सुबूत नहीं था कि उसने ही पुलिस को राजू और गंगा के काली पहाड़ी पर होने की बात बताई। लेकिन जन अदालत में इस बात को साबित किया जाना था कि उसने ही मुख़बिरी की।
बीरम राव ने फिर बोलना शुरू किया।
‘पुलिस को ऐसा पता चला कि हमारे दो कॉमरेड वहाँ होंगे और यह जानकारी हेड़िया कुंजाम ने पुलिस को दी,’ यह कहते हुए बीरम राव का सुर थोड़ा अधिक गम्भीर हो गया। वह लोगों के चेहरों को टटोलने लगा।
नक्सली उसे नापसन्द करते हैं, यह बात हेड़िया भी जानता था। लेकिन उसकी ताक़त ही थी उसका बिन्दास स्वभाव। वह बिल्कुल निडर था।
‘मेरे ख़िलाफ़ जो आरोप लगाया जा रहा है उसका सुबूत क्या है?’ हेड़िया ने पूछा।
यहाँ बैठे लोगों को हेड़िया से इस ऊँचे सुर की अपेक्षा नहीं थी। कोई भी बीरम राव के सामने इतनी लापरवाही से नहीं बोल सकता था। लेकिन हेड़िया की यही आदत थी जो नक्सलियों को खटकती थी। माओवादी ऐसे लोगों को पसन्द नहीं करते जो उनसे डरते या दबते न हों।
‘मैं ऐसी किसी जन अदालत को नहीं मानता क्योंकि ये अदालत नहीं, मनमानी करने का बहाना है। फिर भी मैं पूछता हूँ क्या सुबूत है कि मैंने पुलिस को आपके दो साथियों की काली पहाड़ी पर मौजूदगी के बारे में बताया?’
बीरम राव ने जवाब दिया, ‘ये बताने की ज़रूरत नहीं कि इस जन अदालत में हम क्या करते हैं। सब जन जानते हैं कि सुबूत और गवाह से ही यहाँ फ़ैसला होता है और जनता की राय से ही सज़ा होती है।’
बीरम राव ने शंकर कोडोपी की ओर देखा। वह बोलने के लिए खड़ा हुआ। ‘16 अप्रैल की सुबह हेड़िया तेन्दूपत्ता ठेकेदारों के साथ जीप में अरनपुर गया था। उसी दिन शाम को हेड़िया मुझे अरनपुर थाने में भी दिखाई दिया।’
शंकर कोडोपी ने ऐसा कहते हुए हेड़िया से आँखें नहीं मिलाई। न ही उसने जनता की ओर देखा। उसने ये बयान बीरम राव की ओर देखकर दिया और फिर संगम सदस्यों की ओर देखते हुए नज़रें झुकाकर खड़ा हो गया।
‘ओह्हो... तो ये बात है,’ हेड़िया कुंजाम बुदबुदाया। उसे याद आ गया कि उस दिन क्या हुआ था और उसे किस तरह जाल में फँसाया जा रहा है।
शंकर कोडोपी का इससे अच्छा इस्तेमाल हो भी नहीं सकता। कुत्ता साला। हेड़िया ने मन ही मन सोचा और फिर बोला, ‘एक दिन पहले मैंने अपनी मोटरसाइकिल मरम्मत के लिए सूर्या मैकेनिक के पास छोड़ी थी। अगले दिन सुबह जब मैं उसे लेने जा रहा था तो उस ओर जा रहे तेन्दूपत्ता के कुछ ठेकेदारों ने मुझे अपनी जीप में बिठा लिया। इससे ये कैसे साबित होता है कि मैंने पुलिस को राजू और गंगा के बारे में बताया?’
बीरम राव ने देखा कि जन अदालत में पहली बार कोई आदमी घबरा कर ख़ुद को बेकुसूर बताने की बजाय बहस कर रहा है। जन अदालत में आरोप लगने के बाद लोग हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हैं और ख़ुद को छोड़ने की बात करते हैं। लेकिन हेड़िया ख़ुद पर लगे आरोपों को सख़्ती से नकार रहा था और झूठा साबित कर रहा था।
‘हमारे कॉमरेडों पर हुए हमले के दो दिन पहले तुम तेन्दूपत्ता ठेकेदारों से मिले थे और उसी दिन पुलिस थाने में भी दिखे। शंकर भी उसी जीप में था जिसमें ठेकेदार उमर सिंह ने तुम्हें बिठाया। उमर सिंह ने तुम्हें ये बताया कि कुछ ठेकेदारों के साथ वो 18 तारीख़ को काली पहाड़ी पर आने वाला है। क्या ये सच नहीं है?’ बीरम राव ने पूछा।
‘ये बिल्कुल झूठ है। ठेकेदार उमर सिंह से मेरी इस बारे में कोई बात नहीं हुई।’
बीरम राव ने फिर शंकर कोडोपी की ओर देखा।
‘मैंने जीप में सुना था। ठेकेदार उमर सिंह ने दो दिन बाद काली पहाड़ी पर आने की बात कही थी और ये भी कहा कि दादा लोगों से उसकी मुलाकात होनी है।’ शंकर कोडोपी सरासर झूठी गवाही दे रहा था।
‘तो तुम्हें मालूम था कि काली पहाड़ी पर हमारे कॉमरेड तेन्दूपत्ता ठेकेदारों से मिल रहे हैं और पुलिस को उस दिन तुमने ही ये जानकारी दी,’ बीरम राव ने फ़ैसला सुनाने के अन्दाज़ में कहा।
‘मैं अपनी मोटरसाइकिल लेने अरनपुर गया था। सूर्या मैकेनिक थाने के बिल्कुल बगल में काम करता है। मेरी मुलाकात इंस्पेक्टर शुक्ला से हुई। उसने मुझसे स्कूल के बारे में पूछताछ की। काली पहाड़ी पर राजू और गंगा के आने की बात न तो मुझे पता थी न मैंने किसी तेन्दूपत्ता ठेकेदार के बारे में पुलिस के बताया।’
‘चुप रहो,’ बीरम राव चिल्लाया। ‘सबने सुना कि शंकर कोडोपी ने क्या कहा। वह हमारा भरोसेमन्द साथी है। गलत नहीं बोल सकता।’
हेड़िया समझ गया कि माओवादी इस जन अदालत में उसकी बात सुनने के लिए तैयार नहीं हैं।
2
ऊँचापाड़ा से कोई बीस किलोमीटर दूर चिट्टापाड़ा के जंगलों में सुबह से ही भीमे महुआ बटोरने में लगी थी। उसके साथ उसी के गाँव का रामदेव भी था। रामदेव भीमे के बचपन का साथी था। दोनों अरनपुर में पले बढ़े और अक्सर साथ साथ ही रहे थे। रामदेव सत्रह साल की भीमे से चार साल बड़ा था, और अक्सर उसे छेड़ा करता। छुटपन में जब भीमे पेड़ पर नहीं चढ़ पाती तो रामदेव दरख़्त पर चढ़ कर उसे चिढ़ाया करता। वह उसे जी भर कर परेशान करता, लेकिन प्यार जताने का कोई मौका भी न चूकता। उसके लिए जंगली फल बटोरने से लेकर हर हफ़्ते लगने वाले हाट से खिलौने, कंगन, चूड़ियाँ और कुछ भी ले आता।
अब धीरे धीरे भीमे का यौवन उमड़ रहा था। पिछले दो सालों में वह काफी बदल गयी थी। उसकी जितनी उम्र थी, वह उससे कहीं अधिक बड़ी दिखाई देती। भीमे अब किशोरी से अधिक एक युवती लगने लगी थी। सांवला रंग, शक्लो सूरत बेहद मनमोहक। बड़ी बड़ी आँखें, चौड़ा माथा, गालों से उतरते हुए ठोड़ी तक आते आते उसका चेहरा करीब करीब एक त्रिभुजाकार संरचना बनाता जिसके बीच में उसकी नाक और उसमें टंगी बाली उसे आदिवासी पहचान देते। उसने नीले रंग की एक छोटी कुर्तानुमा कमीज़ और कमर के नीचे घिसड़ी* पहनी हुई थी। कमीज़ भीमे की कमर से पहले ही ख़त्म हो जाती और घिसड़ी भीमे के घुटनों तक थी। भीमे के गले में चाँदी का हारनुमा आभूषण था और पैरों में पायल बँधी थी।
रामदेव के दिल में भीमे के लिए आकर्षण हर रोज बढ़ रहा था। वह भीमे को बड़े गौर से देखा करता और उसमें आ रहे बदलावों को गहराई से महसूस करता। भीमे महुआ बटोरने के लिए झुकती तो रामदेव उसकी ओर देखने का लालच रोक न पाता। उसके दिल में भीमे के लिए प्यार घुलता चला गया था। इक्कीस साल की उम्र में उसका प्यार सम्भोग की चाह में और भी तड़प पैदा करता। वह इस लड़की की चाल में एक नशा महसूस करता। भीमे जब उसकी ओर आती को वह उसके चेहरे के साथ उसकी छातियों को निहारता और उसके दिल में कई हिलोरें एक साथ उठतीं। एक मादकता उसे घेर लेती। रामदेव की नज़रें छुप-छुपकर भीमे के शरीर का मुआयना करतीं। वह कभी भीमे के चेहरे को देखता, तो कभी उसकी गर्दन को। कभी छाती को देखता, तो कभी पैरों को और कभी उसके अधनंगे पेट को देखता। रामदेव के भीतर अभी प्यार की इच्छा उफान पर थी। वह उसे बाँहों में लेकर चूमना चाहता था। आज उसके दिल में इससे भी कहीं अधिक आगे जाने का लालच था।
रामदेव के दिल में जब प्यार और मिलन की तीव्र इच्छा उफान पर होती तो उसकी ज़ुबान थम जाती। वह बोलना भूल जाता। मर्द अक्सर प्यार के अन्तरंग क्षणों में चुप हो जाते हैं। महिलाएं मुखर होकर प्यार करना पसन्द करती हैं। भीमे अपने प्रेमी के इन भावों को अच्छी तरह समझती थी।
बस्तर के कुछ आदिवासी इलाकों में अभी भी घोटुल परम्परा ज़िन्दा है जहाँ आदिवासी किशोर और युवा एक साथ शिक्षा, संस्कृति और समाज के बारे में बहुत कुछ सीखते हैं। लड़के और लड़कियाँ दोनों। यहाँ पर लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं होता। विवाह से पहले जवान लड़के लड़कियाँ एक दूसरे के साथ लम्बा वक्त भी गुज़ारा करते हैं। जोड़े न केवल एक दूसरे को जानते समझते हैं बल्कि प्यार के अन्तरंग पलों तक जाते हैं। शायद सेक्स के वक्त एक दूसरे को सन्तुष्ट करने की क्षमता और चाहत का अन्दाज़ा लगाने के लिए। आदिवासी समाज का ऐसा खुलापन अब भी महानगरों में वर्जनाओं में गिना जाता है !
भीमे के लिए रामदेव की इच्छा को जानना कठिन न था। प्यार उसके दिल में भी बेपनाह था। उसे रामदेव पर पूरा भरोसा भी था लेकिन अब तक वह उसे अपने करीब आने से रोकती रही थी। प्यार की बातें करते हुए रामदेव उसकी बाँहों, चेहरे, बालों और कमर को कभी कभार छू लेता। लेकिन भरपूर आलिंगन और चुम्बन जैसी प्रेमक्रियाओं को उसने रोक रखा था। उसने अपने प्रेमी को बहकने से रोकने के लिए इस प्रेम में अनुशासन की एक दीवार-सी खड़ी कर दी थी।
लेकिन आज प्यार की तड़प भीमे के दिल में भी प्रबल थी। वह रामदेव को प्यार करना चाहती थी। प्रेमी की आँखों से टपकता अनुराग उसके दिल के दरवाज़े खटखटा रहा था। रामदेव की प्रेम अनुक्रियाएँ भीमे के दिल के बन्द दरवाज़े से रिस कर पानी की तरह भीतर प्रवेश करने लगी थी। भीमे ने महुआ की टोकरी नीचे रखी और रामदेव के पास आ गयी।
रामदेव उसे देखता रहा। चुपचाप। चाहत भरी नज़रों में सवाल साफ़ सुनाई दे रहे थे।
‘बाता’?** भीमे ने झुककर पूरी मासूमियत के साथ पूछा।
इस शब्द को कहते हुए जिस तरह भीमे के होंठ खुले उससे रामदेव के दिल में चाहत का एक ज्वालामुखी फट पड़ा। यह एक शब्द जैसे उसके लिए प्रेम का सागर समेटे था। अब तक भीमे के प्रतिरोध के डर से संकोच करने वाले रामदेव के लिए यह खुला आमन्त्रण था। उसने एक झटके में भीमे का हाथ पकड़कर उसे अपने पास खींच लिया। भीमे अब रामदेव के मज़बूत आलिंगन में थी। न रामदेव उसे छोड़ना चाहता और न वह उससे अलग होने की कोई कोशिश कर रही थी।
3
‘हेड़िया कुंजाम ने न केवल पार्टी के दो कॉमरेडों को फँसाया है बल्कि उसने जनताना सरकार के ख़िलाफ़ झण्डा बुलन्द किया है। उसने यह साबित कर दिया है कि वह गद्दार है और दुश्मन के साथ है। ऐसे गद्दार को इस अदालत में मौत की सजा सुनाई जाती है। अगर किसी को इस फ़ैसले पर कोई एतराज़ हो या वो इस सज़ा को कम करने या बदलने की बात कहना चाहता हो तो इस जन अदालत में बोल सकता है। हेड़िया कुंजाम को भी हक है कि वो अपनी ग़लती स्वीकार कर माफ़ी माँग सकता है जिस पर यह जन अदालत विचार करेगी।’
पूरी सभा में सन्नाटा छा गया।
हेड़िया के चेहरे पर अब भी डर का कोई भाव नहीं था। वह आज़ाद ख़यालों वाला था और पागलपन की हद तक निडर था। उसे शुरुआत से ही इस बात का अन्दाज़ा था कि उसके साथ क्या होने जा रहा है लेकिन वह माओवादियों के सामने किसी भी हाल में आत्मसमर्पण करना नहीं चाहता था।
‘कॉमरेड बीरम राव। इन गाँवों में लोग आपको दादा कहते हैं। आपके हर फ़रमान को मानते हैं लेकिन न तो मैं इस जन अदालत को सही मानता हूँ और न ही मुझ पर लगाए गये आरोप सही है। मैंने पुलिस के लिए कोई मुख़बिरी नहीं की है लेकिन यह भी सच है कि गाँवों में जनताना सरकार के नाम से चल रहे तन्त्र की कई बातों को मैं नहीं मानता।’
हेड़िया कुंजाम चाहता था कि सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध जनआन्दोलन से हो न कि बन्दूक के रास्ते। उसे लगता था कि जनता की लड़ाई सड़क, अस्पताल और स्कूल को बनाने को लेकर होनी चाहिए न कि देश की संसद को ‘सूअरों का बाड़ा’ कह कर। वह अक्सर कहा करता कि बन्दूकधारी क्रान्ति लाने की बड़ी बड़ी बातें करके कुछ हासिल नहीं होगा। आज भी वह यही कह रहा था।
‘जो रास्ता जनताना सरकार चलाने वाली आपकी पार्टी का है उससे इन लोगों का कुछ भला नहीं होने वाला। ऐसा तो मैं बार बार कहता रहा हूँ। अगर यह पार्टी को पसन्द नहीं हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ?’ हेड़िया कुंजाम ने कहा।
बीरम राव कुछ कहता उससे पहले हेड़िया ने उसे चुप रहने को हाथ खड़ा किया।
‘मैं किस बात के लिए माफ़ी माँगू कॉमरेड? जो काम मैंने किया ही नहीं उसके लिए माफ़ी ! मैं जानता हूँ मेरे झुकने से इस जनता पर तुम्हारा दबदबा बढ़ेगा। तुम अपनी जनताना सरकार को अधिक सही साबित कर सकोगे। ऐसी जन अदालतों के फ़ैसले अपनाने के लिए गाँववालों पर दबाव बढ़ेगा। यही चाहते हो न तुम कॉमरेड।’
बीरम राव के होश उड़े हुए थे। माओवादियों की हिरासत में होने के बावजूद इस आदमी को मौत को कोई डर नहीं था।
‘कॉमरेड इस जनअदालत को लोगों के बीच सही साबित करने के लिए तुम सबसे राय माँग रहे हो। लेकिन जो तुम्हारी एक भी गलत बात के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठा पाते, वे लोग तुम्हारे फ़ैसले के ख़िलाफ़ क्या बोलेंगे दादा बीरम राव? इन लोगों को यहाँ बिठा कर तुम इसे जन अदालत कह रहे हो? ये अदालत ही बिल्कुल ग़लत है। अगर आज मुझे मारा गया तो ये एक और हत्या ही होगी। इससे अधिक मुझे और कुछ नहीं कहना है।’
माओवादियों का विरोध करते हुए हेड़िया कुंजाम ने अपनी मौत का रास्ता तैयार कर लिया था।
बीरम राव ने हवा में गोली चलाई।
सभा में बैठे लोगों के दिल तेज़ी से धड़कने लगे।
‘हेड़िया कुंजाम ! ये जन अदालत है ! जन अदालत !’ वह चिल्लाया। ‘यहाँ बस अपना बात बोलो। भाषण मत दो। आरोप साबित हो चुका तुम्हारा और जो तुम बोल रहे उससे पता चलता कि तुम जनताना सरकार से कितनी नफ़रत करते हो। तुम बुर्जुआ मालिकों के, पुलिस के, सरकार के गुलाम हो। और कुछ नहीं। तुम्हें इस अदालत में सज़ा ज़रूर मिलेगा।’
हेड़िया जानता था कि बोलने का फ़ायदा नहीं, लेकिन वह अपनी मौत को बिना लड़े गले नहीं लगाना चाहता था। यहाँ से भागना मुमकिन नहीं था और लड़ना ही उसके लिए एक रास्ता था।
‘तो तुमने तय किया है कि तुम हिरासत में एक और हत्या करोगे कॉमरेड। यही है जनताना सरकार? यही है पार्टी की जन अदालत?’
‘हिरासत में मारना तुम्हारी पुलिस का काम है। बिना मुकदमा चलाये जेलों में बन्द रखना, पुलिस लॉक-अप में टॉर्चर करना। हम यहाँ उन्हीं लोगों को सज़ा देते हैं जो गुनहगार हों और ख़ुद को बदलने के लिए तैयार नहीं। तुम्हारा दोष साबित हो गया है और तुम्हारी बातों से साफ़ है कि तुम्हें अपने किये का अफ़़सोस नहीं। रास्ता नहीं बदलना चाहते तुम। हेड़िया तुम जनताना सरकार और इस अदालत के साथ भी नहीं दिखते। तुम्हारा मरना ही लोगों के लिए ज़रूरी है हेड़िया कुंजाम।’
हेड़िया कुंजाम चुप रहा। उसने लोगों की ओर देखा। सबकी ज़ुबान को काठ मार गया था। जैसे मुख्यधारा के लोकतन्त्र में शासक तभी तक लोकशाही पसन्द करते हैं जब तक वह सत्ता में बैठे लोगों पर सवाल न उठाये वैसे ही नक्सलियों की जनताना सरकार का लोकतन्त्र था। यहाँ क्रान्तिकारियों को भी अपने चारों ओर चापलूसों की ही ज़रूरत थी। हेड़िया जैसे लोग क्रान्ति के लिए ख़तरा थे।
‘साथियो सब जन ने ये देख लिया कि हेड़िया ने मुख़बिरी की। हमारा कॉमरेड राजू और गंगा को फँसाया। वो न तो माफ़ी माँगने को तैयार है और न ही उसे हमारी जनताना सरकार से कोई वफ़ादारी है। वह हमसे नफ़रत करता है। जनता की सरकार उसे पसन्द नहीं। असल में हेड़िया इस अदालत में पुलिस की तरफदारी कर रहा है। उसे मौत की सज़ा दी जायेगी। क्या किसी को इस पर कुछ कहना है?’
कोई नहीं बोला। एक मुर्दा सन्नाटा चारों ओर छा गया।
‘क्या किसी को इस पर कुछ कहना है?’ बीरम राव चिल्लाया जैसे वह लोगों से पूछ नहीं रहा बल्कि उन्हें चुनौती दे रहा हो। ‘इस जनअदालत में हेड़िया कुंजाम के बचाव में बोलने के लिए किसी के पास कुछ हो तो वह आगे आकर बोल सकता है।’
जवाब में कोई आवाज़ नहीं आयी। हेड़िया कुंजाम एक व्यंग्य भरी हारी हुई मुस्कान के साथ आसमान की ओर देखने लगा।
4
‘भीमे... भीमे...भीमे... कहाँ हो?’
अपना नाम सुनकर भीमे चौंक गयी। वह अब तक रामदेव की बाँहों में ही थी। हड़बड़ा कर उठी और अपने कपड़े ठीक किये। फिर खड़े होकर दूर से आती आवाज़ की ओर देखने लगी।
चिट्टापाड़ा गाँव में ही रहने वाली उसकी सहेली सुरी दौड़ती हुई आ रही थी। भीमे उसे देखकर समझ गयी कि कुछ गड़बड़ ज़रूर है। उसने रामदेव को जगाया।
सुरी अब तक हाँफती हुई उसके पास पहुँच चुकी थी।
‘भीमे... भीमे... तेरा बाबो...’
सुरी के लिए अपनी बात पूरी करना मुमकिन