Hazaar Haath
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About this ebook
We bring out the best of Surender Mohan Pathak in a five-book box set for the fans of the undisputed king of crime fiction. Painsath Laakh Ki Dakaiti, 6 Crore Ka Murda, Jauhar Jwala, Hazaar Haath and Daman Chakra are the most loved novels in the popular Vimal Series written by Pathak. They have each sold over 50,000 copies on their first release. Now we reissue them after nearly two decades. So let's brace ourselves for some perfect murders!
Surender Mohan Pathak
Surender Mohan Pathak is considered the undisputed king of Hindi crime fiction. He has nearly 300 bestselling novels to his credit. He started his writing career with Hindi translations of Ian Flemings' James Bond novels and the works of James Hadley Chase. Some of his most popular works are Meena Murder Case, Paisath Lakh ki Dakaiti, Jauhar Jwala, Hazaar Haath, Jo Lare Deen Ke Het and Goa Galatta.
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Book preview
Hazaar Haath - Surender Mohan Pathak
विमल सीरीज़ - 29
हजार हाथ
सुरेन्द्र मोहन पाठक
harper%20hindi.psdलेखकीय
प्रस्तुत उपन्यास हजार हाथ विमल सीरीज़ के चार अन्य (दमन चक्र, छ: करोड़ का मुर्दा, जौहर ज्वाला, पैंसठ लाख की डकैती) के साथ पांच उपन्यासों के बॉक्स सैट के तौर पर प्रकाशित हुआ है। मेरे अनुपलब्ध उपन्यासों के रिप्रिंट्स के सिलसिले में ये एक बड़ा कदम है जो कि मेरे वर्तमान प्रकाशक ने उठाया है। उपन्यास मूल रूप से सन् 1998 में प्रकाशित हुआ था और तभी हाथों हाथ सारा संस्करण समाप्त हो गया था। तदोपरान्त भारी मांग होने के बावजूद ये फिर नहीं छप पाया था। लिहाजा आज सत्तरह साल बाद इसका पहला रिप्रिंट आपके हाथों में है।
बाहर के मुल्कों में जो पुस्तक एक बार किसी स्थापित प्रकाशन से प्रकाशित होती है तो वो तब तक अलाइव रहती है जब तक कि वो बिक्री के लिहाज से डैड नहीं हो जाती, जैसा कि वहां प्रख्यात लेखकों के साथ अमूमन नहीं होता। यही वजह है कि शरलॉक होम्ज की सौ साल पहले मूल रूप से प्रकाशित छत्तीस कहानियां और चार उपन्यास आज भी उपलब्ध हैं और आगे भी उपलब्ध रहेंगे। क्लासिक्स में तो ऐसी दो सौ साल से ऊपर की मिसाल है। खेद है कि भारत में ऐसी कोई रवायत नहीं। उपरोक्त जैसी हमारे यहां चंद ही मिसालें हैं और वो भी इसलिये हैं क्योंकि वो पुस्तकें रायल्टी-फ्री हो गयी हैं, जो चाहे बिना लेखक की, या उसकी एस्टेट की इजाजत हासिल किये, बिना कोई उजरत अदा किये उन्हें छाप सकता है।
खेद है कि आप का लेखक अपने तकरीबन लेखन काल में ऐसे ही सिस्टम—या षड्यन्त्र का—शिकार रहा है जिसकी वजह से मेरे तमाम पुराने उपन्यास एक अरसे से आउट आफ प्रिंट हैं। लेकिन अब मुझे खुशी है—क्योंकि पूरी उम्मीद है—कि मेरे साथ जैसा होता आया है वैसा अब नहीं होगा अगरचे कि मेरे मेहरबान, कद्रदान पाठक भी हार्परकॉलिंस द्वारा शुरू किये जा रहे इस सिलसिले को अपना सहयोग देकर लेखक और प्रकाशक को प्रोत्साहित करेंगे।
दिल्ली—110051 विनीत
29-10-2015 सुरेन्द्र मोहन पाठक
हजार हाथ
मॉडल टाउन के इलाके में एक सफेद मारुति वैन सड़क से हट कर एक पेड़ के नीचे खड़ी थी। वैन के शीशे काले थे और उस घड़ी चारों बन्द थे। उसकी ड्राइविंग सीट पर एक कोई तीस साल का मामूली शक्ल सूरत वाला दुबला पतला लेकिन मजबूत काठी वाला नौजवान मौजूद था जो कि आंखों पर एक धूप का ऐसा चश्मा लगाये था जो कि चान्दनी चौक में पटड़ी पर पचास रुपये में मिलता था। उसके बाल अभिनेताओं जैसे झब्बेदार थे जो कि उसने बड़े करीने से संवारे हुए थे और उसकी कलमें इतनी लम्बी थीं कि कान की लौ से भी नीचे पहुंची हुई थीं। पोशाक के तौर पर वो एक घिसी हुई काली जीन, गोल गले वाली काली स्कीवी और चमड़े की काली जैकेट पहने था।
उसने गर्दन घुमा कर वैन में पीछे बैठे व्यक्ति की ओर देखा।
पीछे पैसेंजर सीट पर पसरा पड़ा व्यक्ति वैन का पैसेंजर नहीं बल्कि नौजवान का जोड़ीदार था। वो व्यक्ति उम्र में अभी कुल सैंतालीस साल का था लेकिन देखने में पचपन से ऊपर का लगता था। उसके चेहरे पर घनी दाढ़ी मूंछ थीं जिनको संवार कर रखने में खुद उसने या उसके हज्जाम ने काफी मेहनत की मालूम होती थी। उसके बालों की काली रंगत तफ्तीश का मुद्दा था कि वो असली थी या किसी उम्दा डाई का कमाल था। उसके नयन नक्श अच्छे थे, रंग पहाड़ के लोगों जैसा गोरा था लेकिन चेहरे पर रौनक नहीं थी। सूरत से वो बहुत टूटा और उजड़ा हुआ लगता था लेकिन उसकी आंखों में सदा मौजूद रहने वाला धूर्तता का भाव साफ जाहिर करता था कि अभी उसने जिन्दगी से हार नहीं मानी थी। वो एक सजायाफ्ता मुजरिम था जो कि पांच बार जेल की सजा काट चुका था। जेल की उन सजाओं ने और उसके दो साल पहले के आखिरी विफल अभियान ने उसके कस बल काफी हद तक ढीले कर दिये थे लेकिन वो पैदायशी चोर था जो चोरी से जा सकता था, हेराफेरी से नहीं जा सकता था।
मौजूदा हेराफेरी का माहौल उसके पिछले अभियान के दो साल बाद बना था और उसकी निगाह में सेफ गेम था क्योंकि हालात पूरी तरह से उसके काबू में थे और काबू में रहने वाले थे।
वो एक गर्म पतलून, चार खाने की गर्म कमीज और ट्वीड का कोट पहने था और गले में मफलर लपेटे था। उसके सामने एक दूसरे पर चढ़ी दो बैसाखियां पड़ी थीं जिनका कि वो मोहताज था। दो साल पहले उसकी कई हड्डियां यूं तोड़ी गयीं थीं कि यही गनीमत थी कि वो बैसाखियों के सहारे चल सकता था। वैसे तो अब वो बैसाखियों के बिना भी अपने पैरों पर खड़ा हो सकता था और थोड़ा चल फिर सकता था लेकिन उसे डाक्टर की हिदायत थी कि वो ऐसा करने से गुरेज ही रखे। कम्पाउन्ड फ्रैक्चर्स से उबरी उसकी टांगें अभी भी कमजोर थीं और कोई भी उलटा-सीधा झटका लग जाने से फ्रैक्चर फिर हो सकता था।
बैसाखियों का मोहताज होने की वजह से ही वो आगे पैसेंजर सीट पर अपने जोड़ीदार के पहलू में मौजूद होने की जगह वैन की पिछली सीट पर पसरा पड़ा था।
सड़क के पार एक एकमंजिला कोठी थी जिसका नम्बर डी-9 था और उस घड़ी वो ही उनकी निगाहों का मरकज थी, उनकी मंजिल थी।
अपाहिज ने कोठी की ओर का वैन का शीशा आधा सरकाया, सामने उस इमारत की तरफ देखा जिसमें उस घड़ी निस्तब्धता व्याप्त थी। कोठी की पोर्टिको में डीआईए -7799 नम्बर की एक काली एम्बैसेडर खड़ी थी और बाहर कोठी की दीवार के साथ लग कर एक छियासी मॉडल की डी आई डी- 2448 नम्बर की नीली फियेट खड़ी थी। वे दोनों कारें और कोठी कभी शिव नारायण पिपलोनिया नाम के एक रिटायर्ड, तनहा प्रोफेसर की होती थीं लेकिन अब वो उस शख्स के प्रियजनों के हवाले थीं जिन्हें कि वो किन्हीं मवालियों के हाथों अपनी मौत से पहले अपना वारिस बना कर गया था।
यही है?
— नौजवान ने निरर्थक-सा प्रश्न किया।
हां।
— अपाहिज बोला।
अब?
मैं जा के आता हूं।
अकेले जाओगे, उस्ताद जी?
और क्या फौज ले कर जाऊंगा! भीतर है कौन? एक औरत जो कभी मेरे हाथों की कठपुतली थी और उसका दो महीने का दुधमुंहा बच्चा! अब मैं इतना भी मोहताज नहीं कि अपनी ही फाख्ता को फिर अपने हाथों चुग्गा न चुगा सकूं।
यानी कि मेरे फिक्र करने की कोई बात नहीं!
कोई बात नहीं। फिर भी बरखुरदारी दिखाना चाहता है तो एक काम करना।
क्या?
मुझे भीतर बड़ी हद पन्द्रह मिनट लगेंगे। उसके बाद भले ही मेरी खैर खबर लेने तुम भी भीतर पहुंच जाना।
ठीक है।
अपाहिज ने शीशा वापिस सरकाया और दरवाजा खोल कर वैन से बाहर कदम रखा। उसने अपनी दोनों बैसाखियां सम्भालीं और उन्हें ठकठकाता कोठी की ओर बढ़ा।
पीछे नौजवान ने हाथ बढ़ा कर वैन का पिछला दरवाजा बन्द किया और फिर स्टियरिंग थपथपाता प्रतीक्षा करने लगा।
अपाहिज ने दोपहरबाद की उस घड़ी सुनसान पड़ी सड़क पार की, कोठी का आयरन गेट ठेल कर भीतर कदम रखा और बरामदे में जा कर कालबैल बजायी।
एकाएक बजी कालबैल की प्रतिक्रियास्वरूप पालने में सोया पड़ा नन्हा सूरज एक बार कुनमुनाया और फिर शान्त हो गया।
मेरा बेटा! — वो अनुरागपूर्ण भाव से पालने में झांकती मन ही मन बोली — मेरा सूरज। सूरज सिंह सोहल, सन आफ सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल!
उसने वाल क्लॉक पर निगाह डाली।
डेढ़ बजा था।
सुमन के आने का अभी वक्त नहीं हुआ था लेकिन अक्सर वो वक्त से पहले ड्यूटी खत्म करके भी लौट आती थी। गोल मार्केट में अपनी मां स्वर्णलता वर्मा और छोटी बहन राधा के साथ हुई घातक ट्रेजेडी के बाद से तनहा हो गयी सुमन मॉडल टाउन की उस कोठी में अब नीलम के साथ ही रहती थी। वो महानगर टेलीफोन निगम में ट्रंक आपरेटर थी इसलिये उसकी ड्यूटी की शिफ्ट बदलती रहती थी।
कालबैल फिर बजी।
उसने आगे बढ़ कर दरवाजा खोला।
उसकी आंगतुक पर निगाह पड़ी तो एकाएक जैसे उसकी धमनियों में खून जम गया। वो मुंह बाये, हक्की बक्की आगन्तुक की सूरत देखने लगी।
नमस्ते।
— आगन्तुक जबरन मुस्कराता, जबरन अपने स्वर में मिश्री घोलता बोला।
तुम!
— बड़ी कठिनाई से नीलम के मुंह से एक शब्द फूटा।
शुक्र है। शुक्र है पहचाना तो सही बीबी नीलम ने अपने बिछुड़े बलम को!
आंखों में काईयां भाव लिये और होंठों पर जबरदस्ती की मुस्कराहट चिपकाये, बैसाखियों के सहारे झूलता-सा खड़ा वो सृष्टि का आखिरी शख्स था जिसकी कि वो उस घड़ी अपने सामने मौजूदगी की कल्पना कर सकती थी। उसे लग रहा था कि कोई मुर्दा कब्र से उठ कर खड़ा हो गया था। कोई प्रेत था जो एकाएक वहां प्रकट हुआ था।
खड़ी खड़ी मर गयी क्या?
— एकाएक अपाहिज अपने स्वभावसुलभ कर्कश स्वर में बोला — अब रास्ता तो छोड़!
मुकम्मल तौर पर दहशत के हवाले नीलम की मजाल न हुई हुक्मउदूली की।
सुमन ने कोठी के सामने आटो को रुकवाया, उसके मीटर पर निगाह डाली और फिर भीतर बैठे बैठे ही आॅटो ड्राइवर की तरफ एक पचास का नोट बढ़ाया।
ड्राइवर ने भी उचक कर पीछे मीटर को देखा और फिर वापिस लौटाने के लिये रकम गिनने लगा।
सुमन की उचटती-सी निगाह सड़क से पार पेड़ के नीचे खड़ी सफेद मारुति वैन पर पड़ी, काले शीशों की वजह से जिसके भीतर बैठा कोई शख्स उसे दिखाई नहीं दे रहा था।
ड्राइवर ने उसे बाकी पैसे लौटाये।
कन्धे पर लटकने वाला अपना बस कन्डक्टरों जैसा बैग सम्भाले वो आॅटो से नीचे उतरी, मशीनी अन्दाज से उसने आॅटोवाले को थैंक्यू बोला और कोठी के आयरन गेट की ओर बढ़ी।
उसी क्षण कोठी का प्रवेश द्वार खुला और भीतर से बैसाखियों के सहारे चलते एक व्यक्ति ने बाहर कदम रखा। फिर चेहरे पर परम सन्तुष्टि के भाव लिये वो आगे बढ़ा।
उसके पीछे उसे चौखट थामे खड़ी बद्हवास नीलम दिखाई दी।
सुमन ने गेट खोल कर भीतर कदम रखा।
तब तक करीब पहुंच चुके अपाहिज ने यूं कृतज्ञ भाव से उसकी तरफ देखा जैसे सुमन ने खास उसके लिये गेट खोला हो।
सुमन अपलक उसे देखती रही।
बैसाखियां ठकठकाते उस शख्स ने सड़क पार की। वो वैन के करीब पहुंचा तो भीतर से किसी ने वैन का पिछला दरवाजा खोल दिया।
तब सुमन को भीतर ड्राइविंग सीट पर बैठे लम्बी कलमों वाले शख्स की भी एक झलक मिली।
अपाहिज बड़े यत्न से वैन में सवार हुआ, उसने वैन का दरवाजा बन्द किया और फिर वैन वहां से रवाना हो गयी। और कुछ क्षण बाद वो आगे मोड़ काट कर सुमन की दृष्टि से ओझल हो गयी।
गेट के करीब ठिठकी खड़ी सुमन की तन्द्रा टूटी, वो लम्बे डग भरती कोठी के खुले प्रवेशद्वार की तरफ बढ़ी जहां कि चौखट थामे नीलम खड़ी थी। वो करीब पहुंची तो नीलम जबरन बोली — आज जल्दी आ गयी!
हां।
— सुमन बोली — दांव लग गया। कौन था ये आदमी?
कौन आदमी?
अरे, वो लंगड़ा जो अभी अभी यहां से गया!
वो... वो कोई नहीं था।
कोई नहीं था!
मेरा मतलब है यूं ही.... यूं ही कौल साहब का कोई वाकिफकार था जो मिलने आ गया था।
पहले तो कभी नहीं आया था!
इत्तफाक की बात है।
बड़ी अजीब शक्ल का आदमी था। देख के दहशत होती थी।
नहीं, नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।
मुझे तो लगता है कि आप भी उसकी दहशत खाये बैठी हैं।
अरे, नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।
तो फिर आपके हवास क्यों उड़े हुए हैं? आपकी सूरत से ऐसा क्यों लग रहा है जैसे आपने भूत देख लिया हो?
पागल हुई है! ऐसा कहीं होता है!
लेकिन....
वो एक मामूली आदमी था। बाज लोगों की शक्ल होती ही डरावनी है। ऊपर से अपाहिज! टांगों से लाचार! बैसाखियों का मोहताज! ऐसे लोगों की जाती दुश्वारियों का अक्स हमेशा के लिये उनकी सूरतों पर चिपक के रह जाता है।
लेकिन....
अब छोड़ वो किस्सा। भीतर आ।
अनमने भाव से सुमन ने भीतर कदम रखा।
अगले रोज सफेद मारुति वैन पिछले रोज के वक्त से दो घन्टे पहले मॉडल टाउन में अपने पिछले रोज वाले स्थान पर मौजूद थी।
बैसाखियां सम्भाले अपाहिज वैन से बाहर निकला।
उस्ताद जी, सम्भल के।
— एकाएक उसका जोड़ीदार चेतावनीभरे स्वर में बोला — धोखा हो सकता है।
कैसा धोखा?
— अपाहिज की भवें उठीं।
समझो। आखिर उस्ताद हो!
कैसा धोखा?
भीतर बीबी के साथ तुम्हारे स्वागत के लिये कोई मौजूद हो सकता है। जितने कड़क मवाली की बीवी तुम उसे बताते हो, उस लिहाज से....
शुक्रिया। शुक्रिया कि तूने मुझे कड़क मवाली कहा।
मैं आपकी बात नहीं कर रहा था।
नहीं कर रहा था तो अब कर ले।
उस्ताद जी, बात का मतलब समझो।
समझ लिया। तू भी समझ के रख कि तेरे लिए कल वाली हिदायत आज भी लागू है। अगर मैं पन्द्रह मिनट में वापिस न लौटूं तो जो जी में आये करना।
पन्द्रह मिनट में?
अपाहिज कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला — पांच मिनट में।
ठीक है।
लेकिन अपाहिज चार मिनट में वापिस लौटा। यूं लौटा जैसे कोठी को भीतर से छूने ही गया हो।
वापसी में उसकी बाछें खिली हुई थीं। उसकी सूरत पर एकाएक जैसे हजार वाट का बल्ब जल उठा था।
नौजवान देखते ही समझ गया कि लंगड़ा उस्ताद किला फतह कर आया था।
दो लाख रुपया!
कितना होता था उसका एक चौथाई हिस्सा!
उस्ताद की तरह ही ख़ुशी से दमकता नौजवान अपने जेहन पर दो लाख के एक बटा चार के बराबर नोटों का अक्स उतारने लगा।
एक हफ्ते बाद फिर वैसा ही फेरा।
लेकिन उस बार रकम तीन लाख।
जो कि कामयाबी से वसूल पायी गयी।
अब अगले हफ्ते चार लाख — अपाहिज उस्ताद ने बड़े संतुष्टिपूर्ण भाव से मन ही मन सोचा — इसे कहते हैं उंगली पकड़ कर पाहुंचा पकड़ना।
या मादरी जुबान में, दित्ती धेली ते मल्ली हवेली।
बढ़िया। बढ़िया।
और एक हफ्ते बाद।
नीलम उदास थी। हलकान थी, परेशान थी।
रकम की मांग फटे जूते की तरह बढ़ती जा सकती थी, ऐसा उसे अन्देशा था लेकिन वो हफ्तावारी पेश होने लगेगी, ये उसने नहीं सोचा था।
अगले रोज अपनी बैसाखियां ठकठकाता, अपने लाचार लंगड़ा होने की दुहाई देता, पुराने ताल्लुकात का सदका देता, प्रत्यक्षत: माली इमदाद की फरियाद करता लेकिन असल में रकम की वसूली के लिये धमकाता वो फिर आने वाला था।
लेकिन चार लाख रुपये तो उसके पास नहीं थे।
उसने सहज भाव से उस बाबत सुमन से सवाल किया था तो पता चला था कि उसके पास तो बैंक एकाउन्ट में मुश्किल से तीस हजार रुपये थे जो कि वो तुरन्त उसकी नजर करने की तैयार थी।
लेकिन तीस हजार से क्या बनता था!
तो फिर कहां से हासिल करे उस रकम को वो?
विमल से!
तौबा! हालिया वाकयात की विमल को तो वो भनक भी नहीं लगने दे सकती थी, खुद वो ही भला क्योंकर उसे सब कुछ कह सुनाती! और सब कुछ सुने बिना वो बात की अहमियत को समझता तो कैसे समझाता!
नहीं, नहीं। विमल नहीं। विमल हरगिज नहीं।
उसे योगेश पाण्डेय का खयाल आया।
योगेश पाण्डेय सीबीआई के एन्टीटैरेरिस्ट स्क्वायड नामक विभाग में उच्चाधिकारी था और वो शख्स था, विमल की गैरहाजिरी में जिसकी उन्हें सरपरस्ती हासिल थी। लेकिन वो शख्स पुलिसिया था। वो असलियत को भांप सकता था और फिर उसकी सलामती की खातिर, अपनी विमल से दोस्ती की खातिर, कोई ऐसा कदम उठा सकता था जो कि नीलम को माफिक नहीं आने वाला था। भौंकते कुत्ते का भौंकना जब तक रोका जा सकता था, तब तक वो उसे रोके रहना चाहती थी।
तो फिर कौन?
उसे मुबारक अली का खयाल आया।
वो घनी दाढ़ी वाला, सिर से गंजा, फरिश्ताजात मुसलमान जिस ने मुम्बई में व्यास शंकर गजरे के चंगुल से विमल को निकलवाने में उसकी मदद की थी और जो उसके साथ ही वहां से दिल्ली लौटा था।
क्या उसकी उसे चार लाख रुपये देने की औकात हो सकती थी?
हो तो सकती थी! आखिर वो विमल का मुम्बई का जोड़ीदार था। मुम्बई की पुलिस को उसकी तलाश थी इसलिये दिल्ली में तो वो महज अपनी असलियत छुपाने के लिये बसा हुआ था। टैक्सी ड्राइवर भी वो इसी वजह से था और इसी वजह से उसने अपनी दाढ़ी बढ़ा ली थी और सिर घुटवा लिया था।
विमल से वो कितना मुतासिर था, इसका यही बहुत बड़ा सबूत था कि अपनी गिरफ्तारी की, अपनी जान की परवाह किये बिना अली, वली नाम के अपने दो भांजों के साथ और धोबियों की पलटन के साथ विमल की मदद के लिये उसके बिना बुलावे मुम्बई पहुंच गया था जहां कि वो गिरफ्तार हो जाता हो शर्तिया उम्रकैद की सजा पाता। आखिर वो मुम्बई के पुलिस कमिश्नर की ऐन नाक के नीचे से उसके सामने पुलिस हैडक्वार्टर से फरार हुआ डकैती का अपराधी था। उसके हाथ खून से रंगे थे। कोई खून भी उसके खिलाफ साबित हो जाता तो जरूर फांसी पर चढ़ता।
एकाएक फोन की घन्टी बजी।
उसने आगे बढ़ कर फोन उठाया।
हल्लो।
— वो माउथपीस में बोली।
मैं बोल रहा हूं।
— आवाज आयी।
मैं कौन?
बीबी, एक ही शख्स तो है दिल्ली शहर में जो आजकल तेरी जिन्दगी में कोई अहमियत रखता है!
क्या चाहते हो?
तुझे मालूम है।
फोन क्यों किया?
तुझे याद दिलाने के लिये कि मैं कल आ रहा हूं।
खबरदार! कल न आना।
क्यों भला?
अभी मेरे पास रकम का कोई इन्तजाम नहीं।
क्या बकती है?
मेरे पास अभी....
ये कोई मानने की बात है! महान सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल की रखैल और उसे पैसे का तोड़ा!
खबरदार!
क्या खबरदार?
जो मुझे ...मुझे रखैल कहा।
और क्या है तू? एक खसम के होते दूसरा करेगी तो असल में तो उसकी रखैल ही कहलायेगी! उसकी रखैल और उसके हरामी बच्चे की मां!
कमीने, लगाम दे अपनी गन्दी जुबान को।
सच कड़ुवा लगता है न?
बकवास बन्द कर।
चल, ऐसे ही सही। तू भी क्या याद करेगी! अब बोल, क्या कहती है?
मुझे रकम के इन्तजाम के लिये वक्त चाहिये।
कैसे करेगी इन्तजाम?
इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिये।
सोहल को चिट्ठी लिखेगी? फोन करेगी? या खुद मुम्बई पहुंच जायेगी?
बोला न, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिये।
चल, ऐसे ही सही। लेकिन एक बात का खयाल रखना।
किस बात का?
गायब हो जाने की कोशिश न करना। मेरा तेरे पर कोई पहरा नहीं है इसलिये तू चाहे तो गायब हो सकती है लेकिन मैं तुझे फिर ढूंढ़ लूंगा। जैसे पहले ढूंढा, वैसे फिर ढूंढ लूंगा। पहली बार बहुत टाइम लगा लेकिन इस बार मैं ये काम जल्दी कर दिखाऊंगा, तेरी उम्मीद से कहीं जल्दी कर दिखाऊंगा। मैं तुझे पाताल में से भी खोज निकालूंगा। समझ गयी?
धमकी दे रहा है?
और क्या लोरी सुना रहा हूं?
सामने तो गिड़गिड़ाता है! लंगड़ा अपाहिज होने की दुहाई देता है! आंखें नम करके पुराने ताल्लुकात की याद दिलाता है!
मेरी जान
— उसका लहजा बदला — मैं भी क्या करूं! तेरे सामने पड़ता हूं तो जज्बाती हो जाता हूं। उन रातों को याद करने लगता हूं जो हमने सैंकड़ों मर्तबा एक दूसरे के पहलू में गुजारीं। ऐसी आखिरी रात को भले ही तूने मुझे धोखा दिया लेकिन फिर भी आज भी तुझे सामने पा के मैं अपनी सुध बुध भूल जाता हूं। भूल जाता हूं कि मेरी सारी हालिया दुश्वारियों की वजह तू है और सिर्फ तू है।
तू कमीना है। नाशुक्रा है।
अच्छा!
नहीं जानता कि आज तू जिन्दा है तो मेरी वजह से। विमल तुझे जान से मार डालना चाहता था। उसने तेरी जानबख्शी की तो मेरी वजह से। तेरा सयापा करने की जगह उसने तेरी हड्डियां तोड़ कर ही सब्र कर लिया तो मेरी वजह से।
मुझे नहीं मालूम था। अगर ऐसा है तो मैं तेरा शुक्रगुजार हूं।
आया बड़ा शुक्रगुजार कर बच्चा!
लेकिन मेरी जान, ये तेरा मेरे पर अहसान क्योंकर हुआ?
क्या मतलब?
हर हिन्दोस्तानी औरत का फर्ज होता है अपने सुहाग की रक्षा करना और....
बकवास बन्द कर, रुड़जानया।
हला, हला। तो बात ये हो रही थी कि गायब हो जाने की कोशिश न करना।
मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं।
वदिया। अब बोल, रकम का क्या कहती है?
इन्तजाम में वक्त लगेगा।
कितना?
ज्यादा नहीं।
कितना?
एक हफ्ता।
पागल हुई है! उल्लू बनाती है! जो करना है, दो तीन दिन में कर ले वरना....
ठीक है। ठीक है।
मैं फिर फोन करूंगा।
मैं खबर कर दूंगी। अपना नम्बर बोलो।
मेरे पास फोन नहीं है। इसलिये मैं ही फोन करूंगा।
ठीक है। करना।
तब तक के लिये नमस्ते।
लाइन कट गयी।
नीलम ने भी धीरे से रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखा और हाथों में माथा थामे फोन के करीब बैठी रही।
हे माता भगवती भवानी — फिर वो कातर भाव से होंठों में बुदबदाई — ये कैसा इम्तिहान है मेरा! हे भवनांवाली माता! हे महिषासुरमर्दिनी! मुझे भी ऐसी शक्ति दे कि मैं इस महिषासुर की गर्दन काट सकूं।
तब उसे उस रिवाल्वर की याद आयी जो तुकाराम की चिट्ठी के जवाब में मुम्बई रवाना होने से पहले विमल उसके पास छोड़ गया था। वो एक अड़तीस कैलीबर की रिवाल्वर थी जो पूरी भरी हुई थी और जिसकी अतिरिक्त गोलियां भी घर में मौजूद थीं।
जान से मार डालूंगी। पूरी की पूरी रिवाल्वर कमीने के नापाक जिस्म में खाली कर दूंगी।
लेकिन अभी नहीं। अभी कुत्ता फासले से भौंक रहा था, अदब से भौंक रहा था। हड्डी फेंकने पर चुप हो जाता था। ऐन सर पर सवार होकर भौंकने की धमकी देगा तो यही कदम उठाऊंगी लेकिन अभी नहीं। अभी नहीं।
उसे फिर मुबारक अली का खयाल आया।
दिल्ली में उसका घर कहां था, ये उसे नहीं मालूम था, किसी ने — विमल ने या खुद मुबारक अली ने — उसे बताया था तो वो भूल गयी थी लेकिन इतना उसे याद था कि वो अभी भी दिल्ली में टैक्सी चलाता था और सुजान सिंह पार्क में स्थित फाइव स्टार होटल एम्बैसेडर का टैक्सी स्टैण्ड उसका पक्का ठीया था।
उसने मुबारक अली को तलाश करने का फैसला किया।
सहारा एयरलाइन्स की मार्निग फ्लाइट से मुबारक अली मुम्बई में सहर एयरपोर्ट पर उतरा।
उस घड़ी वो अपनी पसन्दीदा पोशाक कत्थई रंग की शेरवानी, काले फुंदने वाली लाल तुर्की टोपी और पेशावरी चप्पल पहने था और बड़ा इज्जतदार और सम्भ्रान्त व्यक्ति लग रहा था। दिल्ली से प्लेन में सवार होने से पहले अपनी दाढ़ी उसने बहुत सलीके से तरशवा ली थी और उसका गंजा सिर तुर्की टोपी के नीचे छुपा हुआ था। प्लेन से उतरे उस मुसाफिर को देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वो एक अनपढ़ मवाली था, खूंखार दादा था, ऐलानिया फरार मुजरिम था।
एअरपोर्ट की मारकी में पहुंच कर वो एक पब्लिक टेलीफोन में घुस गया जहां से कि उसने विमल का मोबाइल नम्बर डायल किया जो कि उसकी पिछली बार की मुम्बई से रवानगी के वक्त विमल ने उसे दिया था।
जैसा कि अपेक्षित था, तत्काल उत्तर मिला।
सलामालेकम, बाप।
— वो धीरे से बोला — मैं मुबारक अली। इधर मुम्बई में अभी पंहुचा। एयरपोर्ट से बोलता है।
अरे!
— विमल का हैरानीभरा स्वर उसके कान में पड़ा — क्या हो गया? खैरियत तो है?
है भी। नहीं भी है।
क्या मतलब?
रूबरू होगा तो बतायेगा। इसी खातिर खड़े पैर मुम्बई पहुंचा। किधर है?
होटल में।
मेरे को फौरन तेरे पास पहुंचना मांगता है।
क्या प्राब्लम है। होटल पहुंच।
कोई रोकेगा तो नहीं? टोकेगा तो नहीं? पूछेगा तो नहीं कि बड़े साहब से क्यों मिलाना मांगता था?
मुबारक अली, मैं तेरे लिये साहब, और वो भी बड़ा, कब से हो गया?
तो मैं पहुंचूं उधर?
हां। श्याम डोंगरे तेरे को लॉबी में मिलेगा। वो तुझे सीधा मेरे पास ले आयेगा।
वो मुझे पहचान लेगा?
हां।
मैं पहुंचता है, बाप।
लेकिन माजरा क्या है?
आके बताता है। बताने ही आया। तभी तो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, आनन फानन इधर पहुंचा। पिलेन में सवार होकर।
तू मुझे सस्पेंस में डाल रहा है।
दस मिनट की बात है। मैं पहुंचा कि पहुंचा।
ठीक है।
मुबारक अली ने फोन को हुक पर टांगा और जाकर एक टैक्सी में सवार हो गया।
होटल सी-व्यू चल।
— वो बोला।
वो तो आजकल बन्द है!
— टैक्सी ड्राइवर बोला।
पण तेरा मुंह खुला है।
क्या?
बन्द कर ले। मक्खी घुस जायेगी।
टैक्सी ड्राइवर हकबकाया, फिर उसका मुंह यूं बन्द हुआ जैसे संदूक का ढक्कन बन्द हुआ हो।
बढ़िया। क्या बोलते हैं इसे अंग्रेजी में? अक्लमंद को इशारा। अब जब तक होटल न आ जाये, ऐसीच थोबड़ा बन्द रहे।
टैक्सी ड्राइवर ने सहमति में सिर हिलाया, उसने तत्काल टैक्सी को आगे बढ़ाया।
संजीदासूरत मुबारक अली पिछली सीट पर पसर कर बैठ गया।
टैक्सी होटल सी-व्यू पहुंची।
कभी वो होटल अन्डरवर्ल्ड डॉन महान राजबहादुर बखिया उर्फ काला पहाड़ की कम्पनी के नाम से जानी जाने वाली आर्गेनाइजेशन का हैडक्वार्टर होता था। सोहल के हाथों बखिया के मारे जाने के बाद ‘कम्पनी’ का निजाम बखिया के एक खास ओहदेदार इकबाल सिंह के हाथों में पहुंचा था। इकबाल सिंह भी सोहल और ‘कम्पनी’ में छिड़ी जंग से मचे भारी खून-खराबे के बाद मुल्क से फरार हो गया था — और बाद में परदेस में कम्पनी के ही प्यादों द्वारा मार गिराया गया था — तो ‘कम्पनी’ की गद्दी पर व्यास शंकर गजरे काबिज हो गया था। उसके निजाम में ‘कम्पनी’ और सोहल में जो आखिरी जंग छिड़ी थी, उसके दौरान उसने होटल को रेनोवेशन के बहाने बन्द करा दिया था। बाद में गजरे समेत ‘कम्पनी’ के तमाम ओहदेदार मारे गये थे, ‘कम्पनी’ का नामोनिशान मिट गया था तो होटल तब भी बन्द था। अब फर्क ये था कि उसकी सच में रेनोवेशन हो रही थी और अब वो जब भी दोबारा चालू होता सिर्फ होटल ही होता, न कि किन्हीं टॉप के मवालियों की जमात का होटल की ओट में चलता आर्गेनाइज्ड क्राइम का अड्डा।
डोंेगरे उसे लॉबी में उसी का इन्तजार करता मिला।
इकबाल सिंह और गजरे के निजाम में श्याम डोंगरे कम्पनी का सिपहसालार था और दुर्दान्त हत्यारा था लेकिन अब वो