Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

Bahurupiya Nawab
Bahurupiya Nawab
Bahurupiya Nawab
Ebook177 pages58 minutes

Bahurupiya Nawab

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook


Bahurupiya Nawab is the third book of Imran series. Though the plot is based on lust for money and property, but it has been weaved in a great manner by Ibne Safi. This story is about the female heir of a Nawab family who is trapped and repeatedly duped by her own uncle in his quest for richness.
Languageहिन्दी
PublisherHarperHindi
Release dateSep 12, 2014
ISBN9789351367383
Bahurupiya Nawab
Author

Ibne Safi

Ibne Safi was the pen name of Asrar Ahmad, a bestselling and prolific Urdu fiction writer, novelist and poet from Pakistan. He is best know for his 125-book Jasoosi Duniya series and the 120-book Imran series. He died on 26 July 1980.

Read more from Ibne Safi

Related to Bahurupiya Nawab

Related ebooks

Related articles

Reviews for Bahurupiya Nawab

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    Bahurupiya Nawab - Ibne Safi

    दो शब्द

    हिन्दी में हालाँकि शुरुआती उपन्यासकारों में किशोरीलाल गोस्वामी और गोपालराम गहमरी ने ज़रूर जासूसी उपन्यास लिखे और कसरत से लिखे, लेकिन जल्दी ही सामाजिक अथवा ऐतिहासिक उपन्यासों ने उन्हें हाशिये पर धकेल दिया। उर्दू में भी कुछ ऐसा ही देखने में आया। लगभग एक सदी होने को है जब ज़फ़र उमर बी.ए. (अलीगढ़) ने एक फ़्रांसीसी उपन्यास को ‘नीली छतरी’ के नाम से रूपान्तरित करके उर्दू में जासूसी उपन्यासों की नींव रखी थी। इस उपन्यास की लोकप्रियता को देख कर ज़फ़र उमर ने ‘बहराम की गिरफ़्तारी’ के नाम से ‘नीली छतरी’ का दूसरा हिस्सा भी लिखा। उसके बाद इस रवायत को मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुस्वा, नदीम सहबाई और तीरथराम फ़िरोज़पुरी ने आगे बढ़ाया; लेकिन उर्दू में भी इस धारा का हश्र वही हुआ जो हिन्दी के सिलसिले में देखा गया था।

    ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ और ‘भूतनाथ’ जैसे उपन्यास, जो देवकी नन्दन खत्री या दुर्गा प्रसाद खत्री ने लिखे थे, या इसी तरह के जो तिलिस्मी उपन्यास उर्दू में लिखे गये, वे एक काल्पनिक रूमानी दुनिया की सृष्टि करके उसमें खलता, यानी बदमाशी, के तानों-बानों को बुनते थे। उन्हें जासूसी उपन्यासों की कोटि में रखना सम्भव भी नहीं है। वे सामन्ती युगीन परिवेश और मानसिकता से ओत-प्रोत थे, जबकि जासूसी उपन्यास एक आधुनिक दिमाग़ की अपेक्षा रखता था। यहाँ यह कहने की ज़रूरत नहीं कि विधा के रूप में बज़ाते-ख़ुद उपन्यास पूँजीवाद की देन है। इसी तरह ‘अपराधी कौन ?’ का सवाल सामन्ती युग में उठ भी नहीं सकता था। यह तो पूँजीवाद में हुआ कि अपराध के विभिन्न कारणों की छान-बीन शुरू हुई, अपराध विज्ञान की नींव पड़ी और अपराधों को समाज से, व्यक्ति की विकृतियों से जोड़ कर देखा जाने लगा।

    हिन्दी-उर्दू में आधुनिक जासूसी उपन्यासों का सिलसिला १९५० से ले कर ६०-६५ तक बड़े धूम-धडक़्के से ज़ारी रहा। इलाहाबाद ऐसे साहित्य का गढ़ था और असरार अहमद उर्फ़ इब्ने सफ़ी इस दुनिया के बेताज बादशाह। उन्हें इस विधा में ऐसी महारत हासिल थी कि लोग हर महीने उनके उपन्यासों का इन्तज़ार करते थे। और यह क्रम उनके पाकिस्तान जाने के बाद भी जारी रहा, जहाँ उन्होंने पुरानी ‘जासूसी दुनिया’ सीरीज़ के उपन्यासों को पुनर्प्रकाशित करने के अलावा ‘इमरान सीरीज़’ के नये सिलसिले को भी शुरू किया। ‘बहुरूपिया नवाब’ इस सीरीज़ का तीसरा उपन्यास है जो हम पाठकों के सामने पेश कर रहे हैं। कहानी दौलत और जायदाद की हवस की पुरानी थीम पर बुनी गयी है, लेकिन प्लॉट बिला शक इब्ने सफ़ी के माहिर हाथों से गढ़ा गया है।

    एक पुराने नवाबी ख़ानदान की शहज़ादी दुर्दाना अपने सौतेले ताऊ की कैंसी अजीबो-ग़रीब चालों का शिकार होती है और जब वह ताऊ उसका बाप बन कर आता है तो उसके हाथों लगातार कैंसे धोखा खाती है, इसकी दास्तान ‘बहुरूपिया नवाब’ में इब्ने सफ़ी ने बयान की है।

    कहानी में पेंच इस वजह से भी पड़ता है कि दुर्दाना के ताऊ नवाब हाशिम जब अरसे बाद लौटते हैं तो उनका भतीजा साजिद उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर देता है और उन पर आरोप लगाता है कि वे झूठा भेस धर कर जायदाद पर क़ाबिज़ होना चाहते हैं। इसी पेचीदा कहानी की सिलवटें दूर-दूर करते इमरान उस दस साल पुरानी वारदात का रहस्य भी खोलता है जिससे फ़ैयाज़ माथा-पच्ची कर रहा था।

    दिलचस्प बात यह है कि इस बार इमरान बाक़ायदा सरकारी अफ़सर बना दिया गया है, उसका एक विभाग है जिसमें वह कुछ ऐसे सहायक रखता है जो प्रकट रूप से हास्यास्पद नज़र आते हैं। लेकिन इमरान सारे एतराज़ों को यह कह कर उड़ा देता है कि चूँकि वह ख़ुद अनोखे ढंग से काम करने का आदी है, इसलिए उसे सहायक भी अनोखे ही चाहिएँ। ज़ाहिर है इमरान के पिता रहमान साहब, जो ख़ुद डिपार्टमेंट ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन के चीफ़ हैं, इमरान को निठल्ला और बेवकूफ़ समझते हैं और बाप-बेटे के बीच जो नोंक-झोंक होती है, वह भी कम दिलचस्प नहीं है। मुलाहिज़ा फ़रमाइए—

    रहमान साहब को उस वक़्त बड़ी शर्मिन्दगी हुई जब उन्होंने सुना कि इमरान अपने स्टाफ़ के लिए बिलकुल नाकारा और ऊँघते हुए-से आदमी चुन रहा है। उसने अभी तक चार आदमी चुने थे और चारों बिलकुल नाकारा माने जाते थे। कोई भी उन्हें अपने साथ रखना पसन्द नहीं करता था, और उन बेचारों की ज़िन्दगी तबादलों की नज़र हो कर रह गयी थी। उनकी शख़्सियतें ज़ीरो के बराबर थीं। दुबले-पतले झींगुर जैसे, काहिल, निकम्मे और कामचोर। उन्हें बात करने का भी सलीक़ा नहीं था। इमरान जानता था कि इसका नतीजा क्या होगा। आख़िर वही हुआ जिसकी आशा थी। रहमान साहब ने उसे बुला कर अच्छी तरह ख़बर ली।

    ‘मेरा बस चले तो तुम्हें धक्के दिलवा कर यहाँ से निकलवा दूँ।’ उन्होंने कहा।

    ‘मैं जानना चाहता हूँ कि इस जुमले का सरकारी तौर पर मतलब क्या है।’ इमरान ने निहायत अदब से कहा। इस पर रहमान साहब और झल्ला गये। लेकिन फिर उन्हें फ़ौरन ख़याल आ गया कि वे इस वक़्त अपने बेटे से नहीं, बल्कि अपने एक मातहत अफ़सर से बात कर रहे हैं।

    ‘तुमने ऐसे निकम्मे आदमियों को क्यों चुना है।’ उन्होंने ख़ुद पर काबू पाते हुए कहा।

    ‘महज़ इसलिए कि मैं इस महकमे में किसी को भी निकम्मा नहीं देख सकता।’ इमरान का जवाब था। रहमान साहब दाँत पीस कर रह गये, लेकिन कुछ बोले नहीं। इमरान का जवाब ऐसा नहीं था जिस पर और कुछ कहा जा सकता। बहरहाल उन्हें ख़ामोश हो जाना पड़ा। क्योंकि इमरान ने अपने मामले सीधे गृहमन्त्री से तय किये थे।

    ज़ाहिर है यह नोंक-झोंक आगे भी जारी रहने वाली है, क्योंकि बाप-बेटा एक ही मिट्टी से बने हैं। और आगे भी आपका मनोरंजन करते रहेंगे।

    –नीलाभ

    बहुरूपिया नवाब

    मूडी एक रोमांटिक अमरीकी नौजवान था। पूरब को बीसवीं सदी के वैज्ञानिक युग में भी रहस्यमय समझता था। उसने बचपन से अब तक ख़्वाब ही देखे थे। धुँधले और रहस्यमय ख़्वाब। जिनमें आदमी का वजूद एक समय में कई हस्तियाँ रखता है।

    बहरहाल, उसका विलासी स्वभाव ही उसे पूरब में लाया था। उसका बाप अमरीका का एक मशहूर करोड़पति था। मूडी ज़ाहिरा तौर पर तो व्यवसाय की देख-भाल करने आया था, लेकिन उसका असली उद्देश्य भोग-विलास की भूख शान्त करना था।

    वह शराब के नशे में गली-कूचों में अपनी कार दौड़ाता फिरता था। ऐसे हिस्सों में कम-से-कम एक बार ज़रूर गुज़रता था जहाँ पुरानी-से-पुरानी और टूटी-फूटी इमारतें होती थीं। शाम का वक़्त उसके लिए बहुत मौज़ूँ होता था। सूरज की आख़िरीकिरणें हज़ारों साल पुरानी इमारतों की दीवारों पर पड़ कर अजीब-सा माहौल पैदा कर देती थीं। और मूडी को अपनी रूह उनकी वर्षों पुरानी दीवारों के गिर्द मँडराती हुई महसूस होती।

    आज भी वह आलमगीरी सराय के इलाक़े में अपनी कार दौड़ाता फिर रहा था। सूरज डूब चुका था। धुँधलके की चादर आहिस्ता-आहिस्ता चारों दिशाओं में फैल रही थी।

    मूडी की कार एक सुनसान और पतली-सी गली से गुज़र रही थी। रफ़्तार इतनी धीमी थी कि एक बच्चा भी दरवाज़ा खोल कर अन्दर आ सकता था।

    मूडी अपने ख़्वाबों में डूबा हुआ हौले-हौले कुछ गुनगुना रहा था। अचानक किसी ने कार का पिछला दरवाज़ा ज़ोर से बन्द किया। आवाज़ के साथ ही मूडी चौंक पड़ा, लेकिन अँधेरा होने के कारण कुछ दिखाई न दिया। दूसरे ही लम्हे मूडी ने अन्दर रोशनी कर दी और फिर उसके हाथ स्टीयिंरग पर काँप कर रह गये।

    ‘बुझा दो...ख़ुदा के लिए...बुझा दो!’ उसने एक काँपती हुई-सी आवाज़ सुनी।

    मूडी ने फ़ौरन स्विच ऑफ़ कर दिया। अन्दर फिर अँधेरा था।

    ‘मुझे बचाओ!’ पिछली सीट पर बैठी हुई लड़की ने काँपती हुई आवाज़ में कहा। लहजा पूरब का था, मगर भाषा अंग्रेज़ी थी।

    ‘अच्छा...अच्छा!’ मूडी ने बौखला कर सिर हिलाते हुए कहा और कार फ़र्राटे भरने लगी।

    काफ़ी दूर निकल आने के बाद नशे के बावजूद मूडी को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ। वह सोचने लगा कि आख़िर वह उसे किस तरह बचायेगा...किस चीज़ से बचायेगा?

    ‘मैं तुम्हें किस तरह बचाऊँगा?’ उसने भर्रायी हुई आवाज़ में पूछा।

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1