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Iben Safi: Jungle Mein Lash
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Ebook189 pages2 hours

Iben Safi: Jungle Mein Lash

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About this ebook


One after another dead bodies are found in the jungle which sends everyone in a tizzy. A question of whodunit arises on the face of everyone. Read the fast paced book to know how the serial murder mystery is solved.
Languageहिन्दी
PublisherHarperHindi
Release dateMar 1, 2015
ISBN9789351367291
Iben Safi: Jungle Mein Lash
Author

Ibne Safi

Ibne Safi was the pen name of Asrar Ahmad, a bestselling and prolific Urdu fiction writer, novelist and poet from Pakistan. He is best know for his 125-book Jasoosi Duniya series and the 120-book Imran series. He died on 26 July 1980.

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    Book preview

    Iben Safi - Ibne Safi

    दो शब्द

    हालाँकि अंग्रेज़ी और यूरोप की बहुत-सी दूसरी भाषाओं में विभिन्न प्रकार के जासूसी उपन्यासों की एक लम्बी और मज़बूत परम्परा नज़र आती है, हिन्दी और उर्दू में बहुत-सी वजहों से उपन्यास की यह क़िस्म अपनी जगह नहीं बना पायी है। आज भी अगर हम लोकप्रिय मनोरंजन-प्रधान उपन्यासों का जायज़ा लेते हैं तो अव्वल तो ‘चालू’ या, जैसा कि इन्हें आम तौर पर कहा जाता है, ‘बाज़ारू’ या ‘फ़ुटपाथिया’ उपन्यासों की संख्या चाहे जितनी अधिक हो, उनमें स्तर का नितान्त अभाव है और जहाँ तक जासूसी उपन्यासों की विधा का ताल्लुक़ है, यह क़िस्म अपवाद-स्वरूप भी दिखायी नहीं देती। और-तो-और जहाँ हमारे टेलिविज़न धारावाहिक पूरी तरह धार्मिक, ऐतिहासिक और सामाजिक विषयों पर पिले रहते हैं, सास-बहू और ननद-भाभी के महाभारत जम कर चित्रित होते हैं, प्रेम और सेक्स लगभग व्यभिचार की-सी शक्ल में नज़र आता है, वहीं ‘करमचन्द’, ‘सी आई डी’ और ‘इन्स्पेक्टर’ जैसे जासूसी सीरियल अपवाद-स्वरूप ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाते हैं और वह भी औसत से कहीं कम कामयाबी के साथ।

    कहते हैं कि जिन दिनों अंग्रेज़ी में जासूसी उपन्यासों की जानी-मानी लेखिका अगाथा क्रिस्टी का डंका बज रहा था, किसी ने उनसे पूछा कि इतनी बड़ी तादाद में अपने उपन्यासों की बिक्री और अपार लोकप्रियता को देख कर उन्हें कैसा लगता है। अगाथा क्रिस्टी ने जवाब दिया कि इस मैदान में वे अकेली नहीं हैं, दूर हिन्दुस्तान में एक और उपन्यासकार है जो हरदिल अज़ीज़ी और किताबों की बिक्री में उनसे कम नहीं है। और यह उपन्यासकार था - इब्ने सफ़ी!

    हम नहीं जानते कि यह वाक़या सच्चा है या फिर इब्ने सफ़ी के प्रेमियों ने उनके उपन्यासों और उनकी कल्पना की उड़ानों से प्रभावित हो कर गढ़ लिया है, मगर इससे इतना तो साफ़ है कि पिछली सदी के ५० और ६० के दशकों में इब्ने सफ़ी की शोहरत हिन्दुस्तान के बाहर भी फैल चुकी थी। उनके जासूसी उपन्यास उर्दू और हिन्दी में तो एक साथ प्रकाशित होते ही थे, बंगला, गुजराती और दीगर हिन्दुस्तानी ज़बानों में भी बड़े चाव से पढ़े जाते थे। और आज साठ साल बाद भी उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं आयी।

    ‘जंगल में लाश’ इब्ने सफ़ी का दूसरा उपन्यास है। अपने पहले उपन्यास में जहाँ उन्होंने दौलत की हवस के कारण मुजरिम बनने वाले नौजवान के पेचीदा मसले को उठाया था, वहीं इस दूसरे उपन्यास में उन्होंने जुर्म के एक दूसरे पहलू को उठाया, जो उस ज़माने में जब यह उपन्यास लिखा गया था, अपनी शुरुआती शक्ल में था और अब एक विश्व-व्यापी समस्या बन चुका है - यानी मादक पदार्थों का धन्धा जो अन्ततः समाज को खोखला कर देता है।

    उपन्यास की शुरुआत में जब जंगल में एक के बाद एक लाशें मिलने लगती हैं तो किसी को अन्दाज़ा नहीं होता कि मामला कहाँ अटका है। इब्ने सफ़ी ने कहानी के प्लॉट को इस ख़ूबी से गढ़ा है कि आख़िर तक पाठक के मन में धुकपुकी बनी रहती है कि असली मुजरिम कौन है और इन हत्याओं की असली वजह क्या है। राज़ के खुलने पर जब असलियत सामने आती है तो पाठकों की हैरत का अन्दाज़ा नहीं होता। अपनी किरदारनवीसी के बल पर इब्ने सफ़ी ने सरोज और उसके चाचा दिलबीर सिंह जैसे चरित्र तो इसमें पेश किये ही हैं, पाइप पीने वाले शराबी गीदड़ का प्रसंग भी ऐसी ख़ूबी से रचा है कि पाठकों का आनन्द दुगना हो जाता है।

    बाक़ी का मज़ा तो इस उपन्यास को पढ़ने पर ही मिलेगा। हमें विश्वास है कि पाठक निराश नहीं होंगे।

    —नीलाभ

    जंगल में लाश

    जंगल में फ़ायर

    गर्मियों की अँधेरी रात थी। घण्टों करवटें बदलने के बाद कोतवाली इंचार्ज इन्स्पेक्टर सुधीर की बस आँख लगी ही थी कि एक सब-इन्स्पेक्टर ने आ कर उसे जगा दिया।

    ‘‘क्या है भई, क्या आफ़त आ गयी?’’ वह झल्लाता हुआ बोला।

    ‘‘क्या बताऊँ साहब, अजीब मुसीबत में जान है। शायद कोई क़त्ल हो गया है।’’ सब-इन्स्पेक्टर ने कहा।

    ‘‘शायद क़त्ल हो गया है...? क्या मतलब...?’’

    ‘‘एक आदमी धर्मपुर के जंगलों में एक लाश देख कर ख़बर देने आया है।’’

    ‘‘इतनी रात गये धर्मपुर के जंगलों में वह आदमी क्या कर रहा था?’’ इन्स्पेक्टर सुधीर ने बिस्तर से उतरते हुए कहा।

    ‘‘मैंने उससे कोई सवाल नहीं किया। सीधा यहाँ चला आया।’’ सब-इन्स्पेक्टर ने जवाब दिया।

    दोनों तेज़ क़दमों से चलते हुए दफ़्तर जा पहुँचे। इन्स्पेक्टर सुधीर ने ख़बर लाने वाले अजनबी को घूर कर देखा। वह एक नौजवान था। उसके चेहरे पर घबराहट नज़र आ रही थी। टाई की गाँठ ढीली हो कर कॉलर के नीचे लटक आयी थी। बालों पर जमी हुई धूल से ज़ाहिर हो रहा था कि वह बहुत दूर का सफ़र करके आ रहा है। उसकी साँस अभी तक फूल रही थी।

    ‘‘क्यों भई...क्या बात है?’’ सुधीर ने तेज़ आवाज़ में पूछा।

    ‘‘मैं अभी-अभी...धर्मपुर के जंगल में एक औरत की लाश देख कर आ रहा हूँ।’’ उसने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा।

    ‘‘लेकिन आप इस वक़्त धर्मपुर के जंगल में क्या कर रहे थे?’’ सुधीर ने कहा।

    ‘‘मैं दरअसल जलालपुर से वापस आ रहा था।’’

    ‘‘जलालपुर से...? जलालपुर यहाँ से लगभग बीस मील की दूरी पर है। आप किस सवारी पर आ रहे थे?’’

    ‘‘मोटर साइकिल पर...जब मैं जोज़फ़ रोड से पीटर रोड की तरफ़ मुड़ने लगा तो मैंने सड़क के किनारे एक औरत की लाश देखी। उसका ब्लाउज़ ख़ून से तर था। उ़फ, मेरे ख़ुदा...कितना भयानक मंज़र था...मैं उसे ज़िन्दगी भर न भुला सकूँगा।’’

    ‘‘तो आप जलालपुर में रहते हैं?’’

    ‘‘जी नहीं...मैं यहीं इसी शहर में रहता हूँ। एक दोस्त से मिलने जलालपुर गया था।’’

    ‘‘तो इतनी रात गये वहाँ से वापसी की क्या ज़रूरत पड़ गयी थी?’’

    ‘‘सर, मैं यह क़त्ल ख़ुद करके आपको ख़बर देने नहीं आया।’’ अजनबी ने झुँझला कर कहा। ‘‘मैंने एक लाश देखी और एक शहरी होने की हैसियत से अपना फ़र्ज़ समझा कि पुलिस को इत्तला दे दूँ।’’

    ‘‘नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं...!’’ सुधीर ने संजीदगी से कहा। ‘‘मैं भी अपना फ़र्ज़ ही अदा कर रहा हूँ...आप का क्या नाम है?’’

    ‘‘मुझे रणधीर सिंह कहते हैं।’’

    ‘‘आप क्या काम करते हैं?’’

    ‘‘उ़फ मेरे ख़ुदा! मैंने यहाँ आ कर ग़लती की। अजनबी ने परेशान होते हुए कहा। ‘‘अरे साहब, मैं आपके साथ ही चलूँगा।’’

    ‘‘चलना तो पड़ेगा ही... ख़ैर, अच्छा, आप बहुत ज़्यादा थोड़ा परेशान मालूम होते हैं, फिर सही...दरोग़ा जी ज़रा जल्दी से तीन कॉन्स्टेबलों को तैयार कर लीजिए और इस वक़्त ड्यूटी पर जो ड्राइवर हो, उसे भी बुलवा लीजिए।

    थोड़ी देर बाद पुलिस की लॉरी पीटर रोड पर धर्मपुर की तरफ़ जा रही थी। रात बहुत अँधेरी थी। सन्नाटे में लॉरी की आवाज़ दूर तक सुनायी दे रही थी। लॉरी की हेड लाइटों की रोशनी दूर तक सड़क पर फैल रही थी। सड़क के मोड़ से लगभग दो फ़रलाँग की दूरी पर एक बड़ा-सा पेड़ सड़क पर गिरा हुआ नज़र आया।

    ‘‘अरे यह क्या...?’’ अजनबी चौंक कर बोला।

    लॉरी पेड़ के पास आकर रुक गयी।

    ‘‘मैं आपसे क़सम खा कर कहता हूँ कि अभी आध घण्टा पहले जब मैं इधर से गुज़रा तो यह पेड़ यहाँ नहीं था।’’ अजनबी ने परेशान होते हुए कहा।

    सब लोग लॉरी से उतर आये।

    ‘‘आप भी कमाल करते हैं! आपकी बात पर किसे यक़ीन आयेगा! ज़ाहिर है, आज आँधी भी नहीं आयी। यह भी साफ़ है कि पेड़ काटा गया है और आधे घण्टे में इतने मोटे तने वाले पेड़ को काट डालना आसान काम नहीं।

    ‘‘अब मैं आपसे क्या कहूँ।’’ अजनबी ने अपने सूखे होंटों पर ज़बान फेरते हुए कहा।

    ‘‘ख़ैर, यह बाद में सोचा जायेगा।’’ कोतवाली इंचार्ज तेज़ आवाज़ में बोला। ‘‘अब वह जगह यहाँ से कितनी दूर है?’’

    ‘‘ज़्यादा-से-ज़्यादा दो, ढाई फ़रलाँग...!’’ अजनबी ने जवाब दिया।

    लॉरी वहीं छोड़ कर यह पार्टी टॉर्च की रोशनी में आगे बढ़ी। सुनसान सड़क पुलिस वालों के भारी-भरकम जूतों की आवाज़ से गूँज रही थी।

    ‘‘उ़फ मेरे ख़ुदा...!’’ अजनबी ने चलते-चलते रुक कर कहा।

    ‘‘क्यों, क्या बात है?’’ कोतवाली इंचार्ज बोला।

    ‘‘कहीं मैं पागल न हो जाऊँ।’’ अजनबी ने बेचैनी में अपनी नाक रगड़ते हुए कहा।

    ‘‘ऐ मिस्टर! तुम्हारा मतलब क्या है?’’ कोतवाली इंचार्ज ने गरज कर कहा।

    ‘‘मैंने वह लाश यहीं देखी थी...मगर...मगर...!’’

    ‘‘मगर-मगर क्या कर रहे हो...यहाँ तो कुछ भी नहीं है।’’

    ‘‘यही तो हैरत है।’’

    ‘‘सरकार, यहाँ भूत-प्रेत भी ज़्यादा रहते हैं।’’ एक कॉन्स्टेबल ने मिनमिनाती हुई आवाज़ में कहा।

    ‘‘बको मत!’’ कोतवाली इंचार्ज चीख़ कर बोला। वह ग़ुस्से में तमतमा रहा था।

    ‘‘मैं तो बड़ी मुश्किल में फँस गया।’’ अजनबी ने धीमी आवाज़ में कहा।

    ‘‘अभी कहाँ...अब फँसेंगे आप मुश्किल में।’’ कोतवाली इंचार्ज ने

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