Mujhse Bura Kaun
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About this ebook
Ever since Jeet Singh returned from Goa, Mumbai has turned into a danger zone for him. To save himself from Behramji Contractor's threat to his life, Jeet Singh conceals his identity and maintains a strict distance even from his closest friends and confidantes. Without any semblance of his past, he is now known as Roshan Beg, the benevolent taxi driver who lives in a chawl.His life in disguise goes on smoothly for a few months until a passenger recognizes him and blackmails him into a vicious political conspiracy. Thus begins another fatal chase where Jeet Singh is nothing more than a helpless pawn.
Surender Mohan Pathak
Surender Mohan Pathak is considered the undisputed king of Hindi crime fiction. He has nearly 300 bestselling novels to his credit. He started his writing career with Hindi translations of Ian Flemings' James Bond novels and the works of James Hadley Chase. Some of his most popular works are Meena Murder Case, Paisath Lakh ki Dakaiti, Jauhar Jwala, Hazaar Haath, Jo Lare Deen Ke Het and Goa Galatta.
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Book preview
Mujhse Bura Kaun - Surender Mohan Pathak
बुधवार : 8 अक्टूबर
दोपहरबाद का वक्त था जबकि इन्स्पेक्टर राजेश महाले अपने एसीपी की हाजिरी भर रहा था।
नॉरकॉटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो को एक बड़ी हॉट टिप मिली है
— एसीपी शिवेश गोहिल बोला — कि पूना की ओर से नॉरकॉटिक्स की एक बड़ी खेप मुम्बई में दाखिल होने वाली है।
ओह!
— इन्स्पेक्टर बोला — टिप देने वाला कौन था?
कोई नहीं। गुमनाम टिप थी। जरूर कोई पब्लिक स्पिरिटिड आदमी था जिसके हाथ वो जानकारी लग गयी थी और जिसे उसने एक्शन के लिये आगे पहुंचाना अपना फर्ज समझा था।
या कोई घर का भेदी! अपने ही लोगों से खुन्नस निकालने का ख्वाहिशमन्द!
ये भी हो सकता है। बहरहाल टिप बहुत डिटेल्ड है और उस पर एक्शन जरूरी है।
लेंगे, सर।
टिप देने वाले ने ये तक बताया है कि शाम साढ़े छः बजे के करीब एक नीली वैगन-आर सायन पनवेल हाइवे पर से ठाणे क्रीज पर दाखिल होगी। वैगन-आर का नम्बर एमएच 19 ए आर 3138 बताया गया है और उसकी ये शिनाख्त भी बताई गयी है कि उसका अगला बम्पर अपने स्थान से उखड़ कर दायें बाजू सरका हुआ है और नीचे को झुका हुआ है।
इतना कुछ जानने वाला शख्स तो, सर, कोई घर का भेदी ही हो सकता है!
मुमकिन है।
ऐसी टिप देने वाले इनाम के तलबगार होते हैं! जानते होते हैं कि, पुलिस एनसीबी बरामद माल की कीमत का दस फीसदी बतौर इनाम आम देती है।
वो भी जानता हो सकता है लेकिन उसने ऐसा कोई जिक्र नहीं चलाया था, खाली अपनी जानकारी आगे सरकाई थी और फोन बन्द कर दिया था।
ओह!
इस वैगन-आर को इन्टरसैप्ट करने का काम हमें मिला है।
हम करेंगे, सर। अभी तो साढ़े छः बजने में चार घन्टे बाकी हैं। हमारे पास बहुत वक्त है पूरी चौकसी के साथ नाकाबन्दी का तमाम इन्तजाम कर लेने का।
राइट! लेकिन कोई मुस्तैद टीम लगानी होगी। अगर नॉरकॉटिक्स की बड़ी खेप का मामला है तो ये किसी स्माल टाइम आपरेटर का काम नहीं हो सकता। माल शर्तिया किसी टॉप के समगलर का होगा जो हो सकता — मैंने कहा, हो सकता है — समझता हो कि पुलिस वाले सब बिकाऊ हैं और उसकी जेब में हैं।
ऐसा कहीं होता है, सर!
होता है। बराबर होता है। इस हकीकत से तुम वाकिफ नहीं या मैं वाकिफ नहीं! अपने आपको भरमाने की जरूरत नहीं, इन्स्पेक्टर महाले। कबूल करते सिर शर्म से झुकता है लेकिन हकीकत यही है। बड़े समगलरों और कालाबाजारियों का मैला चाटने वालों की कोई कमी नहीं हमारे महकमे में।
पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं, सर।
मुझे मालूम है, तभी तो ये महकमा चल रहा है वर्ना कानून के रखवालों में और कानून के दुश्मनों में कोई फर्क ही बाकी न बचता।
मे बी यू आर राइट, सर।
नो मे बी। आई नो आई एम राइट।
सारी, सर।
मैं नहीं चाहता इतनी हॉट टिप को हमारे ही आदमी बंगल कर दें। गुलदस्ता थामकर समगलर को या समगलर के कैरियर को — निकल जानें दें।
ऐसा नहीं होगा, सर। मैं सब-इन्सपेक्टर गर्गे को ये काम सौंपूंगा जिस का सर्विस रिकार्ड शीशे की तरह क्लियर है। जिसकी निष्ठा और ईमानदारी पर, सर, आप भी जानते हैं, कभी कोई उंगली नहीं उठी।
गर्गे! सब-इन्स्पेक्टर!
सर, एएसएचओ राउत छुट्टी पर है वर्ना मेरी चायस वो होता।
ठीक है। मुझे सब-इन्स्पेक्टर गर्गे इस आपरेशन के लिये मंजूर है लेकिन उसके साथ जो टीम हो, वो भी उसी जैसी चौकस और मुस्तैद होनी चाहिये।
ऐसा ही होगा, सर।
मैं देर रात तक आफिस में रहूंगा और तुम्हारी टीम की कामयाबी की खबर सुनकर ही घर जाऊंगा।
मैं खुद आप तक गुड न्यूज पहुंचाऊंगा, सर।
गुड। गैट अलांग।
जीतसिंह अपनी टैक्सी के साथ अलैग्जेन्ड्रा सिनेमा के स्टैण्ड पर मौजूद था।
वो सिंगल स्क्रीन सिनेमा कब का बन्द हो चुका था लेकिन वो स्टैन्ड अभी भी अलैग्जेन्ड्रा सिनेमा का टैक्सी स्टैण्ड कहलाता था।
मुम्बई के लोकल टैक्सी वालों के दस्तूर की तरह वो टैक्सी से बाहर उसके हुड से टेक लगाये खड़ा था और पैसेंजर की आमद का इन्तजार कर रहा था।
गोवा से लौटे उसे चार महीने हो चुके थे इसलिये अब उसके चेहरे पर घनी दाढ़ी मूंछ थी जिसे तब से वो पांच छ: बार हज्जाम से तरशवा चुका था। सिर के बालों की उसने वैसी खिदमत कम करवाई थी इसलिये अब वो पहले से बड़े थे और अक्सर उसके माथे पर घनी, भारी भवों तक बिखरे रहते थे। नये कारोबार में उसकी गोरी रंगत कदरन झुलस गयी थी और जिस्म थोड़ा भर गया था जिसकी वजह से अब वो तीस का नहीं लगता था, जो कि उसकी उम्र थी, पैंतीस के ऊपर का लगता था।
जो कि उसके हालिया हालात में उसके लिये अच्छा ही था।
वो हिमाचली नौजवान था जोकि रोजगार की तलाश में छ: साल पहले धर्मशाला से मुम्बई आया था। सूरत में मौजूदा इजाफा घनी दाढ़ी मूंछ को खातिर में न लाया जाता तो उसकी शक्ल सूरत मामूली थी, होंठ पतले थे, नाक बिना जरा भी खम के एकदम सीधी थी और कद दरम्याना था। अभी कल तक वो कहने को ताले-चाबी का मिस्त्री था लेकिन नौजवानी की एकतरफा आशिकी के हवाले, उसके बहुत ही अप्रत्याशित, लेकिन उसको मंजूर, क्लाइमैक्स के हवाले कई डकैतियों में शरीक हो चुका था और कई बार खून से हाथ रंग चुका था।
हाल में एक लोकल मवाली इकबाल रजा का गोवा में खून उसके हाथों हुआ था और अपनी सलामती के लिये उसके पोंडा के एक जोड़ीदार रौशन बेग के खून की वो वजह बना था।
अब ‘जीतसिंह’ पणजी में मर चुका था — उसे मिरामर बीच के बड़ा बाप बहरामजी कान्ट्रैक्टर के कॉटेज में उसके खास आदमी खालिद ने शूट कर दिया था — और अब उसकी जगह ‘रौशन बेग’ जिन्दा था।
रौशन बेग यानी कि वो, घनी दाढ़ी मूंछ के नीचे जीतसिंह।
अब वो जीतसिंह ताला-चाबी मास्टर नहीं, एक वाल्ट बस्टर नहीं, रौशन बेग टैक्सी ड्राइवर था।
अगर उसने मुम्बई में रहना था, अपने नये बने दुश्मनों से, नेता जी बहरामजी कान्ट्रैक्टर के कहर से, बच के रहना था तो इसी में उसकी गति थी।
वो टैक्सी स्टैण्ड उसने इसलिये चुना था क्योंकि वो उसके जिगरी, दुख सुख के साथी, दोस्त गाइलो का एक अरसे से पक्का अड्डा था। गाइलो की ही वजह से अब वो रहता भी जम्बूवाडी की उस चाल की एक खोली में था जोकि बरसों से गाइलो का ही नहीं, उसके और टैक्सी ड्राइवर दोस्तों का भी — डिकोस्टा, शम्सी, अबदी — मुकाम था। उसका, सब का, एक और दोस्त पक्या भी वहीं रहता था लेकिन वो बाकी जनों की तरह टैक्सी ड्राइवर नहीं, गोदी कर्मचारी था, डॉक पर माल की ढुलाई का काम करता था।
अपने रौशन बेग वाले रोल में न अब वो चिंचपोकली के अपने छः साल के आवास को इस्तेमाल कर सकता था और न अपने क्राफोर्ड मार्केट के ताला-चाबी के ठीये के पास फटक सकता था। वो ठिकाने तो जीतसिंह के थे, वहां रौशन बेग का क्या काम! विट्ठलवाडी के अपने किराये के फ्लैट को उसने इसलिये छोड़ देने का फैसला किया था क्योंकि अपने मौजूदा हालात में वो उसका बाईस हजार रुपये माहाना किराया भरता नहीं रह सकता था।
तभी हाथ में एक काफी बड़ा सूटकेस थामे एक व्यक्ति टैक्सी के करीब पहुंचा।
जीतसिंह तत्काल सचेत हुआ, सीधा हुआ।
उसने देखा वो बड़ा ठस्सेदार, सूटबूट वाला साहब था, जो कि तब भी आंखों पर बड़े बड़े शीशों वाले, काले गागल्स चढ़ाये था जबकि सूरज डूबे एक घन्टे से ऊपर हो चुका था। उसके सिर पर काला हैट था और जिस्म पर लिनन का काला सूट था। चेहरे पर बड़ी नजाकत से कटी फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ थीं और होंठों में एक बुझा हुआ सिगार दबा हुआ था।
डिकी खोल, भई!
— वो तनिक उतावले स्वर में बोला।
क्या!
— जीतसिंह हड़बड़ाया — अभी। अभी।
वो लपक कर टैक्सी के पीछे पहुंचा और उसने डिकी का ढक्कन उठाया।
हैट वाले ने खड़ा कर के सूटकेस भीतर रखा।
जीतसिंह ने सूटकेस पर फिर से निगाह डाली।
बन्द कर, भई।
बड़ा सूटकेस है।
— जीतसिंह बोला।
तो?
बोले तो बड़े से भी बड़ा।
अरे, तो?
एक्स्ट्रा चार्ज होगा।
कितना?
तीस।
ठीक है।
जीतसिंह ने डिकी का ढक्कन गिराया, टैक्सी के परले पहलू में जाकर मीटर डाउन किया और आकर स्टियरिंग के पीछे बैठा।
तब तक पैसेंजर पीछे सवार हो चुका था।
जीतसिंह ने इंजन स्टार्ट किया और टैक्सी को पार्किंग से निकाला।
किधर जाने को, बाप?
— उसने पूछा।
बोलता है। इधर से निकल।
जीतसिंह ने टैक्सी को स्टैण्ड की पार्किंग से निकाला और उसे सड़क पर डाला।
परेल तक चल।
— पैसेंजर बोला — आगे बोलेगा।
बरोबर, बाप।
उसने पैसेंजर के हुक्म के मुताबिक रास्ता पकड़ा।
उसने एक बार रियरव्यू मिरर पर निगाह डाली तो पाया कि अब पैसेंजर के हाथ में मोबाइल था जोकि उसके कान से लगा हुआ था।
टैक्सी में हूं।
— पैसेंजर इतने दबे स्वर में बोला कि जीतसिंह बड़ी मुश्किल से उसकी आवाज सुन पाया। बस, वही तीन लफ्ज पैसेंजर ने बोले और मोबाइल जेब में रख लिया। फिर वो सीट पर पसर गया और जीतसिंह को लगा कि उसने अपनी आंखें बन्द कर ली थीं। बुझा हुआ सिगार तब भी उसके मुंह में था और तब भी था जब वो मोबाइल पर बोल रहा था।
भीड़ू सिगार पीता नहीं था — उसने मन ही मन सोचा — खाता था।
नाम क्या है तुम्हारा?
— एकाएक पैसेंजर बोला।
बोले तो!
— जीतसिंह हड़बड़ाया।
अरे, भई, नाम पूछा तुम्हारा। लम्बा सफर है ...
ओह! लम्बा सफर है।
... आगे भी वास्ता पड़ सकता है इसलिये पूछा। वाकिफ टैक्सी ड्राइवर से वास्ता अच्छा होता है। नहीं?
हां। हां, बाप। रौशन ... रौशन बेग नाम है, बाप।
मुसलमान हो?
अंग्रेज तो नहीं है, बाप!
हा हा। मेरा नाम आकाश चावरिया है। राजस्थान से हूं। तुम किधर से है?
मैं तो बाप इधरीच से है।
यानी पक्का मुम्बईकर है?
बोले तो हां।
दाढ़ी हमेशा से?
हमेशा से तो नहीं, बाप! अभी रख लिया बस ऐसीच। थोड़ा टेम के वास्ते। फिर नक्की करेगा।
है तो असली!
क्या बोला, बाप।
फिल्मी नगरी है। साला सब पर फिल्मों का असर है। ‘सलमान खान दाढ़ी में तो मेरे को भी दाढ़ी मांगता है’ वाला असर। उगने बढ़ने का वेट नहीं कर सकता फिल्मों का मारा मुम्बईया नौजवान। पण तुम कर सकता है। तुम किया गुड!
बाप, क्या बोलता है, मेरे तो सिर पर से गुजर गया। अभी क्या बोला तुम?
कुछ नहीं। सड़क की तरफ ध्यान दे। अभी बाइक वाले को साइड मारने लगा था।
खामोशी छा गयी।
जीतसिंह फिर अपने खयालों में खो गया।
बहरामजी कान्ट्रैक्टर ने इकबाल रजा के लिये दस लाख रुपये का इनाम मुकर्रर किया था अगरचे कि वो जीतसिंह को खल्लास करने में कामयाब होकर दिखाता। उसने जीतसिंह की वो सजा इसलिये मुकर्रर की थी क्योंकि वो जान चुका था कि उसके खण्डाला वाले बंगले की वाल्ट जैसी मजबूत सेफ को उसने खोला था। गोवा में हालात ऐसे बने थे कि इकबाल रजा के हाथों मरने की जगह उसने इकबाल रजा को मार डाला था, खुद उसका लोकल जोड़ीदार रौशन बेग बन गया था और रौशन बेग को बतौर जीतसिंह मरने के लिये नेताजी के हवाले कर दिया था। तब नेता जी ने उसे — ‘रौशन बेग’ को — दस लाख रुपये के इनाम से नवाजा था।
वो इनाम जीतसिंह को न भी मिलता तो कोई बड़ी बात नहीं थी क्योंकि उसका उसे मिलना या न मिलना नेताजी के — बहरामजी कान्ट्रैक्टर के — मिजाज पर निर्भर करता था और गनीमत थी कि उसका तब का मिजाज जीतसिंह को माफिक आया था वर्ना बतौर रौशन बेग अपना क्रेडिट बनाने के लिये वो उनहत्तर लाख रुपया तो वो कुर्बान कर ही चुका था जोकि जौहरी बाजार की प्रीमियर वाल्ट कम्पनी के एक लॉकर में उसने महफूज रखा था। मुम्बई में वापिस कदम रखते ही जीतसिंह को मालूम पड़ गया था कि वो रकम वहां से बरामद की जा चुकी थी और लॉकर को सरन्डर कर दिया गया था। ऐसा न हुआ होता, रकम वहां से चौबस बरामद न की जा चुकी होती, तो चार महीने का वक्फा गुजर चुका था, तब तक नेता जी के आदमियों ने उसे पाताल से भी खोज निकाला होता — आखिर पोंडा में उसकी मौजूदगी की जानकारी भी तो इकबाल रजा ने निकाल ही ली थी — और जहन्नमुमरसीद कर भी दिया