Rajesh Khanna: Ek Tanha Sitara
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About this ebook
A gripping biography of India' first superstar Like a shooting star doomed to darkness after a glorious run, Rajesh Khanna spent the better half of his career in the shadow of his own stardom. Yet, forty years after his last monstrous hit, Khanna continues to be the yardstick by which every Bollywood star is measured. With seventeen blockbusters in succession and mass adulation rarely seen before or since, the world was at Khanna's feet. The hysteria he generated - women writing letters in blood, marrying his photograph, donning white when he married Dimple Kapadia - was unparalleled. Then, in matter of months, it all changed. Khanna's career hit a downward spiral just three years after Aradhana (1969) and never really recovered. Rajesh Khanna: Ek Tanha Sitara looks at the phenomenon of an actor who redefined the 'film star'. Gautam Chintamani's engaging narrative tries to make sense of what it was that made Rajesh Khanna, and what accounted for his extraordinary fall.
Gautam Chintamani
Gautam Chintamani is the author of Dark Star: The Loneliness of Being Rajesh Khanna (2014) and Qayamat Se Qayamat Tak: The Film That Revived Hindi Cinema (2016). His writing has featured in national publications, including a compilation on Dadasaheb Phalke Awardees published by the Ministry of Information and Broadcasting, Legends of Indian Silver Screen. He was on the National Film Awards jury for Best Writing on Cinema in 2016. Gautam is the great-grandson of literarian Sir C.Y. Chintamani and the grandchild of Telugu poet laureate Aurdra and noted feminist writer K. Ramalakshmi. He and his wife, Amrita, along with their dog, Buddy, live in Gurgaon and in the hills of Himachal.
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Rajesh Khanna - Gautam Chintamani
लेखकीय टिप्पणी
कहीं सुना था कि लेखक समझते हैं कि वे अपनी किताबें ख़ुद चुनते हैं, जबकि सच तो यह है कि किताब लेखक को चुनती है। मैं अमिताभ बच्चन का सिनेमा देखकर बड़ा हुआ हूँ, इसलिए राजेश खन्ना सदैव मेरे माता-पिता की पीढ़ी से रहे। राजेश खन्ना के विषय में अपने बड़ों से सुनी कहानियाँ सपनों-सी लगती थीं। फिर भी, किसी अजीब कारण से, वह व्यक्ति याददाश्त से लोप हो चुका था। यहाँ तक कि मैं अमिताभ बच्चन से शुरू करके देव आनन्द, दिलीप कुमार, राज कपूर, गुरु दत्त और विजय आनन्द तक पहुँच गया, आमिर ख़ान, मंसूर ख़ान, शाहरुख ख़ान, सूरज बड़जातिया और आदित्य चोपड़ा तक जाती राह में, इत्तेफ़ाकन जाने भी दो यारों जैसी फ़िल्म से भी टकराते हुए। एक अर्थ में राजेश खन्ना मेरे लिए उन भूले-बिसरे वर्षों से थे जिन्हें मैंने किशोर कुमार-आर.डी. बर्मन के ज़रिए पाया।
यह किताब ऐसी नहीं जो वर्षों से मेरे ज़ेहन में थी। बल्कि यह एक ‘आइकॉन’ (मूर्ति) की कहानी को फिर से कहने पर हुई जज़्बाती प्रतिक्रिया का नतीजा है, जो कभी न भूलने लायक होते हुए भी, कई मौकों पर बहुत जल्दी में भुला दिया गया। इस पुस्तक को राजेश खन्ना की मृत्यु के बाद शुरू करना इस विसंगति को रेखांकित करता है कि वह अपनी मृत्यु के बाद अधिक प्रासंगिक हो गये। इससे पुस्तक के लिए जानकारी का सब से बड़ा स्रोत भी छिन गया, यानि अगर वह कुछ कहते तो। परन्तु साहिर लुधियानवी, देव आनन्द या गुरु दत्त जैसे कलाकारों से विपरीत अभिनेता राजेश खन्ना को खोज लेना फिर भी सम्भव है, बिना व्यक्ति राजेश खन्ना की खोज किये। यह मुश्किल काम महज़ इसलिए मुमकिन नहीं कि हम ने ही राजेश खन्ना को बनाया था। नहीं। यह इसलिए सम्भव है कि राजेश खन्ना, सितारे ने इस विशाल मूर्ति के पीछे के आदमी जतिन खन्ना को बदल दिया था। इसके अलावा जिस तेज़ी से राजेश खन्ना को ‘स्टारडम’ मिला और जिस तेज़ी से वह बिखर भी गया, उसने यह निश्चित कर दिया कि जतिन खन्ना का थोड़ा-सा ही हिस्सा बिना टूटे बचा था।
इस पुस्तक को लिखते और इसके लिए शोध करते समय, मुझे राजेश खन्ना पर नज़रियों के दोनों सिरों पर बराबर संख्या में ही लोग मिले। मैंने कई बार डिम्पल कपाडिया से बात करने की कोशिश की, और हालाँकि उन्होंने मेरे टेलीफ़ोन ले लिए, फिर भी उन्होंने कुछ न कहने का फैसला किया। राजेश खन्ना की उदारता, उनकी अनुदारता, उनके आत्ममोह, उनकी असुरक्षा की भावना और उनके अनोखेपन की कहानियों से कई पन्ने भरे जा सकते हैं, लेकिन यह पुस्तक किसी भी प्रकार की खुल्लम-खुल्ला अश्लीलता से परे है। ज़्यादातर लोगों ने खुलेआम कुछ भी कहने से मना कर दिया, और हरेक किस्से के लिए दो दलीलें थीं। परन्तु अधिक महत्वपूर्ण यह है कि यह पुस्तक राजेश खन्ना के सिनेमा का अध्ययन है, उनके समय का और उन्हें बीतते वर्षों के साथ कैसे देखा-समझा गया, उसका भी। इसीलिए कई बार मैंने कुछ ऐसी फ़िल्मों के बारे में लिखा है जिन में उन्होंने काम किया था, लेकिन यह वो फ़िल्में नहीं जिनके लिए लोग राजेश खन्ना को याद करते हैं। क्योंकि इन किरदारों में हम उन्हें अपनी किस्मत के खिलाफ़ ख़ुद को बदलने की कोशिश करते देखते हैं, जो उनके सब से बड़े प्रतिद्वन्द्वी अमिताभ बच्चन ने इतने जोश से कर लिया और जो राजेश खन्ना की पकड़ से दूर रहा। अन्त में, यह किताब राजेश खन्ना की फ़िल्मों के ज़रिए से यह समझने का प्रयास है कि किस चीज़ ने उन्हें वो बनाया जो वह थे और क्योंकर सर्वाधिक चमकने के बाद भी उनकी तक़दीर में एक बुझा हुआ सितारा बने रहना ही लिखा था, जिसे अपनी ख़ुद की और अपने आसपास वालों की चमक से ग्रहण लग गया।
प्रस्तावना
बहुत अरसे से राजेश खन्ना सुपरस्टार नहीं रहे थे। उनके समकालीनों में से केवल अमिताभ बच्चन ही सुर्खियाँ बटोर रहे थे, और वो भी हमेशा सिनेमाई कारणों से नहीं। अभिनेताओं की एक नयी पीढ़ी पूरी ताक़त से रोशनी में आ रही थी।
राजेश खन्ना ने उन आर्क लाइट्स से परे हो जाने के विषय में सोचा होगा, जिन्होंने उन्हें हिन्दी सिनेमा के सितारों में से सब से ज़्यादा चमक दी, लेकिन वह अभी भी एक भूमिका निभा रहे थे, हालाँकि वह उन संकेतों पर आधारित नहीं थी जिन पर उन्हें अभिनय करना था, लेकिन उसमें उनकी सब से बड़ी भूमिका बन जाने की सम्भावना थी। कोई कैमरा नहीं था जिनके सामने वह काम कर रहे थे और किसी निर्देशक के इशारों के न होने ने उसे उनके लिए और भी असली बना दिया। खन्ना को यकीन था कि उनका पूरा जीवन इस नयी भूमिका तक पहुँचाने का ज़रिया था और यह कि एक सांसद के रूप में वह अब सच में एक हीरो बन पायेंगे।
उनके चुनाव-क्षेत्र नयी दिल्ली में एक आम दिन था, और राजेश खन्ना अपनी सरकारी गाड़ी में जा रहे थे। एक चौराहे पर गाड़ी रुकी और राजेश खन्ना ट्रैफि़क की बत्तियाँ बदलने के इन्तज़ार में सामने देख रहे थे, बिना किसी ख़ास चीज़ को देखे। उनकी कार के आगे खड़ी एक कार में उन्होंने एक छोटी-सी लड़की और उसके गिलहरी जैसे भाई को देखा। लड़की सात वर्ष से बड़ी नहीं होगी; जो आँखें उसे देख रही थीं, उनको पहचानने के लिए बहुत छोटी। खन्ना एकटक देखते रहे। वह जानते थे कि वो कतई नहीं जानती होगी कि वह सुपरस्टार रह चुके थे। फिर भी आदतन उन्होंने अपनी मुस्कान बिखेरी। सिर का हल्का-सा एक ओर झुकना और आँखों की चमक अपने आप चले आये, पलभर के लिए सुपरस्टार राजेश खन्ना को दिखाते हुए। वह उम्मीद छोड़ ही चुके थे जब छोटी लड़की ने उन्हें पहचान लिया और अपनी माँ को पीछे मुड़कर ‘आइकॉन’ को देखने के लिए कोंचा। खन्ना ने प्रतीक्षा की। लड़की अपनी माँ से मुड़ने के लिए हठ करती रही, लेकिन वह औरत अपने पति के साथ बहस करने में इतनी मग्न थी कि किसी और बात पर ध्यान नहीं दिया। लड़की वापस पलटी और खन्ना ने अपनी आँखें उसी अन्दाज़ से झपकाईं जो लाखों दिलों को मोम कर देता था। उस छोटी लड़की ने, जो बाद में चलकर ख़ुद भी एक जानी-मानी अभिनेत्री बनी, उन्हें मुँह चिढ़ाया और दूसरी ओर देखने लगी। बत्ती हरी हो गयी और जीवन फिर चलने को तैयार हो गया। अन्य कोई भी अपमानित महसूस करता, लेकिन राजेश खन्ना ने इतना तिरस्कार देखा था कि उन्होंने सिर्फ़ मुँह फेर लिया।
अनुवादक की कलम से
‘डार्क स्टार’। गौतम चिन्तामणि की इस किताब का अनुवाद करने के पीछे मेरा एक, और केवल एक ही कारण है—हिन्दी सिनेमा के प्रति मेरा लगाव। जी हाँ, यह मानने में मुझे कभी कोई झिझक महसूस नहीं होती। हिन्दी फ़िल्में हमेशा एक सशक्त माध्यम रही हैं, जन-मानस पर गहरा असर छोड़ने वाली। यूँ तो फ़िल्मों की इस दुनिया से जुड़े प्रतिभाशाली अभिनेता-अभिनेत्री, निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, गीतकार, गायक-गायिका, कैमरामैन, संपादक, सब अपने-अपने हिस्से की प्रशंसा पाते रहे हैं, परन्तु परदे पर दिखने वाले चेहरे सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय हो जाते हैं। क्यों, यह समझना कोई पहेली हल करना नहीं है। जिन चेहरों को परदे पर देखते ही जीवन से जूझते थके-हारे लोगों के मुख पर मुस्कान आ जाती है, परेशान दिल कुछ पल के लिए खिल उठता है, उन्हीं चेहरों में से एक चेहरा है राजेश खन्ना का।
राजेश खन्ना की जो पहली फ़िल्म मैंने देखी थी, वो थी इत्तेफ़ाक और इस फ़िल्म में उनकी ‘स्क्रीन प्रेज़ेन्स’ और उनके अभिनय की कुछ ऐसी छाप पड़ी मन पर कि उसके बाद आने वाली उनकी अनेकों फ़िल्में देखीं। उनको तेज़ी से ऊपर चढ़ते भी देखा और उतनी ही तेज़ी से नीचे आते भी, और कई बार इसके बारे में सोचा भी। बदलते समय के साथ हिन्दी सिनेमा की सूरत भी बदली और उसका मिज़ाज भी, और इस बदलते दौर में राजेश खन्ना फ़िल्मी जगत में न अपनी जगह पर बने रह सके, न लोगों की याद में। वर्ष 2012 में उनकी मृत्यु के बाद वह एक बार फिर अचानक न सिर्फ़ सब टीवी चैनलों पर जीवित हो उठे, बल्कि लोगों के दिलों में भी। उन्हीं दिनों एक टीवी चैनल पर नमक हराम देखकर एक बार फिर पूरी शिद्दत से एहसास हुआ कि वह कितने बढ़िया अदाकार थे, और किस तरह महीन से महीन भावना भी हल्की आवाज़ में, अत्यन्त ‘लो-की’ अभिनय से व्यक्त करके दर्शक के दिल को छू सकते थे। रूमानी भूमिकाओं में उनकी ख़ास अदाएँ आज भी लोगों को दीवाना बना सकती हैं। इस बात को आज़माने के लिए फ़िल्म मेरे जीवन साथी में उन पर फ़िल्माए गये गीत ‘ओ मेरे दिल के चैन ...’ में उनका अभिनय देख लेना काफ़ी है। उनके करिअर का चढ़ाव-उतार देखने वाली पीढ़ी अच्छी तरह जानती है कि उनके जैसे करिश्मे रोज़ नहीं होते।
अपनी मृत्यु से कुछ ही पहले, बीमारी से जूझते हुए भी उन्होंने हेवल्स फ़ैन्स का एक विज्ञापन किया। यह विज्ञापन उनके करिअर और जीवन की क्षणिक झलक है, इसमें शक नहीं। फिर भी कई बार सोचती हूँ यह विज्ञापन उन्होंने क्यों किया। न किया होता तो शायद बेहतर होता। उनकी यह छवि तो याद नहीं रखना चाहते होंगे उनके बेशुमार चाहने वाले। मुझे पूरा विश्वास है कि उनके चाहने वालों के दिलों में अभी भी उनकी आख़िरी ख़त, इत्तेफ़ाक, बहारों के सपने, नमक-हराम और सफ़र के संवेदनशील युवक की छवि बसती होगी या आराधना, अमर प्रेम, और आन मिलो सजना के रोमांटिक हीरो की या शायद आनन्द और बावर्ची के सीधे-सादे किरदारों की जो अपनी सरलता से हमें जीना सिखा जाते हैं।
‘डार्क स्टार’ इसलिए भी विशेष क्योंकि इसे बेहद संयम और सन्तुलन से लिखा गया है। कभी, कहीं, किसी स्तर पर भी गौतम चिन्तामणि ने इसे सनसनीखेज़ नहीं बनने दिया। एक विश्वसनीय जीवनी—यह किताब मन में उठते कई सवालों के जवाब भी दे देती है। अगर अपने करिअर के आरम्भ में राजेश खन्ना सही वक्त पर सही जगह थे, तो शायद यह कहना गलत नहीं होगा कि बीतते दिनों के साथ वक्त ही उनके लिए गलत हो गया था और वह अपने को उसके अनुरूप ढाल नहीं पाये। कुल मिलाकर मन में एक टीस-सी उठती है उस कलाकार के लिए जो एक आख़िरी बार ख़ुद को साबित करना चाहता था, न सिर्फ़ दुनिया के आगे, बल्कि शायद ख़ुद अपने आगे भी—दोबारा अपने प्रशंसकों का प्यार हासिल करके—मगर तक़दीर ने उसे न ऐसा मौका दिया, न इतनी मोहलत।
उनके साथ जो भी हुआ—बहुत अच्छा भी, और बहुत बुरा भी—वो क्यों हुआ, इसका कोई निश्चित जवाब दे पाना शायद मुश्किल भी है और जोखिम भरा भी, उनके व्यक्तित्व के विरोधाभासों के कारण। उनके जीवन और करिअर के उतार-चढ़ाव को शायद उनकी फ़िल्म आनन्द के एक गीत की पंक्तियाँ दोहराकर बयान किया जा सकता है,
‘ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय
कभी यह हँसाए, कभी यह रुलाए
कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे पीछे सपनों के भागे
इक दिन सपनों का राही
चला जाये सपनों से आगे कहाँ ...’
—पैमिला मानसी
नयी दिल्ली
15.08.2015
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बचपन, कॉलेज और संघर्ष
प्रेम कहानी में एक लड़का होता है
सार्त्र ने एक बार कहा था कि अगर किसी आम घटना को भी अनोखे अनुभव का रूप देना हो तो सिर्फ़ उसके बारे में चर्चा शुरू कर देने की ज़रूरत है। इंसान को जितनी कामयाबी मिलती है, उतनी ही उसकी बीती हुई घटनाओं को याद करने और उनके बारे में बात करने की आदत भी बढ़ जाती है। बीते कल के सितारों के लिए तो यह पसन्दीदा मनबहलाव है, क्योंकि यह उन्हें अतीत की कल्पना उस तरह करने का मौका देता है जैसा वे चाहते कि वो रहा हो। हिन्दी सिनेमा के आज तक के सब से बड़े सितारे (बहस का विषय) राजेश खन्ना के लिए बचपन, और उनके इतना बड़ा ‘फ़िनॉमिनन’ बन जाने से पहले के जीवन की यादें एक तरह से बातों को बार-बार दोहराकर रस लेना ही था, जिस में सच का अंश कम ही होता था।
जतिन खन्ना का जन्म 1942 में, रेलवे ठेकेदारों के एक परिवार में हुआ, जो उसके जन्म से कुछ वर्ष पहले ही लाहौर से बॉम्बे आ गये थे। 1935 में, कुछ समय के लिए अमृतसर में ठहरने के बाद, जहाँ जतिन का जन्म हुआ, खन्ना परिवार आज के सेंट्रल मुम्बई मे आ गया और गिरगाँव में ठाकुरद्वार में सरस्वती भवन में घर बसा लिया। खन्ना परिवार एक घनिष्ठ ईकाई था और परिवार के मुखिया अकरूमल खन्ना के लिए एक और पोते का जन्म ही, खानदानी कारोबार में मिल रही अपार सफलता से भी बड़ी ख़ुशी ला सकता था। अकरूमल के तीन बेटे—मुन्नी लाल, चुन्नी लाल और नन्द लाल—परिवार के कारोबार को सँभालते थे, और नौ नातियों-पोतों के साथ, सरस्वती निवास में एक लम्हा भी नीरस नहीं गुज़रता था।
जहाँ मुन्नी लाल की तीन बेटियाँ थीं, वहाँ नन्द लाल की चार बेटियाँ थीं—चंचल, विजय, कमलेश और मंजु—दो बेटों के अतिरिक्त, जतिन और नरेन्द्र। जतिन नन्द लाल का दूसरा पुत्र था, और कहा जाता है कि जहाँ तक अच्छी सूरत का सम्बन्ध था, उसने अपनी माँ चन्द्राणी के ‘जीन’ पाये थे। जब वह बच्चा था, तब भी वह सब का दुलारा था, और इसमें हैरानी की बात नहीं कि जो भी उसे देखता, उसे उसके दुलार के नाम ‘काका’ से ही पुकारता। सब से छोटा होने के नाते, काका को इस संयुक्त परिवार में बेहद लाड़-प्यार किया जाता। वह अपनी चाची लीलावती और चाचा चुन्नी लाल की आँखों का तारा था, जिन्होंने बेऔलाद होने के कारण उसे बहुत छोटी आयु में ही गोद ले लिया—जो उस वक्त उत्तर भारत में आम चलन था। कहा जाता है कि काका की असली माँ ने काका के जन्म से पहले ही उसे अपनी देवरानी को देने का वचन दे रखा था। अन्य परिवारों के विपरीत, जहाँ ऐसी स्थिति में शारीरिक दूरी एक हद तय कर देती, खन्ना परिवार एक साथ ही रहता रहा। काका माताओं, पिताओं और अपने ही भाई-बहनों (जो कज़िंस भी थे) के बीच बड़ा हुआ। जो भी था, उसने विरले ही कभी उन में से किसी के साथ अपने रिश्तों की बात की। वह ज़्यादातर अपनी ही दुनिया में रहता था, और उसके आसपास रहने वाले एक सीमा से आगे उसके साथ हो पाना मुश्किल पाते। काका को अपने साथ रहना ज़्यादा भाता था।
वर्षों बाद, एक साक्षात्कार में काका ने अपने बचपन के परिवार-में-गोद-लिए-जाने वाले पहलू को छिपाते हुए कहा कि उनका जन्म उनके माता-पिता की शादी के काफ़ी देर बाद हुआ। खन्ना प्राय: प्रेस के साथ अपने छुटपन की बात करते समय अलग-अलग बयान दिया करते थे, और एक बार यह भी उल्लेख किया कि उनका नामकरण कराची के नज़दीक उनके कुल-देवता के मन्दिर में हुआ था, हालाँकि उनका जन्म अमृतसर में हुआ था और परिवार 1935 में लाहौर से आया था।
अपने दत्तक माता-पिता के साथ आयु में बहुत बड़े अन्तर ने रिश्तों को जतिन के पक्ष में झुका दिया था और लीलावती और चुन्नीलाल दोनों उसे ज़रूरत से ज़्यादा लाड़-दुलार करते थे। उसकी माँ सुबह किसी को उसके कमरे के आसपास भी नहीं जाने देती जब तक वह स्वयं नहीं उठ जाता, और अपने छोटे से राजकुमार के लिए विशेष रूप से सिलवाए कपड़ों पर किये गये गहन और महीन ज़रदोज़ी के काम को जाँचने में घण्टों लगा देतीं। एक बार काका ने साइकिल की फ़रमाइश कर दी और तब तक रोना-चिल्लाना बन्द नहीं किया, जब तक उसके माता-पिता ने अपनी समझ के विपरीत हथियार नहीं डाल दिये। कुछ महीने बाद जब वह अपना वादा तोड़कर साइकिल चलाता हुआ प्रांगण से बाहर चला गया तो लीलावती किसी अनर्थ के डर से बहुत रोई; लेकिन जब वह लौटा और चुन्नीलाल ने बेटे को डांटा तो उसके बचाव में उतर आयी।
उसके माता-पिता के लाड़-प्यार से कोई भी बच्चा बिगड़ जाता और काका कोई अपवाद नहीं था; बहुत कम आयु से ही काका मानने लगा कि वह शेष लोगों से बेहतर था। आने वाले वर्षों में खन्ना प्राय: अपनी बिगाड़ने वाली परवरिश के बारे में यह कहकर मज़ाक करते, मेरी परवरिश गलत हुई है।
वह अपने दोस्तों को बताया करते कि अगर वह पाँच रुपए माँगते तो उन्हें दस मिलते, और जहाँ तक स्कूल जाने का प्रश्न था, तो किसी और से ज़्यादा वह ख़ुद तय करते थे कि उन्हें क्लास में जाना है या नहीं। समय या पैसे का मूल्य कभी भी समझ न पाने के लिए वह अपनी आरामदेह परवरिश को ज़िम्मेदार ठहराते।
ज़्यादातर बच्चों की तरह कुछ समय के लिए काका ने भी पायलट (विमान-चालक) बनने के सपने देखे, और हालाँकि यह तकरीबन तय ही था कि अन्तत: काका अपने पिता के कारोबार को ही अपनायेगा, रंगमंच के आकर्षण ने उसका ध्यान खींच लिया। पास-पड़ोस के बच्चे प्राय: मंच तैयार करके नाटक खेलते, और जब वह दर्शक नहीं होता तो मौका मिलने पर काका विशेष पोशाक पहनकर रंगीन किरदार निभाना बहुत पसन्द करता—जैसे एक ख़ानाबदोश राजकुमार का। अगर इन नाटकों ने पहली बार उसे अभिनेता बनने का ख़्याल दिया, तो स्कूल और बाद में कॉलेज के नाटकों में हिस्सा लेने ने उसके इरादे को पक्का कर दिया। रंगमंच की दुनिया से एक ही नाता था, एक दूर का भाई जो एक नाटक-मंडली का सदस्य था, और जिसने उसे एक छोटी-मोटी भूमिका पाने में सहायता की। जतिन ने अपने पहले ही नाटक में संवाद की एक ही पंक्ति को शान से बिगाड़ दिया, और वर्षों बाद उन पलों को फिर से जिया जब एक बार मंच से उतरने के बाद वह तब तक भागता रहा था जब तक घर नहीं पहुँच गया।
हालाँकि वह हर अर्थ में बम्बई का लड़का था, बम्बई के के.सी. कॉलेज में आने से पहले, जतिन बी.ए. की डिग्री पाने के लिए दो वर्ष के लिए पुणे के वाडिया कॉलेज में चला गया। उसके पुणे जाने का एक कारण था बॉम्बे में मराठी भाषा का अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किया जाना, जिससे पढ़ाई की ओर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत होती। बचपन और स्कूल के दिनों की तरह, जतिन अपने कॉलेज के दिनों में भी दूसरों के साथ मिलने-जुलने में नकचढ़ा रहा। उसके अधिकतर प्राध्यापक उसे एक चुपचाप रहने वाले युवक के रूप में ही याद करते हैं, जो केवल मंच पर जी उठता था। स्कूल के पुराने साथी रवि कपूर के साथ, जो काका के साथ के.सी. कॉलेज में भी था—दोनों गिरगाँव के सेंट सेबेशियन’स गोअन हाई स्कूल में भी एक साथ थे—वह बॉम्बे वापस आकर भी अपने शौक को निभाता रहा। जतिन की तरह रवि भी अभिनेता बनने के ख़्वाब पालता था, और कई बार दोनों में एक ही भूमिका पाने की होड़ होती थी। अक्सर एक दूसरे को ऑडीशन और स्क्रीन टेस्ट के लिए सिखाते-सिखाते दोनों एक दूसरे के करिअर में बहुत रुचि लेने लगे, और उन्हें विश्वास था कि दोनों को सही मौका मिलना सिर्फ़ वक्त की बात थी।
जिस दौर में जतिन ने हिन्दी फ़िल्मों में अभिनेता बनने के लिए जद्दोजहद शुरू की, वह बहुत अलग था। आज से विपरीत अभिनेताओं को कम ही मुख्य भूमिका में इतनी धूमधाम से पेश किया जाता था जो आज पहली फ़िल्म से जुड़ गयी है। उनमें से अधिकतर को छोटे-मोटे किरदार निभाकर समय काटना पड़ता, और कई बार वर्षों लग जाते (बीच-बीच में कई असफल फ़िल्मों के साथ) कुछ भी अहम सामने आने से पहले। लेकिन तब दर्शक बहुत क्षमाशील होते थे, निर्माता सहनशील, और पुन: मौका देना कोई बड़ी बात नहीं थी। इस अन्तहीन इन्तज़ार के अलावा, उस समय के बड़े कलाकारों—जैसे देवानन्द, दिलीप कुमार और राज कपूर—की छाया भी मँडराती रहती थी। इतनी बड़ी होकर कि प्रत्येक नवागन्तुक अपनी छवि का कोई न कोई पहलू उनमें से किसी एक की तरह ढाल लेता और फिर भी पूरी कोशिश करता कि उनकी नक़ल न लगे।
जतिन को जो भी मिलता रहा, वह करता रहा, परन्तु जिस समय उसे पहचान नहीं मिल पा रही थी, रंगमंच ने उसे उसके जीवन की पहली चाहत से मिलने में सहायता की, फ़िल्मों को करिअर के रूप में चुनने के विषय में सोचने का अवसर दिया और उसे एक अभिनेता के रूप में उसके पहले असली प्रतिद्वन्द्वी से आमना-सामना कराया। एक नाटक में काम करते समय जतिन अंजू महेन्द्रू से मिला और उससे प्रेम करने लगा, और शीघ्र ही यह युवा प्रेमी बॉम्बे की चर्चित जोड़ियों में से एक बन गये। बीसवीं सदी के छ्ठे दशक में जब अभिनेता ‘डेटिंग’ की बात करते हुए सहज अनुभव नहीं करते थे, जतिन और अंजू ने कभी भी अपने सम्बन्ध को छिपाने की ज़्यादा कोशिश नहीं की। अंजू—या निकी, जैसे जतिन उसे बुलाता था—स्वयं भी उभरती हुई अभिनेत्री थी, जिसे अपने प्रेमी से कुछ पहले पहचान मिल गयी, ज्यूल-थीफ़ (1967) जैसी फ़िल्मों में भूमिकाओं के कारण। लेकिन वह अपने बाकी जीवन में अधिकतर राजेश खन्ना की ‘गर्ल फ्रेंड’ के रूप में ही जानी जाने वाली थी। उनके करीबियों के अनुसार, दोनों प्रेम में पागल थे : परन्तु यदि जतिन यह नहीं समझ पाया कि अंजू उसके अस्थिर रवैये से ठीक उल्टी थी, तो समय-समय पर अंजू भी जतिन को उसकी बर्दाश्त की हद से ज़्यादा आज़माती थी। दोनों में ही तेज़ी से मूड बदलने की प्रवृति थी, और वे कई युवा प्रेमियों की तरह लगातार अलग होते रहते और फिर मिल जाते। इसमें बीच-बीच में पलटवार करने के लिए दीवानों वाली हरकतें भी शामिल थीं, जैसे अंजू का वेस्ट इंडिज़ से आने वाले क्रिकेट खिलाड़ी गारफ़ील्ड सोबर्स से सगाई कर लेना।
जतिन को फ़िल्मों में विशेष रुचि नहीं थी, जब तक गीता बाली से संयोगवश हुई एक भेंट ने करिअर के प्रति उसका नज़रिया नहीं बदल दिया। एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में खन्ना ने याद किया कि कैसे वह अचानक गीता बाली से मिले, जिनका फ़िल्म-निर्माण कार्यालय उसी इमारत में था, जहाँ खन्ना एक नाटक की रिहर्सल किया करते थे। युवा अभिनेता को अत्यन्त जल्दी में सीढ़ियों के पार से जाते हुए देखकर गीता ने कहा कि उनका निर्माण कार्यालय अगली फ़िल्म एक चादर मैली सी, के लिए उसके जैसे ही चेहरे की तलाश में था। हालाँकि जतिन को वह भूमिका नहीं मिली, और गीता बाली की बेवक्त मौत के कारण फ़िल्म स्थगित कर दी गयी, उन शब्दों ने जतिन के भीतर फ़िल्म अभिनेता बनने का ख़्याल पैदा कर दिया।
ऐसे व्यक्ति के रूप में भी, जो ‘ऑडीशन’ के लिए नये से नये फैशन की स्पोर्ट्स-कार में जाता था, जबकि ज़्यादातर संघर्ष करने वाले पैदल जाते थे, और जिसे हर महीने एक हज़ार की रकम मिलती थी, जबकि दूसरे अभिलाषी कई दिन तक बिना पैसे के और बिना खाने के भी रहते थे, जतिन के संघर्ष के दौरान भी उसके अपने हिस्से की परेशानियाँ थीं। एक तो यह कि वह हरि ज़रीवाला जैसे प्रतिद्वन्द्वियों को अपने से बाज़ी मारते हुए देखता—जिसने बाद में परदे पर संजीव कुमार नाम अपनाया और आगे चलकर हिन्दी सिनेमा के सब से बढ़िया अभिनेताओं में से एक हुआ—एक अधिक महत्वपूर्ण दल इप्टा (इंडियन पीपल्ज़ थियेटर एसोसिएशन) के साथ जुड़े होने के कारण। सहपाठी रवि ने भी वी. शांताराम की गीत गाया पत्थरों ने में मुख्य भूमिका पाकर और परदे पर जिस नाम को जतिन पाना चाहता था,