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Woh Jo Hain...
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Woh Jo Hain...

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About this ebook


'Papi says it is wrong of parents to presume that they know better, or know more than their child does. They may be biologically older than their child, but in their experience as parents, they're of the same age. So if I was his two-year-old daughter, he was my two-year-old father. And we were both learning and evolving together -- he as my father and me as his daughter.' All of us know Gulzar as a film-maker, screenplay and dialogue writer, lyricist par excellence, author and poet. Woh Jo Hain... presents a facet of the icon that none of us are aware of -- as a father. In iridescent prose, his daughter, Meghna, documents his life, revealing the man behind the legend: in every way a hands-on father, who prepared her for school without fail every day, braiding her hair and tying her shoelaces, and who despite his busy career in cinema, always made it a point to end his workday at 4 p.m. because her school ended at that time, and who wrote a book for her birthday every year till she was thirteen. From her earliest memories of waking up in the morning to the strains of him playing the sitar to him writing the songs for her films now, Meghna presents an intimate portrait of a father who indulged her in every way and yet raised her to be independent and confident of the choices she made. She also records his phenomenal creative oeuvre, the many trials and tribulations of his personal and professional life, through all of which she remained a priority. Beautifully designed and illustrated with never-before-seen photographs, Woh Jo Hain... offers an incredible insight into the bond between a father and a daughter.
Languageहिन्दी
PublisherHarperHindi
Release dateSep 30, 2018
ISBN9789352770540
Woh Jo Hain...
Author

Meghna Gulzar

Meghna Gulzar began her professional career in 1989 as a freelance writer for The Times of India. A graduate in sociology from St Xavier's College, Mumbai, Meghna assisted noted film-maker Saeed Akhtar Mirza on the National Award-winning film Naseem; and then went on to do a short course in film-making from the Tisch School of Arts, New York University, New York.She assisted her father on Maachis and Hu Tu Tu. Along with scripting her own films, Meghna has made documentaries for Doordarshan, directed videos for several music albums, and also anchored several TV shows including The Amul India Show.Her first feature film, Filhaal... (2002), addressed the issue of surrogate motherhood. She also directed A Pocketful of Poems - a short film on the celluloid and literary works of her father, for the Sahitya Akademi. Her feature film based on the Noida double-murder case of 2008 - Talvar - premiered at the Toronto International Film Festival in 2015 and garnered rave reviews and tremendous audience appreciation worldwide. Meghna's latest feature film Raazi has received both critical acclaim and audience appreciation, becoming one of the biggest box-office hits of 2018. She is currently working on her next film, based on the life of Field Marshal Sam H.F.J. Manekshaw MC.

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    Woh Jo Hain... - Meghna Gulzar

    इरशाद...

    ये तस्वीर मैंने न्यूयॉर्क से वाशिंगटन की ट्रेन यात्रा के दौरान ली थी। मैं हमेशा सोचती हूँ कि पापी उस वक़्त क्या सोच रहे होंगे...

    हते हैं शुरुआत से बढिय़ा शुरू करने की कोई जगह नहीं होती। और मेरे लिए अपने पिता की ज़िंदगी की शुरुआत खुद अपनी ज़िंदगी से होती है। क्योंकि उनकी शुरुआत की तो मैं गवाह न थी।

    किसी शख़्स की ज़िंदगी को, उसके वक़्त को, लम्हों को पकडऩा और फिर लफ़्ज़ों में ढाल देना कोई आसान काम नहीं है, ख़ासकर तब जबकि उस शख़्स के साथ आपका बहुत गहरा, इमोशनल नाता हो।

    एक रोब है उनका, जो मुझ पर सदा से छाया रहा है। इसे उल्टे मायनों में मत लीजिए। यह है आदर, अदब और हैरत से भरा भाव, क्योंकि वे मेरे लिए महज़ पिता नहीं, एक सतत जीवन अनुभव रहे हैं। मेरी ताकत, 'साइलेंट पिलर ऑफ इमोशनल सपोर्ट एंड स्ट्रेंथ'। मेरी क्रिएटिविटी के प्रेरणास्रोत, एक ऐसी विरासत जिसके क़ाबिल बने रहने की कोशिश मैं हमेशा करती रहूंगी।

    जब सब्जेक्ट ही इतना प्यारा हो, दिल के क़रीब हो, तो ऑब्जेक्टिव बने रहना लगभग नामुमकिन ही है। पर चलिए कोशिश करती हूँ। अगर कोई कमीबेशी रह भी जाए, तब भी आपको इन पन्नों में जो कुछ मिलेगा, वह उस शख़्स की भीतरी दुनिया की बहुत ही नीजी और इमोशनल झलक तो अवश्य ही होगी।

    वह शख़्स जिसे दुनिया गुलज़ार के नाम से जानती है।

    और, जिन्हें मैं पुकारती हूँ - पापी!

    पापी की सबसे गहरी याद जो सबसे पहले मेरे ज़ेहन में आती है, वह है - उनके सितार के सुरों से सुबह-सुबह जागना।

    वे संगीत और कला के हमेशा से दीवाने रहे हैं। उन्होंने सितार सीखना तब शुरू किया था जब मैं कोई सात साल की थी और वे थे अपने पोर्टीज़ में। वे हमेशा मुंह-अंधेरे उठ जाते, सूरज आने से पहले। (अब भी वही नियम है)। उनका कहना है, सूरज को हराने से बेहतर दिन की शुरुआत और कोई नहीं। बेशक, अपने इस आदर्श के चलते उन्होंने मेरी नींद में कभी खलल नहीं डाला। लिहाज़ा, मैं उनके सितार की लहरियों से ही जागती। वे स्टडी में सितार छेड़ते, जो बेडरूम से लगी हुई थी। पूरे बचपन भर, जब भी मैं पापी के पास रही, उनके बेडरूम में ही सो जाती थी - हालांकि मेरा अपना अलग कमरा भी था।

    मुझे याद आता है, जागते ही मैं उनके पास जाती। अपना सिर उनके घुटनों पर रखती और फिर सो जाती। वे सितार बजाते रहते। मगर, आख़िरकार मुझे स्कूल के लिए तैयार होने की ख़ातिर उठना ही पड़ता।

    जूते के फीते बांधने की कला में मैं तब तक परफैक्ट नहीं हुई थी, लिहाज़ा उसमें वे मेरी मदद करते। मेरी यूनिफॉर्म में एक पट्टा था जिसे अपने ख़ास आर्टिस्टिक अंदाज़ में वे बड़ी कारीगरी के साथ 'डबल नॉट' लगाते हुए बांधते। उनकी यह ख़ूबी हमेशा के लिए मेरे भीतर उतर गई है - कि कैसे एक मामूली से लगने वाले काम को भी एक ख़ास 'इवेन्ट' में तब्दील किया जा सकता है।

    और, उसके बाद आती थी मेरी चोटियां!

    बचपन की कई सुबहें पापी के सितार की धुनों के साथ होती थी।

    मैं कोई दस साल की थी, उन दिनों मेरे बाल कंधों तक आते थे। और हर सुबह कंघी करवाते हुए मैं आया से इस बात पर उलझती रहती थी कि दोनों तरफ़ की चोटियां कानों के ठीक बराबर की ऊंचाई पर नहीं हैं। फिर खोलो, फिर बांधो!

    मुझे मालूम है कि मैं कोई सीधी-सादी बच्ची तो थी नहीं। और, पापी भी इस बात को ख़ूब समझते थे। सो, आख़िर एक सुबह उन्होंने खुद इन शैतान चोटियों का मसला हमेशा के लिए ख़तम करने का फैसला कर लिया।

    बड़े धीरज के साथ, उन्होंने बालों को ठीक बीच से मांग डालकर दो हिस्सों में बांटा, उसके बाद मेरे 'इंन्स्ट्रक्शन' के मुताबिक बाएं और दाएं हिस्से में से हरेक को तीन हिस्सों में बांटा गया। फिर उन तीनों में से बीच का हिस्सा उंगलियों में दबाकर दाएं को उसके ऊपर, फिर उसके ऊपर बाएं को - और इस तरह गूंथना शुरू हुआ। नैचुरली, पहली बार में तो दोनों चोटियां बराबरी के लेवल पर नहीं आईं पर वे तब तक लगे रहे जब तक कि दोनों कानों के बराबर एक सीध में नहीं आ गईं।

    आज मैं उस मामूली से लगने वाले काम की अहमियत महसूस कर सकती हूँ। वे बेटी की चोटी बनाते हुए, एक माँ की तमाम ज़रूरी ज़िम्मेदारियां पूरी कर रहे थे। और सबसे बड़ी बात, इसके लिए अपनी बेटी से भी सीखने में उन्हें कोई गुरेज़ न था। वे बराबरी में भरोसा रखने वाले पिता थे। उन्होंने कभी भी मुझे अपने से कम समझकर बात नहीं की। उन्होंने कभी हुक्म नहीं चलाया, मगर हमेशा कम्युनिकेशन बनाए रखा। वे निर्देश नहीं, सुझाव देते थे। और फिर भी, उन्होंने बड़ों का आदर करना और अनुशासन से रहना जैसे बीज मुझमें डाल दिए। मेरे ख़याल से पेरेंटिंग का यह एकदम विलक्षण तरीका था।

    बाद में, बाप-बेटी के रिश्तों पर जब हमारा एक इंटरव्यू लिया जा रहा था, तब उन्होंने जो कुछ कहा, उसने यह बात और साफ़ कर दी।

    माँ भी, पापा भी ! पापी, अक्सर मुझे स्कूल के लिये खुद तैयार करते थे - स्कूल ड्रेस की बेल्ट लगाने से लेकर बालों की चोटी बनाने तक ... उन्होंने ही मुझे जूते के फीते बांधना सिखाया ... और कुछ सालों बाद मैंने उन्हें सिखाया कि क्रॉस-लेस कैसे बांधते हैं।

    पापी, हमेशा ये कहते कि मेरे साथ वो भी बड़े हो रहे हैं। इस तस्वीर में मेरे आठवें जन्मदिन पर एक पिता के रूप में वो भी आठ साल के हुए।

    ऊपर से - पापी के भाई लोचन, बहनें महिंदर और सुरजीत, पापी की सौतेली माँ - दादाजी की तीसरी पत्नी, बहन गुड्डी और भाई बीर।

    पगड़ी पहने पापी की एक दुर्लभ तस्वीर। उस वक़्त भी पापी फोटो खिंचवाते समय कैमरे की तरफ़ नहीं देखते थे !

    वे बोले थे, माँ-बाप अगर यह मानते हैं कि वे अपने बच्चों से ज़्यादा जानते हैं या बेहतर जानते हैं तो वे गलती पर हैं। उम्र के लिहाज़ से बेशक वे अपने बच्चों से बड़े हो सकते हैं, मगर बतौर माँ-बाप तो उनकी उम्र बच्चे के बराबर ही है।

    इसीलिए, अगर मैं उनकी दो साल की बच्ची थी तो वे मेरे दो साल के पिता थे। और, हम दोनों साथ-साथ सीख रहे थे, साथ-साथ बड़े हो रहे थे - मैं बेटी की तरह, वे पिता की तरह। इसीलिए उन्हें मेरे बाल संवारने में बड़ा आनंद आता था। वे कहते हैं, उन्हें उस वक़्त अपने पिता की याद आती थी जो बचपन में उनके केश संवारा करते थे।

    दीना में पापी के घर का दरवाज़ा ... आज भी ये दरवाज़ा खड़ा है...

    कम ही लोगों को पता है कि पैदाइश के वक़्त उनका नाम दरअसल संपूर्ण सिंह कालरा रखा गया था। वे एक सिख परिवार में, सरदार मक्खन सिंह कालरा और सुजान कौर के घर जन्मे थे। जैसी कि सिखों में परंपरा है, उनके भी लंबे केश थे। उनके पिता, मेरे दादाजी; उनके बाल संवारते थे, क्योंकि माँ तो जन्म देते ही चल बसी थीं।

    कोई अपनी माँ का चेहरा तक याद न कर पाए, यह अहसास ही कैसा होता होगा - सोचने तक की मेरी हिम्मत नहीं होती।

    ...हाँ, पापी को माँ की शक्ल याद नहीं!

    उनके दिलो-दिमाग पर गहरी खुदी हुई बचपन की स्मृतियाँ ज़रूर हैं - उनके गांव दीना की, जहाँ वे पैदा हुए, झेलम जिले में - जो अब पाकिस्तान में है। वो तंग गली जो उनके मकान तक जाती थी, मकान का बड़ा-सा दरवाज़ा, बाज़ारा, और वो मदरसा जहाँ पापी और उनके भाई-बहन जाया करते थे। कुछ साल पहले, दीना के उनके घर की तस्वीर किसी ने भेजी और लिखा - दरवाज़ा अब भी जस का तस है। पर पापी बोले, मकान थोड़ा छोटा दिख रहा है, दरवाज़ा भी वैसा 'टॉवरिंग'- उतना विशाल - नहीं दिखता जैसा बचपन में हुआ करता था। यही वजह थी कि वे अर्से तक दीना नहीं गए। वे नहीं चाहते थे कि उनकी यादें और मन पर छपी स्मृतियाँ इस तरह छोटी हो जाएं। उन यादों को उन्होंने पाला-पोसा और बचाए रखा था, वक़्त और यथार्थ की मार से! वे उनके दिलो-दिमाग में अब भी तरोताज़ा थीं, वैसी ही प्राणवान-ज़िंदाजावेद - सांस लेती हुई। 2013 में आख़िरकार वे दीना गए और उस अनुभव ने उन्हें भावविह्वल कर दिया। उनके ही शब्दों में:

    मैं दीना के वासियों से माफ़ी माँगना चाहता हूँ, जिन्होंने मेरा इंतज़ार किया, मेरे लिए इतना शानदार इंतज़ाम किया, मेरे लिए लज़ीज़ खाना पकाया और परोसा। अतीत की सुखद स्मृतियों के शिकंजे में मुझे बेचैनी सी होने लगी। मेरे लिए वहां रुकना नामुमकिन हो गया। दिल कुछ इस तरह से भर आया था मेरा कि पेट भरने की गुंजाइश नहीं थी। मैं किस अहसास से गुज़र रहा था, यह बताने के लिए मेरे पास लफ्ज़ नहीं थे। कहाँ जी करता है फिर खाने का जब दिल भरा हो। बस यह चाहता था कि एक लम्हा मिल सके अकेले बैठकर रो सकूं। लेकिन वो नहीं मिल पाया। बस वो नमक छुआ उनके हाथ से - इतना ही बहुत था ! वो नमक मेरे अपने वतन का था। मैं हमेशा अपनी नज़्मों में कहता हूँ कि मेरा देश तो हिन्दुस्तान है लेकिन मेरा वतन पाकिस्तान है क्यूंकि वो मेरी जन्मभूमि है।

    दीना, पाकिस्तान; जहाँ पापी का जन्म हुआ था। लोकल गाइड अक्सर इस जगह को 'हिंदुस्तान के मशहूर लेखक गुल.जार का जन्मस्थान' बताते हैं।

    साल 2013 में, घर छोड़ने के सत्तर साल बाद पापी दीना गए।

    हालांकि, वे माँ की सूरत से वाकिफ़ नहीं कि वे दिखती कैसी थीं, उनका चेहरा कैसा था। शायद उन दिनों फ़ोटो लेने का चलन भी इतना नहीं था, इसलिए कोई तस्वीर भी नहीं मिलती जिसे देखकर वे मन में कोई खाका बना सकें। बस एक बार, बचपन में उनकी कोई रिश्तेदार उन्हें गोद में उठाए दीना के बाज़ारा से गुज़र रही थी तब उसने एक औरत की तरफ़ इशारा करके कहा था - देख, ऐसी लगती थी तेरी माँ!

    उन्हें वह चेहरा याद है। जब वह औरत मुस्कुराई तो उसका सोने मढ़ा दांत चमक उठा। और तबसे पापी के ख़यालों में माँ का एक दांत सोने का था।

    बाद में उन्होंने अपनी बड़ी बहन से पूछा भी कि क्या माँ का एक दांत सोने का था, बहन ने इन्कार कर दिया मगर फिर भी पापी की कल्पना में माँ जब भी मुस्कुराती है तो उनका सोने का दांत दमक उठता है, ठीक दीना के बाज़ारा में देखी उस औरत की तरह।

    पार्टीशन का सदमा वह दूसरी याद है जो अब तक उनके दिलो-दिमाग पर छपी हुई है। उस भयानक वाकये के दहला देने वाले मंज़र बीस साल बाद तक उनके सपनों में घूमते रहते थे और वे रातों को खौफ़ में पसीने से तरबतर, उठ बैठते थे। जब यह हादसा हुआ, वे क़रीब ग्यारह साल के रहे होंगे।

    बस ग्यारह साल के! और हाँ, उनकी पैदाइश की तारीख़ से भी एक दिलचस्प किस्सा जुड़ा हुआ है - हमने 18 अगस्त, 1996 को उनकी साठवीं सालगिरह मनाई। पर काग़ज़ों में कुछ जगह उनकी पैदाइश का साल 1934 मिलता है और कुछ जगह 1936 । यहाँ तक कि कुछ दस्तावेज़ों में उनकी जन्म की तारीख़ 5 सितंबर, 1934 दर्ज़ थी। मेरा ख़याल है कि चूंकि जन्मदिन मनाने का रिवाज़ वेस्ट से आया इसलिए अपने यहाँ तब बहुत से लोग कोई पक्का रिकॉर्ड नहीं रखते होंगे। कुछ लोग बताते हैं कि स्कूल में माँ-बाप उम्र को बढ़ाकर लिखवा दिया करते थे ताकि एडमिशन में कम उम्र कोई रुकावट न बने और यहाँ तक कि जल्दी पेंशन पाने की सहूलियत जैसी कोई सोच भी इसके साथ जुड़ी रहती थी। बहरहाल, मैं तो चाहूंगी कि मेरे जवांदिल पापी ज़्यादा से ज़्यादा जवान रहें इसलिए मेरी ओर से उनकी जन्म की तारीख 18 अगस्त, 1936 ही पक्की है।

    तो, पार्टीशन के वक़्त, जब मुल्क तकसीम हुआ, ग्यारह साल के पापी दिल्ली में रहते थे। परिवार के अधिकांश लोग पार्टीशन से कुछ वक़्त पहले ही दीना से भारत आ गए थे। क्योंकि दादाजी कारोबार के सिलसिले में दीना दिल्ली आते-जाते रहते थे और आख़िरकार उन्होंने दिल्ली में ही बस जाने का फैसला कर लिया था। वे सब्ज़ी मंडी में रहते थे। यह मुस्लिम आबादी वाला इलाका था, उसमें एक थी - बस्ती पंजाबिया।

    दिल्ली के कश्मीर गेट पर स्थित दिल्ली युनाइटेड क्रिश्चन स्कूल, पापी ने दसवीं यहीं से पास की थी।

    आसार कुछ अच्छे नहीं हैं, हवाओं में इसकी गंध फैलने लगी थी।

    दिल्ली के सब्ज़ी मंडी इलाके में पहली मंजि़्ल का वो मकान जहाँ पापी और उनका परिवार भारत आकर रहा था।

    जो ख़तरनाक हालात बन रहे थे उनके बारे में बड़े-बूढ़ों की बातें तमाम बच्चों - पापी, उनके भाई-बहनों और दोस्तों के कानों पर भी पड़ती थीं।

    और एक दिन उन्होंने उस भयावह आशंका को सच होते देखा - जिन गलियों में वे खेलते-कूदते थे वे लाशों से पट गईं, वहाँ दंगाई और लुटेरे कहर ढा रहे थे। मेज- कुर्सी-पलंग जो मिला, उस पर रखकर इंसान जला दिए गए। रोशनआरा बाग जघन्य कत्लगाह में तब्दील हो गया था, जहाँ लोग घसीटकर लाए जाते, फिर उनकी गर्दनें उड़ा दी जाती थीं और शवों को नाले में फेंक दिया जाता था। वे लोग, जिन्हें वे रोज़ाना देखते आए थे - बिल्कुल आम इंसानों की तरह - वे राक्षसों और हत्यारों में तब्दील हो गए थे - तलवारें और चाकू चमकाते हुए।

    पापी को याद है, समंदरसिंह नाम का एक शख़्स एक मुस्लिम बच्चे को घसीटता हुआ ले जा रहा था। वह बच्चा उनके स्कूल में प्रार्थना करवाता था। जब पूछा कि कहाँ जा रहे हो तो समंदरसिंह ने पंजाबी में कहा, 'टुकड़े करण वास्ते!' थोड़ी देर बाद पापी ने उसे लौटते देखा, उसके हाथ की तलवार, ख़ून से सनी हुई थी।

    सड़कों पर अधजली लाशें कोलतार से चिपक गईं थीं जिन्हें कूड़ा इकट्ठा करने वाले बेलचों से खुरच-खुरचकर निकाल रहे थे, कूड़ों के ट्रक, छितराई क्षत-विक्षत लाशों से भर गए

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