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Iben Safi - Imran Series- Khaunak Imarat
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Ebook207 pages1 hour

Iben Safi - Imran Series- Khaunak Imarat

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Languageहिन्दी
PublisherHarperHindi
Release dateNov 3, 2015
ISBN9789351367369
Iben Safi - Imran Series- Khaunak Imarat
Author

Ibne Safi

Ibne Safi was the pen name of Asrar Ahmad, a bestselling and prolific Urdu fiction writer, novelist and poet from Pakistan. He is best know for his 125-book Jasoosi Duniya series and the 120-book Imran series. He died on 26 July 1980.

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    Iben Safi - Imran Series- Khaunak Imarat - Ibne Safi

    दो शब्द

    हालाँकि अंग्रेज़ी और यूरोप की बहुत-सी दूसरी भाषाओं में विभिन्न प्रकार के जासूसी उपन्यासों की एक लम्बी और मज़बूत परम्परा नज़र आती है, हिन्दी और उर्दू में बहुत-सी वजहों से उपन्यास की यह क़िस्म अपनी जगह नहीं बना पायी। आज भी अगर हम लोकप्रिय मनोरंजन-प्रधान उपन्यासों का जायज़ा लेते हैं तो अव्वल तो ‘चालू’ या, जैसा कि इन्हें आम तौर पर कहा जाता है, ‘बाज़ारू’ या ‘फ़ुटपाथिया’ उपन्यास, संख्या में चाहे जितने अधिक हों, उनमें स्तर का नितान्त अभाव है और दूसरे, जहाँ तक जासूसी उपन्यासों की विधा का ताल्लुक़ है, यह क़िस्म अपवाद-स्वरूप भी दिखायी नहीं देती। और-तो-और, जहाँ हमारे टेलिविज़न धारावाहिक पूरी तरह धार्मिक, ऐतिहासिक और सामाजिक विषयों पर पिले रहते हैं, सास-बहू और ननद-भाभी के महाभारत जम कर चित्रित होते हैं, प्रेम और सेक्स लगभग व्यभिचार की-सी शक्ल में नज़र आता है, वहीं ‘करमचन्द,’ ‘सी आई डी’ और ‘इन्स्पेक्टर’ जैसे जासूसी सीरियल अपवाद-स्वरूप ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाते हैं और वह भी औसत से कहीं कम कामयाबी के साथ।

    ऐसे में पहला सवाल तो मन में यही उठता है कि आख़िर कौन-से कारण हैं जिनकी वजह से हमारे यहाँ लोगों की दिलचस्पी इस विधा में नहीं है, जबकि अपराध हमारे अख़बारों और इलेक्ट्रॉनिक समाचार-माध्यमों का प्रिय विषय है। अगर ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता कोई हफ़्ता बग़ैर किसी क़त्ल या बलात्कार या और किसी चटपटी ग़ैरक़ानूनी वारदात के गुज़र जाये, तो चैनल के होते-सोतों की नींद हराम हो जाती है कि टी.आर.पी. का क्या बनेगा।

    हिन्दी के शुरुआती उपन्यासकारों में किशोरीलाल गोस्वामी और गोपालराम गहमरी ने ज़रूर जासूसी उपन्यास लिखे, और कसरत से लिखे, लेकिन जल्दी ही सामाजिक अथवा ऐतिहासिक उपन्यासों ने उन्हें हाशिये पर धकेल दिया। उर्दू में भी कुछ ऐसा ही देखने में आया। लगभग एक सदी होने को है जब ज़फ़र उमर बी.ए.(अलीगढ़) ने एक फ़्रांसीसी उपन्यास को ‘नीली छतरी’ के नाम से रूपान्तरित करके उर्दू में जासूसी उपन्यासों की नींव रखी थी। इस उपन्यास की लोकप्रियता को देख कर ज़फ़र उमर ने ‘बहराम की गिरफ़्तारी’ के नाम से ‘नीली छतरी’ का दूसरा हिस्सा भी लिखा। उसके बाद इस परम्परा को मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुस्वा, नदीम सहबाई और तीरथराम फ़िरोज़पुरी ने आगे बढ़ाया; लेकिन उर्दू में भी इस धारा का हश्र वही हुआ जो हिन्दी के सिलसिले में देखा गया था।

    ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ और ‘भूतनाथ’ जैसे उपन्यास, जो देवकी नन्दन खत्री या दुर्गा प्रसाद खत्री ने लिखे थे, या इसी तरह के जो तिलिस्मी उपन्यास उर्दू में लिखे गये, वे एक काल्पनिक रूमानी दुनिया की सृष्टि करके उसमें खलता, यानी बदमाशी, के तानों-बानों को बुनते थे। उन्हें जासूसी उपन्यासों की कोटि में रखना सम्भव भी नहीं है। वे सामन्ती युगीन परिवेश और मानसिकता से ओत-प्रोत थे, जबकि जासूसी उपन्यास एक आधुनिक दिमाग़ की अपेक्षा रखता था। यहाँ यह कहने की ज़रूरत नहीं कि विधा के रूप में बज़ाते-ख़ुद उपन्यास पूँजीवाद की देन है। इसी तरह ‘अपराधी कौन ?’ का सवाल सामन्ती युग में उठ भी नहीं सकता था। यह तो पूँजीवाद में हुआ कि अपराध के विभिन्न कारणों की छान-बीन शुरू हुई, अपराध-विज्ञान की नींव पड़ी और अपराधों को समाज से, व्यक्ति की विकृतियों से जोड़ कर देखा जाने लगा।

    हिन्दी-उर्दू में हालाँकि उपन्यास की दूसरी क़िस्में बहुत फलीं-फूलीं, लेकिन जासूसी उपन्यास पनप नहीं पाये। कारण शायद यह भी है कि जहाँ पश्चिम में ‘फ़ुटपाथिया कथा-साहित्य’ यानी ‘पल्प फ़िक्शन’ की अपनी जगह है, वहीं हिन्दी-उर्दू का नकचढ़ापन, संकीर्ण सोच, भेदभाव की प्रवृत्ति और साहित्य के प्रति निहायत शुद्धतावादी नज़रिया जासूसी उपन्यास को ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ बनाये हुए है।

    इसके बावजूद एक समय था - एक छोटा-सा अर्सा - जब हिन्दी-उर्दू में जासूसी साहित्य का बोल-बाला था। इलाहाबाद के ‘देश सेवा प्रेस’ से ‘भयंकर भेदिया’ और ‘भयंकर जासूस’ जैसी मासिक जासूसी पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं जिनके सम्पादक के तौर पर ‘सुराग़रसाँ’ का नाम छपता था; उसी दौर में एम.एल.पाण्डे के जासूसी उपन्यासों की धूम थी; और कहना न होगा कि जासूसी उपन्यासों के इस फलते-फुलते संसार के सम्राट थे जनाब असरार अहमद जिनके उपन्यास ‘जासूसी दुनिया’ मासिक पत्रिका के हर अंक में इब्ने सफ़ी के नाम से प्रकाशित होते थे।

    दोआबे की गंगा-जमुनी ज़बान, गठे हुए कथानक, अन्त तक सनसनी बनाये रखने की क्षमता और उनके जासूस इन्स्पेक्टर फ़रीदी द्वारा थोड़े-बहुत शारीरिक उद्धम के बावजूद दिमाग़ी कसरत से ही ‘अपराधी कौन ?’ का जवाब ढूँढने की क़ूवत ने इब्ने सफ़ी को निर्विवाद रूप से एक लम्बे समय तक जासूसी उपन्यास के प्रेमियों का चहेता बना रखा था जिनमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल है।

    इब्ने सफ़ी की एक विशेषता यह भी थी कि जहाँ ‘भयंकर भेदिया,’ ‘भयंकर जासूस’ और एम.एल. पाण्डे के उपन्यास सिर्फ़ हिन्दी में छपते, ‘जासूसी दुनिया’ के उपन्यास हिन्दी-उर्दू दोनों ज़बानों में शाया होते। उर्दू में जो उपन्यास प्रकाशित होता, उसमें जासूस इन्स्पेक्टर अहमद कमाल फ़रीदी और फ़रीदी का सहायक सार्जेंट हमीद होते, जबकि हिन्दी में फ़रीदी का नाम कर्नल विनोद हो जाता, हमीद ज्यों-का-त्यों रहता। यही हाल इब्ने सफ़ी के इमरान सीरीज़ के उपन्यासों का था, जहाँ हिन्दी प्रारूप में इमरान राजेश हो जाता। इसे भी उस ज़माने के साम्प्रदायिक मेल-मिलाप की फ़िज़ा का एक सबूत माना जा सकता है।

    फिर, इब्ने सफ़ी का यह कमाल था, और इसे मैं उनकी उर्दू तरबियत ही की देन कहना चाहूँगा, कि वे अपने जासूसी उपन्यासों में बड़े चुटीले हास्य-भरे प्रसंग भी बीच-बीच में गूँथ देते। यानी उनके किरदार किसी दूसरी दुनिया के अपराजेय नायक नहीं थे, बल्कि हाड़-माँस के इन्सान थे। कभी-कभार अपराधियों से ग़च्चा भी खा जाते थे। कभी-कभार एक-दूसरे से मज़ाक़ भी कर लेते थे।

    इब्ने सफ़ी की पहली ख़ूबी तो यही है कि उन्होंने अनुवादों और रूपान्तरों में फँसी इस परम्परा को मौलिकता की आज़ाद फ़िज़ा मुहैया करायी। शुरू-शुरू में अलबत्ता इब्ने सफ़ी पर विदेशी उपन्यासों का असर था; मिसाल के लिए, उनका पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम,’ जो मार्च १९५२ में प्रकाशित हुआ, अंग्रेजी लेखक विक्टर गन की कहानी ‘आयरनसाइड्स लोन हैण्ड’ पर आधारित है। इसी तरह ‘पहाड़ों की मलिका’ पर राइडर हैगर्ड के मशहूर उपन्यास ‘क्रिंग सॉलोमन्स माइन्ज़’ का असर है। उन्होंने अपने उपन्यास ‘ज़मीन के बादल’ की भूमिका में स्वीकार भी किया—

    ‘‘दिलेर मुजरिम का प्लॉट मैंने अंग्रेज़ी से लिया था, लेकिन फ़रीदी और हमीद मेरे अपने किरदार थे। मैंने उस कहानी में कुछ ऐसी दिलचस्पियों का इज़ाफ़ा भी किया था जो मूल प्लॉट में नहीं थीं। इसके अलावा ‘जासूसी दुनिया’ में ऐसे उपन्यास और भी हैं, जिनके प्लॉट मैंने अंग्रेज़ी से लिये थे, मसलन ‘रहस्यमय अजनबी,’ ‘नर्तकी का क़त्ल,’ ‘हीरे की खान,’ ‘ख़ूनी पत्थर।’ एक हंगामे वाला किरदार, प्रोफ़ेसर दुर्रानी, अंग्रेज़ी से आया है। सिर्फ़ किरदार। कहानी मेरी अपनी है। इसी तरह ‘पहाड़ों की मलिका’ का बनमानुस और गोरी मलिका भी अंग्रेज़ी से आये हैं। लेकिन प्लॉट मेरा अपना है। इमरान के सारे उपन्यास बेदाग़ हैं।’’

    इसके बरसों बाद इमरान वाली श्रृंखला की भूमिका में भी इब्ने सफ़ी ने पुराने दिनों को याद करते हुए लिखा -

    ‘‘बहरहाल जासूसी नॉवेल मेरे लिए बिलकुल नयी चीज़ थी। लिहाज़ा पहली बार मुझे भी अंग्रेज़ी के ही दामन में पनाह लेनी पड़ी। मेरा पहला नॉवेल ‘दिलेर मुजरिम’ विक्टर गन के नॉवेल ‘आयरन साइड्स लोन हैण्ड’ से प्रभावित था। फ़रीदी और हमीद के किरदार मेरी अपनी उपज थे। इसके बाद मैंने अपने तौर पर लिखना शुरू किया। लेकिन जहाँ तक हो सका, बाहर के प्रभावों से दामन बचाने के बावजूद भी मेरे आठ नॉवेल कमोबेश मेरे अपने नहीं थे। या तो उनके प्लॉट अंग्रेज़ी से लिये गये थे या एक-आध किरदार बाहर से आये थे।’’

    इन शुरुआती उपन्यासों के बाद इब्ने सफ़ी ने अपनी मौलिक डगर पकड़ ली। चूँकि जासूस का चरित्र ऐसे उपन्यासों की धुरी होता है, इसलिए उन्होंने फ़रीदी और हमीद का रूपरंग, नाक-नक़्शा, बोली-बरताव और चाल-ढाल बड़ी मेहनत से गढ़ी। पढ़ने-लिखने का शौक इब्ने सफ़ी को शुरू ही से था और सिर्फ़ शायरी और उपन्यास-कहानियाँ ही नहीं, बल्कि हर तरह के विषयों की किताबें, लिहाज़ा यह सारी जानकारी उनके उपन्यासों को और भी दिलचस्प और रोमांचक बनाने में मददगार साबित हुई। ‘तिलिस्मे-होशरूबा’ और राइडर हैगर्ड के अंग्रेज़ी उपन्यासों ने अगर उनकी कल्पना-शक्ति को एड़ लगायी, तो उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी की दूसरी मशहूर किताबों ने उनकी भाषा-शैली को चमकाया।

    १९७० में आलमी डाइजेस्ट में अपने उपन्यासों के शुरुआती प्रभावों की चर्चा करते हुए इब्ने सफ़ी ने लिखा—

    ‘तिलिस्मे-होशरूबा और राइडर हैगर्ड के प्रभावों ने आपस में गड्ड-मड्ड हो कर मेरे लिए एक अजीब-सी ज़ेहनी फ़िज़ा मुहैया कर दी थी, जिसमें मैं हर वक़्त डूबा रहता। ऐसे-ऐसे सपने देखता कि बस। सपनों और पढ़ाई का यह सिलसिला जारी रहा।’

    लेकिन सपनों और पढ़ाई से जो दुनिया इब्ने सफ़ी के अन्दर बन कर तैयार हुई थी, उसका सामना हक़ीक़त की दुनिया से था, जहाँ जुर्म भी था और मुजरिम भी। और कई बार अपराध की सच्ची कहानियाँ ख़यालों की दुनिया से, कल्पना के बल पर गढ़े गये किस्सों से, ज़्यादा असली मालूम देतीं। इब्ने सफ़ी ने किताबों ही को नहीं, ज़िन्दगी को भी गहरी नज़र से देखा था और इसलिए उन्होंने अपने जासूसी उपन्यासों में जुर्म और मुजरिमों की तस्वीरें कल्पना और हक़ीक़त के मेल से तैयार कीं। शुरुआती उपन्यासों में अपराध की आम उलझी हुई गुत्थियाँ मिलती हैं, लेकिन जैसे-जैसे

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