Ibne Safi
Ibne Safi was the pen name of Asrar Ahmad, a bestselling and prolific Urdu fiction writer, novelist and poet from Pakistan. He is best know for his 125-book Jasoosi Duniya series and the 120-book Imran series. He died on 26 July 1980.
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Neele Parindey - Ibne Safi
नीले परिन्दे
१
चौदहवीं की चाँदनी पहाड़ियों पर बिखरी हुई थी....सन्नाटे और चाँदनी की रोशनी में नहायी और पहाड़ों में चक्कर खाती हुई काली सड़क किसी बल खाये हुए साँप जैसी लग रही थी। और इसी सड़क पर एक लम्बी-सी कार दौड़ती चली जा रही थी।
तभी अचानक वह कार एक जगह रुक गयी....और स्टीयरिंग के सामने बैठा हुआ आदमी बड़बड़ाने लगा। ‘‘क्या हो गया है....? भई!’’
उसने उसे दोबारा स्टार्ट किया....इंजन जागा....एक छोटी-सी अँगड़ाई ली और फिर सो गया....!
कई बार स्टार्ट करने के बावजूद इंजन होश में न आया....
‘‘यार, धक्का लगाना पड़ेगा।’’ उसने पीछे मुड़ कर कहा। मगर पिछली सीट से ख़र्राटे ही बुलन्द होते रहे....
उसने दोनों घुटने सीट पर टेक कर बैठते हुए, सोने वाले को बुरी तरह झिंझोड़ना शुरू कर दिया....
लेकिन ख़र्राटे बराबर जारी रहे।
आख़िर जगाने वाला सोने वाले पर चढ़ ही बैठा।
‘‘अरे....अरे....बचाओ....बचाओ!’’ अचानक सोने वाले ने गला फाड़ना शुरू कर दिया। लेकिन जगाने वाले ने किसी-न-किसी तरह खींच-खाँच कर उसे नीचे उतार ही लिया।
‘‘हाँय! मैं कहाँ हूँ!’’ जागने वाला आँखें मल-मल कर चारों तरफ़ देखने लगा।
‘‘इमरान के बच्चे, होश में आओ।’’ दूसरे ने कहा।
‘‘बच्चे....ख़ुदा क़सम एक भी नहीं हैं....अभी तो मु़र्गी अण्डों ही पर बैठी हुई है....सुपर फ़ैयाज़....!’’
‘‘कार स्टार्ट नहीं हो रही है।’’ कैप्टन फ़ैयाज़ ने कहा।
‘‘जब चले थे तब तो शायद स्टार्ट हो गयी थी।’’
‘‘चलो, धक्का लगाओ।’’
इमरान ने उसके कन्धे पकड़े और धकेलता हुआ आगे बढ़ने लगा।
‘‘यह क्या बेहूदगी है? मैं थप्पड़ मार दूँगा।’’ फ़ैयाज़ पलट कर उससे लिपट गया....
‘‘हाय....हाय....अरे, मैं हूँ....मर्द हूँ....!’’
‘‘कार धक्का दिये बग़ैर स्टार्ट नहीं होगी।’’ फ़ैयाज़ गला फाड़ कर चीख़ा।
‘‘तो ऐसा बोलो न....मैं समझा शायद....वाह यार....!’’
फ़ैयाज़ स्टीयरिंग के सामने जा बैठा....और इमरान कार को आगे से पीछे की तरफ़ धकेलने लगा।
‘‘अरे....अरे....!’’ फ़ैयाज़ फिर चीख़ा। ‘‘पीछे से!’’
इमरान ने मुँह फेर कर अपनी कमर कार के अगले हिस्से से लगा दी और ज़ोर देने लगा।
‘‘अरे ख़ुदा ग़ारत करे....सुअर....गधे!’’ फ़ैयाज़ दाँत पीस कर रह गया।
‘‘अब क्या हो गया....?’’ इमरान झल्लायी हुई आवाज़ में बोला।
फ़ैयाज़ नीचे उतर आया। कुछ पल खड़ा इमरान को घूरता रहा, फिर बेबसी से बोला।
‘‘क्यों परेशान करते हो?’’
‘‘परेशान तुम करते हो या मैं!’’
‘‘अच्छा....तुम स्टीयरिंग सँभालो! मैं धक्का देता हूँ।’’ फ़ैयाज़ ने कहा।
‘‘अच्छा बाबा!’’ इमरान माथे पर हाथ मार कर बोला।
वह अगली सीट पर जा बैठा और कैप्टन फ़ैयाज़ कार को धकेल कर आगे की तरफ़ बढ़ाने लगा।
कार न सिर्फ़ स्टार्ट हुई, बल्कि फ़र्राटे भरती हुई आगे बढ़ गयी।
‘‘अरे....अरे....रोको....रोको....!’’ फ़ैयाज़ चीख़ता हुआ कार के पीछे दौड़ने लगा। लेकिन वह अगले मोड़ पर जा कर ग़ायब हो गयी। फ़ैयाज़ बराबर दौड़ता रहा....उसके पास इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था....वह दौड़ता रहा....यहाँ तक कि ताक़त जवाब दे गयी....और वह एक चट्टान से टेक लगा कर हाँफने लगा। चढ़ाई पर दौड़ना आसान काम नहीं होता। वह एक पत्थर पर बैठ कर हाँफने लगा।
इस वक़्त इस हरकत पर वह इमरान की बोटियाँ भी उड़ा सकता था। लेकिन साँसों के साथ ही उसकी दिमाग़ी हालत भी ठिकाने पर आती गयी।
इमरान पर ग़ुस्सा आना कुदरती बात थी। लेकिन उसके साथ ही फ़ैयाज़ को इस बात का भी एहसास था कि आज उसने भी इमरान को काफ़ी परेशान किया है।
आज शाम को वह इमरान को सैर के बहाने कार में बिठा कर किसी अनजान मंज़िल की तरफ़ ले उड़ा था। इमरान को बताये बग़ैर वह रूशी से उसका सामान पहले ही हासिल कर चुका था और वह सब कार की डिकी में ठूँस दिया गया था।
वह जानता था कि इमरान आजकल काम के मूड में नहीं है, इसलिए यह हरकत करनी पड़ी और फिर जब यह टूर बढ़ता ही गया, तो फ़ैयाज़ को यह बताना पड़ा कि उसे सरदारगढ़ ले जा रहा है। इस पर इमरान एक लम्बी साँस खींच कर ख़ामोश हो गया। उसने यह भी नहीं पूछा कि इस तरह सरदारगढ़ ले जाने का मतलब क्या है?....
फिर उसने कोई बात ही नहीं की थी। कुछ देर यूँ ही बैठा रहा। फिर पिछली सीट पर जा कर ख़र्राटे लेने शुरू कर दिये थे।
ज़ाहिर है कि ऐसी सूरत में फ़ैयाज़ का ग़ुस्सा ज़्यादा ज़ोर न पकड़ सका होगा। वह उसी पत्थर पर घुटनों में सिर दिये बैठा रहा। सिगरेटों का डिब्बा और कॉफ़ी का थर्मस गाड़ी ही में रह गया था, वरना वह इसी सुकुन-भरे माहौल का आन्नद लेने की कोशिश ज़रूर करता।
वैसे उसे इत्मीनान था कि इमरान का यह मज़ाक़ लम्बा नहीं होगा और वह जल्द ही वापस आयेगा और कोई ताज्जुब नहीं कि वह क़रीब ही कहीं हो।
फ़ैयाज़ घुटनों में सिर दिये इमरान ही के बारे में सोचता रहा। उसे उसकी बहुत-सी हरकतें याद आ रही थीं। ऐसी हरकतें जिन पर हँसी और ग़ुस्सा साथ ही आते थे और दूसरों की समझ में नहीं आता था कि वे हँसते ही रहें या इमरान को मार बैठें।
बेवक़ूफ़ी उसकी फ़ितरत का दूसरा हिस्सा बन चुका था और वह किसी मौक़े पर भी उससे बाज़ नहीं आता था....वह उनके सामने भी बेवकूफ़ों जैसी हरकतें करता जो उसे बेवक़ूफ़ नहीं समझते थे। मिसाल के तौर पर ख़ुद कैप्टन फ़ैयाज़ के लिए इमरान ने एक नहीं, दर्जनों केस निपटाये थे। काम उसने किये थे और नाम फ़ैयाज़ का हुआ था। ज़ाहिर है कि वह ऐसे आदमी को बेवक़ूफ़ नहीं समझ सकता था, लेकिन इसके बावजुद इमरान के बेवक़ूफ़ाना रवैये में कोई तब्दीली नहीं हुई थी।
लगभग पाँच मिनट बीत गये और फ़ैयाज़ उसी तरह बैठा रहा....लेकिन कब तक.... आख़िर उसे सोचना ही पड़ा कि कहीं सचमुच इमरान जुल न दे गया हो, क्योंकि वह भी तो उसे गोली दे कर ही सरदारगढ़ ले जा रहा था।
फ़ैयाज़ उठा और दिल-ही-दिल में इमरान को गालियाँ देता हुआ सड़क पर चलने लगा....लेकिन जैसे ही अगले मोड़ पर पहुँचा उसे सामने से कोई आता दिखाई दिया। चलने का अन्दाज़ इमरान का-सा ही था....फ़ैयाज़ की मुट्ठियाँ बँध गयीं।
इमरान ने दूर ही से हाँक लगाई। ‘‘कप्तान साहब! वह फिर रुक गयी है....चलो, धक्का लगाओ....!’’
फ़ैयाज़ की रफ़्तार तेज़ हो गयी। वह क़रीब-क़रीब दौड़ने लगा था। इमरान के क़रीब पहुँच कर उसका हाथ घूमा ज़रूर, लेकिन घूम कर ही रह गया, क्योंकि इमरान बड़ी फुर्ती से बैठ गया था।
‘‘हाय....! क्या हो गया है तुम्हें?’’ इमरान ने उठ कर उसके दोनों हाथ पकड़े हुए कहा। ‘‘अभी तो अच्छे-भले थे....’’
‘‘मैं तुम्हें मार डालूँगा।’’ फ़ैयाज़ दाँत पीस कर बोला।
‘‘अब यहाँ अकेले में जो चाहो कर लो....कोई देखने आता है!’’ इमरान ने शिकायती अन्दाज़ में कहा। ‘‘अगर वह साली स्टार्ट नहीं होती तो इसमें मेरा क्या क़सूर है?’’
‘‘हाथ छोड़ो!’’ फ़ैयाज़ ने झटका दे कर कहा। लेकिन इमरान की पकड़ मज़बूत थी। वह हाथ न छुड़ा सका।
‘‘वादा करो कि मारोगे नहीं।’’ इमरान बड़ी सादगी से बोला।
‘‘मुझे ग़ुस्सा न दिलाओ।’’
‘‘अच्छा तो इसके अलावा जो कुछ कहो, दिला दूँ। टॉफ़ियाँ लोगे?’’
फ़ैयाज़ का मूड ठीक होने में बहुत देर नहीं लगी....वह करता भी क्या; इमरान पर ग़ुस्सा उतारना भी एक तरह से वक़्त की बर्बादी ही थी।
वैसे इस बार हक़ीक़त में कार