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Nakli Naak: Jasusi Dunia Series
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Ebook167 pages1 hour

Nakli Naak: Jasusi Dunia Series

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About this ebook


Languageहिन्दी
PublisherHarperHindi
Release dateNov 3, 2015
ISBN9789351367352
Nakli Naak: Jasusi Dunia Series
Author

Ibne Safi

Ibne Safi was the pen name of Asrar Ahmad, a bestselling and prolific Urdu fiction writer, novelist and poet from Pakistan. He is best know for his 125-book Jasoosi Duniya series and the 120-book Imran series. He died on 26 July 1980.

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    Book preview

    Nakli Naak - Ibne Safi

    दो शब्द

    यह इब्ने सफ़ी की ख़ूबी ही कही जायेगी कि उन्होंने अनुवादों और रूपान्तरों में फँसी इस परम्परा को मौलिकता की आज़ाद फ़िज़ा मुहैया करायी। शुरू-शुरू में अलबत्ता इब्ने सफ़ी पर विदेशी उपन्यासों का असर था; मिसाल के लिए, उनका पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम,’ जो मार्च १९५२ में प्रकाशित हुआ, विक्टर गन की अंग्रेज़ी कहानी ‘आयरनसाइड्स लोन हैण्ड’ पर आधारित है। इसी तरह ‘पहाड़ों की मलिका’ पर राइडर हैगर्ड के मशहूर उपन्यास ‘किंग सॉलोमन्स माइन्ज़’ का असर है। उन्होंने अपने उपन्यास ‘ज़मीन के बादल’ की भूमिका में स्वीकार भी किया -

    ‘‘दिलेर मुजरिम का प्लॉट मैंने अंग्रेज़ी से लिया था, लेकिन फ़रीदी और हमीद मेरे अपने किरदार थे। मैंने उस कहानी में कुछ ऐसी दिलचस्पियों का इज़ाफ़ा भी किया था जो मूल प्लॉट में नहीं थीं। इसके अलावा ‘जासूसी दुनिया’ में ऐसे उपन्यास और भी हैं, जिनके प्लॉट मैंने अंग्रेज़ी से लिये थे, मसलन ‘रहस्यमय अजनबी,’ ‘नर्तकी का क़त्ल,’ ‘हीरे की खान,’ ‘ख़ूनी पत्थर।’ एक हंगामे वाला किरदार, प्रोफ़ेसर दुर्रानी, अंग्रेज़ी से आया है। सिर्फ़ किरदार। कहानी मेरी अपनी है। इसी तरह ‘पहाड़ों की मलिका’ का बनमानुस और गोरी मलिका भी अंग्रेज़ी से आये हैं। लेकिन प्लॉट मेरा अपना है। इमरान के सारे उपन्यास बेदाग़ हैं।’’

    इन शुरुआती उपन्यासों के बाद इब्ने सफ़ी ने अपनी मौलिक डगर पकड़ ली। पढ़ने-लिखने का शौक इब्ने सफ़ी को शुरू ही से था और सिर्फ़ शायरी और उपन्यास-कहानियाँ ही नहीं, बल्कि हर तरह के विषयों की किताबें, लिहाज़ा यह सारी जानकारी उनके उपन्यासों को और भी दिलचस्प और रोमांचक बनाने में मददगार साबित हुई। ‘तिलिस्मे-होशरूबा’ और राइडर हैगर्ड के अंग्रेज़ी उपन्यासों ने अगर उनकी कल्पना शक्ति को एड़ लगायी, तो उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी की दूसरी मशहूर किताबों ने उनकी भाषा-शैली को चमकाया।

    कल्पना और जानकारी के इसी घोल से इब्ने सफ़ी ने अपने यादगार जासूसी उपन्यासों का लिबास तैयार किया। कई क़िस्से और किरदार तो चुनौती की तरह आये, मसलन जाबिर जो ‘ख़तरनाक बूढ़ा’ के अन्त में फ़रीदी के हाथ से फिसल कर निकल भागा था। इसी जाबिर से ‘नक़ली नाक’ में हम दोबारा रूब-रू होते हैं और जैसा कि इब्ने सफ़ी ने उपन्यास की भूमिका में लिखा -

    यह उपन्यास एक चैलेंज के साथ लिखा गया है। इसका केन्द्रीय पात्र जाबिर सिर्फ़ डाकू ही नहीं, ब्लैक मेलर, ख़ूनी और साथ-ही-साथ बड़ी सूझ-बूझ वाला आदमी और साइन्सदान है।

    क़दम-क़दम पर आपको ऐसी बातें मिलेंगी कि आप काँप-काँप उठेंगे। नंगी लाशों का छत से टपकना, पाँच हज़ार कबूतरों का ख़ून, फ़रीदी से नवाब रशीदुज़्ज़माँ कही दुश्मनी और ‘रहस्यमय कुआँ’ का अजीबो-ग़रीब बूढ़ा तारिक़—यह सब आपको इसी उपन्यास में मिलेगा। एक और बड़े मज़ेदार आदमी कुँवर ज़फ़र अली ख़ाँ जो हमेशा रहस्य से घिरा रहता है। और जाबिर का अंजाम...वह कौन था?...क्या करता था?...क्यों करता था?—इन सारे सवालों का जवाब यह उपन्यास ‘नक़ली नाक’ देगा।

    और आख़िर में, आपका चहेता इन्स्पेक्टर फ़रीदी इस बार आपको तरह-तरह की मुसीबतों में घिरा दिखायी देगा। शायद यह पहली बार होगा कि इतने ज़बर्दस्त सुराग़रसाँ को जाबिर लड़कों की तरह खेलाता है।

    ‘नक़ली नाक’ बिला शक इब्ने सफ़ी के उन उपन्यासों में शामिल है जिसकी लोकप्रियता कभी कम नहीं होगी और वह आज भी आपको लुभायेगा। आज़मा कर देखिए। इन्स्पेक्टर फ़रीदी के पसन्दीदा मुहावरे में कहें तो न घोड़ा दूर, न मैदान।

    —नीलाभ

    नक़ली नाक

    सफ़र

    गर्मियों का मौसम था। मैदानों के रहने वाले बड़े लोग गर्मी से तंग आ कर रामगढ़ की हरी-भरी पहाड़ियों में पनाह ढूँढने जा रहे थे उनमें विदेशी सैलानी भी थे, जिन्हें रामगढ़ की पुरानी इमारतें देखने की ख़्वाहिश खींच लायी थी।

    इस वक़्त पहाड़ियों के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर टट्टुओं और ख़च्चरों की लाइनें धीरे-धीरे रेंगती हुई दिख रही थीं। हालाँकि यहाँ बस सर्विस भी है, लेकिन बहुत-से मुसाफ़िर सिर्फ़ कुदरती मंज़र का मज़ा लेने के लिए टट्टुओं या ख़च्चरों पर सफ़र करते हैं, लेकिन फ़रीदी के बारे में दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि उसने सैर के लिए यह रास्ता चुना था या फिर वह हमीद को तंग करना चाहता था। वह रास्ते भर उसकी झल्लाहटों से ख़ुश होता चला आ रहा था। इस वक़्त भी वह उसे बात-बात पर छेड़ रहा था। एक जगह चलते-चलते अचानक हमीद के ख़च्चर ने ठोकर खायी और गिरते-गिरते बचा। हमीद घबरा कर कूद पड़ा। फ़रीदी को भी अपना ख़च्चर रोक देना पड़ा।

    ‘‘अरे, अरे, यह क्या भई?’’ फ़रीदी हँस कर बोला।

    ‘‘जी कुछ नहीं, बेचारा थक गया है।’’ हमीद मुँह बनाते हुए बोला। ‘‘अब यह मुझ पर सवार हो कर बाक़ी रास्ता तय करेगा। मैं कहता हूँ आख़िर... आपको यह सूझी क्या थी?’’

    ‘‘भई, मैंने सिर्फ़ तुम्हारी सैर के लिए यह सिरदर्द मोल लिया था, वरना मुझे पागल कुत्ते ने नहीं काटा था।’’

    ‘‘सैर... जहन्नुम में गयी सैर!’’ हमीद ने ख़च्चर की लगाम पकड़ कर पैदल चलते हुए कहा।

    ‘‘अरे, यह क्या।’’ फ़रीदी बनावटी हैरानी ज़ाहिर करते हुए बोला। ‘‘तो क्या पैदल ही चलोगे।’’

    ‘‘जी हाँ...!’’ हमीद झटकेदार आवाज़ में बोला।

    ‘‘च्च च्च... धत्त तेरे की... अजीब बेवक़ूफ़ हो... देखो वह ऐंग्लो इण्डियन लड़की तुम्हें इस हालत में देख कर शायद अपने साथियों में तुम्हारा मज़ाक़ उड़ा रही है।’’

    हमीद ने मुड़ कर देखा तो वाक़ई कुछ ऐंग्लो इण्डियन मुसाफ़िर उसकी तरफ़ देख कर ताना देने के अन्दाज़ में मुस्कुरा रहे थे। उनमें इत्तफ़ाक़ से एक लड़की थी। हमीद पर बौखलाहट का दौरा पड़ा। उसने रस्सी की रक़ाब पर पैर रखा और उछल कर ख़च्चर पर बैठ गया और बैठा भी तो इस शान से जैसे नेपोलियन अपने बड़े-से घोड़े पर सवार आल्प्स के मुश्किलों से भरे रास्ते तय कर रहा हो।

    ‘‘शाबाश मेरे शेर...!’’ फ़रीदी मुस्कुरा कर बोला। ‘‘तुम्हें राह पर लाने के लिए हमेशा एक औरत की ज़रूरत पड़ती है।’’

    ‘‘जी हाँ, मेरी पैदाइश के सिलसिले में भी एक औरत की ज़रूरत पड़ी थी।’’ हमीद जल कर बोला।

    ‘‘अरे, तुम तो फ़िलॉसफ़ी झाड़ने लगे... भई, मैं दरअसल इसीलिए तुम्हारी क़द्र करता हूँ।’’

    ‘‘क़द्रदानी का शुक्रिया।’’ हमीद ने कहा। ‘‘इस वक़्त आप भी फ़िलॉसफ़र ही मालूम हो रहे हैं।’’

    ‘‘क्यों...?’’

    ‘‘ईं सआदत बज़ोर ख़च्चर नीस्त...!’’

    ‘‘शाबाश... मैंने सुना है कि हज़रत ईसा का गधा लातीनी बोलता था, मगर तुम ख़च्चर पर बैठ कर अच्छी-ख़ासी फ़ारसी बोल रहे हो।’’

    हमीद के ख़च्चर ने फिर ठोकर खायी और हमीद गिरते-गिरते बचा।

    पीछे से फिर ज़ोरदार हँसी की आवाज़ आयी और हमीद दाँत पीसता रहा। उसे सचमुच फ़रीदी पर ग़ुस्सा आ रहा था। अगर बस ही से सफ़र किया जाता तो कौन-सी मुसीबत आ जाती। कोई तुक है कि सामान और कर्मचारी बस पर जायें और ख़ुद ख़च्चरों पर। फ़रीदी की ऐसी ही अजीबो-ग़रीब हरकतों पर हमीद कभी-कभी इतना नाराज़ हो जाता था कि उसे फ़रीदी की सूरत से नफ़रत होने लगती थी। ऐसे मौक़े पर वह बिना यह सोचे-समझे कि फ़रीदी उसका अफ़सर है, जो कुछ मुँह में आता, कह डालता और फ़रीदी... वह उसकी चिड़चिड़ाहट से ख़ुश हुआ करता था। वह उस वक़्त भी हमीद की झल्लायी हुई हरकतों से ख़ुश हो रहा था।

    ‘‘मेरा ख़याल है कि अब तुम इस ख़च्चर को कन्धे पर उठा लो।’’ फ़रीदी फिर बोला।

    हमीद ने कोई जवाब न दिया। उसके चेहरे से ऐसा लग रहा था जैसे फ़रीदी के इस जुमले पर उसके ज़ेहन में कोई ऐसा जुमला गूँजा हो जिसे न कहना ही बेहतर था।

    ‘‘अमाँ, तो इस तरह ख़राब मुँह क्यों बना रहे हो?’’ फ़रीदी ने कहा।

    ‘‘तो मेरा मुँह अच्छा ही

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