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Imli Puran
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Ebook338 pages3 hours

Imli Puran

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About this ebook


A tamarind tree stands tall at the crossroads of a remote town in Southern Tamil Nadu as a mute spectator of changing times; of greed and goodness, of love and hatred. The tree provides shelter to one and all without discriminating, and witnesses the huge gaps that exist between communities and people. The tamarind tree is neither the protagonist nor the narrator. It is only a witness to social, political and economic changes that take place around it. Many stories unfold around it until it falls victim to man's greed one day and is reduced to a bare stump.
Languageहिन्दी
PublisherHarperHindi
Release dateNov 10, 2016
ISBN9789352641468
Imli Puran
Author

sundara ramaswamy

Sundara Ramaswamy (1931- 2005), fondly known as 'Su.Ra' in literary circles, was one of the leading exponents of Tamil Modern Literature. He wrote poetry under the pen name 'Pasuvayya'. His novels are Oru Puliya Marathin Kathai (Tamarind History), and Kuzhanthaigal, Pengal, Aangal (Children, Women, Men).

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    Imli Puran - sundara ramaswamy

    2

    आसान ही का था इन्तजार। अगले दिन, उसके अगले दिन, और फिर सारा हफ्ता हम सब जोसेफ की लाण्ड्री के बाहर दोपहर से लेकर शाम तक बैठे रहे। और बैठे ही रहे।

    भनक तक नहीं मिली, आसान की।

    जोसेफ ने ज्योतिषी के अन्दाज में कहा, आसान शान्तनपुदूर में अपनी रखेल के यहाँ हैं।

    यह सम्भव था। आसान अजीब आदमी ही थे। आने का, जाने का, पता उनकी परछाईं ही को था, बस। कुछ भी कहे-सुने बगैर अदृश्य हो जाना, और फिर कुछ भी कहे-सुने बगैर आ धमकना, और यूँ बात जारी रखना, मानो सिलसिला अटूट रहा हो, उनकी गुणविशेषता थी। आसान के निजी जीवने की कुछेक झलकियाँ हमें मिल ही जातीं। वह, लेकिन, किसी के मुँह से फिसली, झाड़ दी गयी सूचना भर थी, बस। हम भी उसे उसी तरह झाड़ देते। आसान की गपबाजी के हम आदी थे। लेकिन, आसान ने, निजी जीवन का एक पृष्ठ भी हमारे सामने नहीं खोला। उनका मन, जोसेफ बार-बार कहता था, न जाने किस तिजोरी का सब से रहस्यपूर्ण खाना था। चाभी हाथ कभी नहीं लगी।

    अब याद भी नहीं है, कि चेल्लत्ताई की सनसनीदार कहानी सुनाने के बाद ही गायब हो जाने वाले आसान लौटे कब। लेकिन यह याद है, कि असान जब लौटे, उनका रूप बदल गया था, ढल गया था। लग रहा था किसी जहरीली बुखार की, बीमारी की जकड़ में आ गये थे, आसान। हड्डी-पसली गिनी जा सकती थीं। हमने पूरी चालाकी से पता लगाने की कोशिश की, कि हुआ क्या। आदतन, आसान ने बहुत कुछ सुनाया, बस सवाल का जवाब नहीं दिया। हमारी पकड़ से कभी इधर, कभी उधर, फिसलते ही रहे।

    दिल को चीरने-फाड़ने वाला दुख झेलते हुए, मुखभाव बदले बगैर, दुख झेलने की शक्ति थी, आसान में। आत्मविश्वास भी था, आसान में। असीमित आत्मविश्वास। कहानी सुनाने की शक्ति आवाज में, सिर हिलाने वाले चारेक रसिक, और जाफना तम्बाकू, एक गोलक। बस! अब, जो भी मुसीबत आसान पर पड़ने वाली थी, दुम दबाकर भागती। हमारा पक्का विश्वास था, यह। कहानी सुनाकर काल की गति को रोकने की कला के पारखी थे, विद्वान् थे, आसान। कहानी सुनाते थोड़े ही थे, आसान। यह उनकी तपस्या थी।

    कितने कवि है, जिन्हें ख्याति नहीं प्राप्त हुई। ख्यातिप्राप्त कवियों के स्तर से यह जानकारी भी मिलती है, कि ख्याति प्रदान करने वालों का स्तर क्या है, और उनकी उदारता की सीमा क्या है। आसान की कहानियाँ सुनकर, इनका आनन्द उठाकर, इनके लिए उन्हें सम्मानित नहीं करना, सांस्कृतिक त्रासदी ही मानी जा सकती है।

    जोसेफ जहाँ इस्तरी करता था, वहीं हम, बगैर आसान को बताए, अपनी जेब खाली करते थे। टिफिन का डिब्बा कुट्टप्पन ले जाता था। चुरुट भी आना। काली मार्क....दो। आसान हुक्म देते।

    पेट भरकर, चुरुट सुलगाकर, दो सुट्टे लगाकर आसान तृप्त हुए। चेहरा खिला। वेष्टी से ढकी टाँगें ताल दे रही थीं। बछड़ा गाय के पास टेक लगाकर दूध पीते दुम हिला रहा है, यही आभास हुआ।

    तिपाई से उठकर पप्पू बेंच पर बैठे आसान के पास जाता है, और मुँह ताकने लगता है।

    क्या बात है, बेटा? आसान पप्पू के कंधे पर हाथ धर देते हैं।

    आसान! पप्पू शिकायत करता है, कहानी अधूरी रह गयी, और आप गायब हो गये।

    यह बताया ही नहीं, वह कौन था, और कहानी खत्म कर दी! कालियप्पन ने भी सुर में सुर मिलाया।

    इस्तरी हाथ में उठाए, जोसेफ ने कहा— कौन था वह, चोटी वाला, कान में चमकते पत्थर वाला?

    चेल्लत्ताई की कहानी की मोटी-मोटी बातें ही मैंने जोसेफ को बताई थीं।

    जोसेफ के मुख पर पूरा ध्यान था आसान का। जोसेफ के काले होंठों पर अजीब मुस्कुराहट थी। आसान ने अब दूसरों की ओर भी देखना शुरू किया। फिर आसान की आँखें पूरब की ओर छोटी-सी पहाड़ी से गिरते झरने पर टिकीं। पहाड़ी पर अंकित तिलक प्रतीत हो रहा था, झरना।

    जोसेफ ने हाथ उठाया, उँगलियाँ बाँधकर झुका लीं, अँगूठा हाथ पर फेर दिया। सब कुछ झूठ है, यही था इशारा।

    इशारा मिलने वाला ही था, कि आसान की आँखें जोसेफ पर टिकीं। क्यों, बे! पीठ के पीछे खोदता है, गड्ढा? छड़ी उठा ली, आसान ने। बे ! आदमी है, या बाप तेरा था आदमी, तब सामने आकर, डटकर लड़! जाँघ थपथपा, बे! आ तो सही, सामने!

    जोसेफ हँसते-हँसते जवाब देने को तैयार हुआ।

    आसान ने जोसेफ को बोलने का मौका ही नहीं दिया। ठहर, बे! कहते, छड़ी सीढ़ियों पर टेकते, दुकान के अन्दर घुसे। बहुत बक रहा है बे! बचाई थी, कि नहीं, मैंने उस दिन, पेड़ की जान? नहीं बचाता, जान, तो खड़ा रहता, पेड़? सवाल मेरा है, बे....जवाब तेरा! है, जवाब? आज, औरत जात, मर्द जात, बच्चे, बूढ़े, उठाते हैं, कि नहीं इमली की छाँव का आनन्द? क्यों? कैसे, बे? मेरी वजह से! इसी छाँव में दूकानें फल रही हैं, फूल रही हैं, बे! किसने बचाया था, इमली को? हाथ धर बे, दिल पर! और अब सच बता! आसान ने इस्तरी करने वाली मेज पर छड़ी जोर से पटक दी।

    वह बेशक ठीक है। अब जो कहा, न....वह बिल्कुल ठीक है।

    क्या ठीक है, बे?

    पेड़ गिर जाता...आप अगर नहीं करते...चालाकी।

    मानता है, बे?

    हाँ...मानता हूँ।

    अब मुँह बन्द कर ले, बे! आसान विजयगर्व सहित सीढ़याँ उतरे।

    मेरा मतलब कुछ और था.... जोसेफ ने फिर बात छेड़ी।

    मान गया था, कि नहीं, बे? मान गया था, बात। अब बस, बात वहीं बन्द कर! खिसकने की, फिसलने की, कोशिश करता है, बे!

    हम सब हो-हो करके हँसते हैं।

    आसान भयंकर शोर सहित अपनी हँसी भी मिलाते हैं।

    फिर सन्नाटा छाया।

    अब बताएँ, आसान! फिर क्या हुआ? पप्पू ने बात फिर शुरू की।

    साला! हमेशा जल्दबाजी! वही हड़बड़ाहट हमेशा। पान तो डाल लेने दे, मुँह में! आसान ने तंग आ जाने का नाटक किया।

    कमर से बँधा पान निकाला, आसान ने।

    हमने अपनी-अपनी जगह ढूँढ़ी, और बैठ गये।

    यही सोचते हो न, जो मन में आया, बक डालता हूँ? तुम्हारी कसम! मेरी अपनी आँखों की कसम! पेड़ उसी दिन, बस, समझो गिर चुका था। रोका मैंने....रस्स्साले को! पापी ले आया था, कुल्हाड़ी। जड़ पर कुल्हाड़ी की मार बरसने ही वाली थी। ठीक क्षण पर पहुँचा मैं। था कौन, पापी? वही। मड़यड़ि माड़न मन्दिर का पुजारी। कोप्लान। आँखें लाल। दोनों आँखें थीं, लाल। बकरे का जाँघ काट डालो। टपकते खून का वही रंग। हाथ उठा हुआ था पापी का। दाएँ हाथ में थी, कुल्हाड़ी। मैंने हाथ पकड़ लिया। मुझे देखते ही उसने कुल्हाड़ी रोक ली। लटकी रही कुल्हाड़ी....अधर में....मैंने हँसी रोक ली। अब आसान खी-खी, हू-हू करने लगे।

    हम एक-दूसरे को इशारा देने लगे।

    आँखें धँस गयी थीं, आसान की। पीठ, कंधे, झटके खा रहे थे। घुट-घुटकर निकल रही थी, हँसी।

    मोल ली थी, मुसीबत, और क्या! बात बन सकती थी, बिगड़ सकती थी। सिर कट सकता था, कटा सिर लटका दिया जा सकता था। जान फुस्स्स्स करके निकल ही जाती है, न! मैंने यही सोचा। निकल जाती है, न जान, जब मर्जी चलो, अब सही। मैंने यही सोचा। पटक दिया स्स्स्स्साले को! जान की कीमत? बाल बराबर, यही सोचा। न सोचता यह....तब, उस चाण्डाल ने जान ले ही लेनी थी, पेड़ की। बस....ले लेनी थी, जान।

    हम और नहीं सह सके।

    था कौन, वह? हमने सवाल किया।

    कह तो दिया। कोप्लान।

    पेड़ गिराने क्यों आया था? हमने सवाल किया।

    आप कैसे ठीक क्षण पर वहाँ पहुँचे? पप्पू ने सवाल किया।

    क्या बात है, आसान? आँख बाँध देते हैं, आप। गाँठ कस देते हैं, और बार-बार जंगल में धकेल देते हैं.... बात तिरुवाजी ने कही, लड़ियाते हुए।

    आँखें बाँधकर हमें नचाने का मजा लेते आसान अब हँसे। ठहाके मारे, आसान ने।

    कहा था न, चेल्लत्ताई ने फन्दा गले में डाल लिया था? कहानी नये सिरे से शुरू करने का था, अन्दाज।

    हाँ, हाँ.... हम सब चिल्लाए, पहली क्लास के बच्चों की तरह।

    दायाँ हाथ बेंच पर दबाया, आसान ने। सिर जरा-सा परे किया। सिर अब झुकाया। बाईं हथेली होंठों के पास ले आये। उँगलियों से होंठ दबाए। लम्बी धार छोड़ी पीक की, और गला साफ किया।

    चेल्लत्ताई के गले में फन्दा लगा लेने की खबर काफी देर बाद ही गाय-भैंस चराने वालों ने घर पहुँचाई। हाय, बेचारी स्वर्णम्! धाती भी ठीक से बाँधने की नहीं रही सुध। भागी....भागती गयी, तीन मील! कालियप्पन भी भागा, तीन मील। इन दोनों को बदहवास देखकर मैं भी साथ भागा। इधर-उधर पूछा भी, बात क्या है। और क्या था काम, मुझे? घुप्प अँधेरा। ज़रा सोचकर देखो। इमली ताल की ओर अकेला चिमगादड़ उड़ रहा था, बस। या फिर दुबककर चल रहा था, कोई गीदड़। पानी पीने आया होगा, पूरब की पहाड़ी से। कीड़े-मकोड़े भी रेंग रहे होंगे। आदमजात उस वक्त इमली के पेड़ की ओर जाये, तो बस, एक ही मतलब। जीने से उकता गया है। मैं कोई जीने से तंग आ गया था? बिल्कुल नहीं! बात और ही थी, उन दिनों। आसान...बस, यही कहना था। नाग भी फन छोड़ देता। उन दिनों बात ही और थी।

    हम एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।

    हम्म्म्म्म्म्.... आसान ने गला साफ किया।

    "कालियप्पन और स्वर्णम् जोर-जोर से रो रहे थे। इमली के नीचे खड़े थे, दोनों। मैं पास ही किसी पेड़ से सट गया। वह जो रोई है, उस दिन....हाय, हाय, हाय! एक-एक शब्द दिल को चीरने वाला, दिल को तोड़ने वाला, पिघलकर रस खींचने वाला। दोनों हाथ उठाकर, सिर पीट रहे थे। अब मैं भी....मानो या न मानो....मैं भी रोया। फूट-फूटकर रोया, मैं भी। फिर इमली ताल के तट पर पहुँचा। पेड़ को गौर से देखा। नजर उतारने के लिए मिस्त्री जो पुतला बनाता है, न....वैसा ही कुछ झूल रहा था। छाया सी थी, बस। मैं पसीने से तर। माचिस की तीली की रोशनी भी जान में जान ले आती। हालत यह थी। अचानक ही, पीछे हलचल हुई। भीड़ आगे बढ़ रही थी। कीजच्चेरी से उमड़ रही थी, भीड़। सारा गाँव उमड़कर बढ़ रहा था। एक ने सिर पर जीना धरा हुआ था। आगे और पीछे केले का पेड़ उठाए दो और भी थे। सब से आगे एक छोकरा था, लालटेन लिए। उठता-गिरता बढ़ रहा था। मुझे देखते ही, कौन है, बे...?’ सब पूछने लगे। मैं जहाँ खड़ा था, वहीं जमा रहा। फिर दो चक्कर लगाए वहीं, और हाथ यूँ घुमाए, जैसे कोई बच्ची कोलाट्टम नाच रही हो। फिर री री, रो रो चिल्लाता हुआ, साँप की तरह लहराता दौड़ा, दौड़ता गया। सब हँसते हुए भाग

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